अंधी श्रद्धा की अंधी दौड़
हाथरस की मर्मांतक घटना
ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है। अंधी श्रद्धा की इस अंधी दौड़ का क्या
कभी अंत होगा? क्या कभी किस्म-किस्म के बाबा राष्ट्र के
मुख पर कालिख पोतना और अपढ़ जनता को मूर्ख बनाना बंद करेंगे? 21वीं सदी के लगभग मध्य में पहुंच कर भी हमारे मानव
संसाधनों का यह हश्र होगा, यह शोचनीय-विचारणीय
प्रश्न है। इतने जागरूकता अभियानों
के बावजूद आज भी आपको गांव-कस्बों में भूत-प्रेत के किस्से सुनने को मिल जाएंगे।
वहीं धनाढ्य वर्ग के अंधविश्वास अलग ही हैं। इस वर्ग में भयंकर असुरक्षा की भावना
है। इस वर्ग के लोग यूं तो अत्याधुनिक होने का दावा करते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे अत्याधुनिक
सुख-सुविधाओं से लैस आश्रमों वाले गुरुओं के यहां काले धन को सफ़ेद करने अपने लकी
चार्म केपास पहुंच जाते हैं। आखिर हमारे समाज में इस प्रकार की अतार्किक विचारधारा
वाले इतने अधिक लोग कहां से आ गए? या ये हमेशा से थे, हाथरस जैसी घटनाओं से ये हाईलाइट हो जाते हैं।
पिछले कुछ समय से अपनी अनुयायी स्त्रियों के शारीरिक शोषण, हत्या-अपहरण से लेकर अन्य
जघन्य अपराध करने वाले बाबाओं का प्रभाव इस कदर बढ़ता दीख रहा है कि आज मिट्टी की
बनी भोली जनता को तो छोड़िए, पढ़ा-लिखा वर्ग भी इनसे घबराने लगा है। आखिर इन बाबाओं के मायाजाल
का समाजशास्त्र क्या है? इसी तरह प्रश्न
यह भी है कि इनके पीछे जनता के भागने का मनोविज्ञान आखिर है क्या? जवाब है, वह परवरिश और माहौल, जो हम अपने
बच्चों को देते हैं। शिक्षा व्यवस्था के तहत बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने
के उतने प्रयास नहीं हो रहे, जितने होने चाहिए।
संयुक्त परिवारों का टूटना और नई जीवन शैली का एकाकीपन, यांत्रिकता, तनाव आदि से एक ऐसी
स्थिति पैदा हो गई है, जहां हर शख्स परेशान और
बेचैन-सा दिखता है। इन्हीं सामाजिक-मनोवैज्ञनिक स्थितियों के बीच लोग जाने-अनजाने
ऐसे बाबाओं की ओर उन्मुख होने लगते हैं जो लोगों को हर दु:ख-तनाव से छुटकारा
दिलाने का दावा करते हैं।
छोटे शहरों में आज भी
पाखंडी बाबाओं और फ़कीरों का भी जाल फैला हुआ है, जिनकी नेमप्लेट
अकसर इनके मल्टीटैलेंटेड होने का आभास कराती है।
ये अकसर ट्रैवल एजेंट ,फाइनेंशियल एडवाइज़र, रिलेशनशिप
एक्सपर्ट, लाइफ़ कोच और मेडिकल एक्सपर्ट आदि के होलसम पैकेज के
रूप में प्रस्तुत करते हैं। कई लोग इनके झांसे में आ भी जाते हैं और इनका बैंक
बैलेंस बढाते हैं। इन बाबाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित कार्य किए
जाने लगे हैं, फ़लां बाबा इतने स्कूल चलाते हैं, फ़लां बाबा इतने
अस्पताल.... यह प्रसिद्धि लोगों को भ्रमित करती है। इसके साथ ही भंडारा-लंगर
से लेकर अन्य सामाजिक कामों में हिस्सेदारी के प्रचार से लोग इनकी असलियत तक नहीं
पहुंच पाते। ऐसे कामों से उनकी
लोकप्रियता बढ़ती है। उनके कल्याणकारी (?) कामों के
तिलिस्म में न केवल गरीब-अभावग्रस्त और कम पढ़ी-लिखी जनता फंस जाती है, बल्कि उनका जादू
अपेक्षाकृत संपन्न और शिक्षित लोगों पर भी चलने लगता है, जो जीवन की विविध
जटिलताओं, सामाजिक-मानसिक
समस्याओं में उलझे हुए होते हैं। इस तरह ये अपने अनुयायी (सब्सक्राइबर्स) बढ़ाकर
सामाजिक वैधता हासिल करते हैं और फिर उसके बल पर राजनीतिक संरक्षण हासिल करने में
समर्थ हो जाते हैं। चूंकि बाबाओं के पास अनुयायियों की अच्छी-खासी संख्या होती है
इसलिए राजनीतिक दलों के लिए वे वोट बैंक का भी का करते हैं।
किसी बात पर आंख मूंदकर
विश्वास करने की प्रवृत्ति आज की स्मार्टफोन जेनरेशन से किसी भी तरह का तर्कहीन
काम करवा सकती है। इस वर्ग के लोग आंखें मूंदकर दूसरों का अनुसरण करते हैं। उनका
विवेक संज्ञा-शून्य हो चुका है। कुछ लोग सिर्फ़ इसलिए तर्क नहीं करते, क्योंकि यह सालों से होता
आ रहा है, या इसे बहुत सारे
लोग कर रहे हैं, और कभी नहीं
सोचते कि इसका औचित्य आखिर है क्या ? दूसरे शब्दों
में कहें, तो ऐसे लोग
सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और भावनात्मक
अंधविश्वासों में जकड़े हैं। इन लोगों का आइक्यू (बौद्धिक माप) बेहद कम होता है और
इन्हें बेहद आसानी से बरगलाया जा सकता है। ये रैशनली नहीं सोचते, पर इमोशनली बेहद चार्ज्ड होते
हैं। इनके दिल में आसानी से किसी चीज़ के लिए लगाव या नफ़रत पैदा की जा सकती है और
ऐसा होने पर ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। आंख मूंद कर किया गया विश्वास न सिर्फ
इनके लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी घातक साबित होता है।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे मन में बहुत गुमाना।
पीपर-पाथर पूजन लागे तीरथ-बर्न भुलाना।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना।
साखी सब्दै गावत भूले आतम ख़बर न जाना।
घर घर मंत्र जो देत फिरत हैं माया के अभिमाना।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूड़े अंतकाल पछिताना।
अंत में यही कहना चाहूंगी
कि इनसे बचने-निपटने के बारे में संत कवि कबीर की वाणी को यदि समझा जाए, बूझा जाए और आत्मसात किया जाए, तो हम इन पाखंडी बाबाओं से बच सकते हैं, वरना ये तो सपासप..सपासप हमें डंसने को तैयार ही बैठे हैं।
यह समझना होगा कि ये बाबा ईश्वर तक पहुंचने के लिए सोने की सीढ़ी बना रहे हैं, अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और अंततः हमें उसी ईश्वर से
दूर...दूर...और दूर करते जा रहे हैं। ज़रूरत जन-जागृति कार्यक्रमों की है, और उससे भी बढ़कर ऐसी शिक्षा की है, जो वैज्ञानिक और प्रगतिशील सोच को बढ़ावा दे।
डॉ मीता गुप्ता