Monday, 23 September 2024

क्या स्व-निर्भरता ही स्वतंत्रता है?




 क्या स्व-निर्भरता ही स्वतंत्रता है?






स्व-निर्भरता (self-reliance) और स्वतंत्रता (freedom) आपस में गहरे जुड़े हुए हैं, लेकिन ये एक नहीं हैं। स्व-निर्भरता का अर्थ है कि कोई व्यक्ति या समाज अपने संसाधनों, क्षमताओं और ज्ञान का उपयोग करके आत्मनिर्भर होता है, यानी उसे दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। यह आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्तर पर आत्मनिर्भरता हो सकती है। स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति या समाज को अपने विचारों, कार्यों और निर्णयों में बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होने का अधिकार और क्षमता। 

स्व-निर्भरता स्वतंत्रता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है, क्योंकि जब हम स्व-निर्भर होते हैं, तो हमारे ऊपर दूसरों का नियंत्रण कम होता है। लेकिन स्वतंत्रता सिर्फ स्व-निर्भरता तक सीमित नहीं है। यह अधिकारों, अवसरों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ भी जुड़ी होती है। इसलिए, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता की एक महत्वपूर्ण शर्त हो सकती है, लेकिन यह स्वतंत्रता का सम्पूर्ण अर्थ नहीं है। इसलिए, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पहलू है, लेकिन स्वतंत्रता की पूरी परिभाषा नहीं है।

स्व-निर्भरता और स्वतंत्रता दोनों महत्वपूर्ण मूल्य हैं, लेकिन वे एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। स्व-निर्भरता का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह का अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करने की क्षमता, बिना बाहरी सहायता के। यह आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को बढ़ाता है और लोगों को अपने जीवन का नियंत्रण देने में सहायक होता है।

स्वतंत्रता एक व्यापक अवधारणा है जो व्यक्ति या समूह को बाहरी नियंत्रण, बाधाओं या अन्याय से मुक्त होने का अधिकार देती है। स्वतंत्रता का अर्थ केवल स्व-निर्भरता नहीं है; इसमें सोचने, बोलने, और कार्य करने की स्वतंत्रता भी शामिल है, चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामूहिक।

हालांकि, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है। जब व्यक्ति या समाज स्व-निर्भर होता है, तो वह बाहरी दबावों या निर्भरताओं से अधिक स्वतंत्र होता है और अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम होता है। इस तरह, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता को मजबूत करती है, लेकिन स्वतंत्रता का पूर्ण रूप प्राप्त करने के लिए अन्य कारकों का भी योगदान आवश्यक है।

स्व-निर्भरता और स्वतंत्रता एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों पूरी तरह से समान नहीं हैं। स्व-निर्भरता का अर्थ है कि व्यक्ति या समाज अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं होता। यह आत्मविश्वास, आत्म-सम्मान, और आत्म-निर्णय की भावना को बढ़ावा देता है। 

स्वतंत्रता, दूसरी ओर, एक व्यक्ति या समाज की वह स्थिति है जिसमें वे बाहरी नियंत्रण या बाधाओं से मुक्त होते हैं। यह व्यक्तिगत और सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता को दर्शाता है।

स्व-निर्भरता स्वतंत्रता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, क्योंकि जब हम स्व-निर्भर होते हैं, तो हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता, और इससे हमारी स्वतंत्रता में वृद्धि होती है। लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ इससे भी व्यापक है; यह केवल आर्थिक या भौतिक स्व-निर्भरता से नहीं जुड़ी होती, बल्कि विचारों, निर्णयों, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी संबंधित होती है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि स्व-निर्भरता स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन स्वतंत्रता की संपूर्णता को समझने के लिए अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।

स्व-निर्भरता और स्वतंत्रता आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों एक ही चीज़ नहीं हैं। स्व-निर्भरता का अर्थ है कि व्यक्ति अपने आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खुद पर निर्भर हो, चाहे वह आर्थिक, शारीरिक, या मानसिक रूप से हो। जब व्यक्ति स्व-निर्भर होता है, तो वह दूसरों पर कम निर्भर होता है और अपने फैसले खुद ले सकता है।

स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की आज़ादी हो, और उस पर कोई बाहरी बंधन या नियंत्रण न हो। 

जब कोई व्यक्ति स्व-निर्भर होता है, तो वह अपनी स्वतंत्रता को बेहतर तरीके से समझ और अनुभव कर सकता है, क्योंकि वह दूसरों पर निर्भर नहीं होता। इस प्रकार, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता को मजबूत करती है, लेकिन यह स्वतंत्रता का एकमात्र पहलू नहीं है। स्वतंत्रता में अन्य कई तत्व भी शामिल होते हैं, जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक स्वतंत्रता। 

इसलिए, स्व-निर्भरता स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन स्व-निर्भरता ही पूरी स्वतंत्रता नहीं है।

हम सभी स्वतंत्रता और स्व-निर्भरता चाहते हैं, लेकिन क्या यह केवल अपना घर, अपना कमरा, अपने पैसे और अपने निर्णय लेने के बारे में है? हम सभी राजनीतिक, आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक स्वतंत्रता की तलाश करते हैं, लेकिन यह सब प्राप्त करने के बाद भी, क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? आइए, आज हम अपनी भावनात्मक स्वतंत्रता का अन्वेषण करें! स्वतंत्रता का अनुभव करने के लिए, एक अच्छा स्टार्टिंग पॉइंट है कि हम अपनी निर्भरताओं की पहचान करें। यदि किसी चीज़ के लिए हम कहते हैं कि मैं इसके बिना रह नहीं सकता, या किसी व्यक्ति के लिए हम कहते हैं कि इसके बिना मैं जी नहीं सकता, या किसी संस्कार के लिए हम कहते हैं कि यह मेरे नियंत्रण में नहीं है, तो हम भावनात्मक रूप से निर्भर हैं। हमारी निर्भरताओं की बुनियादी सूची में शामिल हैं; मोबाइल, इंटरनेट, टेलीविजन, कॉफी, शराब, धूम्रपान, कुछ प्रकार के भोजन, खरीदारी आदि।

थोड़ी और जांच करने पर, हमारी गहरी आसक्तियों और निर्भरताओं का पता चलेगा, जैसे कि लोग और परिस्थितियाँ मेरी इच्छानुसार होनी चाहिए. लोगों की स्वीकृति और सराहना, मेरी राय सही और आपकी गलत है…हम इस सूची को उन सभी चीजों के साथ पूरा कर सकते हैं जिनसे हमारा मन विचलित हो जाता है।

आइए, अपने आप से पूछें कि क्या हमें हमेशा दर्द या गुस्सा आता है? इसका उत्तर होगा, कि ये  निर्भर करता है उस व्यक्ति पर जिसने गलती की … निर्भर करता है उन्होंने मेरे साथ क्या किया … निर्भर करता है उन्होंने कैसे व्यवहार किया? हम मानते हैं कि हमारी भावनाएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि वे कौन हैं और उन्होंने क्या किया? लेकिन सच्चाई यह है कि, यह निर्भर करता है हमारी मानसिक स्थिति और हमारे उस रिएक्शन पर; जिसे हम उनके कौन होने या उन्होंने क्या किया, के बावजूद निर्मित करते हैं। हम अपने ही बिलिफ् सिस्टम के गुलाम हैं और अब यह समय है कि हम स्वयं को मुक्त करें और सोचने और जीने के एक नए तरीके के प्रति जागरूक हों। स्व-राज्य का अर्थ है अपने मन, बुद्धि, संस्कार और शारीरिक इंद्रियों का शासक या स्वामी होना। स्व-निर्भरता का अर्थ है किसी भी व्यवहार या परिस्थिति का जवाब देने के लिए केवल अपने आंतरिक गुणों और शक्तियों पर निर्भर रहना। स्व-निर्भरता का अर्थ है कि हमारे पास उन लोगों को आशीर्वाद देने की शक्ति है जिन्होंने हमें धोखा दिया; हम उन लोगों का केअर और शेअर कर सकते हैं जिन्होंने हमें अस्वीकार कर दिया; हम उन लोगों का सहयोग कर सकते हैं जो हमसे ईर्ष्या करते हैं; हम उन लोगों के साथ शांत और विनम्र रह सकते हैं। आइए, नए बिलिफ् सिस्टम क्रिएट करें – मेरा रिएक्शन लोगों और परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता। मेरे पास हर बार और हर एक के लिए सही भावना रखने और सही तरीके से व्यवहार करने का विकल्प और शक्ति है। मैं स्व-निर्भर हूँ इसीलिए मैं स्वतंत्र हूं।




Tuesday, 10 September 2024

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

 शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य



 

प्राचीन समय में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को उस समय के विद्वानों का काफी समर्थन प्राप्त रहा है। आधुनिक युग में भी शिक्षा मनोविज्ञान की प्रगति के कारण इस उद्देश्य पर विशेष बल दिया जाने लगा है। आधुनिक समय में इस उद्देश्य के प्रमुख समर्थकों के नाम हैं- रूसोफ्राबेल पेस्टालाजीनन् आदि नन् के अनुसारशिक्षा की ऐसी दशाएं उत्पन्न होनी चाहिए जिसमें वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके और व्यक्ति मानव जीवन का अपना मौलिक योगदान दे सके।  यूकेन  ने वैयक्तिकता का अर्थ आध्यात्मिक वैयक्तिकता से लगाया है। उनके मतानुसार आध्यात्मिक वैयक्तिकता एवं व्यक्तित्त्व जन्मजात नहीं होते, वरन् उन्हें प्राप्त किया जाता है। इस प्रकारवैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ- श्रेष्ठ व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास रॉस के अनुसार, “शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ जो हमारे स्वीकार करने के योग्य हैवह केवल यह है- महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास।

 शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के दो रूप हैं-आत्माभिव्यक्ति और आत्मानुभूति।

आत्माभिव्यक्ति के समर्थक विद्वान आत्म-प्रकाशन का बल देते हैं अर्थात् व्यक्ति को अपने कार्य या व्यवहार करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिएभले ही उससे दूसरों को हानि पहुँचे। लेकिन इस विचार को ठीक मान लेने का अर्थ होगा-व्यक्ति को आदिकाल में पहुँचा देना अथवा व्यक्ति को पशु के समान बना देना। आत्मानुभूतिआत्माभिव्यक्ति से भिन्न है। आत्माभिव्यक्ति मेंस्व से अभिप्राय होता है-जैसे मैं उसे जानता हूँ लेकिन आत्मानुभूति मेंस्वसे आशय होता है- जैसे मैं उसका होना चाहता हूँ। आत्माभिव्यक्ति मेंस्वव्यक्ति कामूर्त स्वहै जबकि आत्मानुभूति मेंस्वआदर्श स्व होता है जिसके विषय में हम कल्पना करते हैं। आत्माभिव्यक्ति में समाज के लाभ या हानि के विषय में कोई ध्यान नहीं दिया जाता जबकि एडम्स के शब्दों में – “आत्मानुभूति के आदर्श मेंस्वसमाज-विरोधी व्यवहार करके अपनी अनुभूति नहीं कर सकता है।

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का वैयक्तिक विकास होना चाहिए क्योंकि संसार में सभी श्रेष्ठ रचनाएं व्यक्ति के स्वतन्त्र प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हुई हैं, जनतन्त्रीय व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देती है। मनोविज्ञान के अनुसारव्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर ऐसी दिशाओं का निर्माण किया जाये जो उसके स्वतन्त्र विकास में सहायक हो। प्रत्येक समाज की संस्कृति और सभ्यता को व्यक्ति ही विकसित करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते हैंअतः शिक्षा में वैयक्तिक विकास का ही समर्थन किया जाना चाहिए।

व्यक्ति समाज की इकाई है। यदि व्यक्ति को अपने पूर्ण उत्कर्ष के लिए अवसर प्रदान किए गए तो इससे अन्तोगत्वा समाज की भी उन्नति होगी। इस दृष्टि से भी वैयक्तिक उद्देश्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। नन के शब्दों में- वैयक्तिकता जीवन का आदर्श है। शिक्षा की किसी भी योजना का महत्त्व उसकी उच्चतम वैयक्तिक श्रेष्ठता का विकास करने की सफलता से आँका जाना चाहिए।

 व्यक्तिगत उद्देश्य के विपक्ष में ये तर्क दिए जाते हैं कि इससे व्यक्तिवाद को बल मिलता है, यह समाजवादी विचारधारा के विपरीत है, यह उद्देश्य आत्म-प्रदर्शन की गलत धारणा पर आधारित है,इससे व्यक्ति में पाश्विक प्रवृत्तियों का विकास हो सकता है,इस उद्देश्य के अंतर्गत मनुष्य के सामाजिक स्वरूप की उपेक्षा की गई है, व्यक्ति को अत्यधिक स्वतंत्रता देने से अन्त में सामाजिक विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है, व्यक्ति की निरंकुश स्वतंत्रता का समर्थन करने के कारण इस उद्देश्य से व्यक्ति की तर्कशक्ति का भी  होने लगता है। वह भले-बुरे तथा उचित-अनुचित में कोई अंतर नहीं कर सकता। और यह उद्देश्य वास्तविक जीवन के लिए अव्यावहारिक है क्योंकि विद्यालयों में प्रत्येक छात्र के वैयक्तिक विकास के लिए विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम और विधियों की व्यवस्था नहीं की जा सकती।

वैयक्तिकता के उद्देश्य में जहाँ तक आत्माभिव्यक्ति के रूप का प्रश्न हैउसे तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जा सकतालेकिन उसके आत्मानुभूति के रूप को स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि उसमे व्यक्ति के सामाजिक विकास के पक्ष की उपेक्षा नहीं की गई है। लेकिन वैयक्तिक विकास का उद्देश्य पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

दूसरी ओर शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अनुसारसमाज या राज्य का स्थान व्यक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। बैगेल और डीवी ने सामाजिक उद्देश्य का तात्पर्य सामाजिक दक्षता से लगाया है। लेकिन अपने अतिवादी स्वरूप में यह उद्देश्य व्यक्ति को समाज की तुलना में निचली श्रेणी का मानता है तथा व्यक्ति के सारे अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों को राज्य के हाथों में सौंप देता है। इस अतिवादी स्वरूप के अंतर्गत समाज को साध्य और व्यक्ति को साधन माना जाता हैअर्थात् व्यक्ति का अपना अलग कोई अस्तित्त्व नहीं। लेकिन यदि हम इस उद्देश्य के अतिवादी रूप को ध्यान में रखें, तो सरल रूप में इस उद्देश्य का अर्थ होगा-व्यक्तियों में सहयोग सामाजिक भावना का विकास करना। इसी सामाजिक भावना के आधार पर रेमंट ने कहा था कि- समाजविहीन अकेला व्यक्ति कल्पना की खोज है।

व्यक्ति को अपने जीवन-यापन की दृष्टि से समाज अनिवार्य है। समाज से अलग उसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए समाज का हित ही व्यक्ति को सर्वोपरि रखना चाहिए। समाज ही सभ्यता संस्कृति को जन्म देता है जिनसे व्यक्ति संस्कारित होता है। वंशानुक्रम से व्यक्ति केवल पारिवारिक प्रवृत्तियाँ ही प्राप्त करता हैलेकिन सामाजिक वातावरण उसे वास्तविक मानव बनाता है। सामाजिक वातावरण के अंतर्गत ही नागरिकता के गुणों का विकास किया जा सकता है। समाज में ही व्यक्ति की विभिन्न शक्तियों का विकास होता है। सामाजिक जीवन ही व्यक्ति को नये आविष्कारों के लिए अवसर प्रदान करता है।

सामाजिक उद्देश्यों के विपक्ष में तर्क में कहा जाता है कि इतिहास गवाह है कि सर्वाधिकारी राज्य युद्ध की विभीषिकाओं को जन्म देते हैं। इस उद्देश्य से व्यक्ति का मानसिक सौन्दर्यात्मकचारित्रिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता, इस उद्देश्य पर आधारित शिक्षा संकुचित राष्ट्रीयता का विकास करती है, इस उद्देश्य के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है, इस उद्देश्य के अनुसारसमाज को मनुष्य से श्रेष्ठ समझा जाता है जो एक गलत धारणा है।

राज्य या समाज के आदर्शों के प्रचार के लिए शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग किया जाता है। यह उद्देश्य अमनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें बालक की व्यक्तिगत रुचियोंप्रवृत्तियों और योग्यताओं का विकास नहीं हो सकता है। इस उद्देश्य में वैयक्तिक स्वतंत्रता का अभाव हैइसलिए कला और साहित्य में विकास नहीं हो सकता है।

तो क्या वैयक्तिक सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय संभव है? क्यों नहीं! व्यक्ति और समाज का आपस में घनिष्ठ संबंध है। एक के बिना हम दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति का वैयक्तिक विकास भी आवश्यक है और सामाजिक विकास भी। अतः शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं वरन् एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही उद्देश्यों में समन्वय की आवश्यकता है। रॉस का कथन है कि वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता हैजहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण होता है।

इस प्रकार से स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिए समाज और समाज के लिए व्यक्ति आवश्यक है। व्यक्ति से समाज का निर्माण होता है और समाज व्यक्ति का निर्माण करता है। हमें समाज के स्वरूप के दर्शन व्यक्तियों के रूप में होते हैं और सामाजिक विरासत के कारण ही व्यक्ति का विकास सम्भव हो पाता है।

इन दोनों उद्देश्यों के समन्वय के आधार पर ही शिक्षा का स्वरूप निर्मित किया जाना चाहिए अर्थात् ऐसी व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो जिसमें तो समाज व्यक्ति को अपना दास बना सके और व्यक्ति ही सामाजिक नियमों की अवहेलना कर सके।

 

 

 

डॉ मीता गुप्ता

 

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...