कभी गेरू से
भीत पर लिख देती हो,
शुभ लाभ
सुहाग पूड़ा
बाँसबीट
हारिल सुग्गा
डोली कहार
कनिया वर
पान सुपारी
मछली पानी
साज सिंघोरा
होई माता
और न जाने क्या-क्या?
अँचरा में काढ़ लेती है
फुलवारी
राम सिया
सखी सलेहर
तोता मैना
मछली-मोर
सखियाँ
राधा-कृष्ण
और न जाने क्या-क्या?
तकिए पर
जय सिया-राम
नमस्ते
चादर पर
पिया मिलन
चातक का जोड़ा
और न जाने क्या-क्या?
परदे पर
खेत पथार
बाग बगइचा
चिरई चुनमुन
कुटिया पिसीआ
झुम्मर सोहर
बोनी कटनी
दऊनि ओसऊनि
हाथी घोड़ा
ऊँट बहेड़ा
और न जाने क्या-क्या?
गोबर से लीपती हो
गौर गणेश
चान सुरुज
नाग नागिन
ओखरी मूसर
जांता चूल्हा
हर हरवाहा
पोखर-बावड़ी
और न जाने क्या-क्या?
जब तुम लिखती हो
गेरू या गोबर से
या
काढ़ रही होती है
बेलबूटे
या
लीप रही होती है
देहरी-अंगना
तो तुम
सँजोती हो प्रेम
सँजोती हो सपना
सँजोती हो गृहस्थी
सँजोती हो वन
सँजोती हो प्रकृति
सँजोती हो पृथ्वी
सँजोती हो नवांकुर
सँजोती हो जीवन
सँजोती हो परिवार
और सँजोती हो पीढ़ियाँ
और न जाने क्या-क्या?
क्योंकि संवाहक हो तुम
रंगों की
उमंगों की
सपनों की
विश्वासों की
उम्मीदों की
और न जाने क्या-क्या?
हे स्त्री!
तुम यूँ ही लिखती रहना,
तुम यूँ ही काढ़ती रहना
तुम यूँ ही लीपती रहना
क्योंकि इससे ही तो
तुम सदियों से
सँजोती आई हो
सभ्यता
संस्कृति
मानवता
पावनता
और न जाने क्या-क्या?
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