एक शिक्षक की भूमिका: कल, आज और कल
स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के अवसर पर सभी गुरुओं को शत-शत नमन!
भारत में शिक्षक दिवस का विशेष महत्व है क्योंकि भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा
है। यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वरतुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो, तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखाएगा? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही
जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं। यथा-
‘गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय।’
जीवन-विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका
मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए, उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है क्योंकि
गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन। इन्हीं की प्रेरणा से आत्मा
चैतन्यमय बनती है। गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे
हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका
जीवन शिष्य के लिए आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी
आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- ‘गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में
दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के
बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।‘
शिक्षक दिवस आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार है। यह त्योहार
गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है। काव्यात्मक भाषा में कहा
गया है- शिक्षक दिवस है चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की
तरह जीए गए अनुभवों का अक्षय कोष होता है। इसीलिए इस दिन गुरु की पूजा की जाती है
इसलिए इसे ‘गुरु पूजा दिवस’ भी कहा जाता है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों से
शुल्क नहीं वसूला जाता था,
अतः वे साल में एक दिन गुरु की पूजा
करके अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश
के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। ‘आचार्य
देवोभवः’ का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का
अनुपम आदेश है। गुरु एक तरह का बांध है, जो
परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन
गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी
आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र
आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और
उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च
विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के
लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था।
प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह
का ज्ञान देते थे परंतु आज समय बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक
शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा
जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में
गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी
अमृत का सींचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु
बनाएं। योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया है क्योंकि
महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था।
माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण है लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत
करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है।
पहले गुरु उसे कहते थे, जो
विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध
कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य-ये
दो पद अलग-अलग हो गए। सिर्फ धन कमाने या रोजी-रोटी चला लेने से मनुष्य जीवन में
सुखी नहीं रह सकता। यह सुखी रहने का बाहरी भौतिक उपाय है। अपनी आत्मा को जानना और
भगवान को पाना ही सच्चा सुख है। यद्यपि गुरुओं के महागुरु भगवान स्वयं प्रत्येक
व्यक्ति के हृदय-गुहा में विराजमान हैं तथापि बिना किसी बाहर के योग्य गुरु की मदद
के हम अपने सामर्थ्य को नहीं जान सकते। गुरु ही अन्तरात्मा के बंद द्वार खोलता है
और हमें भगवान से साक्षात्कार कराता है। गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान आंतरिक ज्ञान
होता है। वह भीतर के अंधकार को दूर कर उसे प्रकाशित करता है।
परंतु वर्तमान युग है आधुनिकता का, भौतिकता का,
व्यस्तता का, अस्थिरता का, जल्दबाज़ी का। आज का विद्यार्थी-जीवन भी इन्हीं समस्याओं से ग्रसित
है। आज का विद्यार्थी पहले की तरह सहज, शांत
और धैर्यवान नहीं रह गया है क्योंकि आगे बढ़ना और तेज़ी से बढ़ना उसकी नियति या
मजबूरी बन गई है। आज यही तो वक्त का तकाज़ा है। ऐसे समय में विद्यार्थी को एक सही, उचित, कल्याणकारी
एवं दूरदर्शी दिशानिर्देश देना एक शिक्षक का पावन कर्तव्य है।
“राष्ट्र निर्माता है वह जो, सबसे बड़ा इंसान है, किसमें कितना ज्ञान है, बस इसको ही पहचान है”।
एक राष्ट्र को बनाने में एक शिक्षक का जितना सहयोग है, योगदान है, उतना
शायद किसी और का हो ही नहीं सकता क्योंकि वे एक राष्ट्र को उन्नति के चरम शिखर पर
ले जाते हैं उसके राजनेता,
डॉक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति, लेखक, अभिनेता, खिलाड़ी आदि और परोक्ष रूप से इन सबको बनाने
वाला कौन है ? एक शिक्षक। आचार्य चाणक्य के अनुसार-
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
अर्थात धर्म को जाननेवाले, धर्म
के अनुसार आचरण करनेवाले,
धर्मपरायण और सब शास्त्रों में से
तत्त्व/सार को ग्रहण करने वाले गुरु कहे जाते हैं।वर्तमान समय में भी यह सर्वथा
सत्य है क्योंकि आज विद्यार्थियों के संदर्भ में एक शिक्षक की भूमिका और अधिक
महत्वपूर्ण होती जा रही है क्योंकि आज विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण, सदुपयोगी शिक्षण और सटीक कल्याणकारी, दूरगामी मार्गदर्शन प्रदान करते हुए उन्हें
भावी देश के कर्णधार, ज़िम्मेदार देशभक्त नागरिकों में परिणित
करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। एक शिक्षक न केवल बच्चों का बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक
,शारीरिक विकास करता है, अपितु सामाजिक, चारित्रिक, एवं सांवेगिक विकास करना भी आज उसका
कर्तव्य है। आज उसे अपने आदर्शों के द्वारा, अपने
चरित्र के द्वारा बच्चों के मानस पटल पर अपनी ऐसी छाप छोड़नी पड़ेगी कि जिससे
भविष्य में यह बच्चे जब —
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥
….का उच्चारण करें तो बंद आंखों के सामने हमारा चेहरा यानी एक शिक्षक
का चेहरा उन्हें दिखाई दे। यह एक चुनौती भरा कार्य है। परंतु सच्चा शिक्षक वही है, जिसे उसके विद्यार्थी जीवन-भर अपना गुरु मानते
रहें, न कि केवल विद्यालय प्रांगण के अंदर तक
। ऐसा करने के लिए सबसे पहले एक शिक्षक को स्वयं को अनुशासित करते हुए अपने
चारित्रिक, नैतिक ,धार्मिक आदि गुणों का विकास करना होगा। क्योंकि इन सब के बिना हमारी
आंतरिक भावनाओं का उदय नहीं हो सकता।
एक सुयोग्य शिक्षक अधिक से अधिक बच्चों के साथ इंटरेक्शन (Interaction) यानी वार्तालाप करता है, ताकि उनके हृदय के द्वंद्व को समझकर उसका निदान
खोज सके। वह अपने अनुभव, अपनी शिक्षा, अपने प्रेम, समर्पण, अपनी सृजनशक्ति, अपने त्याग,
अपने धैर्य आदि का पूर्ण प्रदर्शन करते
हुए बच्चों के भी अनुभव, उनके मूल विचार, उनकी भावनाओं आदि को जानने का प्रयास करता है
और यथासंभव उन्हें अभिप्रेरित करने का प्रयास करता रहता है।
आदर्श शिक्षक का कार्य एक गुरुतर कार्य है। एक बात और कि जिस प्रकार
शिक्षा एक अंतहीन प्रक्रिया है,उसी
प्रकार शिक्षण भी अंतहीन प्रक्रिया है क्योंकि हर इंसान जैसे पूरी ज़िंदगी सीखता
रहता है, सिखाता रहता है, उसी प्रकार एक शिक्षक का कार्य भी शिक्षा देना
है, जो वह निरंतर देता रहता है इसलिए उसे
किसी विशेष प्रांगण, किसी विषय, किसी विशेष समय अंतराल, किसी विशेष सहायक सामग्री की आवश्यकता नहीं
होती। शिक्षक का संपूर्ण जीवन, उसका
संपूर्ण व्यक्तित्व ही अनुकरणीय होता है। एक शिक्षक बिना किसी मांग के, बिना कहे अपना सर्वस्व ज्ञान अनुभव में डुबोकर
प्रदान करने के लिए सदैव समाज के सामने तत्पर रहता है। वास्तव में एक शिक्षक की
वर्तमान संदर्भ में भूमिका यह है कि वह ऐसी शिक्षा को निरंतर प्रदान करते रहने का
प्रयत्न करे, जो एक विद्यार्थी के लिए उचित हो, कल्याणकारी हो, दूरगामी हो,
प्रायोगिक हो, धनोपार्जन में सहायक हो, ।
निष्कर्षतः विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए एक सजग, उदात्त चरित्र, नैतिकता से परिपूर्ण, ऊर्ध्वमुखी, नवाचारी, अंवेषी
शिक्षक की आवश्यकता है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी को हम ऐसे भारतीय नागरिक बनाने
में सफल हो सकें, जो विश्व में भारत का नाम रोशन कर सकें
और पुनः भारत को ‘जगतगुरु’ की उपाधि प्राप्त करवा सके। हम सब की भी यही अभिलाषा
है। एक शिक्षक के मनोभावों को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
कैसे कह दूँ कि थक गया हूँ मैं,
न जाने किस-किस का हौसला हूँ मैं ।
डॉ मीता गुप्ता
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