Wednesday, 9 July 2025

विषय-सूची

1.  1.  EPISODE-0-INTRODUCTION- यूँ ही कोई मिल गया सीज़न-2 प्रस्तावना 01/01/26

2.  EPISODE-1 ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी 15/01/26

3.  EPISODE-2 कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.... 01/02/26

4.  EPISODE-3 प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो 15/02/26

5.  EPISODE-4 दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस 01/03/26

6.  EPISODE-5 गंगा तेरा पानी अमृत, झर-झर बहता जाए!15/03/26प्रस्तावना 01/01/26

2.  गंगा तेरा पानी अमृत, झर-झर बहता जाए!15/01/26

3.  प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो 01/01/26

4.  रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई15/02/26

5.  भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी 01/03/26

6.  इक मीरा , एक राधा15/03/26

7.  दिल चाहता है..01/04/26

8.  मत कर  अभिमान रे बंदे!15/04/26

9.  क्या कभी स्वयं से प्रेम किया?01/05/26

10.         कोई ये कैसे बताए के, वो तन्हा क्यूँ है?15/05/26

11.         रहें न रहें हम  01/06/26

12.         किसी की  मुस्कराहटों पे हो निसार 15/06/26

13.         जा, जी ले अपनी ज़िंदगी01/07/26

14.         कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....15/07/26

15.         लव.. यू ज़िंदगी!01/08/26

16.         लब हिलें तो, मोगरे के फूल खिलते हैं कहीं....15/08/26

17.         आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है?01/09/26

18.         तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई… 15/09/26 

19.         पल पल दिल के पास...01/10/26

20.         अहा ज़िंदगी!!15/10/26

21.         बहती हवा-सा था वो...01/11/26

22.         ये इश्क वाला लव क्या है...15/11/26

23.         टूटे पै फिर न जुरै, जुरै गांठ परि जाए01/12/26

24.         दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस15/12/26

25.         हज़ारों मील लंबे रास्ते तुझको बुलाते01/01/27

26.         मैं नदिया, फिर भी मैं प्यासी15/01/27

27.         आप मुझे अच्छे लगने लगे 01/02/2027

 

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EPISODE-0

INTRODUCTION-

यूँ ही कोई मिल गया सीज़न-2 प्रस्तावना 01/01/26

एक विहंगम दृष्टि

INTRO MUSIC

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ता, एक आवाज़, एक दोस्त, किस्से- कहानियां सुनाने वाली आपकी मीत| सबसे पहले आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ | नए साल में मैं लेकर आ रही हूँ, अपने पॉडकास्ट यूँ ही कोई मिल गया’ का दूसरा सीज़न... जिसमें होंगे नए जज़्बात, नए किस्से, और वही पुरानी यादें...उसी मखमली आवाज़ के साथ...| 

दोस्तों! माँ  भगवती के आशीर्वाद स्वरुप अपनी वाचिक प्रस्तुति, अपने पॉडकास्ट 'यूँ ही कोई मिल गया' के दूसरे सीज़न  को लेकर आप सभी के सामने उपस्थित हूँ| हर ज़िंदगी की कोई न कोई कहानी ज़रूर होती है, है न.. हमारे ज़हन में छिपी रहती है हमारी ज़िंदगी, और छिपी रहती हैं हमारी यादें, मैं ले चलूँगी आपको एक ऐसी दुनिया में, जहां हर किसी की कहानी है, मेरे और आपके जज़बातों की, और वह भी हिंदी में, हिंदी, जो हमारी अपनी भाषा है, हमारे सपनों की भाषा, हमारे अपनों की भाषा...सच कहूँ तो कुछ कहानियां जीवन के साथ-साथ चलती हैं, तो कुछ यूँ ही मिल जाती हैं| समय-सरिता के अजस्र प्रवाह में बहता जीवन अनुभवों और अनुभूतियों की पोटली होता है| इन्हीं अनुभवों और अनुभूतियों में से कुछ कहानियां, मैं अपने पॉडकास्ट 'यूँ ही कोई मिल गया' के दूसरे सीज़न  में समेटने का प्रयास कर रही हूँ | आपके प्यार और आदर ने मुझे पॉडकास्ट का दूसरा सीज़न  बनाने की ताकत दी, हिम्मत दी, जज़्बा दिया| दरअसल मैं ऐसा मानती हूँ  कि प्रेम ही हमें ताकत देता है, हिम्मत देता है, जज़्बा देता है| और यह प्रेम हमारे खून में, हमारे लहू में रचा-बसा होता है, यह हमारे लहू के साथ-साथ हमारी रगों में बहता है और लहू का लाल रंग दरअसल प्रेम का ही लाल रंग है| मेरे शब्दों के स्पर्श को, उसकी ऊष्मा को पाकर प्रेम का रंग कैसा हो जाता है, यह जानना हो, तो पॉडकास्ट के इस सुहाने सफर पर आपको मेरे कदमों से कदम मिलाकर चलना होगा|

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प्रकृति से मेरा अटूट रिश्ता रहा है| बचपन से ही असम की हसीन वादियों और ब्रह्मपुत्र के अथाह जल से मैंने प्रेरणा ली है, युवावस्था में नैनीताल की हवाओं की नमी और सर्पाकार सड़कों को महसूस किया है| इसलिए मेरी कहानियों में आपको पेड़-पौधे, झील-झरने, बर्फ-बारिश, समुद्र-नदियां, बेल-वल्लरियाँ, पत्थर-पहाड़ इत्यादि प्रकृति के रूपों में संवेदना मिलेगी और उसी संवेदना को मैं मानव-समाज और मानव-जीवन के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करूंगी|

दोस्तों! पॉडकास्ट है, तो आप ही से बातें कर रही हूँ | बीच-बीच में आपसे कुछ प्रश्न भी करूंगी| ये प्रश्न न केवल आपको सोचने का अवसर देंगे, बल्कि मेरे द्वारा कही गई मूल बात को नए आयामों से जोड़ने का भी काम करेंगे| मानव- मन से जुड़े सभी आयामों पर आपसे बातें भी करूंगी, लेकिन मेरे पॉडकास्ट का एक बड़ा हिस्सा नारी-जीवन की संवेदनाओं और वेदनाओं को विशेष रूप से उजागर करेगा| हमारे समाज में नारी की दशा, उसके सपनों, प्रार्थनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं और इच्छाओं को उभारने जा रही हूँ |

पहले सीज़न की भांति ही मैंने सभी एपिसोडस के शीर्षक रोचक रखने का प्रयास किया है और अधिकतर शीर्षक किसी न किसी गीत या ग़ज़ल के मुखड़े हैं| आप उन गीतों या गज़लों को गुनगुनाते-गुनगुनाते भी पॉडकास्ट को सुन सकते हैं| जब मैं छोटी थी, तो हिरोशिमा-नागासाकी पर बम गिराए जाने के बारे में पढ़ती थी, सुनती थी, तब भी यह थोड़ा-थोड़ा समझ आता था कि इन ज़हरीले रसायनों की वजह से वहां धरती बंजर हो गई है और अब वह हरी नहीं होती| तब से धरती के उस बंजर टुकड़े के लिए मेरा मन करुणा से भर-भर जाता था| फिर ज़िंदगी ने समझाया कि बंजर सिर्फ़ धरती के टुकड़े ही नहीं होते, मन की धरती के हिस्से भी बंजर हो जाते हैं| फिर मैं सोचने लगती कि क्या कोई ऐसा रसायन भी है, जो इसे उर्वर कर देअपने आप से पूछा था यह सवाल, तो जवाब हृदय की अतल गहराइयों से आया कि हां, एक रसायन है, जो मन को मरने से बचा सकता है, और वह है-प्रेम रसायन| और इसी की बात करने जा रही हूँ, अपने पॉडकास्ट में....|

MUSIC

मैंने अपने पॉडकास्ट की भाषा को सरल और सहज रखा हैमैंने भाषा के साथ कोई प्रयोग नहीं किया, कोई सजावट नहीं की, कोई कृत्रिम श्रृंगार नहीं किया| मैं भाषा को लेकर अत्यधिक सजग और सचेत भी नहीं रही, लेकिन यह प्रयास ज़रूर किया कि भाषा सही भावों से संप्रेषित हो, भाषा सहूलियत से बरती जाए, चाहे साहित्यिक हो या सरल, पर तरलता से भरपूर हो, बहती-सी रहे| हर एपीसोड में यही प्रयास किया कि मेरे शब्द आपके मन को छू लें, आपको संवेदना से भर दें, नम कर दें, और उर्वर भी कर दें|

कभी-कभी मैं ऐसा भी सोचती हूँ  दोस्तों! कि प्रेम तो हम सभी के भीतर बहता है, फिर भी न जाने क्यों, हम इससे अंजान बने रहते हैं? चाहे जड़ हो, चेतन हो, रेत हो, बूंद हो, किनारें हों, लहरें हों, बारिश हो या मिट्टी हो, सभी तो प्रेम को अपनी-अपनी तरह अभिव्यक्त करते हैं| वृक्ष पर लिपटी लता, साहिल से सटकर बहता दरिया, मिट्टी की सोंधी खुशबू और पत्तों पर जमी शबनम की बूंदें, ये सब भी तो प्रेम के ही प्रतीक हैं| सदियों से केवल प्रेम ने इस दुनिया को थाम रखा है, यह शाश्वत है, यह कभी नष्ट नहीं होता| यही तो है, जो आसमान को झुकाता है, पृथ्वी को महकाता है, कहीं पहाड़, तो कहीं वृक्ष बन जाता है, कहीं बूंद बनकर बहता है, कहीं रेत बनकर सिमटता है, कहीं गीत बनकर बज उठता हैकहीं गीत, कहीं प्रीत, कहीं हार और कहीं जीत बनकर ढलता रहा है, ढलता रहेगा| कृष्ण की बाँसुरी ने किसी को आवाज़ देकर नहीं पुकारा, लेकिन यकीनन उस बांसुरी में प्रेम ही सूर्य बनकर उदित हुआ होगा| राम के पवित्र पैरों से कोई पत्थर क्या यूँ ही स्त्री बन गया होगा? शिव की जटाओं में गंगा किस वजह से थमी होगी? जी हां! प्रेम दिखता नहीं है, यकीनन महसूस होता है, यह नसों में बहता है लहू बनकर, आसमानों से बरसता है बूंद बनकर, आँखों  से टपकता है अश्रु बनकर, गालों पर चिपके, तो खारा लगता है, होठों पर सजे, तो मीठा-सा, इस प्रेम को महसूस किया जाए, यही प्रयास है मेरा, यही प्रयास है मेरे पॉडकास्ट 'यूँ ही कोई मिल गया' के दूसरे सीज़न  का

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'यूँ ही कोई मिल गया' पॉडकास्ट के दूसरे सीज़न को, मैं उन सब लोगों को समर्पित करती हूँ, जिन्हें मैं पसंद करती हूँ, उन पलों को, उन रिश्तों को, उन नातों को, उन लंबी-लंबी-सी बातों को, उन छोटी-छोटी-सी मुलाकातों को, जिन्होंने मेरे मन में प्रेम का मान बढ़ाया और मुझे प्रेम को पॉडकास्ट का विषय बनाने के लिए प्रेरित किया|

जी हाँ! चलते-चलते यह भी कहना चाहती हूँ कि मैं आभारी हूँ  इस माला के उस धागे की, जो अदृश्य है, पर हर मोती को जिसने सहेजा है, जो दिखता नहीं, लेकिन उसके बिना यह माला कभी बन ही नहीं सकती थी| वे सब लोग, जिनमें मेरे बच्चे, अपूर्व, अक्षर और आशी शामिल हैं, मेरे पति अंबरीश गुप्ता शामिल हैं और शामिल हैं ध्वनि निर्देशक और वीडियो संपादक सुशांत शुक्ला| उम्र में भले ही ये छोटे हों, किंतु इनकी खुशबू हर एपीसोड में है, इनका ज़िक्र उस इत्र की तरह है, जो हम सबके मन को महकाता है, बहकाता है, कभी हँसाता है और कभी-कभी रुलाता भी है| विश्वास कीजिए प्रेम की एक बूंद भी यदि आपने ग्रहण कर ली, तो यह प्रेम आपके मन को कभी बंजर नहीं होने देगा, यह वादा है मेरा|

तो आइए! इस धरती को प्रेममय बनाएँ, प्रेम में डूब जाएँ, प्रेम की बातें करें, प्रेम से बातें करें और प्रेम के सागर में गोते लगाएँ, इसमें अडूब डूबें, यानी डूबें नहीं, बस गोते लगाएँ, लहरों का आनंद लें|

तो चलिए, मेरे साथ चलिए, इंतज़ार किसका हैचलिए, उस इंद्रधनुषी जहां में मेरे साथ, जहां सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम है| सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है, इस बार, कहानी आपकी हो! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC

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EPISODE-1 ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी 15/01/26

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नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वाली आपकी मीत | लीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं प्रेम की..जी हां! ऐसा प्रेम जो अलौकिक है, दैविक है, अमर हैअजर है और शाश्वत हैजब भी हम प्रेम की बात करते हैं नतो एक ओर हमें श्री कृष्ण की याद आती हैतो दूसरी ओर कृष्ण के साथ-साथ राधा का नाम बरबस ही याद आ जाता हैलेकिन आज मैं राधा की नहींमीरा की बात करूंगी| जी हाँ, प्रेम दीवानी मीरा, जिसका दरद कोई नहीं समझ सका, ऐसी मीरा को हम सभी जानते हैंपरिचित हैंहम सभी ने वह कहानी सुन भी रखी होगीऐसी कहानीजो हम सब को प्रिय हैआज प्रसंगवश इस कहानी से बात शुरू करती हूँचित्तौड़राजस्थान की मीरा जब छोटी थींतो उनके घर एक साधु आएजो कृष्ण भक्त थेसाधु अपने साथ श्री कृष्ण की मूर्ति भी लेकर आएजिसे वे बरसों से पूज रहे थेबालिका मीरा उस मूर्ति को देखकर मचल उठी और साधु से मूर्ति की माँ ग कर बैठीसाधु ने साफ़  मना कर दिया कि वे बरसों से इस मूर्ति को पूज रहे हैंकहने लगे, यह कोई साधारण मूर्ति नहींइसमें साक्षात श्री कृष्ण विराजते हैंयह कोई खेलने की वस्तु नहींजो मैं तुम्हें दे दूँमीरा रोती रही और साधु चले गए

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दोस्तों! संभवतः रोदन के साथ मीरा का रिश्ता यहीं से बन गया थाकिवदंती के अनुसार रात को साधु के सपने में श्री कृष्ण आए और कहने लगे कि तुम मेरी मूर्ति मीरा को दे दोसाधु ने कहा, हे कान्हा! मैंने जन्म भर आपकी पूजा की हैपरंतु आपने दर्शन नहीं दिए और आज आप आए हैंतो उस नादान लड़की को मूर्ति देने के लिए कह रहे हैंक्या लीला है प्रभुश्री कृष्ण ने कहाहे साधु! मेरी मूर्ति बस उसी की होगीजो मेरे के लिए दिन-रात रोती है

चलिए, अब मैं अपनी बात को इसी छोर से शुरू करती हूँक्या सचमुच हे कृष्ण, तुम आए थे साधु के सपने में या यह भी तुम्हारा कोई छल थाबोलो न छलिया

आज तुमसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ कान्हाजब से इस धरती से गए हो क्या एक बार भी इस धरती की सुध ली है तुमनेक्या तुम्हें इस धरती की याद भी आती है? क्या यह याद कभी सताती भी हैतुम तो वचन देकर गए थे कि मैं लौटूंगाफिर भी लौट कर नहीं आएतुमने अपनी मोहक मुस्कान से सबको खूब छलागोपियों को अपनी बंसी की मधुर लहरी सुनाकर बेसुध कर दिया| राधा को अपने प्रेम का दीवाना बना दियाराधा के प्रेम में तो तुम भी बावरे हो गए थे ना? बोलो ना कान्हा

तुमने राधा संगगोपियों संग, खूब होली खेलीखूब रास रचायातुम्हारे और राधा के प्रेम-गीत आज भी ब्रज की गलियों में गूंजते हैंमधुबन के महारास में तुमने हर गोपी के साथ तुमने रास रचायाहर गोपी यही समझती रही कि तुम सिर्फ़ उसके साथ होलेकिन कृष्ण तुम वहां थे ही नहींतुम सिर्फ़ राधा के पास थेराधा के प्रेम में आसक्त हो कर तुमने जो छल कियाकभी चूड़ी वाले बनेकभी स्त्री स्वांग रचायाऔर न जाने क्या-क्या? हे कान्हा!

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एक बात बताओ ना कान्हाब्रज की गलियों में राधा संगमहलों में रुक्मणी संगसत्यभामा संग अनगिनत रानियोंपटरानियों के बीच क्या कभी तुम्हें उस विरहिणी की याद आती थीजो तुम्हारे नाम की वीणा लिए रेगिस्तान की तपती धूप में खुद को जलाती रहीजिसने सिर्फ़ तुम्हारे कारण अपने महलों के सुख-सुविधाएँ त्याग दींऔर तपती रेत पर अपने आँसुओं के प्रेम की इबारत लिख दीप्रेम को इबादत मान बैठीउसके दिन तुम्हारे वियोग में झुलस गए और उसकी रातें तुम्हारी याद में बंजर हो गईंउसके जीवन में कभी मिलन के फूल नहीं खिला पाए तुम कृष्ण

हे गिरिधर! आज सच्ची-सच्ची बताओ, अब बता भी दो न....कि मीरा तुम्हें इतना प्रेम क्यों करती थीक्या चाहती थी वो तुमसे? तुम तो त्रिकालदर्शी हो नक्या बता सकोगे कि मीरा ने ऐसा क्यों कहा, 'आवन कह गए, अजहूँ ना आए|’ क्या तुमने मीरा से कोई वादा किया थाबोलो न गिरिधर! क्या दुनिया से छिपाकर, हे छलिया! तुमने अपनी मोहक मुस्कान से उसे भी दीवानी बनाया थाबोलो ना कान्हा! मीरा तो राधा की तरह तुमसे प्रेम की माँ ग भी नहीं करती थीना रासना मिलन की आसना कोई योगना ही कोई भोगफिर वह क्या चाहती थीऔर क्योंक्या तुमने कभी यह जानावह मंदिरों मेंसंतों के डेरों परजा-जाकर तुम्हारा पता पूछती थी कान्हावह बादलों की तरह मीलों चलती थीहे कृष्ण! क्या तुम मीरा के लिए दो कदम भी साथ चले थेअच्छाएक बात बताओ मोहन! क्या कभी रेत के संग पानी मिल कर चला हैक्या कभी रात के सन्नाटों में जब सारी दुनिया सो रही होतीक्या उस वीराने में तुम्हें मीरा की सिसकियां सुनाई देती थींमीरा के मन में तुम्हारे प्रेम की जो लौ जल रही थी कान्हाक्या कभी उसकी ऊष्मा को तुमने महसूस कियाक्या मीरा के प्रेम की अगन से तुम कभी विचलित हुए थेहे कृष्ण! बताओ ना..क्या तुमने जानबूझकर उसे वियोग के दावानल में छोड़ दिया थाकहीं ऐसा तो नहीं....कान्हा! कि तुम उसके तप से घबराते थेउसकी सच्ची, निष्पापनिष्कलंकित भक्ति से घबराते थेसुनो ना.. मोहन! तुम कभी भी उसके पास नहीं गए| अपने नियमों में बंधे तुम कभी नियम तोड़ न सकेफिर चाहे मीरा सभी नियमोंपरंपराओं को त्याग कर कभी बावरी और कभी कुलनाशिनी कहलाती रहीसारे नियमसारे दर्शनसारे आदर्शसारे सिद्धांतमीरा के ही हिस्से में क्यों आएवंशीधर! उत्तर दो ना..सारे सही-गलत के गणित केवल मीरा के लिए ही क्यों थे?

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किसका प्रेम बड़ा है? बोलो न कान्हा! राधा का या मीरा काबोलो! आज तो तुम्हें बताना ही होगाकिसका पलड़ा भारी थातुमने आने का वचन दिया था नफिर भी नहीं लौटेअब जब कभी भी तुम आओगे न कृष्णमीरा की रूह, उसकी आत्मा आज भी तुम्हें विरहिणी बनकर भटकती मिलेगी और गाती मिलेगी- मेरे तो गिरधर गोपालदूसरों न कोई

तो क्या मीरा का प्रेम निरर्थक रह गया? जी नहीं, मीरा का प्रेम व्यष्टि से समष्टि बन गया और मीरा का प्रेम, हर एक प्रेम करने वाले के दिल में समा गया और उसका दरद रेगिस्तान की रेत के कण-कण में व्याप्त हो गयामीरा के आँसुओं ने सागर की हर बूंद में समा कर उसे खारा बना दियामेरे मन में अक्सर यह प्रश्न भी कौंधता है कि कैसे समेट लिया सागर ने इतने विस्तृत विरह को?

कभी यदि कान्हा, तुम हमें भटकते हुए गलियों में मिल गए नतो मैं पूछूँगी ज़रूरचलोबोलो, आज तो सच बोल ही दोआज मैं तुम्हारी मोहक मुस्कान में उलझ कर हमेशा की तरह अपने प्रश्न नहीं भूलूंगीदेखो कान्हामैंने आँखें बंद कर ली हैंअब बताओ, हे कान्हा! मीरा तुमसे इतना प्रेम क्यों करती थीआज भी उसकी रूह भटकती रहती है...तुम्हें तलाशती हुई, तुम्हें खोजती हुई | 

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मेरे ये सवाल ऐसे खत्म नहीं होंगे कान्हामीरा की तरह हम सभी को इंतजार रहेगा जवाबों कासही है न वंशीधर?

क्यों दोस्तों! आप ही बताइए, आप भी तो कान्हा से जवाब माँगते हैं न....

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता हैमीरा की अमर कहानी आपकी ही कहानी हो! आपके विरह की कहानी हो, आपके प्रेम की कहानी हो|

मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC 

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 EPISODE- 2

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....15/07/26

INTRO MUSIC

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वालीआपकी मीतलीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं बचपन की.... आप सोच रहे होंगे....उम्र पचपन की, और बातें बचपन की....सच कहूँ दोस्तों! यही तो वह समय है जब बचपन की वीथियों में फिर से विचरण करके जीवन-पीयूष का रसपान किया जा सकता है......बात यह हुई कि पिछले दिनों मैं लंदन गई थी, पिक्काडली सरकस की रंगीन सडकों पर घूमते हुए ऐसा लगा कि....अचानक ठंडी हवा का कोई झोंका आया| झोंका था, खुशबू थी या खुशी का ज्वार था...हुआ यह.... कि अचानक अलका जो दिख गई| अलका, मेरे बचपन की सबसे प्रिय दोस्त.... फिर क्या था....शुरु हो गया बातों का सिलसिला, यह हिसाब लगाने में घंटों लगे कि कितने सालों बाद मिल रहे हैं, तू कितनी मोटी-पतली हो गई, बच्चे, पति, और फिर शुरू हुई लंदन की कड़कड़ाती, जमा देने वाली सर्दी में आइसक्रीम डेट..... फोटो शेयर करते हुए उसने कैप्शन में लिखा , 'लाइफ के हर फेज़  में हर किसी के दोस्त होते हैं, लेकिन बचपन के कुछ दोस्त जीवन के सभी फेज़ में आइसक्रीम शेयर करने के लिए साथ रहते हैं। उसने आगे जो लिखा, वह तो और भी मज़ेदार था, 'एक साल के लिए आइसक्रीम का कोटा पूरा हो गया.. जब तक हम दोबारा नहीं मिलते।' ऐसी होती है बचपन की दोस्ती....ऐसी ही अनेक इंद्रधनुषी यादों की संदूकची को आज खोलेंगे..... हम बीते दिनों की यादों में खो जाएँगे .....कभी डूबेंगे ...कभी उबरेंगे......कभी अडूब डूबे रहेंगे.....|

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तो दोस्तों! चलिए आज बात करते हैं, बीते हुए दिनों की....ऐसे दिन जब न दौलत, न शोहरत की चिंता थी, मुझे बस याद है झुर्रियों से भरे चेहरे वाली वह नानी, जो परियों की कहानियां सुनाया करती, रेत में घरोंदे बनाना, बना-बना कर मिटाना, अपने खिलौनों को अपनी जागीर समझना, अपनी टूटी-फूटी गुड़िया को भी सबसे सुंदर मानना, न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों के बंधन, बस बचपन का वह सावन था, वो कागज़ की कश्ती और वो बारिश का पानी था। कभी लहरों के करीब जाकर उन्हें छूने की बेताबी, कभी उनके पास आने पर चिल्लाकर दूर भाग जाना, कभी घोष दादा की बंहगी से ‘रोशोगुल्ला’ निकालकर खाने ज़िद करना, कभी खोमचेवाले से गुब्बारे, कभी फेरीवाले से बुलबुले खरीदने थे, फिर बुलबुलों और गुब्बारों के साथ पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाना, माँ  की डांट से बचने के लिए साईकिल ले गलियों में घुमाना, और गिर पड़े तो रोकर उसी के आँचल में छुप जाना, दोस्त से लड़कर मुंह फुलाकर बैठ जाना, पर अगले ही दिन उसी के साथ खेलना, बड़े-बड़े आँसू टपका कर कुल्फी के लिए शोर मचाना, और फिर एक मासूम मुस्कान के साथ छुपकर मज़े से उसे खाना, देर रात तक डैडी के साथ पिक्चरों के मज़े उठाना, और जब नींद आ जाए, तो उन्हीं की गोद में सिर रखकर, सपनों की दुनिया में कहीं गुम हो जाना, एक बुरा सपना देखकर, पलंग के नीचे छुप जाना, कोई जब फुसलाने आए, तो उसी की आगोश में खो जाना, हर घड़ी, हर पल, आज़ाद पंछी की तरह, ज़िंदगी को जीते जाना और ठोकर लग जाए, तो ज़ख्म पोंछकर आगे बढ़ जाना।

हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहिन , यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और ‍खेत के मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना, हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए और गन्ना नहीं चूसा, उसने अपने बचपन को क्या खाक 'जीया'! चोरी और ‍चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ़ झूठ बोलना, फ़र्श पर बिस्कुट की रेल बनाना, बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है। सच में-

रोने की वजह भी ना थी, ना हँसने का बहाना था,

क्यों हो गए हम इतने बड़े, इससे अच्छा तो बचपन का ज़माना था |

छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद माँ  की प्यार भरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर माँ  का प्यार भरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज़ है सारा बचपन।

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सच कहूँ तो दोस्तों! जो न ट ख ट नहीं था, उसने बचपन क्या जीया? जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' ही न ट ख ट पन है। शोर व ऊधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं और हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो दिला जाती हैं।फिल्म 'दूर की आवाज़' में जानी वॉकर पर फिल्माए गए गीत की पंक्तियां कुछ यूँ ही बयान करती हैं-

हम भी अगर बच्चे होते,

नाम हमारा होता गबलू-बबलू,

इस गीत में नायक की भी यही चाहत है कि काश! हम भी अगर बच्चे होते, तो बचपन को बेफ़िक्री से जीते और मनपसंद चीज़ें खाने को मिलतीं। हम में से अधिकतर का बचपन गिल्ली-डंडा,पोशमंपा,खो-खो, धप्पा,पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई खेलते तथा पतंग उड़ाते बीता है। इन खेलों में जो मानसिक व शारीरिक आनंद आता था, वह कंप्यूटरजनित खेलों में कहां?

वह रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' कहना......हमारी तोतली व भोली भाषा ने सबको लुभाया है। वह नानी-दादी का हमारे साथ-साथ हमारी तोतली बोली को हँसकर दोहराना....शायद बड़ों को भी इसमें मज़ा आता था और हमारी तोतली बोली सुनकर उनका मन भी चहक उठता था । सच में-

होठों पर मुस्कान थी कंधों पर बस्ता था,

सुकून के मामले में वो ज़माना  सस्ता था |

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अपने बचपन में डैडी द्वारा साइकिल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही डैडी ऑफ़िस जाने के लिए निकलते थे, वैसे ही हम भी डैडी के साथ जाने को मचल उठते थे, चड्डू खाने के लिए, तब डैडी भी लाड़ में आकर हमें साइकिल पर घुमा ही देते थे। बाइक व कार के ज़माने में वो 'साइकिल वाली' यादों का झरोखा अब कहां?

दोस्तों! बचपन में हम पट्टी पर लिख-लिखकर याद करते व मिटाते थे। न जाने कितनी बार मिटा-मिटा कर सुधारा होगा। पर स्लेट की सहजता व सरलता ने पढ़ना-लिखना सिखा दिया, वाह! क्या आनंद था ?

जब बच्चे थे, तब बड़े होने बड़ी जल्दी थी, पर बड़े होकर क्या पाया? हर समय दिन भर कितने ही चेहरे देखती हूँ मैं सड़कों पर, कार्यस्थल पर, हर जगह बहुत से चेहरे होते हैं, परंतु इनमें से कोई भी चेहरा ना हँसता दिखाई देता है, ना ही खुशनुमा| अक्सर लोग हैरान परेशान से दिखते हैं, खुश होते भी हैं, तो ज़रा देर के लिए, मानो हँसने या खुश होने में भी उनके पैसे खर्च हो रहे हों| आज लगता है कि बच्चों का 'बचपन' (भोलापन, मासूमियत, निश्छलता), 'पचपन' के चक्कर में कहीं खो-सा गया है!

इंसान  का बचपन उसकी प्रेरणा होती है। बचपन में की गई गलतियां, नादानियां व शैतानियां बड़े होने पर जब याद आती है, है न दोस्तों! तो हमें हंसी आ जाती है, है न दोस्तों! उसकी सुखद-मधुर यादें हमारे दिल-ओ-ज़हन में मृत्युपर्यंत बनी रहेंगी। नहीं जाने वाली हैं|

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दोस्तों! अब उलझनें बहुत बढ़ गई हैं ज़िंदगी में, उन्हें कोई जिगसॉ पज़ल की तरह मिनटों में कैसे सुलझाएँ? चलो चलें! खिलौनों और चॉकलेट्स की उसी दुनिया में वापस चलें। ऐसे जहाँ की ओर चलें, जहां न हो किसी से ईर्ष्या हो, किसी से जलन, जहां छोटी-छोटी चीज़ों में ही हमारे सब सपने सच हो जाएँ। कागज़ के पंखों पर सपने सजाकर, गेंदे के पत्तों से कोई धुन बजाकर, ख़ाली थैलियों की पतंगें उड़ाएँ, रातों को टॉर्च से आसमाँ चमकाएँ, मम्मी से बेमतलब लाड़ जताकर, डैडी से रेत के घर बनवाकर, भैया की साइकिल के पैडल घुमाकर दीदी की गुड़िया को भूत बनाकर, भरी दुपहरी में हर घर की घंटी बजाकर भाग जाएँ, बागों में छुप-छुपकर आम चुराएँ और मधुर-मिष्टी यादों को फिर से सहलाएँ । है न दोस्तों!

बातें बचपन की हैं, यूँ  ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....क्या करें.....? समय की बाध्यता है! मेरी इन सब शैतानियों में आपकी वाली शैतानी कौन सी थी? अपने बचपन के किस्से-कहानियाँ मुझे मैसेज बॉक्स में लिखाकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है,मेरे बचपन की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

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EPISODE-3 

प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो 

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नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वाली आपकी मीत | लीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं‘प्रेम दिवस’ यानी ‘वैलेंस्टाइंस डे’ की| अभी-अभी तो मनाया है हमने, प्रेम का यह दिवस, प्रेम का एक ही दिवस? खैर ‘वैलेंस्टाइंस डे’ के मौके पर बाज़ार गिफ़्ट्सबहुत से सुर्ख गुलाबों और ग्रीटिंग कार्ड्स से अटे रहते हैंबाज़ारीकरणउदारवाद और ग्लोबलाइज़ेशन का सही रूप-स्वरूप इन मौकों पर ही तो उजागर होते हैं। मैंने सोचाचलोबाज़ार की रौनक देखी जाएकुछ अपने वैलंटाइन के लिए भी गिफ़्ट ले लिया जाए। बदलते दौर में उम्र या अवस्था थोड़े ही मायने रखती हैसो आर्चीज़ गैलरी पहुँचीवास्तव में गिफ्ट्स की सुंदरताउन पर लिखे संदेशों ने मन मोह लिया। रंग-बिरंगेबड़े ही क्रिएटिव गिफ्ट्स वहाँ दिखाई दिए। अभी गिफ्ट्स की सुंदरता को निहार ही रही थी कि एक लड़की की आवाज़ सुनाई दीभैयाये सारे कार्ड्स और गिफ़्ट्स पैक कर दीजिए अलग-अलग! उस लड़की के साथ एक और लड़की थीजो उसके कानों में कुछ फुसफुसाई......दोनों ठहाका मार कर हँसने लगीं....!!!

मैं सोचने लगी.....कितने वैलंटाइन होंगे? ‘वैलनटाइंस डे’ क्या सचमुच ‘प्रेम दिवस’ को कहते हैंक्या प्यार प्यार रह गया हैया व्यापार बन कर रह गया हैक्या फिर मौज-मस्ती को प्यार का नाम दिया जा रहा हैप्यार तो एब्सट्रैक्ट होता हैसूक्ष्म होता है दोस्तों! प्रेम कोई भावना नहीं होतीप्रेम तो आपका अस्तित्व होता है। व्यक्त्तित्व बदलता हैशरीरमन और व्यवहार बदलते रहते हैं, किंतु हर व्यक्त्तित्व से परे जो अपरिवर्तनशील है, जो कभी नहीं बदलतावही प्रेम है, वही तो प्यार है! शायर की मानेंतो वह दिल को दुखाने के लिए ही सहीफिर से उसे छोड़ के जाने के लिए ही सहीअपने प्रेमी को पुकारता हैक्योंकि उसका मानना है कि प्रेममुहब्बत की होश वालों को ख़बर होती ही नहीं हैवे तो जानते ही नहीं कि बे-ख़ुदी किसे कहते हैंक्योंकि इसे तो केवल वही समझ सकता हैजिसने कभी इश्क़ किया होप्रेम का अनुभव किया हो।

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दोस्तों! प्यारमुहब्बत या प्रेम एक एहसास हैजो दिमाग से नहीं दिल से होता है। यह एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव हैजो सब कुछ भूलकर उसके साथ जाने को प्रेरित करता हैजिससे आप प्रेम करते हैं। सच्चा प्यार वह होता हैजो सभी हालातो में आप के साथ होयानी आपके दुख को अपना दुख और आप की खुशियों को अपनी खुशियां माने। कहते हैं कि अगर प्यार होता हैतो हमारी ज़िंदगी बदल जाती है। पर ज़िंदगी बदलती है या नहींयह इंसान के पर निर्भर करता है। पर प्यार इंसान को ज़रूर बदल देता है। प्यार का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि हम हमेशा उसके साथ रहेप्यार तो एक-दूसरे से दूर रहने पर भी खत्म नहीं होतादूर कितने भी होअहसास हमेशा पास का होता है।

प्यार को अक्सर वासना के साथ जोड़कर देखा जाता है। भला ऐसा प्यार भी कैसा प्यार हैजिसमें केवल भौतिक देह का ही महत्व होभगवान कृष्ण और राधा के बीच भी तो प्रेम का रिश्ता थापर यह शारीरिक नहीं थाबल्कि भक्ति का एक विशुद्ध रूप थानिःस्वार्थ प्रेम थाआत्मिक प्रेम था। प्रेम व्यक्ति के जीवन की पराकाष्ठा होती हैजो समर्पण भाव की अंतरिम घटना है, जबकि वासना व्यक्ति के खोखले जीवन में पूर्ति-पिपासा की तृप्ति की घटना हैजो आजकल के तथाकथित प्यार में निहित है। वासना के सतह पर उलझा मनुष्य प्रेम की नहींदेह की माँग करता है। वासना से भरा पुरुष हमेशा स्त्री को पूज्या नहीं भोग्या ही समझता है।

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चलिए दोस्तों! अब बात करते हैं उस उदात्त प्रेम की..जिसके लिए अनेक फ़कीरों नेभक्तों ने तड़प-तड़प के प्राण त्याग दिए....वे अपने रब कोखुदा को मैदानों मेंरेगिस्तानों मेंपर्वतों परदरिया में ढूँढते-ढूँढते अपना जीवन ही गवाँ बैठे....पर मर कर भी अमर हो गए...उनका नाम फ़िज़ाओं में घुल गया हमेशा के लिए...खुशबू बन कर बस गया फूलों में सदा के लिए…रंग बन कर समा गया है इंद्रधनुष के रंगों में......क्षितिज के उस पार से झांक कर मुस्कराता है वह....सांसारिक प्रेम सागर के जैसा हैपरंतु सागर की भी सीमा होती है। दिव्य प्रेम आकाश के जैसा है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती। उस चांद को जानेंउसे समझेंजिसकी चाह में चातक पक्षी जान दिए रहता है......टकटकी बांधे....निःस्वार्थ भाव से...मगन होकर !!

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पिछले दिनों सूरज बड़जात्या की फिल्म "विवाह" देखी। वाह! क्या फिल्म हैयह एक पारिवारिक प्रेम कहानी है और एक पारंपरिक भारतीय विवाह के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती हैजिसमें कई महत्वपूर्ण संदेश छिपे हुए हैं। कहानी एक छोटे शहर की लड़की पूनम और प्रेम की हैजो एक बड़े उद्योगपति का बेटा है। पूनम और प्रेम पहली ही मुलाकात में एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। उनके परिवारों की सहमति से उनका रिश्ता तय हो जाता है। विवाह की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। विवाह से ठीक पहलेएक दुर्घटना में पूनम का चेहरा और हाथ बुरी तरह जल जाते हैं। परिवार और समाज के दबाव के बावजूदप्रेम पूनम का साथ नहीं छोड़ता और अपने प्यार और वचन को निभाने का फैसला करता है। प्रेम का यह निर्णय सच्चे प्रेम और समर्पण का प्रतीक बन जाता हैवह पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों को उच्चतम महत्व देता हैवह पूनम की आँतरिक सुंदरता से प्रेम करता हैन कि उसके बाहरी रूप से।

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जी दोस्तोंहमने बात शुरू की थी "प्रेम-दिवस" से.... ‘वैलेंस्टाइंस डे’ से, पर प्रेम के लिए एक़ ही दिन क्योंजैसे ही ऐसा सोचावैसे ही बादल का एक टुकड़ा चुपके से धरती को भिगो गया और मैं.... मैं मिट्टी में मिल कर महकने लगी। जिस पल कलीफूल बन रही थीकोई उसमें  रंग और खुशबू भर रहा थाउस पल मैं ही तो सांस ले रही थीजब गुलाब धीरे धीरे सुर्ख हो रहे थे और दिल धड़कना सीख रहा थाउस पल से मैं साथ हूँ सबके, क्योंकि मैं ही तो प्रेम हूँ। इतनी बड़ी दुनिया में हज़ारों चेहरों के बीच कोई एक चेहरा जब तुम्हे भाने लगेजिसके ख्याल से तुम्हारा दिल धड़कने लगेजिसकी हर बात तुम्हें तुमसे जुदा करने लगेजिसके लिए तुम्हारे मन में अहसासों का कलश भरने लगे और ये अहसास आँखों के रास्ते छलकने लगेंआसूँ गालों पे आ-आकर ढलकने लगेंकोई तस्वीर दिल में खिंचने लगेजिसे तुम जितना भुलाओ और वो उतना ही करीब महसूस होने लगेहवाओं में उसके होने की खुशबू आने लगेआँखों में नमी रहने लगेमन की दहलीज़ पे आहट होने लगेहोंठ चुप हो जाएँमगर आखें बोलने लगेकोई सर्दी में धूप-सा और गर्मी में शाम-सा लगने लगेबिन बरसात हम भीगने लगें- उस पल समझ लेना तुम्हें किसी से मोहब्बत हो गई है।

है न दोस्तों!.....

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कोई एक दिन नहीं होता प्यार का... ना एक साल... ना एक जनम...और तो और मौत पर भी यह कहानी ख़त्म नहीं होती। यह सदियों से है और सदियों तक रहेगा। हाँ... लेकिन जब हम इसे छू कर देखना चाहते हैंअपनी मुठ्ठी में इसे कैद कर लेना चाहते हैंतब यह चुपचाप उड़ जाता हैहै न अजीब-सी शय हैआज तक इसका रहस्य कोई नहीं जान पाया। लेकिन यह जानता है कि कौन-सा हिस्सा किस का हैकौन-सा टुकड़ा कहाँ जोड़ा जाएगाकिस बंद दरवाज़े पे दस्तक देनी है और किस मकान से चुपचाप निकल जाना है। ये सारी कायनात प्यार के दम से चलती हैकिस को किसके लिए ज़मीं पे बुलाया गया हैइसके लिए देशसीमाकाल सरहदेंउमरकुछ भी मायने नहीं रखती। यह सागर को रेगिस्तान में बदल कर रेत के कणों में मुस्काता हैरेगिस्तानों में मरूद्यान खिलाता है...और....और...बदले में कुछ नहीं माँगतायह रुकता नहीं कहीं...ठहरता भी नहीं कभी।

प्यार पत्तियों में हरापन बन कर और हमारी देह में लहू बन कर बहता हैइसे डालियों से तोड़े गए गुलाबों मेंग्रीटिंग कार्डों या मंहगे तोहफ़ों में मत खोजनासिर्फ़ महसूस करना आँखें बंद करके। जिस पल कोई तुमसे से होकर गुज़रने लगेतुम उसे सोचो और वो झट से पास आ बैठेचाहे ख्यालों में ही सहीउसका ना होना भी होना लगेभरी दुनिया में कोई तुम्हें तन्हा करने लगेउस पल समझ लेना, तुम्हें मोहब्बत हो गई हैप्यार हो गया है। फिर प्यार तो प्यार हैइसे हम कोई नाम देंऐसा ज़रूरी तो नहीं….. यह तो प्यार हैबस प्यार है...बस प्यार है....!! यही तो शाश्वत है, यही तो चिरस्थाई है, है न दोस्तों!

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ये प्यार की बातें हैं दोस्तों! यूँ ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....हाँ, आपके प्यार के किस्से सुनाने हैं मुझे! अपने प्रेम की कहानी  मैसेज बॉक्स में लिखाकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है, मेरे प्यार की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

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 EPISODE-4

INTRO MUSIC

दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तकिस्से- कहानियां सुनाने वाली आपकी मीतजी हाँ, आप सुन रहे हैं मेरे पॉडकास्ट, यूँ ही कोई मिल गया’ के दूसरे सीज़न का अगला एपिसोड ... जिसमें हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर वही पुरानी यादें...उसी मखमली आवाज़ के साथ...जी हाँ दोस्तों, आज मैं बात करूंगी कुछ रूहानी, प्रेम की उस पराकाष्ठा की जहाँ विरहिणी कह उठती है-

कागा सब तन खाइयो मेरा चुन चुन खाइयो माँ स,

दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस…।

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आखिर क्या अर्थ है, क्या मायने हैं बाबा फ़रीद की इन पंक्तियों के, जिन्हें मैं बचपन से सुनती आई हूँ, पहले इनका अर्थ समझ ही नहीं आता था। कागा यानी ‘कौए’ से कोई क्यों ऐसा कहेगा?

कि चाहे मेरे तन को तुम नष्ट कर दो, पर मेरी दो आँखों को नष्ट मत करना, क्योकि उनमें पिया से मिलने की आस भरी हुई है| लेकिन जैसे-जैसे ज़िंदगी बहती गई और रंग दिखाती गई, इन पंक्तियों के अर्थ समझ आने लगे। बाबा फ़रीद जब ध्यान-साधना और भक्ति के चरम पर पहुँच गए थे, तो उन्होंने शरीर को आत्मा का वस्त्र मानकर त्याग और विरक्ति का मार्ग अपनाया था। किवदंती के अनुसार एक दिन बाबा फ़रीद ध्यान में बैठे थे और उन्हें एक गहन अनुभूति हुई| उन्होंने देखा कि जब वे मर जाएंगे, उनके निर्जीव शरीर को खाने कौवे आएँगे और उनका माँ स नोचेंगे। इस दृश्य ने उन्हें विचलित नहीं किया, बल्कि वे भीतर से और गहरे प्रेम में डूब गए।

पिया की राह तकते-तकते वियोगी स्त्री वृद्धा हो गई है, अब मौत की कगार पर खड़ी है और उस मुक़ाम पर वह कहती है किअरे कागा! अरे कौवे! इस शरीर की मुझे बहुत परवाह नहीं। अब मर तो मैं जाऊँगी ही; तुझे जहाँ-जहाँ से माँस नोचना होगा, नोच लेना, चुग-चुग कर खा लेना, पर आँखें छोड़ देना मेरी। नैनों पर चोंच मत मारना।’ क्यों? क्योंकि इनमें पिया मिलन की आस है, पिया मिलन की आस है, पिया मिलन का विश्वास है।

समझे दोस्तों?

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हमारी पूरी हस्ती में, देह में, सिर्फ़ वह अंग सबसे महत्वपूर्ण है, जो प्रियतम से जुड़ा हुआ हो, जिसमें प्रियतम बसे हुए हैं, बाक़ी सब निरर्थक है। बाक़ी सब चाहे नष्ट हो जाए, कोई बात नहीं, पर जो कुछ ऐसा है, जो जुड़ गया प्रीतम से, वो नष्ट नहीं होना चाहिए।

कई बार सोचती हूँ दोस्तों! बहुत कुछ हैं हम, और बहुत सी दिशाओं में भागते रहते हैं हम। हमारे सारे उपक्रमों में, हमारी सारी दिशाओं में, सिर्फ़ वो काम और वो दिशा क़ीमती है, जो उस पिया की ओर जाती है। चौबीस घंटे का दिन हैं न? बहुत कुछ किया दिन भर? वो सब कचरा था। उसमें से क़ीमती क्या था? बस वो, जिसकी दिशा प्रीतम की ओर जाती हो। और संत वो, जिसकी धड़कन भी आँख बन जाए, जो नख-शिख नैन हो जाए, जिसका रोंया-रोंया, जिसकी हर कोशिका सिर्फ़ प्रीतम की ओर देख रही हो, वो साँस ले रहा हो, तो किसके लिए? जी हां दोस्तों! उसी प्रीतम के लिए।

कभी-कभी सोचती हूँ दोस्तों! कि कागा का मतलब दुनिया के वे तमाम रिश्ते, जो स्वार्थ, ज़रुरत, ईर्ष्या और ठगी पर टिके हैं, जो सदैव आपसे कुछ ना कुछ लेने की बाट ही जोहते हैं, कभी बहिन  बनकर, कभी भाई बनकर, कभी पति, कभी पत्नी, कभी दोस्त या कभी संतान बनकर हमें ठगते हैं, क्या उनके मुखौटों के पीछे एक कागा ही होता है, जो अपनी नुकीली चोंच से हमारे वजूद को, हमारे अस्तित्व को, हमारे व्यक्तित्व को, हमारे स्व को, हमारे निज को खाता रहता है। हम लाख छुड़ाना चाहें खुद को, वो हमें नहीं छोड़ता। वो हमारी देह को, हमारे तन को खाता रहता है चुन- चुन कर, माँस का भक्षण करता रहता है। वो कई बार अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में हमसे जुड़ता है और धीरे-धीरे हमें ख़तम किए जाता है। ये तो हुआ कागा पर......हम कौन हैं?

क्या सिर्फ़ देह?

सिर्फ़ भोगने की वस्तु

किसी की ज़रूरत का डिमाँ ड ड्राफ्ट?

और पिया कौन है?

क्या पिया वो परमात्मा है, जिससे मिलने की चाह में हम ज़िंदा हैं

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कागा के द्वारा संपूर्ण रूप से तन को खाए जाने का भी हमें ग़म नहीं, बल्कि हम तो निवेदन करते हैं कि “दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस” --कौन है ये पिया? यक़ीनन वो परमात्मा ही होगा, जिसकी तलाश में ये दो नैना टकटकी लगाए हैं कि अब बस बहुत हुआ, आ भी जाओ और सांसों के बंधन से देह को मुक्त कर दो।

ये कागा उस विरहिणी का मालिक भी है, जिसको उसने बंदिनी बना रखा है। विरहिणी अपने प्रियतम की आस में आँखों को बचाए रखने की विनती करती है। कितना दर्द.....गहरा अर्थ है इन पंक्तियों में.....

कागा! तू जी भर कर इस भौतिक देह को खाले, चुन चुन कर तू इसका भोग कर ले, मगर दो नैना छोड़ देना क्योंकि इनको पिया मिलन की आस है और कागा क्या करता है?

वो अपना काम बखूबी करता है। अपनी ज़रूरत, अपने अवसर और अपने सुख के लिए वो माँ स का भक्षण किए जाता है…किए जाता है। उसे विरहिणी की आँखों में, या मन में झांकने की फुर्सत ही नहीं है। वो तो देह का सौदागर है...और सौदागरों ने हमेशा अपने लाभ देखे हैं, अपने ही स्वार्थ साधे हैं,किसी की आँखों में बहते दर्द, वे तो उसे दिखते ही नहीं....और ना ही दिखती है पराई पीर । इसीलिए वो विरहिणी कह उठी होगी कि “कागा सब तन खाइयो...”

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इसी लिए कहती हूँ  दोस्तों! अगर हमारा हाथ उठ रहा है, तो किसके लिए? दिल धड़क रहा है, तो किसके लिए? आहार ले रहे हैं, तो किसके लिए? गति भी कर रहे हैं, तो किसके लिए? उस पिया के लिए न...और पिया...पिया तो कहीं ओट में छिपा बैठा है...कहीं दूर...झील के उस पार...उस पार है पिया.....दूर झील के उस पार है पिया....पिया जो बुलाता तो है उस पार से,पर दिखता नहीं...दिखता नहीं, तो क्या हुआ...यकीनन वह है, है और विरहिणी की पीड़ा से वाकिफ़ भी है, तभी तो बसा है नैनों में, याद है न मीरा क्या कहती थीं, बसो मेरे नैनन में नंदलाल...|

जी हां दोस्तों! जिएँ तो ऐसे जिएँ, कि हर आस, हर प्यास , बस उसके दर पर जाकर ठहर जाए। वरना तो, समय काटने के बहाने और तरीक़े हज़ारों हैं।

आँखें बचाने लायक सिर्फ़ तब है, जब आप ‘उसको’ तलाशें। आपकी आँखों की छवि में उसका तस्सवुर, उसका नूर हो, कान बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं, जब ‘उसको’ सुनें, बंसी के सजे सुर कानों में गुंजायमान हों। कंठ, ज़बान, होंठ बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब आप ‘उसका’ ज़िक्र करें। पाँव बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं, जब उसकी ओर बढ़ें, हाथ बचाने लायक तब हैं जब उसका नमन करें, उसकी इबादत में उठें, उसकी प्रार्थना के लिए जुड़ें और उसके बन्दों की मदद करने के लिए आगे आएं और सिर बचाने लायक सिर्फ़ तब है, जब उसके द्वार के सामने झुके।

इसलिए दोस्तों! यह समझना होगा कि शरीर तो नश्वर है और यह नष्ट हो जाएगा, लेकिन आत्मा और उसकी ईश्वर से मिलने की आकांक्षा अमर है। शरीर चाहे नष्ट हो जाए, लेकिन आत्मा की परमात्मा से मिलने की इच्छा हमेशा जीवित रहती है। यह एक विशेष निवेदन है कि "दोइ नैना मत खाइयो" अर्थात मेरे दोनों नेत्र मत खाना, क्योंकि इन नेत्रों में मेरे प्रिय से मिलने की आस बसी हुई है, परमात्मा से मिलने की अभिलाषा बसी हुई है, जो मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

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बातों के सिलसिले को यूँ  ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....क्या करें.....? पिया तो अपरंपार है, उसकी बातें ही अपरंपार हैं, अपने पिया के किस्से-कहानियाँ मुझे मैसेज बॉक्स में लिखकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है,बाबा फ़रीद की विरहिणी की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

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EPISODE-5

INTRO MUSIC

गंगा तेरा पानी अमृत, झर-झर बहता जाए!

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तकिस्से- कहानियां सुनाने वाली आपकी मीतजी हाँ, आप सुन रहे हैं मेरे पॉडकास्ट, यूँ ही कोई मिल गया’ के दूसरे सीज़न का अगला एपिसोड ... जिसमें हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर वही पुरानी यादें...उसी मखमली आवाज़ के साथ...जी हाँ दोस्तों, आज मैं बात करूंगी उस अमृत-धारा की, उस पीयूष-स्रोत की, जिसने न केवल भारत के वक्षस्थल पर सभ्यता और संस्कृति के फूल खिलाए, बल्कि समस्त मानवता में सद्गुणों का आह्वान किया| जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ, भागीरथी कीमंदाकिनी की, माँ गंगा की....

पिछले दिनों ऋषिकेश जाना हुआ| गंगा के जल की कल-कल ध्वनि में जैसे कोई राग बहता है| जहां हर लहर में जैसे कोई मंत्र छुपा रहता है, हर घाट पर ध्यान-सा लगा रहता है, नीले आकाश की छांव तले हरियाली की चादर ओढ़े पर्वत गौरवशाली लगते हैं, जहां हवा भी जपती है नाम और सूरज भी करता है आरती हरदम| लक्ष्मण झूले की डोर में बंधा प्राचीनता और आधुनिकता का संगम, संतों की वाणी, योगियों की साधना, यह सब हर मोड़ पर मिलते हैं| लगता है जैसे आत्माओं का समागम हो रहा हो,संगम हो रहा हो| ऋषिकेश की सुंदरता केवल दृश्य नहीं है, एक अद्भुत व अविस्मरणीय अनुभव है|

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इसी खुमारी में सारा दिन बीत गया, और फिर आई रात| ऐसा लगा कि कुछ अजीब-सी आवाज़ें सुनाई दे रही हैं| ऐसा लगा जैसे दो लोग आपस में बातें कर रहे हैं| ध्यान से सुना, तो पता चला कि ये आवाज़ें गंगा-तट से आ रही थीं| पास जाकर सुना, तो दोस्तों! ये तो गंगा जी के दो किनारे थे, जो आपस में बतिया रहे थे| मैं ध्यान से सुनने लगी| एक किनारा बड़ी ही बेबाकी से बोला, हे मित्र! गंगा के किनारे बने-बने मैं तो उकता गया हूँ | ये चंचल लहरें दिन-भर मुझे परेशान करती हैं| मैं शांति से यहां रहना चाहता हूँ , ये मुझे अशांत करती रहती हैं| बिना पूछे छूती रहती हैं| मैं नहीं चाहता, फिर भी ये भिगो देती हैं| दिन हो या रात, यूँ ही कितना शोर किया करती हैं, मानो इन्होंने कसम खा रखी हो कि सदियों तक यह मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगी | अपने साथी की बात पर दूसरा किनारा मुस्करा दिया और हँस कर जवाब देने लगा, हे मित्र! तुम कुछ ज्यादा ही सोचते हो| हम पत्थर के किनारे हैं, जड़ हैं, हमारे पास कुछ भी ऐसा नहीं है, जो हमारे जीवन में खुशियां लाए| हमें तो इन लहरों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि ये रोज़ हमसे मिलने चली आती हैं, सोचो, मिलने तो आती हैं, वरना हम यूँ ही अकेले-अकेले सूखे-सूखे से रह जाते| लहरें हैं, तभी तो हमारा जीवन गतिमान है| दूसरे किनारे में फिर बात संभाली और कहा, मत भूलो भाई, हमारा अस्तित्व गंगा की इन्हीं लहरों की वजह से है| किनारे कितनी भी टूटे-फूटे हों, लहरें फिर भी उनसे प्रेम करती हैं और गंगा के तट पर आने वाले कभी भी किनारों के खुरदुरेपन को नहीं देखते| वे प्रेम से हमारे समीप बैठते हैं, प्रतीक्षा करते हैं, लहरों की|

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उन किनारों को कभी देखा है मित्र, जिनके पास लहरें नहीं आतीं| उन उदास किनारों के पास कोई नहीं जाता.. ना रात को कोई दीपक जलाने जाता है, ना सुबह को सिर झुकाने| वे सब सदियों से लहरों की प्रतीक्षा में हैं, पर लहरों का सान्निध्य उन्हें नहीं मिलता| दूर-दूर तक सिर्फ़ सन्नाटा है, ना कोई जीव,ना कोई जीवन..तुम तो यूँ ही उदास रहते हो|

पहला किनारा कहाँ कम था अपनी बात रखने में, कहने लगा, तुम मानो या ना मानो मित्र, यह गंगा ज़रूर स्वर्ग से भी इसी चंचलता की वजह से निष्कासित की गई होगी| यहां धरती पर आकर भी यह हमें चैन लेने नहीं देती| आखिर क्यों बहती है यह

दूसरे किनारे ने फिर अपनी बात रखी, हो सकता है मित्र, तुम सही हो, लेकिन यह भी हो सकता है कि गंगा लोगों को तृप्त करने के लिए बहती हो, लोगों की अशुद्धियां और कलंक खुद में समेटना इसे रुचिकर लगता हो, सभी को अपने प्रेम का अमृत देना चाहती हो, यह भी वजह हो सकती है ना.. !

तभी एक सुरीली सी आवाज़ सुनाई दी, आवाज़ थी या कोकिला का स्वर, अरे जड़ किनारों! बहुत देर से मैं तुम लोगों की बातें सुन रही हूँ, मैं गंगा हूँ, गंगा माँ| गंगा सदियों से बहती आई है| स्वर्ग में भी शिव के शीश पर थी और इस धरती पर भी मुझे हमेशा सम्मान से स्वीकारा गया| मुझे मान और अपमान का कतई भय नहीं है| किसी को देने या किसी से कुछ पाने की भी मेरी कोई चाह नहीं है| मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, मैं पवित्र, निश्छल, निःशब्द बहती रही हूँ , और बहती रहूँगी| मुझे छूकर लोग सौगंध दिखाएँ, दिए जलाएँ या अपनी अशुद्धियां मुझ में छोड़ जाएँ, मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता| मानो तो मैं गंगा माँ हूँ, ना मानो तो बहता पानी| हे किनारों, तुमसे टकरा-टकराकर मेरी लहरें बिखर-बिखर जाती हैं| तुम उनसे कुछ सीखो, जब तक तुम अपने झूठे अहम से अकड़े रहोगे, तब तक जड़ ही बने रहोगे| तुम्हारे कांधों पर मेरी लहरों ने कुछ पल यदि मैं विश्राम कर लिया, तो तुममें गुरूर आ गया, मेरे बहने पर ही सवाल उठाने लगे, मेरे बहने की गति पर ही प्रश्न करने लगे| यही तो दुर्भाग्य है, नदी और नारी, दोनों का, दोनों का खूब दोहन, खूब शोषण किया जाता है| यदि कोई नदी या नारी चुपचाप बहती चलती है, तो उसकी इस खामोशी पर भी संदेह किए जाते हैं और जो वह वाचाल हो जाए, तो फिर कहना ही क्या? वह सदियों से आरोपी बनाई जाती रही है| सदियों से दूसरों के लिए बहना, सहना और फिर भी प्रेम करते जाना, यह हम ही कर सकती हैं, एक नारी कर सकती है, या यह मैं कर सकती हूँ  क्योंकि मैं गंगा हूँ | पर तुम सोचो कि तुम कर लोगे? तो यह तुमसे ना हो पाएगा|

Music

क्यों ना हो पाएगा? क्योंकि तुम पत्थर हो, तुम में कोई संवेदन नहीं, संवेदना नहीं, स्पंदन नहीं, देखना, जब तुम टूटोगे एक दिन, मेरे प्रेम से भी तुम नहीं पिघल पाओगे, मेरे साथ नहीं बच पाओगे, पर मैं तुम्हारे लिए ठहरूंगी नहीं ,आगे चल दूंगी क्योंकि चलने का नाम ही जीवन है| साहस है यदि, तुम मुझ में डूब जाओ, पिघल जाओ, तरल बन जाओ| तुम सोच रहे होंगे, कि ऐसा क्यों कह रही हूँ तुमसे, क्योंकि मैं तरल हूँ, तभी मैं प्रेम कर पाती हूँ| तुम जड़ हो, इसलिए मुझ तक कभी पहुँच ही नहीं पाए| तुमने जीवन में झूमना, झुकना और लहराना तो सीखा ही नहीं| इसीलिए मुझे ही आना पड़ता है तुम तक, तुम तो कभी नहीं आए मेरे पास| आज तुम्हारी बातों से मेरा मन व्यथित हुआ

यही कहूँगी कि तुम यूँ ही पत्थर बनकर तरसते रहो, सदियों तक कोई लहर तुम्हें अपना ना समझे, तुम्हें छुए और दूर चली जाए और तुम आवाज़ भी ना दे सको| मैं गंगा हूँ, मैं असीम से आई हूँ, एक दिन असीम में ही मिल जाऊंगी मैं| मैं अपनी अनंत यात्रा पर हूँ, समझे, अब कभी ना कहना की गंगा बहती क्यों है? और मेरी एक सलाह भी है तुम्हें, क्यों ना तुम भी तरल बन जाओ? क्यों ना तुम भी बहना सीखो? क्यों ना तुम भी संवेदनशील हो जाओ? क्यों न तुम भी प्रेममय हो जाओ, बहो ना मेरे साथ, बहोगे न मेरे साथ.. !

माँ गंगा के प्रति हम सभी की भावनाएं जुड़ी हैं, इसलिए बहुत से अनुभव, किस्से-कहानियाँ भी होंगे| मुझे मैसेज बॉक्स में अपनी भावनाएं लिखकर प्रेषित कीजिए, भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनते रहिए, हो सकता है, जाह्नवी की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC

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4.रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई 15/02/26

रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई

सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर ना आखो कोई।

दोस्तों! बुल्ले शाह ने यह क्या कह दिया? उनके शब्दों में हीर कहती है कि राँझा-राँझा करती हुई मैं खुद ही राँझा हो गई हूँ, अब सब मुझे राँझण धीदो पुकारा करें, कोई मुझे हीर कहकर न पुकारे| अब भई, कहानी में एक था रांझा, जो प्रेम का देवता था, और एक थी हीर, जो सुंदरता की देवी थी। पंजाब की धरती पर दोनों का जन्म हुआ। विदेशी घोड़ों की टापों से देश की धरती उखड़ रही थी। इतिहास का ध्यान लगा था राजनीतिक उथल-पुथल की ओर, किसी का ध्यान इस ओर जाता तो जाता कैसे कि हीर को भी इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दें। ऐसे में मन में यह सवाल उठाना लाज़मी है कि क्या हीर सचमुच थीझंग में हीर की समाधि, जिस पर प्रति वर्ष हज़ारों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं, इस बात की घोषणा करती है कि हीर सचमुच में थी|

झंग, जहाँ हीर का जन्म हुआ, रांझे के जन्मस्थान तख़्त हज़ारे से अस्सी मील की दूरी पर है। पास से चनाब गुज़रती है। 'चनाब' शब्द का पंजाबी रूप है 'झनां'। और झनां शायद आज भी हीर को याद करती होगी, इसकी लहरों के सम्मुख ही तो पहले-पहल उसने रांझा के लिए अपने हृदय का द्वार खोला था। पहली बार जब लोकगीत ने हीर की कथा को अपनाया होगा, तब क्या अकेली हीर को ही अमर पदवी दी गई थी? झनां नदी भी तो इसमें आई थी। और हीर संबंधी प्रथमतम गान अब हम कहाँ ढूँढ़ें? लोकगीत तो स्वयं झनां की तरह बहता है, पानी आगे बढ़ता जाता है समुद्र में मिलने के लिए; उधर से आकर फिर जो बादल बरसते हैं, उनमें जैसे एक बार का गया हुआ पानी फिर झनां में लौट आता हो। लोकगीत भी बहता है, मर-मरकर फिर सुरक्षित होता है। भाषा का बहाव, इसकी रूपरेखा वही रहती है; पुराने शब्द जाते हैं और नए बन-बनकर लौटते हैं।

झंग के समीप कभी इसके तीर पर बैठकर जल की ओर निहारिए, तो शायद यह आपके कान में कुछ कह जाए, निराश होकर एक दिन रांझे ने किस तरह आँसू गिराए थे, शायद झनां आपको बतला सके। जिस झनां ने रांझे की बंझली का गान सुना था, दिन-रात लगातार, जिसने उसे हीर के पिता की भैंसें चराते देखा था, जिसने हीर को रांझे के लिए मिष्ठं पकवान लाते देखा था, वह क्या आज बोल न उठेगी?

हीर और रांझा की प्रेमकथा की मोटी-मोटी रेखाएँ दो जाट-परिवारों से संबंध रखते हैं| रांझा का असल नाम ‘धीदो’ था, ‘रांझा’ उसकी जाति थी और वह इसी से प्रसिद्ध हुआ। हीर की जाति ‘सयाल’ कहलाती थी। रांझा का पिता बचपन में ही मर गया था। एक दिन उसकी भावजों ने ताना मारा कि वह काम-काज में विशेष हाथ नहीं बंटाता, छैला बना रहता है, जैसे उसे 'हीर' से विवाह करना हो। रांझा ने हीर के सौंदर्य का बखान पहले ही सुन रखा था। घर छोड़कर वह झंग की ओर चल पड़ा। झनां के तीर पर पहुँचकर अब किश्ती से पार होकर झंग जाने का प्रश्न था| पैसा पास में था नहीं। बिना पैसे के 'लुढ्ढन' नाविक उसे ले जाने को तैयार न था। रांझे ने बंझली बजाईलुढ्ढन की पत्नी को उस पर तरस आ गया और उसकी सिफ़ारिश पर लुढ्ढन ने रांझे को नदी-पार पहुँचा दिया। हीर का पिता एक ख़ासा ज़मींदार था; नदी के किनारे उसने एक कुटिया बनवा रखी थी, जिसमें हीर सहेलियों सहित कभी-कभी आया करती थी। रांझा इस कुटिया में जाकर हीर के पलंग पर चादर ओढ़कर सो गया। सहेलियों सहित हीर आई, तो उसने डांट-डपट की। ज्यों ही रांझा चौंककर उठा और उसने अपने मुँह से चादर उतारी, हीर से उसकी आँखें मिलीं; हीर के हृदय में पहली ही दृष्टि में प्रणय का भाव उदय हुआ। और वह उसके चरणों पर गिर गई। उसे वह अपने साथ घर ले गई और पिता से कहकर भैंसें चराने पर उसे रख लिया। कई वर्ष तक रांझे ने यह कार्य किया, हीर भी उसे बहुत प्यार करती, उसके लिए स्वादिष्ट पदार्थ वन में देने जाती। माता-पिता ने हीर की शादी रांझा से कर देनी पक्की कर दी थी, परंतु कुछ समय के बाद उसने रंगपुर के निवासी 'सैदा' से जो खेड़ा जाति का एक युवक था, हीर की शादी कर दी| हीर ने बहुत विरोध किया, परंतु उसकी एक न चली| रंगपुर में जाकर हीर ने प्रण कर लिया कि वह अपने सत को कायम रखेगी| कहते हैं कि रांझा गुरु गोरखनाथ के मठ में पहुँचा, और योगी बनकर रंगपुर की ओर बढ़ा। रंगपुर में उसने घर-घर अलख जमाई, हीर उसे पहचान गई, और अपनी ननद सहती की सहायता से उसने एक दिन रांझे से भेंट भी की। उन्होंने सोचा कि हीर किसी बहाने से सहती के साथ बाहर खेत में जाए, वहाँ वह साँप डस जाने का बहाना करे और फिर ज़हर उतारने के लिए रांझे को बुलवाने की चाल रची जाए| हुआ भी ऐसा ही| हीर को देखकर उसने कहा—'हाँ, ज़हर उतर सकता है, बाहर कुटिया में नियमित रूप से इसे रखना होगा।' सबने यह बात मान ली। पर राँझा हीर को लेकर झंग की ओर चला। खेड़ा-परिवार ने आकर उन्हें रास्ते में ही पकड़ लिया। उस इलाके के राजा के सम्मुख मामला पेश हुआ। दोनों पक्ष हीर को अपनी बतलाते थे; राजा के विचारानुसार हीर सैदे की सिद्ध हुई। और कहते हैं कि ज्यों ही राजा ने फ़ैसला सुनाया, नगर में अग्निकांड रौद्र रूप धारण कर उठा। राजा ने समझा, हीर के संबंध में अन्याय हुआ है। फिर अंतिम फ़ैसला यही रहा कि हीर रांझे के साथ जा सकती है। चाहता तो रांझा तख़्त हज़ारे चला जाता, पर उसने पहले झंग जाना ही तय किया। हीर के पिता ने ऊपर से रांझा का आदर किया; भीतर कपट का साँप फुंकार रहा था। रांझा अपने घर से बारात जुटाकर लाएगा, शादी करके ही हीर को ले जाएगा, पहले नहीं। ज्यों ही रांझा विदा हुआ, हीर को ज़हर दे दिया गया। और फिर ज्यों ही रांझे के कान में हीर के प्रति किए गए इस दुरूह अत्याचार की ख़बर पहुँची, वह ग़श खाकर गिर गया—एक दीपक बुझ चुका था, दूसरा भी बुझ गया।

कहानी से यह पता चलता है कि हीर और रांझा दोनों प्रेम का देवता और हुस्न की देवी क्या किसी चारदीवारों में बंद रहते? उन पर क्या किसी एक समाज का अधिकार था? इसका उत्तर भक्त गुरुदास ने मुक्तकंठ से अपने तराना दिया—

रांझा हीर बखानिये,ओह पिरम पिराती।‘

—'आओ हीर और रांझा का बखान करें,वे महान् प्रेमी थे!'

सूफ़ी कवि बुल्हेशाह की हीर-संबंधी भावना जिसने एक बार सुन ली, वह क्या कभी हीर के निष्पाप प्रेम की आलोचना की कसौटी पर कसने की ज़रूरत समझेगा? रांझे के पास जो बंझली थी, हीर उसके राग पर मुग्ध हो उठी थी, कई लो बंझली की प्रशंसा भी करते दिखाई देते हैं। रांझा जो कुछ भी बोलता था, जैसे वह बंझली में से होकर हीर तक पहुँचता था। बंझली से एक बार जो शब्द गुज़र जाते थे, वे कविता बन उठते थे। जैसे आकाश तक बंझली से प्रभावित हो जाता हो—

रांझा बजावे बंझली, सुक्का अम्बर छड्डे नरमाइयां।’ देखो! 'रांझा मुरली बजा रहा है,सूखे आकाश पर नमी आती जा रही है।'

दरअसल हीर और राँझा केवल दो प्रेमी नहीं, बल्कि वे प्रेम, बलिदान और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक हैं। इन दोनों की कहानी सिर्फ़  रोमांटिक नहीं है—यह उस दौर की सामाजिक बाधाओं, जातिगत भेदभाव, और पारिवारिक दबावों के बीच सच्चे प्रेम की जीत (या हार) का चित्रण करती है।

पर यह हार अक्सर वह प्रेरणा बन जाती है, जो हमें बेहतर, मजबूत, और समझदार बनाती है। हार हमें खुद से सवाल करने पर मजबूर करती है—हम क्या कर सकते थे, क्या नहीं किया, और आगे कैसे सुधारें। बार-बार गिरकर उठने से हमारा जज़्बा और सहनशीलता बढ़ती है। हार सिखाती है कि क्या काम करता है और क्या नहीं। ये पाठ किसी किताब से नहीं मिलते। तो जब हम हीर-राँझा की प्रेम कथा सुनते हैं, तो हार जाने के डर से जीना नहीं छोड़ते, सामाजिक बंधनों पर सवाल करना सीखते हैं, और हम अपने रास्ते या सोच को फिर से परिभाषित करते हैं। यही है हीर-रांझा की कहानी- मेरी जुबानी|

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5.भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी! 28/02/26

मेरी कॉलोनी में सड़कें हमेशा खूब साफ-सुथरी रहती हैं। इन हवेलीनुमा घरों के नौकर रोज़ ही घरों से कचरे की बड़ी-बड़ी पन्नियाँ उठा कर पास ही बनी झोंपड़-पट्टी के सामने फेंक आते है। फिर शुरू होता है. उस बस्ती के बच्चों का खेल....वह सब उस कचरे में से अपनी-अपनी पसंद के खिलौने खोजते हैं। एक दिन ऐसा ही हुआ। बहुत-से बच्चे उस कचरे में से अपने मतलब की चीज़ें छांट रहे थे। लेकिन एक छोटे बच्चे के हिस्से कुछ भी नहीं आया। वह बड़ी देर तक रोता रहा. फिर हार कर उसने उस कचरे से एक टूटी हुई गुड़िया खोज ली और बहुत ही प्यार से उससे खेलने लगा। उस बच्चे के चेहरे पर मैंने बहुत ही प्यार देखा, उस टूटे खिलौने के प्रति। वह घंटों खुद को भुला कर उस टूटे खिलौने के साथ था। कैसी शांति और कैसा प्रेम था उसके चेहरे पर? उसके गालों पर बहते आंसू अब इतिहास बन गए थे, गालों पर खिंची आंसुओं की धार अब्सोख चुकी थी और उसके होठों पर एक पवित्र मुस्कान थी। कैसे उस बच्चे ने उस टूटे हुए खिलौने में खुद को समा कर ख़ुशी खोज ली थी, यह घटना अभूतपूर्व थी।

खिलौने का एहसास बच्चों को सुरक्षित महसूस करने में मदद देता है, बच्चे अपनी पसंद के खिलौने को अपने साथ रखकर आश्वस्त महसूस करते हैं, खिलौने के खेल उन्हें समृद्ध करते हैं, उनके विकास में मदद करते हैं, उनकी कल्पनाशक्ति को प्रज्वलित करते हैं, संज्ञानात्मक और मोटर कौशल में सुधार की नींव रखते हैं, वे साझा करने, सहयोग करने और संचार के महत्व को सिखाने में भी मदद करते हैं, पर.....पर दोस्तों, यह प्यारा-सा, छोटा-सा बच्चा इन सबको नहीं जानता। उसने न शिक्षाशास्त्र पढ़ा कभी, न मनोविज्ञान की खबर और समझ है उसे. बस....वह तो खुश होना जानता है, संतुष्ट होना जानता है, और अपनी पवित्र मुस्कान से सारे क्षितिज को रंगीन कर देना जानता है। शायद उसकी मुस्कान से क्षितिज रंगीन हो गया है,.. वह यह भी नहीं जानता... कितना मासूम..कितना अबोध...कितना निश्छल..।

और इधर हम तथाकथित समझदार लोग खुश होने के लिए कितने जतन करते है, रात-दिन एक करते हैं, एक-दूजे को नीचा दिखाते हैं, गिराते हैं, झूठ बोलते हैं, छलते हैं, भेष बदलते हैं, मुखौटे लगाते हैं, कवच पहनते हैं, छवि गढ़ते हैं, दूसरों की ख़ुशी छीनने से नहीं हिचकिचाते.... और जब इन सबसे भी बात नहीं बनती, तो भौतिक वस्तुओं में...ऐशो-आराम की चीज़ों में....और तो और शॉपिंग में ख़ुशी तलाशते हैं। कोई अपने हवेलीनुमा मकान को देख खुश होता है, कोई अपनी लंबी-सी कार देख कर। कोई बैंक बेलेंस देख कर, तो कोई फेसबुक पर अपने पांच हजार ‘फ्रेंड्स’ देख कर। कोई अपनी रील के व्यूअर्स देखकर, तो कोई यूट्यूब के सब्सक्राइब्र्स देखकर। परंतु दोस्तों! क्या यह खुशी असली खुशी है? क्या यह खुशी हमारे अंतस को सुख देती है? शांति देती है? संतुष्टि देती है? और फिर एक बात और भी है दोस्तों! यह ख़ुशी क्षणिक होती है, पानी का बुलबुला होती है, गर्म तवे पर छुन्न से गिरती और गायब होती पानी की बूंद होती है, जो टिकती नहीं। फूलों से खुशबू की तरह उड़ क्यों जाती है? इतना सब पा लेने के बाद भी वह संतुष्टि नहीं दिखती....वह मुस्कराहट नहीं खिलती, जो उस गरीब बच्चे के चेहरे पर टूटे, बेकार से खिलौने ने खिला दी थी।

आखिर भेद क्या है इसका? क्या मंत्र है इसका?

दरअसल उस बच्चे ने उस खिलौने में खुद को डुबा दिया....समा लिया.....भुला दिया। जब-जब भी हम खुद को भुला कर खुश होते हैं, वह ख़ुशी स्थायी होती है। उस ख़ुशी का अहसास जीवन भर हमारे साथ चलता है। जैसे किसी बहुत सुंदर दृश्य को देख हम खुद को भूल जाते हैं या कोई लम्हा जब हमें अपने आपसे ही जुदा कर जाता है, वह लम्हा, वह पल हम कभी नहीं भूलतेऔर उस पल में गुम हो जाते हैं...वे पल हमेशा हमारे साथ चलते हैं....हमारे जीवन का हिस्सा बनकर।

मार्गरेट वॉल्फ़ हंगर्फोर्ड ने यूं ही तो नहीं कह दिया होगा कि सुंदरता देखने वालों की आँख में होती है। लेकिन कैसे

एक दिन किसी नदी के किनारे जाना हुआ। वहाँ कुछ लोग अपनी मन्नतों के दीपक सिरा रहे थे, तो कुछ अपने पाप धो-धो कर नदी को मैला कर रह रहे थे। कई उस पानी का इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कर रहे थे। बड़ा शोर मचा हुआ था चारों और, लेकिन...लेकिन...लेकिन मैंने चुपके से सुना कि लहरें, किनारों से बतिया रही है। ज़रा ध्यान दिया तो उनकी आवाज़ें भी सुनाई देने लगी। कितनी सुंदर। कितनी आज़ाद थीं ये लहरें। अपनी मर्जी से आती और जाती थी। अहंकार से अकड़े किनारे भीग-भीग जाते थे, लेकिन अपनी जगह से हिलते नहीं, और लहरें वापस चली जातीं। उस दिन मैंने ये जाना कि नदी का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते-करते हम कितने स्वार्थी हो गए हैं कि कभी भी दो घड़ी बैठ कर उसकी सुंदरता को नहीं निहार सके...उसकी बात नहीं सुन सके। कितनी ही नदियों ने कहा होगा हमसे कि मैं नदिया फिर मैं भी प्यासी...क्या सुन पाए हम।

भेद ये गहरा बात ज़रा-सी।

हाँ! उस दिन ये भी जाना कि सौंदर्य आखों में ही होता है और प्रेम मन में। जब तक आप प्रेम से लबालब नहीं होते, ये दुनिया आपको सुंदर नज़र नहीं आती । पिछली रात बहुत कोहरा था, ओस थी। ये तो सभी कहते हैं, लेकिन कितने लोग देख पाते हैं कि पिछली रात चुपके से आसमान ने धरती को एक प्रेम-पत्र लिख भेजा है। ओस की बूंदों से लिखा हुआ प्रेमपत्र। ये जो सुबह हम पत्तियों पे ओस देखते हैं ना, ध्यान से देखिए, तो आपको एक प्रेम कविता नज़र आएगी। क्या आसमान सिर्फ़ पानी बरसाता है? या वह धरती को कोई संदेश देता है? क्या सागर सिर्फ़ नदियों के जुड़ने से बना है? या आसमान के आंसूओं को समेट कर चुपचाप पड़ा है। हमें ऐसा नहीं लगता, क्यों हमे नहीं दिखता। अब इसका भेद क्या है? इसका भेद यह है क्योंकि हम भीतर से सूख गए हैं, अब हमारे भीतर कोई हरापन नहीं बचा, कोई गीलापन नहीं, कोई तरलता नहीं, सब बंजर कर दिया हमने। हम खोखले हो गए भीतर से।

जब-जब हम भीतर से कंगाल होते हैं, गरीब होते हैं, खोखले होते हैं, तभी हम उस कमी को पूरा करने के लिए बाहर भटकते है। अपने खालीपन को लिए लिए सौ जगह भटकते हैं, लेकिन फिर भी खाली ही रहते है, रीते ही रहते है। जिस दिन हम खुद प्रेम से भरे होते है, उस दिन पाने के लिए नहीं देने के लिए आतुर होते हैं। जिस तरह फूल की सुगंध उसकी पहचान है, उसी तरह प्रेम की भी एक खुशबू है। जो आप के भीतर से निकल कर बिखरती है, बशर्ते हमारा दिमाग चालाकियों से खाली हो, मन के भीतर सौंदर्य और प्रेम भरा हो।

ख़ुशी और प्रेम पाने का भेद गहरा है। लेकिन बात ज़रा-सी ही है, जो समझ गए उन्होंने प्रेम कलश को भर लिया… नहीं तो रीते के रीते।

एक और बहुत सुंदर बात- आप खुद को हमेशा प्रेम से भरे रखिए। एक दिन आपका प्रेमी खोजता हुआ आपके पास चला आएगा। तो चलिए ना... आज से खुद को भीतर से महसूस करें...खुद के भीतर महसूस करें.....सौंदर्य, प्रेम और बहुत-सा प्यार...मुहब्बत...इंसानियत...मुरव्वत..और जाने क्या-क्या? और सबको बता दें, नदिया अब यह न कह सकेगी कि मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी .....क्योंकि अब तो हम समझ गए हैं कि भेद ये गहरा ज़रूर है, पर बात है ज़रा-सी! है न दोस्तों 

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 INTRO MUSIC

EPISODE- 6

इक मीरा , एक राधा 15/03/26

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वाली आपकी मीत | लीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं प्रेम की..जी हां! ऐसा प्रेम जो अलौकिक है, दैविक है, अमर है, अजर है और शाश्वत है| जब भी हम प्रेम की बात करते हैं न, तो एक ओर हमें श्री कृष्ण की याद आती है, तो दूसरी ओर कृष्ण के साथ-साथ राधा का नाम बरबस ही याद आ जाता है, लेकिन आज मैं राधा की नहीं, मीरा की बात करूंगी| जी हाँ, प्रेम दीवानी मीरा, जिसका दरद कोई नहीं समझ सका, ऐसी मीरा को हम सभी जानते हैं, परिचित हैं, हम सभी ने वह कहानी सुन भी रखी होगी, ऐसी कहानी, जो हम सब को प्रिय है| आज प्रसंगवश इस कहानी से बात शुरू करती हूँ| चित्तौड़, राजस्थान की मीरा जब छोटी थीं, तो उनके घर एक साधु आए, जो कृष्ण भक्त थे| साधु अपने साथ श्री कृष्ण की मूर्ति भी लेकर आए, जिसे वे बरसों से पूज रहे थे| बालिका मीरा उस मूर्ति को देखकर मचल उठी और साधु से मूर्ति की मांग कर बैठी| साधु ने साफ़  मना कर दिया कि वे बरसों से इस मूर्ति को पूज रहे हैं| कहने लगे, यह कोई साधारण मूर्ति नहीं, इसमें साक्षात श्री कृष्ण विराजते हैं| यह कोई खेलने की वस्तु नहीं, जो मैं तुम्हें दे दूँ| मीरा रोती रही और साधु चले गए

MUSIC

दोस्तों! संभवतः रोदन के साथ मीरा का रिश्ता यहीं से बन गया था| किवदंती के अनुसार रात को साधु के सपने में श्री कृष्ण आए और कहने लगे कि तुम मेरी मूर्ति मीरा को दे दो| साधु ने कहा, हे कान्हा! मैंने जन्म भर आपकी पूजा की है, परंतु आपने दर्शन नहीं दिए और आज आप आए हैं, तो उस नादान लड़की को मूर्ति देने के लिए कह रहे हैं? क्या लीला है प्रभु? श्री कृष्ण ने कहा, हे साधु! मेरी मूर्ति बस उसी की होगी, जो मेरे के लिए दिन-रात रोती है

चलिए, अब मैं अपनी बात को इसी छोर से शुरू करती हूँ| क्या सचमुच हे कृष्ण, तुम आए थे साधु के सपने में या यह भी तुम्हारा कोई छल था, बोलो न छलिया

आज तुमसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ कान्हा, जब से इस धरती से गए हो , क्या एक बार भी इस धरती की सुध ली है तुमने? क्या तुम्हें इस धरती की याद भी आती है? क्या यह याद कभी सताती भी हैतुम तो वचन देकर गए थे कि मैं लौटूंगा, फिर भी लौट कर नहीं आएतुमने अपनी मोहक मुस्कान से सबको खूब छला| गोपियों को अपनी बंसी की मधुर लहरी सुनाकर बेसुध कर दिया| राधा को अपने प्रेम का दीवाना बना दिया| राधा के प्रेम में तो तुम भी बावरे हो गए थे ना? बोलो ना कान्हा

तुमने राधा संग, गोपियों संग, खूब होली खेली, खूब रास रचाया| तुम्हारे और राधा के प्रेम-गीत आज भी ब्रज की गलियों में गूंजते हैं| मधुबन के महारास में तुमने हर गोपी के साथ तुमने रास रचाया| हर गोपी यही समझती रही कि तुम सिर्फ़ उसके साथ हो, लेकिन कृष्ण तुम वहां थे ही नहीं, तुम सिर्फ़ राधा के पास थे, राधा के प्रेम में आसक्त हो कर तुमने जो छल किया, कभी चूड़ी वाले बने, कभी स्त्री स्वांग रचाया, और न जाने क्या-क्या? हे कान्हा!

MUSIC

एक बात बताओ ना कान्हा, ब्रज की गलियों में राधा संग, महलों में रुक्मणी संग, सत्यभामा संग अनगिनत रानियों, पटरानियों के बीच क्या कभी तुम्हें उस विरहिणी की याद आती थी, जो तुम्हारे नाम की वीणा लिए रेगिस्तान की तपती धूप में खुद को जलाती रही, जिसने सिर्फ़ तुम्हारे कारण अपने महलों के सुख-सुविधाएँ त्याग दीं, और तपती रेत पर अपने आँसुओं के प्रेम की इबारत लिख दी, प्रेम को इबादत मान बैठी, उसके दिन तुम्हारे वियोग में झुलस गए और उसकी रातें तुम्हारी याद में बंजर हो गईं, उसके जीवन में कभी मिलन के फूल नहीं खिला पाए तुम कृष्ण

हे गिरिधर! आज सच्ची-सच्ची बताओ, अब बता भी दो न....कि मीरा तुम्हें इतना प्रेम क्यों करती थी? क्या चाहती थी वो तुमसे? तुम तो त्रिकालदर्शी हो न, क्या बता सकोगे कि मीरा ने ऐसा क्यों कहा, 'आवन कह गए, अजहूँ ना आए|’ क्या तुमने मीरा से कोई वादा किया था, बोलो न गिरिधर! क्या दुनिया से छिपाकर, हे छलिया! तुमने अपनी मोहक मुस्कान से उसे भी दीवानी बनाया था? बोलो ना कान्हा! मीरा तो राधा की तरह तुमसे प्रेम की मांग भी नहीं करती थी, ना रास, ना मिलन की आस, ना कोई योग, ना ही कोई भोग, फिर वह क्या चाहती थी? और क्यों? क्या तुमने कभी यह जानावह मंदिरों में, संतों के डेरों पर, जा-जाकर तुम्हारा पता पूछती थी कान्हा, वह बादलों की तरह मीलों चलती थी, हे कृष्ण! क्या तुम मीरा के लिए दो कदम भी साथ चले थे? अच्छा, एक बात बताओ मोहन! क्या कभी रेत के संग पानी मिल कर चला है? क्या कभी रात के सन्नाटों में जब सारी दुनिया सो रही होती, क्या उस वीराने में तुम्हें मीरा की सिसकियां सुनाई देती थीं? मीरा के मन में तुम्हारे प्रेम की जो लौ जल रही थी कान्हा, क्या कभी उसकी ऊष्मा को तुमने महसूस किया? क्या मीरा के प्रेम की अगन से तुम कभी विचलित हुए थे? हे कृष्ण! बताओ ना..क्या तुमने जानबूझकर उसे वियोग के दावानल में छोड़ दिया था? कहीं ऐसा तो नहीं....कान्हा! कि तुम उसके तप से घबराते थे? उसकी सच्ची, निष्पाप, निष्कलंकित भक्ति से घबराते थे? सुनो ना.. मोहन! तुम कभी भी उसके पास नहीं गए| अपने नियमों में बंधे तुम कभी नियम तोड़ न सके, फिर चाहे मीरा सभी नियमों, परंपराओं को त्याग कर कभी बावरी और कभी कुलनाशिनी कहलाती रही| सारे नियम, सारे दर्शन, सारे आदर्श, सारे सिद्धांत, मीरा के ही हिस्से में क्यों आए? वंशीधर! उत्तर दो ना..सारे सही-गलत के गणित केवल मीरा के लिए ही क्यों थे?

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किसका प्रेम बड़ा है? बोलो न कान्हा! राधा का या मीरा का? बोलो! आज तो तुम्हें बताना ही होगा? किसका पलड़ा भारी था? तुमने आने का वचन दिया था न, फिर भी नहीं लौटे? अब जब कभी भी तुम आओगे न कृष्ण, मीरा की रूह, उसकी आत्मा आज भी तुम्हें विरहिणी बनकर भटकती मिलेगी और गाती मिलेगी- मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई

तो क्या मीरा का प्रेम निरर्थक रह गया? जी नहीं, मीरा का प्रेम व्यष्टि से समष्टि बन गया और मीरा का प्रेम, हर एक प्रेम करने वाले के दिल में समा गया और उसका दरद रेगिस्तान की रेत के कण-कण में व्याप्त हो गया| मीरा के आँसुओं ने सागर की हर बूंद में समा कर उसे खारा बना दिया| मेरे मन में अक्सर यह प्रश्न भी कौंधता है कि कैसे समेट लिया सागर ने इतने विस्तृत विरह को?

कभी यदि कान्हा, तुम हमें भटकते हुए गलियों में मिल गए न, तो मैं पूछूँगी ज़रूर, चलो, बोलो, आज तो सच बोल ही दो, आज मैं तुम्हारी मोहक मुस्कान में उलझ कर हमेशा की तरह अपने प्रश्न नहीं भूलूंगी| देखो कान्हा, मैंने आँखें बंद कर ली हैं, अब बताओ, हे कान्हा! मीरा तुमसे इतना प्रेम क्यों करती थी? आज भी उसकी रूह भटकती रहती है...तुम्हें तलाशती हुई, तुम्हें खोजती हुई | 

MUSIC

मेरे ये सवाल ऐसे खत्म नहीं होंगे कान्हा, मीरा की तरह हम सभी को इंतजार रहेगा जवाबों का, सही है न वंशीधर?

क्यों दोस्तों! आप ही बताइए, आप भी तो कान्हा से जवाब माँगते हैं न....

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है, मीरा की अमर कहानी आपकी ही कहानी हो! आपके विरह की कहानी हो, आपके प्रेम की कहानी हो|

मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC***********************************

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

7. दिल चाहता है..01/03/26

जब भी तुम्हें देखती हूं, तुम्हें बिखरा-बिखरा- सा पाती हूं, लगता है जैसे आसमान में किसी देवदूत के गले से टूट कर गिरी हुई माला के मोती हो तुम, जो धरती पर आते-आते बिखर गई हो| तुम कुछ इस तरह से टूट कर गिरे, कि माला का वह धागा, उस देवदूत के गले में ही छूट गया और सभी कीमती मोती इधर-उधर हो गए, जिनसे अलौकिक प्रकाश और खुशबू निकल रही है| मैं उन्हें छूने जाती हूं, तो वह जुगनू बन जाते हैं और दर्द के स्याह अंधेरों में लुकाछिपी खेलने लगते हैं| कभी मैंने चाहा कि तुम्हें समेट लूं अपने दोनों हाथों में, फिर से एक सुंदर माला बना दूं, लेकिन उन्हें समेटना मेरे मेरे बस की बात भी तो नहीं| छूते ही गायब हो जाते हैं, वे मोती| सुनो! ऐसा करो कि तुम खुद को समेट लो, हर मोती को सहज लो, मैं अपनी सांसों का अनमोल धागा तुम्हें दे सकती हूं| दरअसल जब मैं आई थी ना, इस धरती पर, तब से यह मेरे पास बेकार ही पड़ा है| मेरे पास तो कीमती मोती भी नहीं, जिन्हें मैं इनमें पिरोकर माला बना सकूं| अब तुम ऐसा करो, इस धागे में अपने सभी मोतियों को आहिस्ता आहिस्ता पिरो दो, यहां-वहां बिखरे मोती अच्छे नहीं लगते, देखो ज़रा आराम से, धागे में गांठ न पड़े, सुनो ना.... सुन रहे हो ना तुम!

जो जोड़ता था आकाश को हवाओं से, जो जोड़ता था मन को कल्पनाओं से, जो जोड़ता था पानी को मिट्टी से, जो जोड़ देता था घास को तलहटी से, जो कच्चे रिश्तों को पकाता था, वक्त के अलाव में जो टूट कर भी नहीं टूटा, वह सिर्फ़  विश्वास था, जो जोड़ता रहा, मगर खुद टूटता रहा, जो दरारें भरता रहा, पर खुद भीतर से रिसता रहा, जो आज भी आसमान को गिरने नहीं देता, जो आज भी धरती को थमने नहीं देता, जो आज भी मन के दिए को बुझाने नहीं देता, वह विश्वास ही तो है| जो जोड़ता है वह भी विश्वास है और जो टूट रहा है, वह भी विश्वास है| टूटने और जोड़ने के खेल में छुपी है एक आसदरिया के पास अपनी बहुत प्यास है, जो जोड़ता है सबको, वह भीतर से यकीनन टूटा जरूर होगा| जो साथ है हरदम, वह एक दिन यकीनन छूटा जरूर होगा| दिल के भीतर देखकर भीतर उसका छूट जाना और भीतर ही भीतर टूट जाना, कोई नहीं देख पाता, कोई नहीं सुन पाता कि वह अब भी कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ छोड़ रहा होगा, खुद के मन की मिट्टी से कोई कोना तोड़ रहा होगा, मन समझते हैं ना आप?

जब हम रिश्तों के गांव बसे होते हैं ना, तो एहसास की पतली गलियां उनके बीच खुद ब खुद बन जाती हैं| यह गांव इन्हीं गलियों से सांस लेते हैं, गांव के जीवित रहने में और बस्तियों के तबाह हो जाने में इन पतली संकरी गलियों का बड़ा योगदान होता है, इसलिए शायद गलियों के सिरे खुले छोड़े जाते रहे योग्य इंजीनियरों द्वारा और बातों के सिरे खुला छोड़ देते हैं समझदार लोग| वे जुलाहे की तरह गांठ लगाकर छुपाते नहीं, वे तो सिरे खुले छोड़ते हैं ताकि आने जाने की सुविधा बनी रहे, ताकि जाने वाले अपने अहम, अपने स्वार्थ और अवसरवादिता का सामान लेकर कभी भी उठकर जा सकें और आने वाले कभी भी अपने अहम को भुलाकर, अहंकार को गलाकर, किसी भी सिरे से लौट सकें|

जी हां दोस्तों! बहुत ज़रूरी है बातों के सिरे खुला रखना ताकि जीवन बचा रहे, साँसों में घुटन न हो, ताकि समझ आ सके जिसे सही समझ कर प्यार करते रहे, वह कितना सही था और जिससे गलत समझ कर बचते रहे, क्या वह सच में गलत था? सड़कें खुली रहती हैं, तो जीवित रहती हैं और सिरे खुले रहने से जीवित रहते हैं रिश्ते| इतना खुलापन तो ज़रूरी ही है आज के संदर्भ में, हम इस स्पेस कह सकते हैं| हर किसी को अपनी-अपने स्पेस की तलाश है और स्पेस की जरूरत भी है| तो क्यों ना मिलकर एक दूसरे को स्पेस दें, सब की निजता का सम्मान करें| है न दोस्तों!

दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं, खाई अभी जोड़ती हैं, नदियों को जोड़ने का काम पुल सदियों से करते आए हैं, लेकिन पहाड़ों को जोड़ती खाइयों पर ध्यान किसी का नहीं गया, सोचती हूं इन ऊंचे कठोर बदरंग और रुखे, अपने ही अभिमान में अकड़े-अकड़े से पहाड़ कभी भी अपनी जगह से नहीं हिले, लेकिन उनके बीच की गहरी खाई उन्हें हमेशा जोड़े रखती है, यह जोड़ बड़ी कोमलता लिए हुए हैं, बहुत ही सरलता से , बहुत ही तरलता से जुड़े हैं| दोनों सिरों से स्थिर रहने के कारण ये अभिशप्त ज़रूर हैं ये पहाड़, ये पर्वत लेकिन जब-जब भी ये दोनों एक दूजे को दूर से देखते होंगे, उनकी धुंधलाई-सी आंखों से अनगिनत पीड़ा के झरने, असंख्य तड़पती नदियां बहने लगती होगीं और खाई में बिखर जाती होगीं| यह खाई ही उन्हें जोड़ती है, जितनी गहरी खाई उतना गहरा प्रेम! कौन देख सका है भला पल-पल खाई में तब्दील होते पहाड़ों को|                                                                           

देखना! एक दिन ऐसा भी आएगा, जब ये ऊंचे पहाड़ अपने दुख से गल जाएंगे, अपनी पीड़ा में बह जाएंगे और उनके अविरल बहते आंसू बीच की गहरी खाई को पाट देंगे, पीर पर्वत-सी हो जाएगी, पहाड़ नदी हो जाएंगे, उस दिन दो नदियां आपस में मिल जाएँगी और खाई पट जाएगी| इस अनोखा मिलन देखकर धरती गाएगी, नाचेगी, मुस्काएगी, लहराएगी और... और आसमान फिर इतिहास लिखने लगेगा, उस दिन दोनों पहाड़ एक दूजे का माथा चूमेंगे, उस दिन खाई भी मुस्कराएगी|

कुछ रिश्ते आसमान में बने होते हैं| उनका धरती पर कोई आधार नहीं होता, इसलिए कभी समझ नहीं आते और ना समझ आती है ऐसी धरती, जहां पर प्रेम लिखा तो खूब गया, लेकिन कितना किया गया, कौन जाने? लोगों ने बिना प्रेम किए, प्रेम लिखा| यह ऐसा ही था, जैसे समंदर के किनारे बैठकर उसकी गहराई पर चर्चा करना| अध्याय लिखे जाएंगे ज़रूर आसमानों में| प्रेम उन्मुक्त होगा वहां, सुना है, आसमानों में कोई जेल नहीं, कोई रस्सी नहीं, कोई कानून नहीं, वहां ज़रूर प्रेम जीवित रहता होगा, जिन्हें धरती ने नहीं संभाला, आसमान ने उन्हें थामा है क्योंकि कहते हैं कि आसमान का दिल बहुत बड़ा है, उसका न कोई ओर है, न छोर|

सुनो, सतह पर कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा गया| कुशल योद्धा गहरे में उतरकर ही लड़ते हैं| जो सिर्फ़  लहरों की सुंदरता निहारने का शौक रखते थे, वे शाम को ही लहरों को निहार कर लौट गए, जो जूझने का हुनर रखते थे, उन्होंने लहरों के संग खूब कलाबाजियां कीं| समंदर सभी को उसकी पसंद के उपहार देता है| किसी को नमक, किसी को मोती, किसी को रेत, किसी को गरल, तो किसी को अमृत| समस्त संसार की मीठी नदियों के दर्द को खुद में समेटे वह किस कदर थमा रहता है, कौन जाने? समंदर बाहर ही नहीं, हमारी आंखों के अंदर भी है, इस समंदर का कभी कोई किनारा क्यों नहीं मिलता? कौन पता देगा कि अगर मैं उसकी आंखों के गहरे समंदर में खो जाऊं, तो भी मुझे किनारा नहीं मिलेगा या नहीं, और अगर मैं खुद दर्द के समंदर में डूब जाऊं, तब भी किनारा मिलेगा या नहीं, कौन जाने? कभी-कभी सोचती हूं, सारी दुनिया का दर्द खुद में समेट लेने वाले, सभी को आसरा देने वाले, अहोभाग्य हैं, परंतु समंदर को समंदर के भीतर सहारा देने कौन आएगा? समंदर कितना अकेला है, उसमें तो न जाने कितने डूब गए, लेकिन वह कहां जाए कि खुद को डुबो सके? उसके किनारों पर हजारों को मंज़िलें मिलीं, लेकिन उसे शहर कौन देगा? और वह तो हमेशा मुसाफिर का मुसाफिर रह जाएगा और कहता रहेगा- मुसाफिर हूं यारों ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना| है न दोस्तों!

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8.मत कर  अभिमान रे बंदे! 15/04/26

मत कर  अभिमान रे बंदे!

झूठी तेरी शान रे!

मत कर तू अभिमान,

तेरे जैसे लाखों आए, लाखों इस माटी ने खाए

मत कर  अभिमान रे बंदे!

झूठी तेरी शान रे!

मत कर तू अभिमान,

पिछले दिनों ट्रेन के सफ़र के दौरान एक सज्जन से मुलाकात हुई. उनसे थोड़ी बातचीत होने लगी| उन्होंने बताया कि वे उम्र का लंबा सफ़र तनहा ही काट रहे हैं, पेशे से लेखक हैं| ऐसा जानकर मेरी बातों में रूचि बढ़ी| बात निकल पड़ी, उनकी शिकायत थी कि प्रेम-संबंध तो बहुत बने, लेकिन वे किसी भी महिला पर भी भरोसा नहीं कर पाए| उन्हें कोई भी अपने लायक नहीं लगी| कोई उनके शब्दों से प्रेम करती थी, कोई उनके रंग-रूप पर फ़िदा थी, तो कोई उनकी शोहरत से प्रभावित थी, उनसे प्रेम किसी ने नहीं किया| बहरहाल वे एक महिला के साथ कुछ वर्ष रहे भी, पर फिर अलग हो गए| वे कहने लगे कि आप ही बताइए कैसे मैं इन चतुर-चालाक महिलाओं पर भरोसा कर लेता और अपनी ज़िंदगी नरक बना लेता? फिर वे बोले, क्या आप मेरी इस दुख भरी कहानी पर भरोसा करेंगी?

मैं मुस्करा दी और मैंने कहा कि देखिए, मैं भी एक महिला हूँ और आप मेरे लिए अजनबी भी हैं, लेकिन मैं आपकी हर बात पर एतबार कर सकती हूं, पर आप मुझे यह बताइए कि अपनी महिला मित्रों और प्रेमिकाओं के साथ रहकर भी उन पर संदेह क्यों करते रहे? एतबार क्यों नहीं कर पाए? बोलिए! उनके पास इसका जवाब नहीं था| ज़ाहिर सी बात थी कि उनका अभिमान, उनका ईगो, उनसे बहुत बड़ा था| अभिमान हमेशा आपको अकेला कर देता है, प्रेम और विश्वास आपके चारों ओर बस्ती बसाते हैं, फूल खिलाते हैं| वे सज्जन तो केवल एक उदाहरण हैं, आपके-हमारे आसपास बहुत से लोग हैं, जिन्हें अपने ज्ञान का अभिमान है, किसी को रूप का, किसी को दौलत का या किसी को शोहरत का| क्या है यह अभिमान? चलिए, आज इसी पर बात करते हैं, दोस्तों!

दोस्तों! अभिमान हमें भीतर से डराता है, वह हमें संवेदनशील नहीं होने देता, हमें पिघलने नहीं देता, हमें बरसाने नहीं देता| क्या आपने कभी सोचा है क्यों? इसलिए कि संवेदनशील होने के लिए आपको सारे आवरण हटाने होते हैं, बनावटीपन से दूर होना होता है और परत-दर-परत खुद को खोलना होता है, लेकिन अभिमान, यह ऐसा कभी होने नहीं देता, वह हमें रोकता है, व्यक्त होने से, खुलने से, इंसान होने से, किसी के सामने अपने आप को ज़ाहिर करने से| हम सतर्क होते हैं, हमेशा उलझनों में घिरे रहते हैं, कोई देखने न ले, कोई जान न ले, कोई पहचान न ले, कोई चीज़ मेरे भीतर प्रवेश न कर जाए, कोई भावना मुझे छू न जाए, कोई भीतर न आने पाए| कहीं ऐसा ना हो कि कोई मेरे भीतर आकर मुझको नष्ट कर दे, मेरा वजूद खत्म कर दे, खुद को छुपाने का हुनर आता है अभिमान को| अभिमानी हमेशा खतरों से घबराते हैं, वे जानते हैं कि किसी को करीब आने देने से सौ मुसीबतें आएंगी| अभिमानी व्यक्ति हमेशा कमज़ोर होता है, ना तो वह किसी के हृदय में प्रवेश करता है और ना ही किसी को अपने हृदय के भीतर आने की अनुमति देता है| आपका क्या ख्याल है दोस्तों?

अभिमानी व्यक्ति हमेशा एक किले के भीतर बंदी की तरह रहता है| इस किलेबंदी से उसे सुकून मिलता है, सुरक्षा का आभास होता है, वह अपने आसपास के लोगों के साथ संवाद बंद कर देता है या फिर कम कर देता है| बड़ी ताज्जुब की बात है, खास करके उन लोगों से, जिन्हें  वह प्रेम करता है| जैसे ही उसे प्रेम के होने का अहसास होने लगता है, वह तुरंत अपने किले में गुम हो जाता है, बड़े-बड़े दरवाज़ों पर सांकल चढ़ाकर, वह इत्मिनान से बैठ जाता है| उसे लगता है अब बाहर की कोई भावना उसे पर प्रहार नहीं कर पाएगी| यह अहंकार उसका कवच बन जाता है और वह बंदी| वह कारागृह में कैद हो जाता है, कारागृह, जिससे हम दिल कहते हैं|

मुश्किल उस पल आती है, जब उन दरवाज़ों की की-होल से प्रेम झांकने लगता है, जी हां, दोस्तों! प्रेम तो झांक ही लेता है, चाहे कितने भी पहरे हों, अंदर प्रवेश कर ही जाता है| सूरज की किरण की तरह, हौले-से, चुपके-से और अपने पैर पसारने लगता है, फूट पड़ता है हॉट-स्प्रिंग की तरह, सूरज की लाली की तरह, एक पतली रेखा के आकार में, उस समय अभिमान घबराने लगता है, थर्राने लगता है, कुलबुलाने लगता है, अपनी सुरक्षा में इस सेंध को देखकर वह परेशान होने लगता है| आखिर मेरी सुरक्षा में सेंध लगी, तो लगी कैसे?

आपको ‘अभिमान’ फिल्म याद है? किस प्रकार अपने झूठे अभिमान के चलते नायक नायिका को परित्यक्त करने का निर्णय ले लेता है, क्योंकि वह उसकी कला को, उसके टैलेंट को स्वीकार नहीं कर पाटा, वह उसे कंट्रोल करना चाहता था, केवल अभिमान के कारण| अभिमान इतना भयभीत रहता है कि वह अपने मन रूपी सीता को, अपनी ईगो की जानकी को, लक्ष्मण-रेखा के अंदर ही रखना चाहता है ताकि उसका हरण ना होने पाए| अभिमान हमेशा अकेला ही जीता है, खुद को छुपाने का करतब जानता है वह, खुद को ढकना वह अच्छी तरह जानता है| उसे प्रेम अपनी मृत्यु जैसे लगने लगती है इसलिए अहंकारी व्यक्ति कभी प्रेमी नहीं बन पाता| एक बड़ी सुंदर बात पढ़ी थी कहीं, कि जीवन की गहराई में उतरना है, तो असुरक्षित अनुभव करने के लिए तैयार करना होगा, स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने के लिए तैयार रहना होगा, खतरे उठाने ही होंगे, अज्ञात में जीना ही होगा और सुरक्षा जीवन नहीं होती| असुरक्षा में जब हम होते हैं, तो हम सदैव चुनौतियों से जूझने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन जब हम सुरक्षित होते हैं, तो हम अपने ही दायरे में फंस कर नष्ट होते जाते हैं

अभिमानी होकर हम अपने सभी द्वार-दरवाज़े-खिड़कियां-रोशनदान झरोखे बंद कर लेते हैं, जिससे हवा-खुशबू-रोशनी-मलयानिल कभी प्रवेश नहीं कर पाती क्योंकि इनका प्रवेश निषेध हो जाता है|

मेरे ख्याल से दोस्तों! इसे तो हम जीना नहीं कहेंगे, है न...? बल्कि कब्र में रहना कहेंगे| समंदर इसलिए खड़े होते हैं कि वह रहस्य छुपाते हैं, लेकिन नदिया? नदिया के भीतर भाव बहते हैं, इसलिए वह मीठी होती है, उसमें मिठास होती है, वह तृप्ति देती हैं, संतुष्ट करती है| लेकिन समुद्र की एक बूंद भी तृप्त नहीं कर पाती| अभिमानी समंदर एक दिन खुद ही अपनी पीड़ा के साथ खुद में ही डूब जाता है, घुट-घुट के मरता है पल पल|

सब मेरे जैसे हैं और मैं सभी के जैसा, यह भाव मन में रखना होगा, सबसे पहले हवा को खुशबू को महसूस करना होगा, उसे खुद के भीतर आने देना होगा, उसके बाद प्रेम को भीतर प्रवेश देना होगा, दरवाज़े  खोल कर रखने होंगे| देखना एक दिन प्रेम की ऊष्मा अहंकार के  ग्लेशियर को धीरे-धीरे पिघला देगी, यकीनन पिघला देगी|

कितनी मीठी नदियों ने समंदर में समा जाने से ठीक पहले यही पूछा होगा, रेत ने किनारे से तड़प कर पूछा होगा, समंदर से बाहर कूद पड़ी मछली ने किसी मछुआरे से पूछा होगा, किसी ज्ञानी किसी योगी से किसी पगली ने पूछा होगा, मन्नत के धागों ने देव-मंदिर के देवता से तो, किसी दस्तक ने बंद दरवाजा से पूछा होगा कि पिया तोरा अब कैसा अभिमान?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

9.क्या कभी स्वयं से प्रेम किया?01/04/26

दोस्तों! यह गीत तो आपने ज़रूर सुना होगा, जिसमें नायिका बार-बार अपने सजाने-संवरने की बात इन शब्दों में करती है कि सजना है मुझे, ज़रा उलझी लटें संवार लूँ, हर अंग का रंग निखार लूँ, के सजना है मुझे...आखिर अपने सजने-संवरने में संकोच कैसा? अक्सर लोग जब रिश्तों और संबंधों पर चर्चा करते हैं तो खूब शिकायत करते हैं कि फलां व्यक्ति को उसने बहुत प्रेम किया, उसके साथ बहुत समय नष्ट किया, मंहगे तोहफे दिए, कोई फायदा नहीं हुआ। गोया किसी फायदे के लिए प्रेम किया हो। या कि सब बेकार की बातें है कभी किसी से प्रेम नहीं करना चाहिए सब धोखेबाज होते हैं, कोई किसी का नहीं, आदि-आदि। कुछेक महिलाएँ स्वयं से ही प्रेम करने की सलाह देती दिखाई देती है कि दुनिया के सभी पुरुष बहुत बुरे हैं, इसलिए स्वयं से प्रेम करो और खुश रहो। तो कहीं पुरुष कहते हैं सभी महिलाएं बहुत चालाक और फरेबी हैं, उनसे बचो स्वयं में खुश रहो। क्या सिर्फ़  स्वयं से प्रेम किया जा सकता है? आत्मकेंद्रित या आत्ममुग्ध होकर भी क्या आप खुश रह पाते हैं? सबसे ज्यादा कुंठित तो आत्ममुग्ध लोग ही होते हैं और एक दिन अपनी कुंठाओं में डूब जाते हैं। ये आत्ममुग्ध कभी किसी से प्रेम नहीं कर पाते। स्वयं तो मरते ही हैं साथ ही प्रेम की हत्या भी करते हैं। मेरी एक मित्र हैं, उनसे जब मिली तो उन्होंने बड़ी शान से मुझे कुछ तोहफे दिखाए, जो उनके नए प्रेमी ने दिए थे और वो तोहफे भी भी दिखाए जो उन्होंने पिछले प्रेमी से रिश्ता टूटने के बाद वापस मांग लिए थे। यह तो वस्तुओं के लेन-देन का रिश्ता हुआ। प्रेम कहाँ हुआ? अगर प्रेम था तो वो समाप्त कैसे हो गया? कोई आपके बनाये सांचे में नहीं ढला तो समाप्त प्रेम? कोई बिलकुल आपके जैसा नहीं हो सका, तो रिश्ता समाप्त?

एक और उदाहरण दूँ, एक पुरुष मित्र हैं, जो अक्सर कहते हैं प्रेम तो कर लें, लेकिन उससे क्या लाभ? हम तो स्वयं से प्रेम करते है स्वयं के लिए जीते हैं। मैंने पूछा फिर इतने दुखी क्यों हो? जब स्वयं से प्रेम है तो खुश रहो न, चेहरे पर मुस्कान क्यों नहीं? आखों में से प्रेम क्यों नहीं झांकता? हमेशा डरे हुए क्यों रहते हो? अशांत क्यों है मन, आनंद क्यों नहीं जीवन में? और वो प्रेम मदिरा की खुमारी कहाँ है? वो मित्र चुप थे कोई जबाव नहीं था उनके पास। जब स्वयं ही रीते हो अन्दर से तो दूसरे को क्या देंगे आप? फिर लोग मंहगी वस्तुओं का लेन-देन करके प्रेम की कमी को पूरा करने लगते हैं। खुश होते हैं और वस्तुओं में प्रेम खोजने लगते हैं और कहते हैं देखो हम कितना प्रेम करते हैं एक दूजे से कोई किसी को कार या बंगला गिफ्ट करता है कोई किसी को हीरे-मोती लेकिन हीरा तो बना रहा, सदा के लिए लेकिन प्रेम का अता पता नहीं...

सच्ची बात तो ये है कि लोग जानते ही नहीं कि स्वयं से प्रेम करने का क्या मतलब है। स्वयं से प्रेम करना यानी स्वयं को समझ लेना, स्वयं को जान लेना, स्वयं को बतला देना कि मुझे ये पसंद है। मुझे इसकी चाह है और मैं इसे चाह कर खुश हूँ। हम जब किसी को दुःख देते हैं तो उससे ज्यादा स्वयं दुखी होते हैं इसके उलट हम जब किसी को प्रेम करते हैं तो उससे ज्यादा स्वयं सुखी होते हैं। हम प्रेम अपने लिए करते हैं, हमें कोई पसंद है हमें कोई भाता है, हम किसी को सोचते हैं, याद करते हैं और खुश हो लेते है। हमने प्रेम कर लिया तो कर लिया बात समाप्त हुई न, ये हमारा प्रेम है संपूर्ण रूप से।

अब दूसरा करें या न करें, प्रतिदान दे या न दे; ये उसकी समस्या है हमारी नहीं। हमारे मन को ख़ुशी मिली किसी को चाह कर, याद करके तो हम डूबेंगे आनंद में, दूसरा न डूबे तो ये उसकी समस्या है। प्रेम हमारे मन में खिला, चन्दन हमारे मन में महका आप उसे महसूस करिए न, आप सुगंध से भर जाएँ ना कि इस चिंता में कुंठित हो जाए कि वो अभी कहाँ होगा, किसके साथ होगा, मुझे याद करता है या नहीं प्यार करता है या नहीं। इन बेकार के सवालों के जवाब नहीं मिलते कभी। उलटे आपके रिश्ते खराब होते हैं, प्रेम को समझने से पहले स्वयं को समझना होगा हम क्या चाहते है?

हाँ, प्रेम एक व्यक्ति करता है, दूसरा तो उसकी चमक से चमकता है बस। चंपा कहीं ओर खिलती है लेकिन उसकी खुशबू से कहीं दूर, बहुत दूर कोई बौराता है। प्रेम के अपने रहस्य हैं। शक्ति है ये प्रेम की, इसे समझना होगा। हम जब स्वयं को प्रेम से भर लेते हैं तो हम प्रेम-पुंज हो जाते हैं, प्रेम के चुंबक हो जाते हैं। निस्वार्थ भाव से जब सांसों की माला पे किसी का नाम सिमरा जाता है तो, इस हौले-हौले चलने वाले मनकों की गति से दूर बहुत दूर कोई चिड़िया पंख फड़फड़ाने लगती होगी यक़ीनन ये सब स्वयं से प्रेम के नतीजे हैं।

हमें अपने भीतर जो सबसे अच्छा गुण लगता है हमें उस गुण से प्रेम करना चाहिए। यदि आपको लोगों से प्रेम से बातें करना पसंद हैं, उनकी मदद करना या उनके दुःख दर्द सुनना तो गर्व कीजिये अपने इस गुण पर, अपने किए पर कभी अफ़सोस मत कीजिये। हमारे पास जो था हमने दे दिया, कोई नहीं लौटाए तो ये उसकी समस्या है, आपकी नहीं। हमें हमारा प्रेम कलश हमेशा भरे रखना चाहिए, जब भर जाए तो उसे मुस्काते हुए छलकाना होगा। आइने में स्वयं को देख मुस्काना सीखना होगा।

याद रहे, जब तक स्वयं के प्रति प्रेम से नहीं भरेगे दूसरों से कभी प्रेम नहीं कर सकेगे। भीतर बहुत भीतर से झरने फूटेंगे तभी बाहर हरियाली होगी। शुरुआत बूंद जैसी छोटी ही क्यों न हो, लेकिन हो तो सही... ये भी चलेगा।

यहाँ ओशो की कही बहुत सुंदर बात साझा कर रही हूँ, ओशो कहते हैं "अमेजन दुनिया की सबसे बड़ी नदी है लेकिन जहां से वह निकलती है वहां एक-एक बूंद टपकती है। दो बूंदों के बीच बीस सेकंड का फासला होता है, लेकिन वह एक-एक बूंद गिर-गिर कर अमेजन जैसी विशाल नदी बन जाती है, इतनी विशाल कि जब सागर के समाने जाती है तो सागर भी हैरान हो जाता होगा उसे देख कर की ये नदी है या सागर?"

सच तो है, प्रेम भी तो ऐसे ही शुरू होता है। बूंद-बूंद से, और कैसे गहरा हो जाता है, सागर सा... व्यक्ति व्यक्ति से और एक दिन हम "समस्त" से प्रेम करने लगते हैं। प्रेम इतना अनंत है कि एक व्यक्ति उसे सम्भाल ही नहीं सकता, घबरा जाता है, भय खाने लगता है, डूब जाता है और प्रेम उसे डूबा कर फिर आगे बढ़ जाता है। वो अब प्रार्थना बन जाता है। प्रेम कभी किसी एक व्यक्ति पर नहीं टिकता वो फैलता है, मरता नहीं हैं बल्कि अपने रूप बदलता रहता है। जो प्रेम कर रहा है वो रहे न रहे, जिसे प्रेम किया जा रहा है वो रहे न रहे लेकिन प्रेम फिर भी रहता है हमेशा... हर हाल में। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि प्रेम बना रहे। एक बहुत सुंदर कहानी आपको बताती हूँ:

बुद्ध का अंतिम दिन था जिस दिन वे भोजन करने इक बहुत गरीब लुहार के यहाँ गए थे। लुहार अत्यंत गरीब था उसके पास बुद्ध को खिलाने के लिए कुछ नहीं था। बरसात में लकड़ियों पर उगने वाली छतरी नुमा कुकरमुत्ते की सब्जी बड़े प्रेम से बना लाया। जहर से ज्यादा कड़वी सब्जी खाते रहे बुद्ध, वो पूछता रहा कैसी लगी? बुद्ध मुस्काये तो उसने और सब्जी थाली में डाल दी। उसका प्रेम देख बुद्ध मुस्काते थे और पूरी सब्जी खा गए। देह में जहर फ़ैल गया। चिकित्सक बोले आप जानते थे सब फिर भी उस लुहार को रोका क्यों नहीं? बुद्ध मुस्काये और बोले, मौत तो एक दिन आनी ही थी, मौत के लिए प्रेम को कैसे रोक देता? मैंने प्रेम को आने दिया, प्रेम को होने दिया और मौत को स्वीकार किया। हानि कुछ ज्यादा नहीं -कल परसों में मरना ही था लेकिन प्रेम की कीमत पर जीवन को कैसे नहीं बचा सकता हूँ।

ऐसा ही होता है प्रेम! आप प्रेमवश होकर जहर पी जाते हैं, स्वयं दुःख उठाते हैं लेकिन प्रेम को होने देते हैं। प्रेम को खोजने आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं होती आपको स्वयं के भीतर झांकना होता है। हम सभी के भीतर हमेशा प्रेम कलश भरा होता है। उसे बस प्रेम से छूने की देर होती है वो छलकने लगता है। जब भी कोई प्रेम से पुकारता है, मन को छूता है हमारा प्रेम कलश भर-भर जाता है। लेकिन अक्सर हम उस कलश के ऊपर भय,शंकाओं पूर्वाग्रहों और संदेहों के ताले जड़ देते हैं। जैसे उन्मुक्त झरने के ऊपर भारी पत्थर रख दिया हो... लेकिन भीतर, बहुत भीतर फिर भी प्रेम बहता है चुप-चुप से। उसे बहने दीजिये, ऊपर आने दीजिए, रोकिए मत... टोकिए मत... छलकने दीजिये उसे, प्रेम हर हाल में जीवित रहे। लेकिन पहली शर्त है प्रेम स्वयं से हो, स्वयं से हो प्रेम, स्वयं को प्रेम से भर लीजिए फिर दूसरे से प्रेम कीजिये। क्या कभी स्वयं से प्रेम किया?

 

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10. कोई ये कैसे बताए के, वो तन्हा क्यूँ है?15/05/26

दोस्तों! आपने कैफ़ी साहब की यह मशहूर ग़ज़ल तो ज़रूर सुनी होगीजिसके बोल हैं- कोई ये कैसे बताए केवो तन्हा क्यूँ हैसच मेंजब-जब यह ग़ज़ल सुनती हूँसोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि वो जो अपना था वो हीऔर किसी का क्यूँ हैया फिर कि यही दुनिया है तो फिरऐसी ये दुनिया क्यूँ है?
यही होता है तो आख़िरयही होता क्यूँ है?

चलिएआज दोस्तों इसी बात पर चर्चा करते हैंचर्चा करते हैं एक मित्र कीजो एक दिन बड़े परेशान-हैरान से होकर मेरे पास आए और कहने लगे कि आजकल बहुत दुखी हूं| ज़िंदगी  में कुछ रास ही नहीं आ रहा, कोई रस ही नहीं रह गया| कई जगह प्रेम किया, हमेशा नाकामी ही मिलीमैं मन ही मन सोचाकई जगह प्रेम कियायह क्या हैवे कहने लगे कि दर्द और दुख जैसे मेरे जीवन के हिस्से बन गए हैं, प्रेम खोजने गया था, तो दुख क्यों मिला? मैंने कहा कि अब की बार दर्द खोजने जाना, तो यकीनन प्रेम मिल जाएगा| आप हमेशा प्रेम और खुशी ही खोजते हैं, इसलिए दर्द पीछे पड़ा रहता है, इस बार दर्द की खोज करेंगे, तो यकीनन, प्रेम मिलेगा| आप किसी का प्रेम, किसी का दर्द महसूस तो कीजिए, प्रेम खुद ब खुद आ जाएगा| दोनों मानो एक ही गांव में, एक ही बरगद की छांव में रहते हैं| एक को आवाज़ दो, तो दूजा संग आ जाता है| खुशी और गम, दर्द और चैन, दोनों एक दूसरे के ही हिस्से हैं, मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| आप खुशी को अपनाने जाएंगे, तो गम खुद ही बिना बुलाए चला आएगा, जैसे दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होंदरअसल, हम सभी सिर्फ़ खुशी चाहते हैं, खुश होना चाहते हैं, हंसना चाहते हैं| कोई भी नहीं चाहता कि उसका वास्ता आंसुओं से पड़े| हम ताउम्र खुश होने की तीव्र इच्छा में न जाने कितनों को दुखी किए जाते हैं, लेकिन यदि हम सभी के हिस्से में खुशियां आ गईंतो बेचारा गम कहां जाएगा? वह तो एक कोने में पड़ा-पड़ा दुखी होता रहेगा| वह कहां जाकर, किस गांव में अपना बसेरा बनाएगा? उसे भी तो अपने होने का एहसास होना चाहिए, हो सकता है यह बात आपको अनोखी लग रही हो दोस्तों! पर है तो यही सच, यकीनन यही सच है|

हम सभी दिल की बगिया में खुशियों के बीज होते हैं, दिल की ज़मीन पर सपनों के पौधे रोंपते हैं, फिर क्यों कर उनमें दुख के कांटे निकल आते हैं? हमने तो सिर्फ़ सुख, खुशी और आनंद को ही न्योता दिया था ना....ये बिन बुलाए मेहमान कहां से आ गए? यह ग़म, यह दर्द, यह दुख, इन्हें तो नहीं बुलाया था मैंने? फिर यह कहां से मेरे जीवन में चले आए? हम इन्हें देखकर दिल का दरवाजा बंद करना चाहते हैं, जबकि हमें तो इन्हें गले लगाना चाहिए| ये हमारे अतिथि हैं, हमारे मेहमान हैंजो एक बार ये हमारे हो गए, तो जन्मों तक हमारा साथ निभाते हैं| खुशियां...खुशियां तो हमसे फ्लर्ट करती हैं और दर्द हमसे सच्ची मोहब्बत| ये हमारे साथ चलते हैं, मीलों तक| हमारे अकेलेपन के साथी होते हैं ये आंसू, हमारी तनहाइयों को रोशन करती हैं ये यादें| फिर बताइए. कौन अपना हुआ? बेशक...यकीनन...गम ही अपना है| जिंदगी इतनी लंबी है कि यहां मीलों तक हमारा साथ निभाने धूप ही आएगी, छांव आएगी भी तो पल दो पल, चांदनी दिखेगी तो भी क्षण भर के लिए, इसलिए आप गम से ना घबराएंऔर हाँहर व्यक्ति अपने जीवन में खुशियों के ही बीज होता है, कोई भी जानबूझकर दर्द उगाना नहीं चाहता, लेकिन यह खरपतवार है, जो स्वयं ही उग जाती है|

और हाँ दोस्तों! जब हम दूसरों के दर्द से अंजान बने रहते हैं, तब भी हम अकेले हो जाते हैं, तन्हा हो जाते हैं, इतने बेखबर, इतने बेकदर, इतने बेपरवाह हम कैसे हो सकते हैं? हम देह से दूसरे को जानते हैं, पर मन से कभी जान ही नहीं पाते| हम मन की दूरी कभी तय नहीं कर पाते और हमारे आसपास के रिश्ते बिखरते जाते हैं और हम तनहा होते जाते हैं|

हम तन्हा इसलिए भी होते जा रहे हैं दोस्तों! क्योंकि वक्त बदल रहा है, परिस्थितियों बदल रही हैं, हम बदल रहे हैं, सब बदल रहे हैं, लेकिन जो नहीं बदला है, वह है मानव समाज और उसमें बसा हुआ प्रेम, वे संस्कार जो हमें भारतीय होने के नाते अपने पूर्वजों से मिले हैं| हमारे परिवार, जो हमारी थाती हैं, हमारी पूंजी हैं, हमारी पहचान हैं, फिर भी उन्हें छोड़कर हम आभासी दुनिया में जीना चाहते हैं, मायावी दुनिया में, जिसमें एक नशा है, यहां कोई बंदिशें नहीं, कोई शर्तें नहीं, यहां लोग खुद को चाहे जैसा प्रस्तुत कर सकते हैं, अपनी कमज़ोरी को छुपा सकते हैं, स्त्री हैं तो पुरुष बनाकर, पुरुष हैंतो स्त्री बनकर, उम्र दराज़ हैं, तो युवा बनकर, खुद को सिंगल बता कर लोग ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का साथ पाने का प्रयास करते हैं| यहां सब कुछ चलता है, झूठी फोटो, झूठी प्रोफाइल, झूठी बातें, झूठे वादे, खुद के अवगुणों को छुपा कर, अपने गुणों का बखान...और न जाने क्या-क्या? असली दुनिया के खुरदुरेपन में हमारे साथ कौन है, इसकी पहचान न करते हुए हम आभासी संसार में हर पल, हर क्षण, किसी न किसी अपने को खोजते हैं|
सवाल यह है बिल्कुल भी नहीं है कि रिश्ते कितने सच्चे या कितने झूठे हैंसवाल यह है कि आखिर लोग  तलाशते क्या है रिश्तो मेंसच्चा प्यारसच्ची दोस्तीअपनापन या अकेलेपन को दूर करने के लिए सिर्फ़  टाइमपासया खुद की तलाशवास्तविक दुनिया से सटे हुए आकंठ निराशा में डूबेअवसाद और विषाद से घिरे लोगों का समूह है ये सोशल साइट्स| चलो मान लेते हैं, रिश्ते चाहे जो भी बनाए जाएं, ऑनलाइन या ऑफलाइन, मिट्टी तो दिल की ही लगती है न. और आंसुओं के पानी के बिना कोई मूरत नहीं बनतीसंवेदना की मज़बूत गाड़ी में ही कोई रिश्ता जन्म लेता हैउसे स्क्रॉल करके या माउस पकड़कर बनाने की कोशिश ना करें और न ही उसे मिटाने की|

याद रखिएगा दोस्तों! कि रिश्ते जीवन की रौनक होते हैं, वे हमें जीवन देते हैं, दुखों से लड़ने का हौसला देते हैं, हमें मज़बूत बनाते हैं, हमारे जीने की वजह बनते हैं| उन रिश्तों पर हम बंधन नहीं लगा सकते, हमें उन्हें सिर्फ़  खेलने देना है, ताकि वे महक सकें| हम अपना आंचल उनके लिए फैला सकते हैं, ऐसा आंचल जिसमें सिर्फ़ अपनापन हो, सिर्फ़ मोहब्बत हो, सिर्फ़ मुरव्वत हो, सिर्फ़ इंसानियत हो| इस आंचल में यदि चिंगारियां दिखेंगी, तो रिश्ते कहीं बाहर छांव की तलाश में, शांति की तलाश में भटकने लगेंगेऔर हाँ दोस्तों! हम तन्हा  इसलिए भी होते जा रहे हैं कि हमारे जीवन में पैसों के पीछे भागा-दौड़ी, आपा-धापी बहुत अधिक है| इसने हमें अवसाद, विषाद, निराशा दी है और न जाने कौन-कौन सी नकारात्मक भावनाओं से हमारा परिचय करवा दिया है|

तो आज चलेंसभी दीवारें गिरा देंजो मेरे लिए अच्छा हैजो तेरे लिए अच्छा हैउसे गले लगा लेंमेरे  सीने में उसकी धड़कन समा जाएउसकी धड़कन में मेरी...हम दोनों में जब इतनी क़ुर्बत है तो फिर,ये सारे फासले मिट जाएंगेचलोआज हर लुटे हुए घर पे एक दीपक जलाएंटूटे-जर्जर दरवाज़ों पर जाकर दस्तक देंजिस किसी की आस कराह रही हैउसकी मलहम-पट्टी करेंऔर अगर प्यार का रिश्ता हैजनम का रिश्ता है, तो उसे बदलने से बचाएं......सच कहा न दोस्तों!

11. रहें न रहें हम  01/05/26

किताब-ए-दिल का कोई भी पन्ना सादा नहीं होता,

निगाह उस को भी पढ़ लेती हैजो लिखा नहीं होता|

जी हां दोस्तों! हम ज़िंदगी भर अनगिनत किताबें पढ़ते हैं और इन किताबों में मन के प्रश्नों के उत्तर खोजते हैंना जाने कितनी किताबें पढ़ डाली होंगी। अभी तक मैने भी कितनी की किताबें पढ़ी होंगीकुछ

थोड़ी-थोड़ी याद रह गईंकितनी ही पढ़ कर भूल गई। लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो हमें ताउम्र याद रहती हैं।

दोस्तों! हम सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी जीते हैंकोई अपने लिए जीता है, तो कोई किसी और के लिए अपना पूरा जीवन गुज़ार देता है। यह  जीवन भी तो एक किताब ही है ना, जिस लिए हम जन्म के दिन से लिख रहे हैं और अंतिम दिन तक लिखते रहेंगे। कितने हजारों-लाखों शब्दों से अपने जीवन की किताब को लिख डाला, कौन जानेकैसे लिखा है? अधूरा लिखा है या पूरा लिखाखुशी लिखी है या गम लिखा? कभी सोचा ही नहीं, बस लिखते ही चले गए| कभी इस किताब को पढ़ने की सोची ही नहीं और जिस दिन पढ़ने बैठे, उस दिन किताब ही रूठ गई, बोली, अब बहुत देर हो चुकी है,अब सो जाओ तुम।

क्यों समय रहते हमने जीवन की किताब नहीं पढ़ी हमनेभूल गए क्या? या फिर हम कहीं आलस से भर गएअंतिम नींद से पहले हमें सारी किताब पढ़ लेनी चाहिए थी। हम रोज़ नए-नए पन्नों पर हर पल का हिसाब लिखते चले गएबही खाते लिख-लिख कर खुश होते चले गए, लेकिन इन खातों को, इन पोथियों को कभी गलती से भी उलट-पलट कर नहीं देखा। क्या बहुत बिजी रहेकिसी दिन फुर्सत मिली भी तो...किसी दिन फुर्सत से अगर देखने बैठे, तो पाएंगे कि हमारी ज़िंदगी का पहला पन्ना हमारे जन्म से शुरू होता है। रोज़ नई इबारत, रोज़ नई इमारतबचपन की वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी, गुड्डे-गुड़िया के ब्याह और इन्हीं में रंगे-रंगे से कुछ पन्ने, कभी आम के पेड़ से कच्चे आम चुराने के आनंद से सराबोर कुछ पन्नेकुछ आगे बढ़ें, तो युवावस्था के इंद्रधनुषी पन्ने हैंजिनमें कहीं प्रेम का सुर्ख गुलाब हैतो कहीं पीले-नारंगी एहसासात, मैने पहले भी कहा था ना....इंद्रधनुषी रंग, ऐसे रंग जो हमारी जवानी के रंग में रेंज थेकहीं फागुन के रंग हैं, तो कहीं सावन की भिगोती फुहार से भीगे पन्ने। इस किताब में कुछ पन्ने गुलाबी और थोड़े सुर्ख भी हैं, जिन पर लिखी हैं प्रेम की, इज़हार की, मिलन की इबारत, ये पन्ने इस किताब के सबसे चमकीले पन्ने हैं। जो पूरी ज़िंदगी हमें रोमांचित करते रहते हैंहमें इन्हें बार बार पढ़ना चाहते हैं क्योंकि प्रेम के ये पन्ने कभी बदरंग नहीं होतेवे उम्र के हर मोड़ पर हमें लुभाते हैं। इन पन्नों पे हमने अपनी सबसे सुंदर भावनाएं दर्ज की होती हैंलेकिन..लेकिन देखो तो ज़रा इस किताब की कुछ पन्ने स्याह क्यों हैं? काले-नीले-सलेटी और थोड़े बदरंग...राख जैसे धूसर से...ज़रूर ये दर्द-दुःख और पीड़ा के पन्ने होंगे, तन्हाहियों के पन्ने, इंतज़ार के पन्ने, जो आंसुओं से भीग-भीग कर गल गए हैं। ज़रा ध्यान से....इन्हें ज़रा आराम से उलटना-पलटनावरना ये चूर-चूर हो जाएंगे और चिंदी-चिंदी हो कर चारों ओर फैल जाएंगे। ये दर्द के पन्ने, हम दोबारा कभी पढ़ना नहीं चाहते। इन्हें पढ़ने से हमारा अंतर्मन दुखी होता है, हम दुख के सागर में डूब जाते हैं। ये काले-धूसर पन्ने हमें बिल्कुल नहीं सुहाते|

चलो आगे बढ़ाते हैंआगे इस किताब में कुछ सतरंगी पन्ने जगमगा रहे हैं। इनमे दर्ज है, किसी की मुस्कराहट, जो कभी उसके होठों पर हमने सजाई थी, या किसी ने रख दी थी हमारे होंठो पर| ये हँसी-ख़ुशी के पन्ने....मुहब्बत के पन्ने...मुरव्वत के पन्ने...इंसानियत के पन्ने....सतरंगी-इंद्रधनुषी पन्ने......सब झूम-झूम कर मुझे बुलाते हैं...देखो न...कितने मासूम..कितने कोमल हैं ये पन्ने|

अरे यह क्या?...हमने किताब में ये कुछ पन्नेमोड़ कर क्यों रखे हैंये तो शायद बिल्कुल निजी हैंमेरे अपने पन्ने हैंशायद इनमें मैने अपने निजी पलों में छिपा कर रखा है। ये पन्नेमेरे गिर कर उठने का हिसाब रखते हैंफ़र्श से अर्श की हमारी सीढ़ी की ऊंचाई पर नज़र रखते हैंमेरे आंसू कब मेरी शक्ति बं गएइसका ब्योरा रखते हैंज़िंदगी की किताब के ये पन्ने हमें जीने का हौसला देते हैं। तन्हाइयों में जब कोई पास नहीं होता, तो ये हमें प्यार से थपकी देते हैं। कभी हमारे कंधे पर हाथ रख देते हैंहमें सहारा देते हैंकहीं जब हम फिसलने लगते हैं, गिरने लगते हैंतो एक छोटी-सी ऊँगली का सहारा देकर ये हमें उठा लेते हैं, हमारा संबल बनते हैं और फिर हमारी आँखों से आंसुओं की गर्म धारा बहने लगती है| पर इन्हें छूना नहीं, हाथ जल सकते हैं।

चलो! अब अगले पन्ने पलट कर देखते हैं, पर इन पर तो कुछ लिखा ही नहीं हैंबिल्कुल कोरे...आखिर क्यों? इन पन्नों में शायद कुछ ख़ास है.....ये पन्ने उन भावनाओं, उन ख्वाहिशों के नाम के पन्ने हैं, जिन्हें कभी व्यक्त नहीं किया जा सका, बहुत-सी अनकही बातें छुपी हैं यहाँ, बहुत-सी अनकही बातें लिखी जाएँगी यहाँ, कुछ नहीं लिखी गयी हैं और कुछ लिखी हैं, पर दिखती नहीं हैं....ऐसी हैं ये बातें। इसलिए ये पन्ने आज खाली दिखाई देते हैं....संवेदनाओं के नाम लिखे गए ये पन्ने हैं...छोड़े गए ये पन्ने हैं| वैसे शब्दों में इतना सामर्थ्य है भी कहां कि वे किसी की भावनाओं को, संवेदनाओं को, इच्छाओं को पूरी तरह व्यक्त कर देसारा अनकहा इन्हीं पन्नों में लिखा है। चाहे वे टूटी-फूटी ख्वाहिशें हों, आधे-अधूरे अरमान होंकुछ रिश्ते होंकुछ प्रेम भरे ख़त हों, जो कभी लिखे ही नहीं गए और अगर लिखे भी गए, तो कभी भेजे नहीं गए। कुछ आंसू, जो गालों पर ही सूख गएकुछ अनकही बातेंजो होंठो के किनारे पर ही चिपककर रह गई हों| दोस्तों! इन पन्नों को पढ़ने की नहींमहसूसने की ज़रुरत है। इन्हें आप छुए नहीं, बहुत कोमल हैंइनके मुरझाने का डर है|

ज़िंदगी की किताब कई पन्नों से पूरी है,

पर कुछ कहानियाँ हैजो लफ़्ज़ों में भी अधूरी है.

और इस किताब के आख़िरी कुछ पन्ने फटे हुए से दिखते हैं। ज़रुर ये वो पन्ने होंगे, जो ज़िंदगी की किताब से हमेशा के लिए दूर हो गए होंगे। मगर उनसे अलग होने के निशान किताब पर बखूबी देखे जा सकते हैं। बहुत से रिश्ते, बहुत से नातेबहुत से प्रियबहुत से अपने...जो हमसे छूट गए, जो हमसे रूठकर सदा-सदा के लिए चले गएजिनके लिए मन आज भी तड़पता है और कहता है, कहाँ गया उसे ढूंढो....ऐसे रिश्तों के निशान अमिट होते हैंहम इन्हें भूलना भी चाहेंतो भी दिल इन्हें भूलने नहीं देता|

तो दोस्तोंये है ज़िंदगी की किताब...हर एक की अपनी किताब होती है...अब हमें तय यह करना है कि हम उसे किस तरह संजोते हैं? पढ़ते हैं? लिखते हैं? या फिर पन्नों को फाड़ डालते हैं? हमारे जाने के बाद हमारे पन्नों को कोई प्रेम से क्यों पढ़ना चाहेगाक्यों न ऐसी  किताब बन जाएंजिसमें सूखे हुई गुलाब के फूल सदियों-सदियों तक महका करें और यह कह सकें- रहें न रहें हम, महका करेंगे बनके कली,बनके सबा बागे वफ़ा में....

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12.किसी की  मुस्कराहटों पे हो निसार 15/06/26

दोस्तों! ये मशहूर पंक्तियां गीतकार शैलेंद्र से ली गई हैं, जिनका मतलब हमारी भावनाओं से, संवेदनाओं से, हमारे मनुष्य होने या यूं कहूं, मनुष्य बने रहने से गहराई से जुड़ा हुआ है।इसका तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति का मुस्कराना यह नहीं बताता कि वह वास्तव में खुश है, हो सकता है कि उसकी मुस्कराहट के पीछे कोई ऐसा दर्द या दुःख छुपा हो, जिसे वह दुनिया के सामने व्यक्त नहीं कर पा रहा हो, पर हमें उसके चहरे की मुस्कराहट को निरंतर बढ़ाना है, उसकी मुस्कराहट पर बलि-बलि जाना है|

तो दोस्तों! आप समझ ही गए होंगे कि आज बात करेंगे मुस्कराहट की, मुस्कराहट जो सभी को प्यारी लगती है, और भोली-सी मुस्कान के सामने कोई भी कठोर हृदय वाला व्यक्ति झुक ही जाएगा| कुछ साल पहले मैंने एक खबर पढ़ी थी, आज उसी के हवाले से बात शुरू करती हूँ| एक अभिनेता अचानक अमेरिका के एक शहर के रिहैबिलिटेशन सेंटर में मिले और पिछले 10 सालों से उनका कोई अता-पता नहीं था, लेकिन उनके सच्चे दोस्तों ने उन्हें ढूंढ ही निकाला और खर्च करके उनका इलाज करवाया| सबसे पहले तो ऐसी दोस्ती को सलाम!

अगर कुछ सच्चे दोस्तों ने उनके साथ ना दिया होता, तो स्थिति और भी भयानक हो सकती थी, कोई हंसता खिलाखिलाता-मुस्कुराता व्यक्ति अचानक हमारे बीच से गायब हो जाता और हमें पता भी नहीं चलता| अपना देश छोड़कर वह परदेस में रिहैबिलिटेशन सेंटर में पाया जाता है, उसके पास कोई अपना नहीं होता है, उसके दर्द को कोई नहीं समझता क्या रिहैबिलिटेशन सेंटर के डॉक्टर मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक किसी के मन की अतल गहराइयों में जाकर दर्द की तलहटी को छू सकते हैं? मान लिया कि वे हमारा इलाज करते हैं और मरीजों को ठीक भी करते हैं, किंतु ऐसे में सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उन अपनों की, जो उसे अपनात्व दे सकें, उस भावना की, जो केवल एक प्यार करने वाला ही दूसरे को दे सकता है| डॉक्टर अपने मरीज़ के इलाज पर ध्यान देते हैं, उसी पर फोकस करते हैं, लेकिन वह प्यार, वह अपनापन, जो किसी के दिल को छू ले, वह उनके लिए संभव नहीं होता| जिनके बारे में मैं बात कर रही हूं, उनको आप सभी जानते हैं| एक बहुत प्यारा-सा मुस्कराता-सा चेहरा, जिस पर भोलापन और निश्छलता छलकती  थी| अरे! अभी भी याद नहीं आया, याद कीजिए ‘अर्थ’ फिल्म का कैफ़ी आज़मी का लिखा वह गीत जिसे जगजीत सिंह ने बड़ी ही सुंदरता से गाया था, किस पर फिल्माया गया था? गीत के बोल थे-

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो?

क्या गम है जिसको छुपा रहे हो?

क्यों लोग अपने चेहरे पर झूठी मुस्कान चिपकाए घूमते हैं? अंदर-अंदर रो लेना, बाहर-बाहर हंस लेना, क्या यह तरीका ठीक है? अरे भाई! दुख है तो भाई, दुखी होलो, इसमें क्या शर्माना? इसमें क्या संकोच करना? रोने का मन कर रहा है, तो रो लो जी भर के, क्या यह ज़रूरी है कि दुनिया के सामने एक प्लास्टिक की हंसी चिपकाई जाए? दर्द है तो उसे महसूस किया जाए ना कि उसे पाला जाए, प्रेम है, तो उसे भी महसूस किया जाए, उसे अनदेखा ना किया जाए| हम प्रेम को भी छुपाते हैं और दर्द को भी| दुनिया से डर कर... पर हम डरते क्यों है? अपने गम को छुपा कर क्यों मुस्काएं? हम प्रकृति के विपरीत चलते हैं, हम दर्द में मुस्काते हैं और खुश होने पर भी खुशी को दबा लेते हैं| खुलकर हंसते नहीं, खुलकर रोते भी नहीं, हाय! लोग क्या कहेंगे? इसलिए मन की बात कभी भी मन से नहीं निकलती और फिर एक दिन वह आंसू बनकर निकलती है और...और एक दिन वे आंसू जहर बन जाते हैं|

क्या आपका मन नहीं करता पूछने का, कि भाई तुम इतना क्यों मुस्करा दिए, कि दर्द अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया और तुम्हें इस सुंदर दुनिया से बेखबर कर दिया| नैनों अब मुस्कराना बंद कर दिया| तुम्हारी मुस्कुराहट वह निश्छल  मुस्कान नहीं रही| यह उन तमाम लोगों के लिए चेतावनी है कि सुनो, यदि तुमने सच्ची सहज मुस्कान अपने होठों पर नहीं खिलाई और गम छुपा कर मुस्काते रहे, तो यह प्लास्टिक की हंसी, एक दिन बीमारी बन जाएगी|

"प्लास्टिक की हंसी" वह हंसी हुई, जो दिखावे के लिए या किसी दबाव के कारण होती है, जहाँ असली भावनाएँ ओट में, परदे में छिपी होती हैं। जबकि  सच्ची हंसी दिल की गहराइयों से निकलती है—बिना किसी प्रतिबंध या नकाब के, जिसमें मन की खुशी छलक-छलक जाती है।

हालांकि, यह भी सोचने योग्य है कि कभी-कभी जो हंसी शुरुआत में नकली लगती है, समय के साथ उसमें कुछ सच्चाई भी समा सकती है। कई बार जब हम किसी कठिन परिस्थिति में मजबूर होकर हंसते हैं, तो वह शुरुआत में सिर्फ़ एक तरह का ठट्ठा-मसखरा व्यवहार हो सकता है, लेकिन धीरे-धीरे वही हंसी  मानसिक शांति और सामंजस्य का प्रतीक बन जाती है। इस तरह, हंसी का स्वरूप बहुत जटिल होता है—वह बाहरी भावनाओं का ही नहीं, बल्कि हमारे भीतरी संघर्षों और आत्म-विकास की कहानी भी बयां करती है।

सच्ची हंसी में वह सहजता और आत्मीयता होती है, जो न सिर्फ़  चेहरे पर बल्कि पूरे अस्तित्व में झलकती है, जबकि प्लास्टिक की हंसी में अक्सर वह गहराई नहीं होती। यह हमें याद दिलाती है कि जीवन में वास्तविक आनंद का आना भी एक आंतरिक प्रक्रिया है, जिसे समाज या बाहरी परिस्थितियाँ अक्सर नकाब में छुपा देती हैं।

क्या आपने कभी महसूस किया है कि कभी-कभी हम सब के अंदर एक तरह का 'नकली' हंसने का दबाव होता है, जो कि वास्तव में हमारे भीतर के संघर्ष या अनकहे दर्द को ढकने के लिए होता है? इस विषय को और भी गहराई से समझने के लिए, आप किस बात को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं—वास्तविक आनंद की वह सहजता, या फिर सामाजिक अपेक्षाओं के अनुकूल हँसना?"सच्ची हंसी और प्लास्टिक हंसी में मूल अंतर उनके जन्म और अनुभव के अंदर छिपे होते हैं।  

सच्ची हंसी दिल से निकलती है। यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जब हम खुशी, राहत या गहरे आनंद के क्षण अनुभव करते हैं। हमारी आतंरिक अवस्था, भावनाओं का उजागर होना और शरीर में उत्पन्न होने वाले हार्मोन्स—जैसे एंडोर्फिन—इस हंसी के साथ जुड़ जाते हैं। यही वजह है कि सच्ची हंसी न केवल मन को ताज़गी और मानसिक शांति देती है, बल्कि दूसरों में भी एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। यह हंसी अनायास, बिना किसी दबाव के, और पूरी तरह से प्रामाणिक होती है।  जबकि प्लास्टिक हंसी अक्सर सामाजिक परिस्थितियों या दबाव के कारण उत्पन्न होती है। जब हम किसी अनौपचारिक या औपचारिक माहौल में, उस मोमेंट का आनंद पूरी तरह से महसूस न कर सकें या अपने आंतरिक संघर्षों को छुपाने की कोशिश करें, तो हमारी हंसी में वह आत्मीयता और सहजता घट जाती है। यह दिखावे की हंसी होती है, जो कभी-कभी परिस्थितियों को सहज दिखाने या किसी अनुचित स्थिति से उबरने के लिए उपयोग की जाती है। इसमें वह स्वाभाविक गर्मजोशी नहीं होती जो सच्ची हंसी में होती है।  

सच कहूं तो दोस्तों! सच्ची हंसी हमारे दिल की गहराइयों से निकलती है और आत्मा के आनंद का प्रमाण होती है, जबकि प्लास्टिक हंसी सामाजिक अपेक्षाओं या आंतरिक भय से प्रेरित एक प्रकार का नकाब होती है। यह अंतर हमारे जीवन के अनुभवों और भावनात्मक खुलापन को परिलक्षित करता है। क्या आपके जीवन में ऐसे क्षण आए हैं, जब आपने महसूस किया हो कि आपकी हंसी में सच्चाई के साथ-साथ आड़ में भी कुछ छिपा है? ऐसे अनुभव हमें यह विचार करने पर मजबूर करते हैं कि वास्तविक आनंद की तलाश में हमें अपने भावों को कब और कैसे व्यक्त करना चाहिए। हां, हंसी सामाजिक संबंधों पर गहरा असर डालती है। इस हंसी से निकलने वाली स्वाभाविक गर्मजोशी और आत्मीयता तुरंत ही लोगों के बीच एक मजबूत बंधन स्थापित कर देती है। जब हम दोस्तों या परिवार के साथ दिल से हंसते हैं, तो यह एक प्रकार का गैर-मौखिक संदेश होता है कि हम में सहानुभूति और समझदारी है, जो आपसी संबंधों को और गहरा करती है।  हंसी एक सार्वभौमिक भाषा है, जो लोगों के बीच की दीवारों को गिरा सकती है और एक दूसरे के प्रति विश्वास और सामंजस्य की भावना को बढ़ावा देती है।  तो फिर आइए न मेरे साथ, और किसी की सच्ची मुस्कराहटों पर निसार हो जाएं, जिससे किसी का दर्द मिटा सकें, किसी के वास्ते दिल में प्यार की गंगा बहा सकें, क्योंकि जीना इसी का तो नाम है, सही कहा न दोस्तों! 

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13. जा, जी ले अपनी ज़िंदगी01/06/26

दोस्तों! कल टीवी के चैनल बदलते हुए एक डायलॉग कानों में पड़ गया ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी’…..मैं सोचने लगी कि कहने को तो ये एक फिल्मी डायलॉग है, पर असल में बहुत गहरा अर्थ छिपा है इसमें....वैसे सोचा जाए तो हम में से कितने लोग अपनी ज़िंदगी जी पाते हैं....कुछ लोग कहते हैं कि वे तो बस काट रहे हैं....कुछ कहते हैं कि बस कट रही है ज़िंदगी....बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो अपने भीतर झांकते हैं और ज़िंदगी जीने की कोशिश करते हैं यानी अपने सपनों को परवाज़ देते हैं ..

"जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी" का भाव यह है कि किसी व्यक्ति को उसकी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने की स्वतंत्रता देना। जीवन को अपनी मर्जी से जीना चाहिए और अपने सपनों को पूरा करने का मौका नहीं छोड़ना चाहिए। यह स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय का प्रतीक है। इस वाक्य में सिमरन के पिता उसे स्वतंत्रता और अपनी इच्छाओं के अनुसार जीवन जीने की अनुमति दे रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण और भावनात्मक क्षण है, जहां वे अपनी बेटी को उसकी खुशियों और सपनों की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, भले ही इसका मतलब है कि उसे अपनी परंपराओं और समाज की उम्मीदों से परे जाना होगा । यह संवाद आत्मनिर्भरता और व्यक्तिगत आजादी का प्रतीक है। इसका अर्थ यह भी है कि खुद को पहचानो। समाज की सड़ी-गली मान्यताओं को तोड़ अपने लिए अपनी पसंद के रास्ते चुनना, समाज का विरोध नहीं होता। जो जीर्ण-शीर्ण हो गया है, उस प्रासाद को तो ध्वस्त होना ही होगा, नहीं तो नवनिर्माण के नए अंकुर कैसे खिलेंगे, बेबी स्टेप्स ही सही, स्टेप्स तो लेने ही होंगे। कोई भी प्राणी हो, सब उन्मुक्तता चाहते हैं, वह बंधन नहीं चाहता, चाहे वे सोने के ही बंधंन क्यों न हों? इस धरती पर आए हैं, किसी निमित्त के साथ....इस निमित्त को पूरा करने के लिए जीना ज़रूरी है, और केवल जीना ही नहीं, आनंद के साथा जीना, खुद को और दूसरों को प्रेरित करना, जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना, छोटी-छोटी खुशियों का महत्व समझना।

पिछले दिनों एक मित्र का संदेश मिला, जिसमें उन्होंने अपनी एक समस्या साझा की थी। मित्र की समस्या पढ़कर मुझे लगा कि ना जाने कितने लोग इस तरह की समस्या से गुजर रहे होंगे और ज़िंदगी को निराशा में डुबा चुके होंगे। उन्होंने अपनी सुंदर ज़िंदगी के सपनों के बारे में लिखा था, पर यह भी लिखा था कि जिसके साथ ये सपने देखे थे, वो अब उनकी ज़िंदगी से दूर चली गई हैं, कभी वापस न आने के लिए। सामान्य-सी बात है, ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा घटता है, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती है। लोग मिलते है, अलग हो जाते हैं, बिछड़ जाते हैं। पुराने साथी छूट गए, तो नए मिल जाते हैं। ज़िंदगी यूं ही चलती रहती है।

यह भी सामान्य-सी बात है, लेकिन असामान्य बात यह हुई कि मेरे मित्र अभी तक उस रिश्ते से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। जो चला गया, उसकी याद में ज़िंदगी तबाह करना और अब उसकी ख़ुशी के लिए हर वो काम करना, जो वो चाहता था। उसके सिवा किसी और को मन में न बसाना क्योंकि प्रेम एक बार ही होता है आदि आदि... हजारों बातें... अक्सर ऐसी बातें हमें हमारे आसपास सुनने में आती रहती हैं और ऐसे लोग भी दिख जाते हैं, जिन्होंने किसी व्यक्ति विशेष के कारण अपनी ज़िंदगी को बरबाद कर लिया हो। प्रेम जिससे था, वो पात्र नहीं मिला, तो विवाह ही नहीं किया या समाज के दबाव में आकर कर भी लिया, तो ज़िंदगी भर अतीत से चिपके रहे और वर्तमान को अनदेखा करते रहे। सुनने, पढ़ने में ये साधारण-सी दिखने वाली बातें, बिलकुल भी साधारण नहीं हैं। कितने लोग हैं, जो अपने साथी के बिछड़ने के गम में या तो खुद को चोट पहुँचाते हैं, अपने साथी को चोट पहुँचाते हैं या फिर नशे के अंधेरों में खो जाते हैं। ऐसी असामान्यता पढ़े-लिखे मेंच्योर लोग में भी दिखती है।

यहाँ एक बात और जोड़ना चाहती हूँ कि अक्सर महिलाओं को अति भावुक और संवेदनशील समझा जाता है तथा दलीलें दी जाती हैं की प्रेम और रिश्तों के मामलों में महिलाएं ज्यादा सच्चाई के साथ जुड़ती हैं या कि महिलाएँ शिद्दत से प्रेम करती हैं और पुरुष प्रेम को यूं ही हलके तौर पर लेता है। लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि पुरुष जब किसी के साथ खुद को जोड़ते हैं, तो वे आसानी से अपने साथी को भुला नहीं पाते, वे शिद्दत से उससे जुड़े ही रहते हैं। महिलाएँ जहाँ विवाह के बाद अपनी नई दुनिया में रम जाती हैं, वहीं पुरुष ज़िंदगी भर अपने दिल पे बोझ लिए घूमते रहते हैं। एक और फिल्म की बात करते हैं, ‘वो सात दिन’। कुछ याद आया दोस्तों?

अब सवाल यह है कि क्या सच में प्रेम इतनी बड़ी चीज़ है कि लोग खुद को मिटा दें? या जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही मिटा दे? या फिर अपनी पूरी ज़िंदगी को ही तबाह कर डालें? क्या खुदा ने, ईश्वर ने प्रेम इसीलिए बनाया है?

प्रेम शब्द का संकीर्ण और व्यापक दोनों ही अर्थों में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप की बात करें, तो प्रेम एक प्रबल सकारात्मक संवेग है, जो एक बार अपने लक्ष्य को तय कर लेता है, तो दूसरे सभी लक्ष्य गौण हो जाते हैं। मनुष्य अपने उस लक्ष्य को ज़िंदगी की आवश्यकता और हितों का केंद्र बना लेता है। जैसे देश से प्रेम करना, माँ का बच्चों के प्रति स्नेह, संगीत या किसी कला के प्रति प्रेम आदि-आदि। लेकिन संकीर्ण अर्थों में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, ये भावना मनुष्य में अपनी महत्वपूर्ण वैयक्तिक विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति की ज़िंदगी में अपनी जगह बनाने से संबंधित है। किसी व्यक्ति से प्रेम करना और बदले में उससे भी प्रगाढ़ता तथा स्थिर जवाबी की भावना रखना, इस भावना में व्यक्ति अपने प्रिय पात्र के अलावा किसी और से प्रेम नहीं कर पाता। कोई व्यक्ति-विशेष उसके लिए सबसे अहम हो जाता है। अपने प्रिय पात्र को हासिल करने के अलावा उसके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रहता। इस राह में जो भी बाधाएँ आती हैं, उन्हें वो हटा देना चाहता है, चाहे समाज के नियम हों या परिवार की मर्यादा। आए दिन होने वाले विवाहेतर संबंधों के मूल में भी यही मंशा काम करती है। परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन प्रेम के नाम पर ये अपराध बखूबी हो रहे हैं।

आप जहाँ है, जिसके साथ है उसे ही प्रेम कीजिए। यह भी नहीं हो सकता, तो खुद से ही प्रेम कीजिए। याद रखिए, प्रेम एक गहरी समझ हैएक घटना, जो किसी भी क्षण आपकी ज़िंदगी में घट सकती है। आपके रोकने से या तर्कों से वो रुकने वाली नहीं है। हम अपने ज़िंदगी में कई बार, कई तरह का और बार-बार प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम हमारी ज़रूरत है।

हम ना तो समाज के बिना और ना ही प्रेम के बिना जीवित रह सकते हैं। जो लोग प्रेम की पवित्र भावना और समाज के बीच संतुलन बना लेते हैं, जो प्रेम को व्यापकता देते हैं, प्रेम के सही अर्थों को खोजने की कोशिश करते हैं, इसे एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी के रूप में समझने की कोशिश करते हैं, वे इन अंतर्द्वंद्वों और कुंठाओं से भी जूझ लेते हैं और अपनी व्यक्तिगत ज़रूरतों और सामाजिक सरोकारों के बीच तारतम्य बिठा ही लेते हैं।

संतुलन में सुगंध है। प्रेम को व्यापक कर दिया जाए, मन की खिडकियों को ज़रा खोल दिया जाए, संशय, भय, शंकाओं के परदे को हटाया जाए, जो इस पल है, उसे याद रखें, जो जा रहा है उसे जाने दीजिए। जो दरवाज़े पर है, उसका स्वागत कीजिए। ये ज़िंदगी आपकी और सिर्फ़ आपकी है और आपको अधिकार है, जीने का, खुश रहने का, मुस्काने का। किसी की इतनी बिसात है कि वो आपकी खुशियाँ, आपके सपने, आपकी हंसी, आपकी मुस्कान आपसे छीन ले? आप जहाँ है, ज़िंदगी वहीं है...खुशियाँ भी वहीं हैं। आप खुश होइए क्योंकि आप खुश होने के लिए ही बने हैं। आप प्रेम कीजिए क्योंकि आप प्रेम के लिए बने हैं। आप मुस्काइये कि आप मुस्काते हुए अच्छे लगते हैं। ज़िंदगी के हर पल को जी लीजिए, हंस लीजिए। किसी से भी मिलिए, तो प्यार कीजिए, खुद से भी प्यार कीजिए... अपने काम से भी... अपने नाम से भी... बस ज़रा-सा ही सही पर... जा, जी ले अपनी ज़िंदगी

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15/07/26

EPISODE-14.

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....15/07/26

INTRO MUSIC

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वालीआपकी मीत | लीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं बचपन की.... आप सोच रहे होंगे....उम्र पचपन की, और बातें बचपन की....सच कहूँ  दोस्तों! यही तो वह समय है जब बचपन की वीथियों में फिर से विचरण करके जीवन के पीयूष का रसपान किया जा सकता है......बात यह हुई कि  पिछले दिनों मैं लंदन गई थी, पिक्काडली सरकस की रंगीन सडकों पर घूमते हुए ऐसा लगा कि....अचानक ठंडी हवा का कोइ झोंका आया| झोंका था, खुशबू थी या खुशी का ज्वार था...हुआ यह.... कि अचानक अलका जो दिख गई| अलका, मेरे बचपन की सबसे प्रिय दोस्त.... फिर क्या था....शुरु हो गया बातों का सिलसिला, यह हिसाब लगाने में घंटों लगे कि कितने सालों बाद मिल रहे हैं, तू कितनी मोटी-पतली हो गयी, बच्चे, पति, और फिर शुरू हुई लंदन की कड़कड़ाती, जमा देने वाली सर्दी में आइसक्रीम डेट..... फोटो शेयर करते हुए उसने कैप्शन में लिखा , 'लाइफ के हर फेज़  में हर किसी के दोस्त होते हैं, लेकिन बचपन के कुछ दोस्त जीवन के सभी फेज़ में आइसक्रीम शेयर करने के लिए साथ रहते हैं। उसने आगे जो लिखा, वह तो और भी मज़ेदार था, 'एक साल के लिए आइसक्रीम का कोटा पूरा हो गया.. जब तक हम दोबारा नहीं मिलते।' ऐसी होती है बचपन की दोस्ती....ऐसी ही अनेक इंद्रधनुषी यादों की संदूकची को आज खोलेंगे..... हम बीते

दिनों की यादों में खो जाएँ गे .....कभी डूबेंगे ...कभी उबरेंगे......कभी अडूब डूबे रहेंगे.....|

MUSIC

तो दोस्तों! चलिए आज बात करते हैं, बीते हुए दिनों की....ऐसे दिन जब न दौलत, न शोहरत की चिंता थी, मुझे बस याद है झुर्रियों से भरे चेहरे वाली वह नानी, जो परियों की कहानियां सुनाया करती, रेत में घरोंदे बनाना, बना-बना कर मिटाना, अपने खिलौनों को अपनी जागीर समझना, अपनी टूटी-फूटी गुड़िया को भी सबसे सुंदर मानना, न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों के बंधन, बस बचपन का वह सावन था, वो कागज़ की कश्ती और वो बारिश का पानी था। कभी लहरों के करीब जाकर उन्हें छूने की बेताबी, कभी उनके पास आने पर चिल्लाकर दूर भाग जाना, कभी घोष दादा की बंहगी से ‘रोशोगुल्ला’ निकालकर खाने ज़िद करना, कभी खोमचेवाले से गुब्बारे, कभी फेरीवाले से बुलबुले खरीदने थे, फिर बुलबुलों और गुब्बारों के साथ पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाना, मां की डांट से बचने के लिए साईकिल ले गलियों में घुमाना, और गिर पड़े तो रोकर उसी के आँचल में छुप जाना, दोस्त से लड़कर मुंह फुलाकर बैठ जाना, पर अगले ही दिन उसी के साथ खेलना, बड़े-बड़े आँसू टपका कर कुल्फी के लिए शोर मचाना, और फिर एक मासूम मुस्कान के साथ छुपकर मज़े से उसे खाना, देर रात तक डैडी के साथ पिक्चरों के मज़े उठाना, और जब नींद आ जाए, तो उन्हीं की गोद में सिर रखकर, सपनों की दुनिया में कहीं गुम हो जाना, एक बुरा सपना देखकर, पलंग के नीचे छुप जाना, कोई जब फुसलाने आए, तो उसी की आगोश में ही खो जाना, हर घड़ी, हर पल, आज़ाद पंछी की तरह, ज़िंदगी को जीते जाना और ठोकर लग जाए, तो ज़ख्म पोंछकर आगे बढ़ जाना।

हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहन, यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और ‍खेत के मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना, हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए और गन्ना नहीं चूसा, उसने अपने बचपन को क्या खाक 'जीया'! चोरी और ‍चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ़ झूठ बोलना, फ़र्श पर बिस्कुट की रेल बनाना, बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है। सच में-

रोने की वजह भी ना थी, ना हंसने का बहाना था,

क्यों हो गए हम इतने बड़े, इससे अच्छा तो बचपन का ज़माना था |

छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद मां की प्यार भरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर मां का प्यार भरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज़ है सारा बचपन।

MUSIC

जो न ट ख ट नहीं था, उसने बचपन क्या जीया? जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया होगा, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' ही नटखटपन है। शोर व ऊधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं और हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो आती हैं।फिल्म 'दूर की आवाज़' में जानी वॉकर पर फिल्माए गए गीत की पंक्तियां कुछ यूँ ही बयान करती हैं-

हम भी अगर बच्चे होते,

नाम हमारा होता गबलू-बबलू,

इस गीत में नायक की भी यही चाहत है कि काश! हम भी अगर बच्चे होते, तो बचपन को बेफ़िक्री से जीते और मनपसंद चीज़ें खाने को मिलतीं। हम में से अधिकतर का बचपन गिल्ली-डंडा,पोशमंपा,खो-खो, धप्पा,पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई खेलते तथा पतंग उड़ाते बीता है। इन खेलों में जो मानसिक व शारीरिक आनंद आता था, वह कंप्यूटरजनित खेलों में कहां?

वह रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' कहना......हमारी तोतली व भोली भाषा ने सबको लुभाया है। वह नानी-दादी का हमारे साथ-साथ हमारी तोतली बोली को हंसकर दोहराना....शायद बड़ों को भी इसमें मज़ा आता था और हमारी तोतली बोली सुनकर उनका मन भी चहक उठता था । सच में-

होठों पर मुस्कान थी कंधों पर बस्ता था,

सुकून के मामले में वो ज़माना  सस्ता था |

MUSIC

अपने बचपन में डैडी द्वारा साइकिल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही डैडी ऑफ़िस जाने के लिए निकलते थे, वैसे ही हम भी डैडी के साथ जाने को मचल उठते थे, चड्डू खाने के लिए, तब डैडी भी लाड़ में आकर हमें साइकिल पर घुमा ही देते थे। बाइक व कार के ज़माने में वो 'साइकिल वाली' यादों का झरोखा अब कहां?

बचपन में हम पट्टी पर लिख-लिखकर याद करते व मिटाते थे। न जाने कितनी बार मिटा-मिटा कर सुधारा होगा। पर स्लेट की सहजता व सरलता से पढ़ना-लिखना सिखा दिया, वाह! क्या आनंद था ?

जब बच्चे थे, तब बड़े होने बड़ी जल्दी थी, पर बड़े होकर क्या पाया? हर समय दिन भर कितने ही चेहरे देखती हूँ  मैं सड़कों पर, कार्यस्थल पर, हर जगह बहुत से चेहरे होते हैं, परंतु इनमें से कोई भी चेहरा ना हंसता दिखाई देता है, ना ही खुशनुमा| अक्सर लोग हैरान परेशान से दिखते हैं खुश होते भी हैं, तोज़ जरा देर के लिए, मानो हंसने या खुश होने में भी उनके पैसे खर्च हो रहे हों| आज लगता है कि बच्चों का 'बचपन' (भोलापन, मासूमियत, निश्छलता), 'पचपन' (जल्दी बड़े होने या हो जाने) के चक्कर में कहीं खो-सा गया है!

इंसान  का बचपन उसकी प्रेरणा होती है। बचपन में की गई गलतियां, नादानियां व शैतानियां बड़े होने पर जब याद आती हैं, तो हमें हंसी आ जाती है| उसकी सुखद-मधुर यादें हमारे दिल-ओ-ज़हन में मृत्युपर्यंत बनी रहेंगी। नहीं जाने वाली हैं वे मधुर यादें.... कुंवर बेचैन जी के शब्दों में...

मैं महकती हुई मिट्टी हूँ किसी आँगन की,

मुझको दीवार बनाने पे तुली है दुनिया।

नन्हें बच्चों से ‘कुंअर’ छीन के भोला बचपन,

उनको होशियार बनाने पे तुली है दुनिया।

MUSIC

दोस्तों! उलझनें बहुत बढ़ गई हैं ज़िंदगी में, उन्हें कोई जिगसॉ पज़ल की तरह मिनटों में कैसे सुलझाएँ? चलो चलें! खिलौनों और चॉकलेट्स की उसी दुनिया में वापस चलें। ऐसे जहान की ओर चलें, जहां न हो किसी से ईर्ष्या हो, किसी से जलन, जहां छोटी-छोटी चीज़ों में ही हमारे सब सपने सच हो जाएँ । कागज़ के पंखों पर सपने सजाकर, गेंदे के पत्तों से कोई धुन बजाकर, ख़ाली थैलियों की पतंगें उड़ाएँ, रातों को टॉर्च से आसमां चमकाएँ, मम्मी से बेमतलब लाड़ जताकर, डैडी से रेत के घर बनवाकर, भैया की साइकिल के पैडल घुमाकर दीदी की गुड़िया को भूत बनाकर, भरी दुपहरी में हर घर की घंटी बजाकर  भाग जाएँ, बागों से छुप-छुपकर आम चुराएँ और मधुर-मिष्टी यादों को फिर से सहलाएँ । है न दोस्तो!

बातें बचपन की हैं, यूं ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....क्या करें.....? समय की बाध्यता है! अपने बचपन के किस्से-कहानियाँ मुझे मैसेज बॉक्स में लिखकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है,मेरे बचपन की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ... ___________ को....

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC

 

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15. लव.. यू ज़िंदगी!01/07/26

दोस्तों! यूं तो ज़िंदगी में अनेक लोग मिलते हैं, कुछ याद रह जाते हैं, कुछ को हम भूल जाते हैं, पर कुछ ऐसे भी होते हैं, जो हमेशा के लिए हम में समा जाते हैं, गाहे-बगाहे हम उन्हें याद रखते हैं, अक्सर उनका ज़िक्र करते हैं, और वे हमारी ज़िंदगी में, ज़िंदगी को देखने के नज़रिए में सकारात्मक, पॉज़िटिव बदलाव लाते हैं। तो दोस्तों, आज मैं बात कर रही हूं, एक ऐसी शख्सियत की, जिन्होंने सच में दुनिया को समझाया कि ज़िंदगी को प्यार कैसे किया जाता है। बात है अरुणिमा सिन्हा की, एक राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी....ट्रेन एक्सीडेंट में एक पैर गवां देने के बाद.....माउंट एवरेस्ट सम्मिट करने का संकल्प लेना...उसे पूरा करने की जद्दोजहद....क्यों?..आखिर क्यों? केवल इसलिए कि लव.. यू ज़िंदगी! यानी जीने की चाह...अदम्य साहस के साथ जिजीविषा...अहा! ज़िंदगी....!!  आखिर यह ज़िंदगी है क्या?

खेल है, आनंद है, पहेली है, नदी है या झरना है या बस.. सांसों की डोर थामे उम्र के सफर पर बढ़ते जाना है?

ये साधना है या यातना?

सुख है या उलझाव? आज तक ज़िंदगी का अर्थ कोई भी, पूरी तरह, कभी समझ नहीं पाया है। आप अपनी ज़िंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? यह तय करना जरूरी है। आखिरकार ज़िंदगी है आपकी। यकीनन, आप जवाब देंगे-ज़िंदगी को अच्छी तरह जीने की तमन्ना है। दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है।,ऐसी व्यवस्था, जो जड़ नहीं चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जीवन की अर्थवत्ता हमारी जड़ों में हैं। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं ,तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, ज़िंदगी की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे, तो बहुत पिछड़ जाएंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे , तो टूट जाएंगे। मकान की नींव देखे बगैर, कई मंजिलें बना लेना खतरनाक है, पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। केवल अपना उपकार ही नहीं, परोपकार के लिए भी जीना है। अपने लिए ही नहीं ,दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारी ज़िम्मेदारी भी है और ऋण भी, जो हमें समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।

परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो, जिसके लिए तुम धरती पर आए हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। हम चिंतन के हर मोड़ पर कई भ्रम पाल लेते हैं। प्रतिक्षण और हर अवसर का महत्व जिसने भी नजरअंदाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही मौका  देती है। याद रखें, वर्तमान भविष्य से नहीं, अतीत से बनता है। सही कहा न दोस्तों!

कोई कहता है कि ज़िन्दगी एक आईना है,सच-झूठ का, ग़म-ख़ुशी का,नफरत-प्यार का, इंसान और इंसानियत का... क्या सचमुच?

कोई कहता है कि ज़िन्दगी एक कश्ती है, डूबती उबरती लहरों के ऊपर, इठलाती बलखाती-सी हवा से बातें करतीं।

कोई कहता है कि ज़िन्दगी एक फ़लसफ़ा है, सुख-दुख इसके दामन में खिलते-मुरझाते हैं, कभी हंसी-ठिठोली करते, कभी आँखें नम कर जाते, ना कोई तय पैमाना इसका ना कोई सिद्ध सूत्र इस प्रमेय का, ये तो उतना ही है जितना जिसने जाना, जितना जिसने पहचाना है, ना कोई इसका ओर है, ना कोई इसका छोर है, लगे ऐसे जैसे नीले अम्बर में उड़ती पतंग की डोर है I

चलिए, फिर कहानी पर आते हैं…. एक जंगल में शेर और कई तरह के जानवर रहते थे-भालू, चीता, गीदड़, बाघ, हिरण, हाथी आदि। एक बार उस जंगल में भयानक आग लग गई। चारों तरफ लपटें आसमान का छूने लगीं। हिरण, शेर, गीदड़ सभी जान बचा कर भागने लगे।

उसी जंगल में एक पेड़ पर चिड़िया रहती थी, भयानक आग को देखकर वह घबरायी नहीं। जल्दी से उड़कर पास के तालाब पर गई और चोंच में पानी भर-भरकर आग पर डालने लगी। चिड़िया को ऐसा करते देख कौआ बोला- “चिड़िया रानी, तुम इतनी छोटी हो और यह तुम भी जानती हो कि तुम्हारी चोंच भर पानी से यह आग नहीं बुझने वाली है, तो फिर क्यों बार बार प्रयास कर रही हो?” चिड़िया बोली - “मैं जानती हूं कि मेरे अकेले के प्रयासों से यह भयानक आग नहीं बुझने वाली है, पर जिस दिन इस जंगल का इतिहास लिखा जाएगा, उस दिन तेरा नाम देखने वालों में और मेरा नाम बुझाने वालों में लिखा जाएगा।”

यह कहानी मैंने बचपन में पढ़ी थी और आज भी इसका एक-एक शब्द दिल में बसा है। दोस्तों, हमारी ज़िंदगी चुनौतियों का सागर है। जब तक ज़िंदगी है, छोटी-बड़ी चुनौतियां आती ही रहेंगी। इसलिए हमें अपने ज़िंदगी की हर चुनौती को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि अगर हम ज़िंदगी-सागर में उठती-गिरती लहरों को देखकर डर गए, तो हम इसे पार कैसे करेंगे?

ज़िंदगी एक खूबसूरत एक सफ़र है। दोस्तों, अगर आपने कभी नाव में बैठकर यात्रा की होगी, तो आपने तीन तरह के लोगों को देखा होगा। एक तरह के लोग वे होते हैं, जो नदी या सागर में उठती लहरों को देखकर डर के मारे नाव में बैठते ही नहीं। दूसरी तरह के लोग वे होते हैं, जो डरते-डरते नाव में तो बैठ जाते हैं, परंतु वे जैसे-तैसे थरथराते हुए सफ़र को पूरा करते हैं, और तीसरे प्रकार के लोग वे होते हैं, जो उस सफ़र को इंजॉय करते हैं, जो उस सफ़र का मज़ा लेते हैं। सोचिए, आप किस श्रेणी में आते हैं ?

दोस्तों! बुरा वक्त कहकर नहीं आता। बुरे वक्त में भी हौसला बनाए रखिए। अब शायद आप यही सोचेंगे कि कहने और करने में बहुत फ़र्क होता है। जिस इंसान के ऊपर मुसीबत आती है, उसका दर्द सिर्फ़ वही जानता है, तो ठीक है, मैं इस बात को मानती हूं, लेकिन जब हमारे पास दो ऑप्शन हों, 'लड़ो या मरोतो फिर हम लड़कर क्यों न मरें? हम लड़ने से पहले ही चुनौतियों के सामने घुटने क्यों टेकें? खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से इतना सक्षम क्यों न बनाएं कि हम विषम परिस्थितियों में भी न टूटें।

बेहतरी की कोई सीमा नहीं होती, दोस्तों। दुनिया का कोई भी इंसान अगर चाहे, तो वह खुद में अपनी इच्छा के अनुसार बदलाव करने में सक्षम होता है। अगर आपको लगता है कि आप कमज़ोर हैं,तो हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने के बजाए पौष्टिक और शक्तिवर्धक खाद्य पदार्थों का सेवन कीजिए।

रोज़ाना कसरत कीजिए, योग कीजिए, दौड़ लगाइए। कुछ भी कीजिए लेकिन खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से मज़बूत बनाइए। अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा कीजिए क्योंकि ज़िंदगी की कठिन चुनौतियों का सामना करने के लिए आपका स्वस्थ और फ़िट रहना अति आवश्यक है।

सपने अपने भी होते हैं और सपने सच्चे भी होते हैं। अपने सपने को अपना बनाएं। उन्हें पूरा करने में जो आनंद आता है, वह अतुलनीय होता है । अपने सपनों को पूरा करने में लगन और परिश्रम से जुट जाइए, फिर कोई उन्हें पूरा होने से नहीं रोक सकता। ज़िंदगी में चाहे कितनी ही मुश्किल घड़ी क्यों न आ जाए,चाहे कितना भी बुरा वक्त क्यों ना आ जाए, कभी निराश न हों, कभी हिम्मत मत हारें और अगर हारना भी पड़े, तो बहादुरों की‌ तरह लड़कर हारें, कायरों की तरह आत्महत्या नहीं।

उम्मीद की लौ सारे जहान को रोशन कर सकती है, दोस्तों! कभी उम्मीद का दामन न छोड़ें। और हां, एक बात हमेशा याद रखें, अगर आपके ज़िंदगी में कभी ऐसा वक्त आ जाए कि आपको कोई रास्ता दिखाई न दे, हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आए, तो जल्दीबाज़ी में कोई फ़ैसला न करें। थोड़ा ठहर जाएं, थोड़ा इंतज़ार करें, थोड़ा धैर्य रखें क्योंकि दुखों का कोहरा, चाहे कितना भी घना हो, सूरज की किरणों को निकालने से नहीं रोक सकता। आप बस हौसला रखें, अपने ईश्वर और अपने बड़ों पर भरोसा करें और स्वयं पर विश्वास बनाए रखें। उनके प्रति कृतज्ञ रहें। आप देखेंगे कि उम्मीद की एक किरण अंधेरे को चीरते हुए धीरे-धीरे आपकी तरफ़ बढ़ रही है। और सदैव याद रखिए कि आप हार मानने के लिए नहीं बने हैं, आप नई रार ठानने के लिए बने हैं, आप काल के कपाल पे लिखते और मिटाते हैं और नए गीत गाने के लिए बने हैं। मैंने सच कहा न दोस्तों!

 

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16.लब हिलें तो, मोगरे के फूल खिलते हैं कहीं....15/08/26 

दोस्तो! ये पंक्तियाँ प्रेम और स्नेह से भरी हुई हैं, जो यह व्यक्त करती हैं कि प्रिय व्यक्ति की बातें, उनकी मुस्कान और उनकी भावनाएँ कैसे एक खूबसूरत दुनिया की सृष्टि करती हैं। यह एक तरह का इज़हार है कि उनके बिना सब कुछ अधूरा है और उसके होने से ही जीवन में रंग और खुशियाँ हैं क्योंकि उसके लब हिलते हैं, तो फूल खिलने लगते हैंग़म में भी चाँद निकल आता है, उसकी हँसी में सवेरा होता है, उसकी आँखों में ही सारा जहाँ मिल जाता है, उसकी हँसी से बहारें मिल जाती हैं, उसके हर लफ्ज़ में मिठास है, उसके हर ख्याल में उजास है, उसकी ख़ुशबू से सारी महफिल महक जाती है, उसकी खिलखिलाहट सारे माहौल में मिठास और खुशबू भर देती है और जिसके आने पर वातावरण सुगंधित और खूबसूरत हो जाता है। सोचने लगी कि आखिर यह है कौन?

पिछले दिनों  किसी काम से एक ऑफिस में जाना हुआ। जिससे मिलना था, वो एक महिला अधिकारी थी। जैसे ही मेंरी बारी आई, मैं उनसे मिलने गई, देखा तो वो मेंरे कालेज की सहेली निकली। मिलते ही हम दोनों ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगीं। आवाज़ सुनकर कमरों में से कर्मचारी निकल कर आए। लगा कि कुछ गलत हो गया। मेंरी सहेली एकदम से चुप हो गई मानो कोई अपराध करते पकड़ी गई हो। बोली, सब सुन रहे हैं। देखो कमरों से बाहर आ गए, बीस साल की नौकरी में मेंरी आवाज़ आज तक किसी ने नहीं सुनी थी। मैं बोली, “कब्र बना रखा है ऑफिस को?” आज सभी मुर्दे कब्रों से बाहर निकल आए, इस बात पे पूरा ऑफिस ठहाका मारकर हंस पड़ा।

मेंरी दोस्त की आखों में आसूं थे बोली, “ अपनी ही खनकती हंसी बहुत दिनों बाद सुन सकी हूं मैं। एक हंसी जिसमें रहती थी खनखनाहट, वो सिर्फ़  हंसी नहीं थी, थी एहसास की खनक सी, कई दिनों से कहीं गुम और चुप सी थी वो, दबी हुई थी वो खनक न जाने किन दिशाओं में, आज तुम्हारे आने से  मुस्कराहटों के साथ उभरी है फिर उन लबों पे।“ वह आगे बोली, “माँ के यहाँ जो हंसी छूट गई थी, वो बरसों बाद आज आई। इससे पहले कब हंसी थी याद ही नहीं। मैं अवाक थी।

चलिए दोस्तों, एक और वाकया लेते हैं........एक विवाह समारोह में जाना हुआ, वहाँ पुरुष और महिलाएं सभी साथ बैठे थे। सभी पुरुष समूह बना कर खूब हंसी-मज़ाक कर रहे थे, लेकिन महिलाएं चुपचाप बैठी थीं। इतने में एक महिला ने आकर चुप्पी तोड़ी, तो सभी महिलाओं ने उसे आखें दिखा कर चुप करवा दिया, मानो वो किसी मर्यादा तोड़ रही हो। और फिर सब शांत हो गया। किसी भी बात का, मज़ाक का कोई रिएक्शन ही नहीं। अक्सर महिलाएं बातें तो खूब करती हैं, लेकिन हास्यबोध नहीं दिखता।

मिसेस शर्मा बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती हैं। उस दिन उनके पति ने कहा, “आजकल तुम्हारे हाथों में वो स्वाद नहीं रहा, जो पहले था। वो झट से बोलीं, “आप भी तो अब पहले जैसे नहीं रहे...।“

दोनों इस बात पे हंस पड़े... मिसेस शर्मा इस बात पे बहुत बड़ा झगडा कर सकती थीं, लेकिन उनके हास्य बोध ने बचा लिया।

ये कुछ उदहारण हैं उन महिलाओं के, जो अपनी ज़िंदगी में यहाँ-वहाँ बिखरे हास्य को समेट लेती हैं। जो हँसना जानती हैं, दूसरों को हँसाना भी जानती हैं। लेकिन अफ़सोस ये कि कितनी महिलाएं हैं इन जैसी? जो ठहाके लगाती हैं, खिलखिलाकर हंसती हैं, दिल खोल कर मुस्काती हैं और किसी उदास चेहरे पर प्यारी-सी मुस्कान सजा देती हैं।

अक्सर औरतों का हंसी, ठिठोली, ठहाकों से कोसों दूर का नाता होता है। ये स्थिति सभी जगह दिखती है, जैसे जब वो पार्टी में होती हैं, या पिकनिक में, दोस्तों की महफ़िल हो, आफ़िस हो या घर। वो सभी जगह अपने होंठों पे चुप का ताला लगाए रहती हैं, बातें चाहे कितनी भी कर लें, लेकिन हँसते हुए कम ही देखी जाती हैं। बहुत ज़्यादा हुआ, तो धीरे से मुस्करा देंगी, लेकिन वो भी प्लास्टिक वाली मुस्कान। वो खुद हँसना-हँसाना नहीं चाहती इसलिए दूसरों के हास्य-बोध को भी कम ही समझ पाती हैं। कभी-कभी तो उन्हें समझ ही नहीं आता कि सब किस बात पे हंस रहे हैं।

किसी महिला से पूछो कि आखिरी बार वो कब खिलखिलाकर हंसी थी, तो उसे जवाब देने में वक्त लगेगा और सोचने में भी। क्या वजह है कि महिलाएं पुरुषों की तरह हंसती नहीं और न ही वो मज़ाक करती हैं। बचपन की हिदायतें पचपन तक पीछा करती हैं, बचपन से ही घुट्टी में घोल के पिलाया जाता है कि लड़कियों को धीरे-धीरे बात करनी चाहिए, मीठा बोलना चाहिए, कम बोलो, हंसों मत ज़ोर से, रास्तों पे या बाजार में या पब्लिक में तो कभी नहीं हंसना। मायके में हो, तो पिता और भाई के सामने मत हंसो, और ससुराल में हो तो सास-ससुर और जेठ के सामने चुप रहो, ऑफ़िस में हो तो बॉस के सामने चुप रहना... उफ़! फिर महिलाएं हंसें तो हंसें कब ?

कब्र में जाने के बाद? शायद वहां भी बंधन हों.....!!

हमारे समाज ने बचपन से ही लड़कों और लड़कियों के बीच अलग -अलग मापदंड तय किए हैं। एक लड़की से हमेशा एक निश्चित व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। उसे कभी किसी के साथ कोई मज़ाक-मस्ती नहीं करना है, हंसना-हँसाना नहीं है क्योकिं सभ्य, शरीफ़, भद्र और सुशील संस्कारवान लड़कियों को ये शोभा नहीं देता। और इस तरह हमारे समाज ने सुंदर होठों से सुंदर मुस्कान छीन ली....खिलखिलाहट पर बंदिशें लगा दीं।

और उन आज्ञाकारी लड़कियों ने चुपचाप शराफ़त का लबादा ओढ़ कर अपनी हंसी और अनगिनत मुस्कानों की हत्या कर दी। इसी तरह बरसोंबरस से होठों के किनारों तले कई मुस्कानें दम तोड़ती आई है। फिर धीरे-धीरे महिलाओं ने इसे अपने स्वभाव में शामिल कर लिया। एक तो वे वैसे ही संवेदनशील स्वभाव वाली होती हैं, अक्सर उन्हें रोने-धोने, सिसकने वाली ही समझा जाता है, ज़रा-ज़रा सी बात पे रो देना, मायके में भाइयों ने मज़ाक किया तो रो दिए, ससुराल में ननद-देवर ने छेड़ दिया, तो रो पड़े। किसी ने मोटी कह दिया या किसी ने नाटी कह दिया, तो आंसू छलक आए। ऐसे अनगिनत उदाहरण हम रोज़ अपने आसपास देखते हैं। वे किसी मज़ाक को सहजता से नहीं ले पातीं। माना कि महिलाएं भावुक होती हैं, किसी भी मज़ाक को सहजता से नहीं लेती और खुद पर हँसना उन्हें कम आता है। वैसे भी खुद पर हंसने का हौसला हर किसी में होता भी नहीं, अक्सर पुरुष यही सोचते हैं कि भई महिलाओं से संभल कर बात करनी चाहिए, न जाने किस बात का बुरा मान जाएं या रो पड़ें।

दोस्तों! क्या कभी आपने ऐसी किसी महिला को देखा है, जो ज़ोर -ज़ोर से हंस रही हो और आपने उसके हंसने के कारण उसे जज न किया हो, न ही उसने ध्यान दिया हो कि हंसते -हंसते वो कैसी दिख रही है? उसकी आंखें छोटी और दांत बाहर दिख रहे हैं? शायद भी ही देखा हो....महिलाएं हमेशा अपने लुक्स को ले के सचेत रहती हैं। वो हंसते हुए भी खूबसूरत दिखना चाहती हैं। कहीं चेहरा बिगड़ न जाए, दांत न दिखे आंखें सिकुड़ न जाए आदि ..इतनी तैयारियों के बाद कोई क्या ख़ाक हंसेगा ..वो तो सिर्फ़ प्लास्टिक की हंसी हंसेगा, और फिर लोग तो बैठे ही हैं, उन्हें जज करने के लिए.... है न दोस्तों!

अगर लोग किसी ज़िंदादिल महिला को हंसते हुए देखते हैं, तो अजीब-सी शक्ल बनाते हैं, उसे घूर -घूर के देखते हैं, मानो वो कोई गुनाह कर रही हो। उसे ज़ोर-ज़ोर से हंसते देख उस असभ्य मान लिया जाता है, यही वजह है कि महिलाओं की मुस्कराहटें कहीं गुम हो गई हैं। सर्वेक्षणों के अनुसार पुरुषों और महिलाओं के हास्यबोध में काफ़ी अंतर होता है। महिलाओं के मुकाबले पुरुष ज्यादा हास्य उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। यही वजह है कि हास्य कवि सम्मलेन हो या हास्य के कार्यक्रम महिलाएं इनमें कम ही नज़र आती हैं।

तो क्या हम ये मान लें कि महिलाएं नीरस होती हैं, बोरिंग और बुद्धू टाइप की होती हैं। कतई नहीं, महिलाओं में भी हास्य की उतनी ही समझ होती है, जितनी पुरुषों में। और हर महिला अपनी ज़िंदगी के साथी के रूप में ऐसे ही पुरुष की कल्पना करती है, जो हंसमुख हो, खुश दिल हो, वह भी रोते से, चुप्पे से साथी को कोई पसंद नहीं करती। फिर वो खुद क्यों गुमसुम रहती है, मज़ाक नहीं करतीज़िंदगी को ज़िंदादिली से नहीं जीती?

दोस्तों! याद रखिएगा, घर में रहने वाली महिला यदि चुप या उदास रहेगी, तो उनके बच्चे भी कभी नहीं हंसेंगे। जिस घर में महिलाएं मुस्काती नहीं, हंसती नहीं, उस घर में ख़ामोशी के साये अपना डेरा जमा लेते हैं।

हमारी ज़िंदगी में चाहे जितनी भी परेशानियां हों, दुःख हों, पीड़ा हो, हंसी और मुस्कान फिर भी बोई जा सकती है, उगाई जा सकती है, इसमें कोई खर्चा नहीं होता, न कोई खाद-पानी देना होता है। हंसी तो एक प्रार्थना है, जिसे आलाप से लेकर स्थाई तक पहुंचने के लिए दोहराव की जरूरत नहीं होती, उसे तो सिर्फ़ सम्मिलित स्वरों की ज़रूरत होती है।

दोस्तों! हंसी से बड़ी कोई नेमत नहीं, वरदान नहीं, इस पर तो कोई टैक्स भी नहीं, जो लोग नहीं हंसते, वो कभी ज़िंदगी का लुत्फ़ नहीं उठा पाते। हंसना-हँसाना कोई बुरी बात नहीं है ये तो एक उन्मुक्त बहता झरना है, इसे रोकना नहीं, टोकना नहीं, बहते देना है। आप हँसेगी, तो दुनिया हँसेगी, आप मुस्काएंगी तो सारी दुनिया मुस्काएगी। हंसी से बैर नहीं दोस्ती कीजिए। यदि आप ऐसा करेंगी, तो सोसायटियों में चल रहे ‘लाफ़्टर क्लब’ बंद हो जाएंगे, क्यों क्या विचार है, दोस्तों!

 

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17.आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है?01/08/26

मेरा नाम अमित है और मैं तनाव से पीड़ित हूँ। बस, मैंने कह दिया। कुछ लोगों के लिए यह एक बड़ा रहस्योद्घाटन है, दूसरों के लिए यह ज़ोर से कहना मुश्किल है। मुझे इससे कोई शर्म नहीं है, आप देखिए, मैं जानता हूँ कि आप सभी भी इसका अनुभव करते हैं, आप बस यह नहीं जानते कि आप ऐसा करते हैं या आप इसे अच्छी तरह से प्रबंधित करते हैं और इसलिए आप इसे अब तनाव नहीं मानते। यह कमज़ोरी का संकेत नहीं है, यह आधुनिक जीवन का संकेत है।

मैं बातूनी हूँ, मैं पहले ऐसा नहीं करता था। मेरा मतलब है कि चीजों के बारे में खुलकर और ईमानदारी से बात करना। मैंने कठिन तरीके से सीखा कि लोगों को यह बताना महत्वपूर्ण है कि आप क्या महसूस कर रहे हैं, आदर्श रूप से उस समय लेकिन अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो जितनी जल्दी हो सके। सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने सीखी वह यह थी कि मैं अजेय नहीं हूं, मैं काफी करीब हूं लेकिन मैं टूट सकता हूं, जैसा कि हर कोई कर सकता है।– ये किसी की डायरी के कुछ शब्द हैं।

दरअसल, आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या का नाम अगर कुछ है, तो वो तनाव है। सभी रोगों का जनक, हरेक को हैरान परेशान करने वाला मर्ज़, ये हर जगह मिलता है, लेकिन इसकी कोई दवा कहीं नहीं मिलती। आज इस समस्या से 80% लोग जूझ रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि हर रोग पहले मन में जन्म लेता है और बहुत बाद में जाकर देह पर उसका असर देखने को मिलता हैं। ये तनाव भी ऐसा ही मर्ज़ है।

तनाव एक अनुक्रिया है, जिसका असर हमारे मन और देह दोनों पर पड़ता है। हमारे शरीर में मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिकल) तथा दैहिक (फिजियोलॉजिकल) दोनों तरह की अनुक्रियायें होती हैं, यानी व्यक्ति जब तनाव में होता है, तो मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से क्षुब्धता (डिस्टर्बेंस) अनुभव करता है। जब ये अनुक्रियायें मनोवैज्ञानिक हों, तो व्यक्ति बहुत परेशान होता है। उसे व्यर्थ की चिंताएं, आशंकाएं, डर, संदेह घेरे रहते हैं। कभी उसे बहुत क्रोध आता है, तो कभी उसका व्यवहार आक्रामक हो जाता है। आशंकाएं, चिंताएं उसे इतना घेर लेती हैं कि वो उनसे निबटने में खुद को अक्षम पाता है। अगर ये अनुक्रियाएँ दैहिक हों, तो व्यक्ति का रक्तचाप बढ़ जाना, पेट में गड़बड़ी, हृदय-गति असामान्य होना, श्वसन गति में परिवर्तन आदि लक्षण होते हैं- इन प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप व्यक्ति के शरीर में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है, हारमोन असंतुलित हो जाते हैं और कैंसर, मधुमेह आदि कई रोग जकड़ लेते हैं। इन दैहिक प्रतिक्रियाओं का एकमात्र उद्देश्य होता है कि किस तरह से तनाव के साथ समायोजन बिठाया जाए। चिकित्सक इनका इलाज दवाओं द्वारा करते हैं। लेकिन मन को तनाव रहित करने के लिए मनोचिकित्सकों का या काउंसलर की ज़रूरत होती है।

अक्सर तनाव को नकारात्मक घटनाओं से या दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं (नेगेटिव इवेंट) से जोड़ कर देखा जाता है जबकि सच्चाई ये है, कि तनाव सकारात्मक घटनाओं से भी होता है उदहारण के लिए, विवाह के समय होने वाला तनाव, अच्छे पद पर पदोन्नति के लिए तनाव, बहुत बड़ा पुरस्कार या इनाम पाने का तनाव, किसी लेखक को उसकी आने वाली नई पुस्तक को लेकर तनाव, तो किसी अभिनेता को आने वाली नई फिल्म को लेकर तनाव हो सकता है।

कभी -कभी व्यक्ति को किसी व्यक्ति विशेष से तनाव होता है, और वो व्यक्ति सामने बना रहे तो वह उसके प्रति आक्रामक हो जाता है, इसे उदाहरण से समझें- किसी बच्चे को यदि उसके लक्ष्य तक नहीं पहुँचने दिया जाए, तो उसमे एक तरह की कुंठा (frustration) आती है और फिर वो आक्रामक हो जाता है।

लेकिन कभी -कभी व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि उसकी निराशा, कुंठा, हताशा का क्या कारण है? वो खोजता रहता है कि उसकी कुंठा या परेशानी का सबब क्या है? स्रोत (source) कहाँ है? कभी जो स्रोत मिल भी जाए, तो व्यक्ति किसी कारणवश या परिस्थितिवश उस शक्तिशाली स्रोत के प्रति आक्रामक नहीं हो पाता, तो वो खुद से कमज़ोर व्यक्ति या वस्तु पर क्रोध निकालता है और तनाव कम करता है। उदहारण के लिए कोई पति-पत्नी में झगड़ा होता है, तो क्रोध बच्चों पर निकालता है। दफ्तर का गुस्सा, अपने बॉस का गुस्सा घरवालों पर निकालता है और आखिर में वो बेकसूर बच्चे अपना गुस्सा घर की चीज़ों या बेज़ुबान  खिलौनों को तोड़ कर, किताबों को फाड़ कर निकालते हैं।

जो लोग क्रोध को व्यक्त नहीं कर पाते, वो मन में घुटते हैं और गहरे विषाद तथा भावशून्यता में चले जाते है। जब आक्रमकता दिखाने पर भी उन्हें सफलता नहीं मिलती, तो वो उस वस्तु के प्रति उदासीन हो जाते है एवं खुद को निस्सहाय सा पाते हैं।

कुछ लोग तनाव में आकर अपनी सबसे प्रिय चीज़ को ही चोट पहुंचाते हैं या अपनी कोई अति प्रिय वस्तु को ही तोड़ देते हैं और बाद में फिर पछताते हैं। कुछ विशेष घटनाएँ कुछ व्यक्तियों में अधिक तनाव उत्पन्न नहीं कर पाती तो कुछ के लिए गहरे तनाव का कारण बनती हैं। जैसे किसी वैवाहिक संबंध की टूटन या प्रेम में असफल होना, किसी प्रिय की मृत्यु आदि ऐसी घटनाएँ हैं, जो कुछ व्यक्तियों पर गहरा असर डालती है, तो कुछ पर कम असर होता है। कभी -कभी साधारण सी घटना भी कुछ व्यक्तियों को अधिक सांवेगिक एवं दैहिक क्षति पहुंचाती है।

इनके अलावा एक महत्वपूर्ण कारक है जो आजकल सारी दुनिया में तनाव का कारण बना हुआ है और वो है conflict of motives यानी प्रेरकों का संघर्ष यानी प्रतियोगिताओं के इस दौर में एक-दूजे से आगे निकल जाने की होड़। “उसकी कमीज मेरी कमीज से ज़्यादा सफ़ेद कैसे?” की चिंता में तनाव होता है।

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण कारक तनाव का है, जिसमें व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर निर्भरता दिखाता है या उसका सुख-दुःख, उसकी हँसी-ख़ुशी सब दूसरे व्यक्ति पर निर्भर हो जाती है, और जब दूसरा व्यक्ति उसे सहयोग नहीं कर पाता, तो तनाव होता है। ये तनाव बहुत खतरनाक भी हो सकता है, जिसमें एक व्यक्ति की पूरी दुनिया दूसरे की हाँ और ना पर चलती है, अक्सर ये तनाव किसी अप्रिय घटना का कारण भी बन जाता है। इसके अलावा दिन-प्रतिदिन की उलझनें जैसे बिजली नहीं आई, पानी नहीं आया, पार्किंग नहीं मिली या नेटवर्क नहीं है जैसे छोटे छोटे तनाव भी व्यक्ति को परेशान करते हैं।

इन सब तनावों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारक कुंठा यानी frustrations का होना है। जब व्यक्ति की कोशिश किसी लक्ष्य पर पहुँचने में बाधित होती है, तो इससे व्यक्ति में कुंठा उत्पन्न होती है। इनमे विभेद पूर्वाग्रह, कार्य-असंतुष्टि (job dissatisfaction), प्रिय से दूरी, प्रिय की मृत्यु आदि है। उसी तरह दैहिक विकलांगता, अकेलापन, अपर्याप्त आत्मनियंत्रण ये सभी कुंठा के कारण है।

फिर इस मर्ज़ की दवा क्या हैइस मर्ज़ का कारण चाहे जो भी हो, लेकिन ये बात तय है कि यह व्यक्ति के सांवेगिक एवं दैहिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर तो ज़रुर डालता है। चिकित्सक तनाव कम करने की दवा देते हैं लेकिन मनोविज्ञान समायोजित व्यवहार की सलाह देता है।

शोध बताते हैं कि जिन व्यक्तियों में मनोवैज्ञानिक कठोरता (साइकोलॉजिकल हार्डनेस) अधिक होती है, वे परिस्थिति के तनावपूर्ण होने पर भी परेशान नहीं होते। वो समायोजित व्यवहार द्वारा अपने आस-पास के वातावरण, उसकी आंतरिक मांगों और उसके बीच के संघर्षों, अंतर्द्वंद्वों को नियंत्रित करना सीख लेते है। पर्यावरण की माँग, शारीरिक सीमाओं एवं अंतर्वैयक्तिक चुनौतियां, सभी को अपने मूल्यों, प्रसाधनों आदि के साथ इस तरह से व्यवस्थित करता है कि उनका प्रभाव कम से कम हो और फिर इससे तनाव नहीं उपजता है।

लेकिन ये इतना आसन भी नहीं है। ये समायोजन हर व्यक्ति की गति, अनुभूतियों, बौद्धिक क्षमता तथा आत्मनियंत्रण पर निर्भर करता है। जैसे ही व्यक्ति को तनाव घेरता है, वो अपने तरीके से इसे कम करने के प्रयास करता है। कुछ व्यक्ति कुछ ख़ास तरह का व्यवहार करते हैं, वो शराब या सिगरेट की मात्रा बढ़ा देते हैं, कुछ लोग दोस्तों का समर्थन प्राप्त करना पसंद करते हैं और समर्थन मिल जाने पर उन्हें लगता है, अरे! ये समस्या तो उतनी गंभीर थी ही नहीं, जितना मैंने इसे समझा था।

कभी -कभी व्यक्ति तनाव के कारण अपनी इच्छाओं का दमन करता है। अपने मन की बात को किसी से न कहने का दुःख और अपनी इच्छाओं को, यादों को साझा न करने का दुःख उसे मन ही मन तनाव देता है, फिर व्यक्ति उन समस्त यादों और इच्छाओं का दमन शुरू कर देता है वो जानबूझ कर अपने चेतन से, मन से, उन सभी बातों को हटा देना चाहता है, जो उसके दुःख का कारण बन रही हैं ताकि वो अपना ध्यान दूसरी तरफ लगा सके, वो विकल्प खोजता है, खुद को व्यस्त रखता है।

अगला उपाय है प्रतिक्रिया निर्माण या reaction formation इसमें व्यक्ति तनाव उत्पन करने वाली इच्छा या विचार के ठीक विपरीत इच्छा या विचार विकसित कर लेता है और अपना तनाव कम करता है। उदाहरण के लिए, प्रेम में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति हमेशा प्रेम को अस्वीकार करता है। इस अस्वीकार भाव से उसे मानसिक शांति मिलती है थोड़े समय के लिए वो खुद को तनाव रहित महसूस करता है।

कुछ व्यक्ति तनाव से बचने लिए rationalization की नीति अपनाते है यानी जब बाहरी वास्तविकता बहुत कष्टकर और दुखदायी हो जाती है, तो व्यक्ति असहज हो उठता है और वो वास्तविकता के अस्तित्व को नकारने लगता है, उसे मानने से ही इनकार करता है और अपना तनाव कम करता है।

कभी-कभी व्यक्ति बौद्धिकीकरण यानी intellectualizetion की नीति भी अपनाते देखे गए हैंi इसमें व्यक्ति अपने चारों और एक रक्षा-प्रक्रम अपनाता है, अपना रक्षा-कवच बनाता। वो अपनी एक खोल में क़ैद रहता है और बाहरी जगत से अलगाव या निर्लिप्तता विकसित करता है।

इस तरह हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से तनाव को कम करने के कई उपाय अपनाता है।

बहुत से लोग सोशल साइट्स पे जाकर अपना तनाव कम करते हैं, कुछ लोग संगीत सुनकर कुछ लोग खुद से ही बाते करते हैं। ये सभी उपाय अपना कर भी व्यक्ति तनाव से पूर्णरूप से बच तो नहीं पाता है, उसे कोई न कोई तनाव हर समय जकडे ही रहता है। "मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की" वाले अंदाज में, पर तनाव कम अवश्य हो जाता है।

ऐसे समय में किसी योग्य चिकित्सक से बात करनी चाहिए। किसी भरोसेमंद साथी या मित्र से अपनी परेशानी साझा की जा सकती है। याद रखिए, सहजता और सरलता आपको बहुत से तनाव से बचा सकती है। झूठ ,छल, प्रपंच, ईर्ष्या और स्वार्थ हमेशा तनाव के कारण बनते हैं। इनसे खुद को दूर रखना होगा, कोई भी चिकित्सक आपको सिर्फ़ परामर्श और दवा ही दे सकता है। वो आपको खुश नहीं कर सकता। ख़ुशी आपको खोजती हुई कभी नहीं आती है, आपको जाना होता है उसके पास, अपने आसपास खुशियाँ तलाशनी होती है। इस मर्ज़ का इलाज बाहर नहीं भीतर ही मिलेगा, और दवा भी भीतर ही मिलेगी।

और अंत में यह याद रखिएगा दोस्तों! कि आपका जीवन अनमोल है, आप खुशियां बांटने इस धरती पर आए हैं, और यह तभी कर पाएंगे जब आप स्वयं तो तनाव रूपी कुहासे से मुक्त करेंगे और दीपक की भांति प्रकाशित होंगे।

 

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18.यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई! 15/09/26  

दोस्तों, क्या अपने महान कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ कहानी पढ़ी है? यह कहानी एक बहुत ही मार्मिक कहानी है और इसकी मूल संवेदना यह है कि संसार में कुछ ऐसे महान निःस्वार्थी लोग होते हैं, जो किसी के कहे को पूरा करने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे देते हैं। इस कहानी का मुख्य पात्र लहना सिंह ऐसा ही एक व्यक्ति है, जो अपने प्राण देकर बोधा सिंह और हजारा सिंह के प्राणों की रक्षा करता है, केवल इसलिए की लहना सिंह ने सूबेदारनी के मंत्र, उसने कहा था वाक्य को ध्यान में रखकर अपने प्राणों का बलिदान भी देता है।‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई’ कुछ ऐसा ही उद्देश्य है इस कहानी का। मुख्य पात्र लहना सिंह हमारे हृदय पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है। वह प्रेम, त्याग, बलिदानम विनोद वृत्ति, बुद्धिमत्ता और सतर्कता आदि विविध गुणों का स्वामी है। ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, लेकिन जो दूसरों के लिए मरते हैं, ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं, लेकिन होते वश्य हैं।‘

ऐसा कोई कैसे सोच सकता है? ऐसा कोई तभी सोच सकता है जब हमें महसूस हो कि आपसे में जन्म-जन्मांतर का प्रगाढ़ रिश्ता है, कुछ जाना-सा, कुछ अनजाना-सा.....”

अक्सर लोगों को कहते सुना है कि फलां-फलां व्यक्ति से उसका कोई पुराना रिश्ता है, पुराना नाता है, पिछले जनम का, या जन्म जन्मांतर का  वरना यूं ही, कोई कैसे दिल को लुभाने लगता है। चंद हसीन मुलाकातों में रिश्ता इतना गहरा हो गया कि लगने लगा जैसे सदियों से एक-दूसरे को जानते हों। मज़े की बात तो यह है कि कुछ ही दिनों में ये जन्मों के रिश्ते अदालत के भंवर में दिखते है। एक दूजे के प्रति ज़हर उगलते नजर आते हैं। महान शायर कैफ़ी आज़मी ने पूछा था कि “कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता, है जनम का जो ये रिश्ता, तो बदलता क्यों है?“

पिछले दिनों एक मित्र ने बताया कि उनकी ज़िंदगी में एक नया-नया रिश्ता बना है, लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे सदियों से वे एकदूजे को जानते हों। पहली मुलाक़ात में रूह का नाता हो गया आपस में... क्या यह संभव है? लोग तर्क देते हैं कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई एक चेहरा ही हमें क्यों लुभाता है? ज़रुर उससे हमारा कोई पुराना नाता है। वरना कोई एक ही खास क्यों लगता है? क्या है उस चेहरे में ऐसा, जो किसी और में नहीं दिखता। कोई किसी की मुस्कान को अतुलनीय मुस्कान कहता है, कोई किसी के अंदाज पर फ़िदा है, कोई किसी की आंखों की गहराई में खो गया है, तो कोई किसी के गोरे रंग या सुंदर देह का दीवाना हो गयाहै, किसी को किसी की हंसी में सिक्कों की खनखनाहट सुनाई देती है, कोई किसी की आवाज़ से गुनगुनाहट सुनाई देती है, तो कोई किसी की खुशबू में मदहोश हुआ जाता है... इस ख़ास किस्म की पसंद के पीछे आखिर प्रक्रिया क्या है? यानी किसी को कोई क्यों लुभाता है? और क्या इस आकर्षण को रूह का संबंध या कोई रहस्य, कोई जादू या कोई अदृश्य प्रेरणा है, कौन जाने?

हां, यह भी सच है कि हम कुछ ख़ास आवाज़ों, चेहरों और रंगों इत्यादि के प्रति आकर्षित होते हैं। लेकिन फिर वही बात कि सौ सुंदर व्यक्तियों के बीच कोई एक ही प्रेमपात्र क्यों बन जाता है? क्यों दुनिया की भीड़ में कोई एक चेहरा ही हमें लुभाता है? क्या कारण, क्या वजह हो सकती है, यानी सौ व्यक्तियों को अपने सामने खड़ा करके किसी एक का चुनाव किया जाए, तो सवाल उठता है की वही क्यों? इस के पीछे का क्या रहस्य है?

इस के पीछे चुनने वाले के सौंदर्यबोध के अपने मानदंड  और अंतर-संबंधों के बारे में उसकी मान्यताएँ जाने-अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सुंदरता के अपने-अपने मानदंड बन जाते हैं और वह व्यक्ति उन्हीं से मिलते जुलते रूप को ही पसंद करता है। किसी को मधुबाला लुभाती है, तो किसी को मीनाकुमारी। कोई केटरीना की सुंदरता देख मुग्ध होता है तो किसी को आलिया भट्ट रोमांचित करती है। यही वजह है कि किसी को किसी की मुस्कान लुभाती है, किसी को किसी का चेहरा, उसके अंगों की एक ख़ास बनावट आकर्षित करती है, तो किसी को किसी का सेन्स ऑफ़ हयूमर, कई पुरुष या महिलाएँ गोरे रंग के प्रति आकर्षित होते हैं, तो कुछ सांवले रंग के प्रति, या सुंदर देह के प्रति, तो कोई किसी में बुद्धि, विवेक और चतुराई खोजता है।

यानी कि उसका चुनाव इन्हीं बातों पर निर्भर होता है, ना कि एकदम सांयोगिक और किसी दैवीय या रहस्यमयी प्रेरणा पर। अक्सर लोग इस आकर्षण को रूह का नाता, पिछले जनम का संबंध या कोई रहस्य मान बैठते हैं। शुरूआती आकर्षण और चुनाव में शारीरिक गुणों की महती भूमिका होती है, पर असली परीक्षा तो आपसी अंतःक्रियाओं यानी व्यक्तित्व के आंतरिक व्यावहारिक गुणों के परीक्षण में होती है। यह सच भी है दोस्तों, जब हमारे संबंध बनते हैं विशेष तौर पर स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों में, आरंभ में शायद कहीं दैहिक आकर्षण होता हो, क्योंकि बाहरी आवरण से ही आप अंतस तक पहुंच पाते हैं, परंतु रिश्ता वही कायम रहता है, जो शारीरिक और दैहिक सुंदरता से होता हुआ मन की सुंदरता को खोज लेता है। ठीक वैसे ही जैसे प्यासा हिरण मरुभूमि में भी जलाशय ढूंढ ही लेता है, प्यासी धरती की पुकार पर मेघ बरस ही पड़ते है और सारे बंधंनों को तोड़ते हुए एक झरना सागर में मिल ही जाता है। जब रिश्ते कुछ दूर तक चल पड़ते हैं, तो उन रिश्तो में आपसी समझ, व्यवहार का संतुलन और बिना कहे एक दूसरे को समझ लेने की प्रवृत्ति पैदा होने लगती है। और यहीं हम कह पाते हैं कि तेरा मुझे है पहले का नाता कोई।

सार ये है कि कोई चेहरा आपको लुभा रहा है, पसंद आ रहा है। आप किसी व्यक्ति विशेष के आकर्षण में बंधे जा रहे हैं,, तो आप इसे कोई नशा या जादू समझने की भूल ना कर बैठें। किसी का मिलना, आपके ज़िंदगी में उसका आना और छा जाना, आपको विचलित कर देना, ये महज़ कुछ चीज़ों पर संयोग मात्र निर्भर हो सकता है। आप को कोई यूं ही नहीं लुभा रहा। उस लुभाने के पीछे कोई सदियों का नाता नहीं;,ना कोई रहस्मयी प्रेरणा, ना कोई पूर्व जनम का कोई संबंध ही है। बल्कि, इसके पीछे आपके सौन्दर्यबोध के मानदंड, आपकी अंतर्संबंधों के बारे में मान्यता और कुछ जैव रसायन काम कर रहे होते हैं।

हमें निरपेक्ष भाव से इसे देखना होगा और देखते वक्त इसकी गहराई में जाना होगा, बजाए इसके कि हम इसे जादू, पूर्व नियत संयोग या कोई पुराना नाता समझे। इसलिए अब अगर कोई आपको लुभाए, तो सौ बार सोचें कि यूं ही नहीं लुभाता कोई! और न ही तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई!... है न दोस्तों!

 

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19. पल पल दिल के पास...01/09/26

काफ़ी पुरानी बात है, मॉरीशस की धरती पर डोडो नामक एक बड़े पक्षी की प्रजाति निवास करती थी। तीन फीट लंबे 10 से 18 किलोग्राम के ये पक्षी बहुत भले थे और इंसानों के बहुत करीब आने की और करीब ही रहने की चाहत रखते थे। दोस्ताना रहना उनका स्वभाव था। लेकिन इंसान ने डोडो को कभी नहीं समझा। जब इंसान इस टापू पर पहुंचा और उसने 64 साल में ही डोडो को दुर्लभ होने के कगार पर पहुंचा दिया। 16 वीं और 17 वीं सदी के बीच डोडो का नामोनिशान मिट चुका था। इंसान की निर्ममता देखिए कि उसने उस भोले पक्षी का नाम "डोडो" यानी भोंदू रख दिया।

जब ये न उड़ सकने वाला डोडो इस दुनिया से हमेशा के लिए चला गया, तब भी अक्लमंद इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन इसका ऐसा असर हुआ कि एक ख़ास प्रजाति के पेड़ों ने उगना कम कर दिया।

ईश्वर ने डोडो को उड़ने के लिए नहीं, इंसानों के करीब रहने के लिए ही बनाया था और वो इंसानों का प्रेम पाने के लिए ही धरती पर आया था। लेकिन हमारी तथाकथित अक्लमंदी, बेरुखी और अनदेखी से डोडो की संपूर्ण प्रजाति ही नष्ट हो गई और उसके विरह में, उसके वियोग में, एक ख़ास जाति के पेड़ों ने भी अपनी ज़िंदगी को नष्ट कर लिया। बात पहली नजर में साधारण-सी लगती है, लेकिन इसमे गहरा दर्शन छिपा हुआ है... और कुछ चुभते सवाल भी।

इस पूरे ब्रह्मांड की हर छोटी-बड़ी चीज़ एक दूसरे से कनेक्ट है, गहराई से जुडी हुई है। बाहर से अलग-अलग दिखने वाली चीज़ें भीतर से कहीं बहुत महीन तारों से जुडी होती हैं। छोटी-सी, सामान्य-सी, साधारण-सी चीज़ भी उस असाधारण से जुडी है....उस परम सत्ता का अंश है, हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम सभी ये बात जानते तो हैं, पर यकीन करने से गुरेज़ करते हैं।

एक छोटी-सी तितली के पंख फड़फड़ाने से कहीं बहुत दूर किसी देश में बारिश हो सकती है....कौन-सी बूंद किस रेत के कण से जुडी हैं.....कौन-सी कली कब किसके लिए चटकेगी….कौन जाने?

कौन किसका हिस्सा है, कौन किस कारण से जुड़ता हैकौन किस कारण से बिखरता है, टूटता है, किस कारण से मिटता है... कौन जाने? कोई नहीं जानता! फिर हम कैसे अपने साथ घटने वाली किसी भी घटना को नकार सकते हैं या सिरे से खारिज कर देते हैं? उससे भागने लगते हैं। बचने की कोशिश करने लगते हैं। हर छोटी से छोटी घटना अपने साथ वजह लेकर जन्मती है। हमारा कोई बस नहीं इस पर। फिर हम इसे क्यों अनदेखा करते है, क्यों सहज नहीं रहते। और जो सहज, सरल और निर्मल होते हैं, उन्हें हम डोडो या भौंदू समझ लेते हैं। है न दोस्तों?

क्या प्रेमिल हो जाना, प्रेमी बन जाना, दोस्ती का हाथ बढ़ा देना या किसी के करीब रहने की, संग की, साथ की चाह्त करना डोडो हो जाना है? क्या यह भोंदूपन की निशानी है?

क्या किसी को प्रेम करना हमारी विशेषता है, हमारा टेलेंट है, हमारा हुनर है? क्यों कर बैठते है हम प्रेम किसी एक से? क्या खोजते हैं हम उसमें? उसे या खुद को? क्या वो दुनिया में सबसे ज़्यादा खूबसूरत है इसलिए? प्रसिद्ध है इसलिए? किसी विशेष गुण के कारण? किसी ख़ास हुनर की वजह से? या हमने ही उसे पूज-पूज कर देवता बना दिया है। किसी घाट के गोल पत्थर को शालिग्राम कह कर पूज लिया है।

प्रेम करना हमारा स्वभाव होता है। आत्मा की अतल गहराइयों में कहीं बहुत गहरे में सोता होगा प्रेम, ना जाने कब से कितनी सदियों से, लेकिन कोई उसे अपनी नन्हीं सी कोमल छुअन से जगा जाता है। फिर क्या...फिर तो झरना फूट पड़ता है, प्रेम का। कोई आपकी उंगली पकड़ कर आपको आत्मा के भीतर बहुत गहरे में लिए जाता है। प्रेम नगर की सैर कराता है... आप दूसरे के माध्यम से खुद को खोजने चल पड़ते हैं। गोया वो टार्च जलाता है और हम अपना बिखरा सामान समेटने लगते हैं। जैसे यादें, सपने, अहसास इत्यादि। वो यक़ीनन ख़ास होता है, या हम उसे "सबसे खास" बना देते हैं।

सिर्फ़ देह से जुड़कर आप कई चूक कर जाते हैं, कुछ महान… कुछ रहस्यात्मक… क्योंकि आपकी गहराई के बारे में आपको पता ही नहीं होता, आप सिर्फ़ सतह पर जुड़ते हो, और दूसरे को भूल भी जाते हो। लेकिन जब कोई आपकी आत्मा को छूता है, तो आपको खुद की गहराई पता चलती है। किसी दूसरे के द्वारा ही आप अपने को जानते हो... अंतस में सचेत होते हो। गहन संबंध में ही, किसी के प्रेम में ही, आप खुद को खोज पाते हो। उस छुअन को आप सदियों तक याद रखते हो। हर प्रेम अनोखा होता है, उसकी प्यास अनोखी होती है, उसके अंदाज अनोखे, उसकी खोज अनोखी होती है। हम सब अपनी ही खोज में चलते जाते हैं दूर...कहीं बहुत दूर...

सच कहूं दोस्तों! हम खुद के लिए ही प्रेम करते हैं....खुद को खोजने के लिए। किसी को प्रेम करना हमारे हिस्से का प्रेम है। हमारा हिस्सा है और हमारा ही किस्सा भी। हमारी प्यास और हमारे अंदाज भी। इसमे ईर्ष्या, उम्मीद और पाने की बात ही नहीं। तो अब सवाल ये कि इस तरह से बेशर्त प्रेम करना क्या डोडो यानी भोंदू हो जाना है? कतई नहीं, हम अपने प्रेम की गोंद से रिश्तों को चिपकाते हैं अपने लिए। अपनी मर्ज़ी से, हम लोगों को पसंद करते हैं, प्यार करते हैं, ईमानदारी से कोई मिलावट नहीं इसमें।

अब आखिरी सवाल है कि जब सभी अपने प्रेम की खोज में हैं या खुद की खोज में हैं सभी को तलाश है, दरकार है, तो हर चेहरा उदास क्यों हैक्यों प्यासे हैं लोग? जबकि सागर भी आस-पास ही है। फिर भी महसूस क्यों नहीं कर पाते प्रेम को, उसके आनंद कोउसकी उर्जा को, उसकी अजस्र शक्ति को?

दरअसल हमने अपने ज्ञान का, बुद्धि का कुछ ज़्यादा ही विकास कर लिया है। हम बहुत अक्लमंद हो गए हैं, इसलिए छोटी बातों में अपना कीमती समय बर्बाद करना नहीं चाहते।

किसी ने क्या खूब कहा है "अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मैकदे में आ"लेकिन हमारा अहम्, हमारा अभिमान और उसका कद बहुत बड़ा है, वहाँ से प्रेम, दोस्ती जैसी चीज़ें बहुत छोटी दिखती हैं। हमने अपनी अक्ल पे परदे भी लगा रखे हैं ताकि वो सुरक्षित रहे, कोई छोटी चीज़ आकर उसे नष्ट न कर दे। हम जानते हैं कि जिस दिन भी किसी दरार से या "की-होल" से प्रेम झांक गया, उसी दिन हमारी सारी अक्ल, सारी अकड़ धरी की धरी रह जाएगी, सारे ठाट-बाट फीके पड़ जायेगे, अहंकार के ये प्रासाद ढह जाएंगे, इसलिए हमने अक्ल पर मोटे-मोटे परदे डाल दिए। अब हम अपनी आँख, नाक, कान सब पर्दों में छिपा कर रखते हैं। हवा का कोई झोंका प्रेम-संदेश न ले आए, कोई प्रेम पुकार हमें विचलित न कर दे। कोई फूल न महक जाए, कोई सांस हमारे दिल को ना धड़का जाए। कितने सतर्क, कितने सावधान रहने लगे हैं हम... है न दोस्तों!

अब इतनी चौकसी, इतने पहरे, इतने परदों , इतने घूँघट के बाद किसी डोडो, किसी भौंदू की क्या मजाल कि वो तनिक भी ठहर पाए। वो तो आंखों में आंसू लिए, होठों पे बेबसी की मुस्कान लिए चुपचाप एक दिन चला ही जाएगा ।

कभी -कभी सोचती हूँ दोस्तों, जिस तरह से प्रेम के प्रतीक पक्षी, पेड़ और कई जीव, जिनमें अब मधुमक्खियों की बारी है, नष्ट हो रहे हैं, रूठ के जा रहे हैं बिना कुछ कहे, इनके पलायन करने का कारण आज तक कोई न खोज पाया है और न इन घटनाओं, इन नातों और संबंधों को ही कोई समझ पाया है। लेकिन एक दिन जब खोज पूरी होगी तब तक इंसान कितना नुकसान कर चुके होंगे इस धरती का, प्रेम का, इस नुकसान की भरपाई कौन कर सकेगा? कहीं ऐसा न हो जाए कि एक दिन बिना कुछ कहे, ख़ामोशी से हमारी अकलमंदी, हमारी अनदेखी, हमारे अनमनेपन, बेरुखी से आहत होकर …. प्रेम ही न कहीं चला जाए डोडो पक्षी की तरह दुखी होकर।

शायद, इंसान को उस दिन भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, प्रेम की करुण पुकार, उसका अलविदा कह जाना, क्या हम कभी सुन पाएंगे? हमारी अकल के पर्दों पे तो अब कोई दस्तक सुनाई ही नहीं देती।

लेकिन प्रेम, जो पल पल दिल के पास रहता है, के इस धरती से चले जाने के बाद फूल किसके लिए खिलेंगे? तितली किसके लिए उड़ेगी? आसमान में इंद्र-धनुष किसके लिए दिखेगा? आसमान से शबनम किसके लिए बरसेगी? न किसी पत्ती पे कोई ओस से प्रेम-पत्र लिखा जाएगा.....रात को चांद को कोई चकोर ताकेगा और न ही हिरण कस्तूरी की तलाश में बन-बन भटकेगा। फिर किसी चट्टान पे कोई घास नहीं उगेगी, न कोई लहर किनारों को आ-आ कर छुएगी।

याद रखिएगा दोस्तों, प्रेम बहुत स्वाभिमानी है और तुनक मिजाज़ भी। वो खुद कभी अकल के परदे पीछे नहीं छिपता, न कभी घूँघट के पट खोलता है। वो दरवाज़े पे दस्तक बन के दम तोड़ सकता है, लेकिन कभी कोई दरवाज़ा नहीं तोड़ता, वो परदों के घूँघट के बाहर सदियों तक इंतजार कर सकता है, लेकिन परदे नहीं खींचता। जब हमने लगाएं हैं ये अहम् और अभिमान के परदे, तो हटाने भी हमें ही होगे न, भला परदों के पीछे से कभी चाँद दिखता है क्या?

प्रेम छूटता है क्या...जो पल-पल दिल के पास रहता हो, वह केवल उत्सर्ग जानता है, और कुछ नहीं...हैं न दोस्तों!

 

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20.अहा ज़िंदगी!!15/10/26

आज की बात की शुरुआत उस महान शख्सियत को याद करते हुए....जो भारत के कण-कण में, यहां की मिट्टी की सोंधी खुशबू में, यहां की ठंडी बयार में, फ़िज़ाओं में, पत्ती-पत्ती में, डाली-डाली में, कण-कण में बसा है....आप समझ गए न...जी हां! मैं बात कर रही हूं, हमारे प्यारे बापू की....उन दिनों बापू पद यात्रा पर थे। वे अपने सामान में नहाने के लिए एक पत्थर रखा करते थे। वे उसी से शरीर रगड़ा करते थे। एक दिन मनु बहन उनका वह पत्थर पिछले पड़ाव पर ही भूल गईं। जब बापू को इसका पता चला तो उन्होंने उन्हें पिछले पड़ाव जाकर वह पत्थर लाने को कहा।

सुनकर मनु बहन ने कहा- “बापू! आप भी कैसी बात करते हैं? यहीं आसपास कितने पत्थर पड़े हैं, इन्हीं में से एक उठा लेती हूं। वहां जाने-आने में तो पूरे तीन घंटे लग जाएंगे"।

इस पर बापू ने कहा- ''मनु, तुम वही पत्थर लेकर आओ! यहां इतने पत्थर पड़े हैं, तो क्या हुआ, ये किसी न किसी काम तो आएंगे ही, अभी नहीं तो पांच बरस बाद। हमें इस तरह अन्य पत्थरों बिगाड़ने का कोई हक नहीं। हां, तुम तुरंत जाओ और उसी पत्थर को ढूंढकर लाओ।”

मनु वह पत्थर लेने चल पड़ी। तीन घंटे बाद लौटीं। उन्होंने जैसे ही बापू को वो पत्थर दिया, बापू ने खुश होते हुए उसे लेकर अपने थैले में रख लिया और बोले “यों तो प्रकृति की गोद में असंख्य पत्थर बिखरे पड़े हैं, लेकिन हमें अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उनका उपयोग करना चाहिए"।

इस प्रसंग के बारे में सोचते-सोचते विचार करने लगी कि हम ज़िंदगी भर जिन मूल्यों को तलाशते रहते हैं, परखते रहते हैं, उनका अर्थ खोजने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं, बापू ने उसे कितनी सहजता से कह दिया....कि प्रकृति से हमें अपनी आवश्यकता, अपनी ज़रूरत के अनुसार ही लेना चाहिए...उससे अधिक नहीं...और उसका दोहन तो कतई नहीं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं कि ज़िंदगी की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है-प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो है ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं, तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगेतरह-तरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात नहीं करेंगे क्या? भोजन और पानी के बगैर कैसे गुज़रेगी ज़िंदगी की रेलगाड़ी?

तो आइए, आज प्रकृति में यानी पेड़ों की फुनगी पर, पत्तों पर बिछी ओस की बूंदों में, फूलों की खुशबू में, निर्बाध झरनों के तेज़ वेग से गिरते जल में, नदियोंके सर्पाकार मोड़ों के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही ज़रूरी नहीं है, यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति नहीं होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो, आपके पैरों तले मिट्टी न हो, न आंख के सामने धरती हो, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां ज़िंदगी संभव हो सकेगी?

खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें, तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर ज़िंदगी और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है। पहाड़ की छाती चीरकर, झरने पानी लेकर हाज़िर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां...जो फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो, तो खेत कैसे लहलहाएंगे?

हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामोनिशां न हो, तो हमारे होने का, इस ज़िंदगी का ही क्या मतलब होगाप्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रृंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव।

मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगने में, गर्मी में छांव में और बारिश की उमंग में अनिर्वचनीय सुख है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें, तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। ज़रूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उनके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि वृक्ष बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं। हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब-जब हम कारसाज़ कुदरत को आदर करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है।

किस-किस को निहारूं? किस-किस की कहानी सुनाऊं? मेरी ज़िंदगी को किस-किस ने ‘अहा’ बना दिया। ये विशालकाय वृक्ष, फलों से लदी उनकी शाखाएं, वृक्ष, जो राहगीरों को आश्रय देता है, हवाएं, जो शीतल शांत है, समुद्र, जिसमें अद्भुत प्रवाह है, जो बहता अपनी ही राह है, मानो जलमाला महाकुंभ है, कितना विचित्र दृश्य मनोहर है, पर्वत...पर्वत तो अमर अटल है, धराशील गगनचुंबीय हैं, कहता झुके ना शीश मेरा, चक्रब्यूह सा वह अभेद है। सच कहूं दोस्तों! प्रकृति एक संपदा है, जिसके कारण अजर-अमर यह वसुंधरा है, बस इतनी-सी इसकी कहानी है, क्या सचमुच इसकी इतनी-सी ही कहानी है? यह तो अमूल्य-अनुपम-अतुलनीय हैं, जन-जन का विश्वास है और  युगों-युगों की कहानी है।

मुझे याद आता है अपना बचपन... जब हम नानी के पास सर्दियों में जाते, रात के समय, सब कामों से फ़ारिग हो होकर, वे सब बच्चों को रज़ाई में अपने पास लिटा लेतीं। हम सब बच्चे दिन भर रात हो होने वाली इस अनोखी पाठशाला की धमाचौकड़ी का इंतज़ार करते। सारे बच्चे नानी के सुरीले गले के साथ अपने बेसुरे गले मिलाते और कभी गाते- छोटी-छोटी गइया छोटे-छोटे ग्वाल, छोटौ सो मेरौ मदन गोपाल, कभी मेरौ बारौ सो कन्हैंया कालीदह पै खेलन आयो री, कभी  जमुना किनारे मेरौ गाँव आ जइयो, कभी सुन महादेवा हो,जटा गंगाधारी, कभी तेरी जटा में गंग बिराजी, माथे पे चन्द्र सोहे, कभी सासू पनिया भरन कैसे जाऊँ, रसीले दोऊ नैना ।बहू ओढ़ो चटक चुनरिया, सर पै राखो गगरिया, बहू मेरी छोटी नणद लो साथ, रसीले दोऊ नैना , कभी अरे बरसन लागे बुंदिया चला भागा पिया, अरे घूंघटा भीगे तो भिजन दे....कभी कागा की चोंच कबूतर के डैना उड़त चिरया की आँख रे....,ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवर समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल….इस गीत की तो न जाने कितनी ही यादें हैं, इस गीत पर जिसका ठुमका नानी को भाता, उसे गोंद का आधा लड्डू मिलता...उस लड्डू का स्वाद आज भी नहीं भूली हूं। तो मैं बात कर रही थी इन लोक गीतों की...यदि ये गीत न होते, तो छोटे ग्वालों की गैया बड़ी न हो जाती, कन्हैया कालिंदी में कैसे खेलते, मां गंगा कहां बिराजतीं, चंद्रमा शिव के मस्तक की शोभा कैसे बढ़ाता, बहू अपनी सास से पानी न भरने के बहाने कैसे ढूंढती, और तो और बुंदियों के बरसने पर गोरिया का घूंघट कैसे भीगता और ससुराल गेंदा फूल कैसे बन पाता? देखा न दोस्तों! प्रकृति के इस रूपों से हमारी ज़िंदगी को कितना रोमानी, दिलखुश और ‘अहा’ हो जाती है....है न दोस्तों!

कभी उषा बेला में बाल सूरज को उदित होते तो देखिए, कभी अपने प्रियतम को मधुमालती लिपटी है मुंडेर पर बुला कर तो देखिए.... तुलसी के क्यारी में सिर नवाकर, शीश झुका कर तो देखिए, गुलाब के गमले में लगी मुस्कानों के साथ मुस्करा कर तो देखिए, क्षितिज पर शाम के समय लालिमा लिए सूरज को अपनी मुट्ठी में बांधकर तो देखिए और रात्रि के समय आसमान में जुगनुओं के समान टिमटिमाते तारों को अपनी चुनरी में टांक कर तो देखिए, ऐसे में क्या होगा? होगा यह कि आपका सारा अहम, नाराज़गी, मन की चटकन, व्यस्तताएं, नकारात्मक भावनाएं, सब काफ़ूर हो जाएंगी....और आप....आप एक शरारती बच्चे के समान किलोलने लगेंगे, मृदंग की तरह बजने लगेंगे.....पतंग की अदृश्य डोर से बंधकर उड़ने लगेंगे।

अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके ज़रिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से ज़रूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे और हम कह सकेंगे.....

अहा ज़िंदगी!!

 

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21.बहती हवा-सा था वो...01/10/26

मैं अक्सर उस सड़क से गुज़रा करती थी। उस सड़क पर न जाने क्या आकर्षण था? जब-जब गुज़रती, तब-तक बाईं ओर ज़रूर देखती। वैसे तो बाईं ओर ऐसा कुछ खास नहीं था, पर फिर भी मुझे आकर्षित करता था। एक बड़ा-सा तंबू सड़क के किनारे लगा था, उस तंबू के बीचोंबीच सिलाई की एक पुरानी मशीन रखी थी और इन सबके बीच अनगिनत झुर्रियां लिए हुए खिचड़ी बालों वाले एक बुजुर्ग....एक वृद्ध बैठकर कुछ सिला करते थे। तंबू के आसपास कहीं फटे हुए बैग, कहीं सिले हुए कपड़ों की गठरी, कहीं कुछ धागे और कहीं और ऐसा सामान, जो देखने में कूड़ा-करकट लगता, पड़ा रहता था। साल के हर मौसम में वे बुज़ुर्ग वहीं बैठा करते सर झुकाए सिलाई मशीन की सुई में अपनी धुंधली आंखों से बड़े ही जतन से धागा डालते हुए, कुछ सिलते हुए दिखाई देते। घर में अक्सर ऐसा हो ही जाता है कि कभी कोई बैग फट गया, कभी-कभी कोई कपड़ा उधड़ गया, और ऐसी फटी हुई चीज़ों और उधड़न को संवारने का काम करते थे, वे बुज़ुर्ग। मैं अक्सर कुछ ना कुछ सिलवाने के लिए उनके पास जाया करती...वे बड़े प्यार से मुझे देखते। अक्सर कहते टूटी हुई बेंच को दिखाकर, बिटिया, यहां बैठ जा, अभी करके देता हूं। मैं सोचती चारों ओर गर्म हवाएं चल रही हैं...मैं यहां बैठ गई तो, तप जाऊंगी....जल जाऊंगी।

मैं बाबा को सामान देकर यह कहकर चली आती, बाबा, शाम को ले लूंगी। कई बार शाम को नहीं पहुंच पाती। दो-चार दिन बाद पहुंचती, तो बड़ी शिकायती स्वर में बाबा कहते, तुम आई नहीं बिटिया, मैं तो राह देख रहा था। मैंने उसे दिन रात को 8:00 बजे तक मशीन नहीं बांधी....मशीन नहीं बढ़ाई, क्योंकि मुझे लगा कि तुम आओगी।

मैं माफी मांगते हुए उनसे कहती, बाबा थोड़ा व्यस्त हो गई थी। यह सिलसिला न जाने कितने वर्षों तक चलता रहा और फिर आया वह समय....समय भी क्या कुसमय, जिसने देश-विदेश के हर बाशिंदे को हिला कर रख दिया....कोरोना का समय। घर से बाहर निकलना, कहीं आना-जाना, सब कुछ रुक गया, थम गया, अब तो सूरज की रोशनी भी खिड़कियों से झांक-झांक कर देखा करते, कब दिन हो गया, कब रात आ गई, कब रात बीत गई और फिर भोर हो गई, ये नज़ारे अब गुम हो चुके थे, तो सड़कों की तो बात ही क्या की जाए? बड़े दिनों बाद, शायद डेढ़ साल बाद, जब जीवन थोड़ा सामान्य हुआ, हमारा बाज़ार आना-जाना शुरू हुआ, तो मैं फिर से उस सड़क से गुज़री......

तंबू वही टंगा था, कहीं कपड़ों के छोटे-मोटे टुकड़े-चिथड़ेड़े वहीं पड़े थे, पर गुम थी सिलाई की मशीन की जर्जर आवाज़...गुम थी मशीन के साथ वह बुज़ुर्ग...जिनकी मद्धम आंखों में मैंने सदा जीवन देखा था....गुम थे वे बैग, जो उन्होंने ग्राहकों के लिए सिलकर तैयार करके रखे थे, गुम थी वह आत्मीयता...वह फिज़ां, वे मनुहार भरे शब्द....बिटिया, तुम आई नहीं? मैं रात को 8:00 बजे तक राह देखता रहा...मैं दुकान नहीं बढाई।

फिर क्या था? आसपास पूछा, सब अनजान से चेहरे वहां थे, जिनकी दुकान आसपास थी, वे वहां नहीं थे...कुछ नए लोग थे, जिन्होंने शायद उन बुज़ुर्ग को कभी देखा भी नहीं था। मुझे बदहवास देख कोई फुसफुसाया...किसी से  उड़ते-उड़ते सुना था कि वे अब नहीं रहे...वे नहीं रहे!! मैं निःशब्द हो गई। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि वे जालंधर के पॉलिटेक्निक के पहले बैच के विद्यार्थी थे, वहीं उन्होंने सिलाई का काम सीखा था और फिर लगभग 33 वर्ष जालंधर में ही बिजली विभाग में काम किया था। फिर अपने बेटे के साथ सपत्नीक वे मेरे शहर आ गए थे और मेरे शहर ने उन्हें क्या दिया? वैसे कभी-कभी बेटे और पत्नी के बारे में कुछ कहते-कहते चुप हो जाते। लापता का तमगा? मैंने सोचा कहाँ ढूंढू उन्हें...! पर कहां?, वे तो बहती हवा से गुम हो गए....वे जो बिना कष्ट-श्रम के  युगों से गगन को सम्हाले हुए थे, वे जो सभी प्राणियों को प्रेम-आसव पिलाकर जिलाए रहते, वे जो अपनी बाँहें पसारे शीत के कोमल झकोरों से नदी को शीतल कर देते, वे जो अपनी माया के बल पर आकाश नाप लिया करते,जिनकी आंखों में अनगिनत  संभावनाओं के दीप जला करते, जिनकी अश्रुपूरित आँखों में ढेर सारी नमी बिखेरती , आशीषें होती... अब वे कहां?

सच, वो बहुत ही जिंदादिल इंसान थे।

जीवन किसी के लिए भी आसान नहीं है, बहुत कठिन है। अक्सर दिल और दिमाग के द्वंद्व चलते हैंकहीं नौकरी की समस्या, कहीं विवाह की समस्याकहीं विवाह नहीं हो रहा ये दुखकहीं ये की विवाह क्यों कर लिया? कहीं विवाह को बचाया कैसे जाए? कहीं नौकरी नहीं मिलती, तो कभी मिल गई, तो कैसे बचाई जाए, इसका तनाव, कहीं घरों में जगह नहीं, तो कहीं दिलों में प्यार नहीं, कहीं घर नहीं, तो कहीं दिल ही नहीं... हज़ारों दुख, लेकिन इन सब के बीच भी जीवन खोजना है, जब दिल दुख से भर जाए दिल और दिमाग आपस में उलझ जाए तो क्या करें?

ऐसे में अंतर्विरोध बहुत ज्यादा हावी होने लगते हैं, दूर-दूर तक कोई राह नजर नहीं आती, कितनी भी मेहनत कर लें लेकिन कोई हल नहीं निकलता, सारी सक्रियता बेमानी लगने लगती हैऐसे कठिन समय में परेशान व्यक्ति को केवल दो ही राहें दिखती हैं; या तो वो हालातों के सामने आत्मसमर्पण कर दे या तो परिस्थियां जैसी हैं उसी हाल में चुप-चाप खुद  को ढाल ले। जो हो रहा है उसे साक्षी भाव से देखता चले या फिर दूसरी राह ये कि हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए कि साहब, अब हम तो कुछ नहीं करेगें क्योंकि परिस्थतियां अनुकूल नहीं हैं, बेमन से काम करने  से बेहतर है कुछ किया ही ना जाये।

अक्सर लोग, दूसरी राह यानी "कुछ ना करने" को ही चुनते हैं और इसी में मानसिक सुख तलाशने लगते हैं, लेकिन यहीं पर गलती होती है। ये सोच गंभीर नशा पैदा करने वाली सोच है और धीरे-धीरे व्यक्ति इस आदत का शिकार होता चला जाता है, उसकी सक्रियता सीमित होने लगती है। उसका किसी काम में मन नहीं लगता, आसपास के सभी लोग उसे दुश्मन से लगते हैं।  सभी लोगों से उसे चिढ़ होने लगती  है। ऐसी हालत में परिवार के सदस्य भी उस व्यक्ति से बात करना बंद  कर देते हैं, परिवार की उपेक्षा उसे सबसे ज्यादा तोड़ती है। व्यक्ति बाहरी दुनिया का सामना तो साहस के साथ कर लेता है लेकिन घर के भीतर का बेगानापन उसे भीतर से तोड़ता है। दुख पीड़ा बढ़ते जाते हैं, कार्य-क्षेत्र और परिवार के बीच वो संतुलन नहीं बना पाता।  खुद को असहाय महसूस करता है, कितना भी प्रसिद्ध व्यक्ति हो, चाहे बहुत बड़ा लेखक, कवि, पत्रकार, चिकित्सक, नेता या अभिनेता क्यों ना हो ऐसी कठिन परिस्तिथियां उसे गहरे तनाव, अवसाद में ले आती है और व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है।  परिवार वालों से, दोस्तों से, सभी से बात बंद हो जाती है। एक सफल व्यक्ति, प्रसिद्ध व्यक्ति, सक्रिय व्यक्ति अब निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगता है। ऐसी भयावह स्थिति से हम अपने जीवन में कभी ना कभी जरूर गुजरते हैं, लेकिन समाधान खोज नहीं पाते।

अब सवाल ये कि सबसे पहले क्या किया जाए? सबसे पहले  हमें वही ऊपर बताई हुई राह यानी "सक्रियता" का दामन थामे रखना है, आप जो भी काम कर रहे हैं, वो कितना भी बोरिंग क्यों ना हो, मशीनी हो, बोझिल हो, जिसे करने से कोई भी हांसिल ना निकले, कोई मतलब ना निकले, आप खुद को कोल्हू का बैल मान रहे हो (जबकी आप जानते हैं कि आप कोल्हू के बैल नहीं, रेस के घोड़े हैं)  फिर भी आप उसी काम को करते जाइयेधीरे-धीरे उसी राह पर कदम बढ़ाते रहें।

आप देखेंगे कि उसी काम के बीच, उसी सक्रियता के बीच में से कुछ "मतलब" निकलने लगे हैं; जिसके अभी तक कोई मायने नहीं थेउसमें से ही मायने निकलने लगे हैं।  याद  रखिए मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बनाए रखता है और बेहतर हो सकता है। निष्क्रियता से तो इन्हें खोने की राह ही बनेगी।

संघर्ष कीजिये, प्रयत्न कीजिये, प्रयास कीजिये और फिर प्रतीक्षा कीजिए। सब ठीक होता जाएगा, जो भी हालात हमारे सामने हैंजो भी वस्तुस्थितियां सामने आ रही हैं; उनके अतीत के कारण और हिसाब हमारे पास हैं, परन्तु क्या अब हम अपने अतीत को बदल सकते हैं?... नहीं ना?... तो जो बीत गया उसके बारे में क्यों सोचेंहमारे पास जो अभी बकाया है, जो खर्च नहीं हुआ वो अभी भी शेष है ना? वही हमारा वर्तमान है और आगे संभावनाएं भी हैं।

जब आप मानसिक उद्देलन में हो, चिंताओं से घिरे होंअनिर्णय की स्थिति में हों, कुछ भी समझ नहीं आ रहा हो, सारे रास्ते बंद होगये हों तब भी हमें ये याद  रखना होगा की कोई न कोई रास्ता अब भी बचा है। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैंतब भी हम मानसिक रूप से बहुत कुछ कर रहे होते हैं, हम विचार प्रक्रिया में होते हैं, सोच में होते हैं। कभी-कभी सोच नकारात्मक हो जाती है और हम अपने परिवार, साथी और दोस्तों पर अपना  गुस्सा जाहिर करने लगते है, ये बहुत ही बुरी स्थिति होती है। आपकी नकारात्मक सोच कभी भी आपको इस दलदल से नहीं निकलने देती है। कभी कभार यूं भी होता है कि कुछ लोग हालातों के सामने शहीद होने का मन बना लेते हैं।  वो अपनी निजता, अपनी व्यक्तिकत्ता  का बड़ा-सा त्याग करके अपने अहम को संतुष्ट करते हैंअपनी आत्मा को झूठा  सुख देते है कि हमने अपना सब कुछ त्याग दिया  लेकिन ये भी तो ठीक नहीं है ना...

हमें योजना के साथ काम करना होगासबसे पहले हमें स्वयं ही अपने बिखरे टुकड़े समेटने होंगेखुद की विशेषताओं को देखना शुरू करना होगा, अपने गुणों पर गर्व करना होगा, ताकी हम उनसे लाभ उठा सकें। जिन्दगी से और बेहतर  तरीके से जूझने की हिम्मत जुटानी होगी, एक-एक कदम जमा कर  उठाना होगा। अपने दिमाग में जो भी चल रहा है उसे या तो किसी कागज पर लिख डालिए या फिर किसी करीबी दोस्त से कह दीजिए। आप देखेगें कि दोस्त से बात करते-करते ही आप उस गंभीर  समस्या से बाहर निकल रहे हैं। कल ही मैंने कहीं पढ़ा कि मानसिक प्रक्रिया का तारतम्य तोड़ने के लिए उसे “एक झटका देने की जरूरत होती है"।  तो तोड़ डालिए वो तारतम्य जो अभी तक था। भूल कर सब कुछ फिर से नए हो जाइए, आपके भीतर ही कहीं आप गुम ना हो जाएँ इसका ध्यान रखना होगा। आप जो है उसे बाहर लाना ही होगा। जब  आप खुद को खोज लेते हैं, तो अपने आसपास बहुत से ऐसे लोग आपको नजर आने लगते हैं जिन्हें आपकी जरुरत है, जो  अपने सर्वश्रेष्ठ गुणों के बावजूद गुमनाम जिन्दगी जी रहे हैं, उन्हें ढूंढ़ कर रोशनी में लाना होगा। उन्हें जीना सिखाना होगा, मुस्कुराना सिखाना होगा। हम जिनकी परवाह करते हैं, प्रेम करते हैं, उन्हें पल-पल मरते कैसे देख सकते हैं। ना जाने कितने लोग जीते जी मर गएगुम हो गए अपने तनाव, अवसाद और दुख के नीचेपीड़ा के पीछे उन्हें ढूंढना होगा, किसी गीत की पंक्तियां है,  ‘बहती हवा-सा था वो, उड़ती पतंग-सा था वो ...कहां गया उसे ढूंढो...

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22 ये इश्क वाला लव ...15/11/26

दोस्तों! न जाने इश्क को क्या-क्या कहा जाने लगा है? इश्क सुना था, लव सुना था पर, ये इश्क वाला लव क्या है? फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर का एक गीत भर... जी नहीं। दरअसल फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सअप जैसे एप्स के साथ युवाओं में प्यार की परिभाषाएं ही बदल रही हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि नई जनरेशन प्यार में उठने वाले भावनाओं के ज्वार को लेकर ज्यादा प्रैक्टिकल है। पुरानी पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा सजग, दूरंदेशी और हर तरह की व्यावहारिकताओं को समझने वाली। इसके बावजूद वो पुराना वाला इश्क तो हो ही रहा है, जिसे यंगस्टर्स की भाषा में, फिल्मकार इश्क वाला लव कहते हैं। अलग-अलग समय के साहित्य में रोमांस को तरह-तरह से पेश किया गया है। कहते हैं साहित्य समाज का आईना होता है। साहित्यकारों, शायरों, सूफी संतों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के नजरिए से  इश्क को समझने की  के लिए...

शायरों और साहित्यकारों ने यूं बयां की मोहब्बत को, कैफी आज़मी साहब कहते हैं कि

बस एक झिझक है यही हाले-दिल सुनाने में,

कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फसाने में।

बरस पड़ी थी जो रुख से नकाब उठाने में,

वो चांदनी है अभी तक गरीबखाने में ||

इसी में इश्क की किस्मत बदल भी सकती थी,

जो वक्त बीत गया आजमाने में,

ये कहकर टूट पड़ा शाखे-गुल से आखिरी फूल,

अब और देर है कितनी बहार आने में...

इन पंक्तियों में कैफी साहब ने प्रेयसी को लेकर आशिक की फिक्र, मोहब्बत और तकलीफ को बेहद नज़ाकत के साथ पेश किया है। संवेदनशीलता तो देखिए कि आशिक अपना हाल-ए-दिल बयां करने से भी डरता है कि कहीं इस ज़िक्र  से उसके माशूका की बदनामी न हो जाए। कितनी कोमलता, कितनी मुरव्वत, कितनी मुहब्बत, तितली के पंखों सी रंग-बिरंगी है यह चाह| अगर पश्चिम की खिड़की में झांकें, तो विलियम शेक्सपीयर कहते सुनाई देते हैं कि मेरी प्रेमिका की आंखें सूरज के जैसी नहीं हैं, मूंगा भी उसके होठों से ज्यादा रंगीन है, बर्फ भी उससे ज्यादा सफेद है और काले बादलों का रंग भी उसके बालों से गहरा है, गुलाब भी उसके गालों से ज्यादा कोमल हैं, लेकिन फिर भी उसकी सांसों की महक मुझे इन सबसे अच्छी लगती है। मैं उसके चेहरे को पढ़ सकता हूं, मुझे उसमें नज़र आता है समर्पण और प्यार, जिसके लिए मैं बरसों से प्यासा था। मुझे उसकी आवाज़ में संगीत की मिठास लगती है। मैंने कभी ईश्वर को नहीं देखा, लेकिन मैं अपनी प्रेमिका में उसके दर्शन पाता हूं। वो जमीन पर पैर रखती है, तो ऐसा लगता है, मानो स्वर्ग से उतर रही हो। हो सकता है कि यह सब मेरी कल्पना हो, लेकिन मैं उससे प्रेम करता हूं यह सच्चाई है। बताइए, ऐसा भी इश्क होता है कहीं| अब गुलज़ार साहब दिले-गुलज़ार करते दिखाई देने लगते हैं, कि-

नज़्म उलझी हुई है सीने में, मिसरे अटके हुए हैं होठों पर,

उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह, लफ्ज़ कागजों पर बैठते ही नहीं।

कब से बैठा हुआ हूं मैं सादे कागज पर लिखकर नाम तिरा,

बस तिरा नाम ही मुकम्मल है, इससे बेहतर भी नज़्म और क्या होगी?

यह इश्क एक और इंतहा है।

प्यार..कहने को ढाई अक्षर, है न दोस्तों! मगर इज़हार करना हो, तो स्याही पूरी न पड़े और पन्ने खत्म हो जाएं। सब कुछ कहने के बाद भी जाने क्यूं प्रेम का इज़हार अभी भी अनकहा, अनबोला और अनलिखा ही जान पड़ता है। फिर भी प्यार को ध्यान में रखकर रची गई कृतियां दिल के गिटार पर दीवानगी के सुर ज़रूर छेड़ती हैं। कभी तकियों को भिगोती हैं, तो कभी किसी आपबीती से जोड़कर काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है।

वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्यार अंधा होता है। प्यार करने वाले को  अपनी प्रेयसी की हर बात प्यारी लगती है, पर इश्क का जादू सिर्फ़  चार मिनट में ही चल जाता है। इस आकर्षण में बड़ा योगदान हाव-भाव का होता है, फिर बातचीत की गति और लहजा अपना असर डालता है| प्‍यार में होता है अजब सा दीवानापन, असल में जब व्यक्ति को किसी से प्यार होता है, तो उसके दिमाग में कुछ अलग ही किस्म की हलचलें होती हैं। वह सामान्य से कुछ अलग हो जाता है। इसी को शायद दीवानापन कहते हैं।

क्या यही दीवानापन इश्क वाला लव है? मुझे तो ऐसा लगता है कि इश्क वाला लव वह है जो हमें महकाता है, बहकाता है,फिर चाहे हमारा ‘वह’ हमारे पास हो, या दूर, इससे अंतर नहीं पड़ता, अंतर क्यों नहीं पड़ता, अरे भाई, वह हममें जो समाया है| उस खास का ज़िक्र होना यानी इत्र की शीशी का खुलना और फिर इत्र की शीशी के खुलने पर चारों ओर खुशबू का बिखरना, क्या यही खुशबू इश्क वाला लव है? क्या इश्क वाले लव का संबंध इत्र से है? ऐसे इत्र से है, ऐसी इत्र की खुशबू से है? क्या इस खुशबू के होने का कोई तर्क है? क्या कोई परमिट है इसके पास? क्यों आती है यह? कहां से आती है? कहां चली जाती है? कब तक रुकेगी? क्या इसकी कोई समय सीमा है? क्या इसकी कोई सरहद है? क्या इसका कोई पैमाना है? क्या इसका कोई आशियाना है? कौन जाने..

यह महसूस तो होती है, उठती हुई दिखती भी है, पर जब उठती है, तो आग लगा देती है, जब बहती है, तो समंदर बहा देती है, बड़ी ही भली, बड़ी ही मासूम, बड़ी ही मीठी-सी...क्या इश्क वाला लव ऐसा ही है, जैसे सपेरे की बीन, जिस तरह सपेरे की बीन बजते ही घने जंगलों से सांप निकल आते हैं, बौराए से, बलखाए से, इतराए से, बेखबर से, क्या इश्क वाला लव उन्हें खींचता है? क्या इश्क वाले लव की खुशबू चंदन की खुशबू से भी तेज़ होती है? क्या इश्क वाले लव की पुकार कृष्ण की बंसी की तरह है, जिसने कभी किसी को नहीं पुकारा, उसे छलिए ने तो कभी किसी को आवाज़ भी नहीं दी, पर शायद बंसी की हर लहरी में इश्क वाले लव की खुशबू बसी होगी, उसमें एक पुकार होगी, एक सच्ची पुकार जो गोपियों को खींचकर अपनी ओर ले जाती होगी| वैसे मैंने यह भी देखा है कि इश्क वाला लव पत्थरों में हंसता है, रेगिस्तान में चमकता है, समांदरों में तैरता है, चंद्रमा में छुपा-सा रहता है, फूलों से झांकता है, रूह को सताता है, नींदों को उड़ा ले जाता है, आंखों से चलकता है, होठों पर सिसकता है, भीड़ में भी हमें तनहा किया रहता है, पर रात के सियाह सन्नाटों में हमें आवाज़ देता है, बेचैन करता है, जब हम सो जाते हैं, तो सपनों में आकर हंसता है, जाग जाते हैं, तो रुलाता है, बाहर ढूंढेंगे, तो रो-रो कर भीतर बुलाएगा, और भीतर खोजेंगे, तो बाहर हंसती हुई आवाज आएगी| क्या यही है इश्क वाला लव? क्या यह लव किसी किताब में लिखा है, ना..ना यह किसी किताब में नहीं लिखा है, ना ही वेदों- पुराणों में लिखा है कि इश्क वाला लव दरअसल है कहां? इसलिए इसे मोटी-मोटी किताबों में मत खोजना, ना कोई मंत्र है, इसका ना कोई तंत्र है| इसका असली ज्ञानी वही है कि जो इसे खोज ले अपने भीतर| कि उसके हिस्से का इश्क वाला लव है कहां? ऐसा लव, जो दीवाना बना दे| पर दीवानेपन में सयानेपन की ज़रूरत नहीं| बस पहचान की ज़रूरत है, उस खुशबू को पहचानने के लिए किसी ग्रंथ को पढ़ना नहीं पड़ता, बस आंखें बंद करके अपने मन की बात सुननी होगी, मन समझते हैं न आप?

चंदन के पेड़ आग में जलाने के लिए नहीं होते, वे तो अनमोल खुशबू हैं, इश्क वाले लव जैसी खुशबू| जैसे हम इश्क वाले लव को मन में समा लेते हैं, वैसे ही हम चंदन की खुशबू को मन में समा लेते हैं| इश्क वाले लव का रिश्ता सच्चा रिश्ता होता है और सच्चे रिश्तों की खुशबू कभी नहीं जाती| वह आपका पीछा कभी नहीं छोड़ती, पत्ती-पत्ती झड़ जाती है पौधों की, पंखुड़ी-पंखुड़ी झड जाती है फूलों की, लेकिन खुशबू, यह इश्क वाली लव की खुशबू चुप नहीं होती, शांत नहीं बैठती, बशर्ते आप उसे सुन सकें, महसूस कर सकें और कह सके यही है मेरा इश्क वाला लव|

 

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23 टूटे पै फिर न जुरै, जुरै गांठ परि जाए01/11/26

बड़े ही प्यार से सौरभ ने शादी का निमंत्रण दिया, बड़ा ही आग्रह, मनुहार और अधिकार सा लगा, जब उसने कहा, आपको तो आना ही है, मेरे लिए समय नहीं निकालेंगी? खैर, यह उसका प्यार ही था कि मैं सौरभ और दीक्षा की शादी में पहुंची। प्री वेडिंग फ़ोटो सेशन से लेकर रोका, हल्दी, सगाई, बैचलर्स पार्टी, कॉकटेल, और न जाने क्या-क्या? उसने मुझे सारी फोटो भेजी थीं। हर फोटो की में फ़िज़ाओं में रोमांस का नशा दिखा। कितने खुश होते हैं, सब शादियों में। जिनकी शादी हो रही है, वे भी और जो शादियों में मेहमान बन कर आते हैं, वे सब भी। खूब आनंद का, जोश का, डांस फ़्लोर पर ठुमकों का, हंसी-ठिठोली का, उल्लास का माहौल रहता है। वरमाला के समय तो मानो शांत सागर में हिल्लोरें उठने लगती हैं। लगता है जीवन भर का सारा हास-परिहास उसी समय सपंन्न होगा। और फिर सभी वर-वधू को उनके वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं देकर अपने-अपने घर चले जाते है। हमारी हिंदी फिल्मों में भी अंत में सभी किरदार आपस में मिल जाते है। सभी के विवाह हो जाते है और फिल्म का ‘दी एंड’ हो जाता है।

हां, इधर लगभग डेढ़ साल बाद सौरभ का फ़ोन आया। हमेशा की तरह मैंने चहक कर पूछा, और कैसे हो सौरभ?

दीक्षा कैसी है?

बड़े दिनों बाद याद आई मेरी?

सौरभ काफ़ी शांत था, उसकी आवाज़ में दर्द छलक रहा था, बोला, सोच रहा था, आपसे बात करूं, पर हिम्मत नहीं हुई, बात करने की।

मैंने पूछा, क्यों क्या हुआ? सब ठीक?

वह मानो भरा बैठा था, फफक-फफक कर रोने लगा, बोला, हमारी शादी नहीं चली, टूट गई।

इस पर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि पूछ सकूं कि क्या हुआ? कैसे हुआ?

इसीलिए मैं अक्सर यह सोचती हूँ कि क्या विवाह का संपन्न हो जाना या फ़िल्म का ‘दी एंड’ हो जाना ही खुशहाल जीवन की गारंटी है? यदि हाँ, तो फिर आए दिन विवाह टूट क्यों रहे हैंक्यों वकीलों और काउंसलरों के दरवाज़े खटखटाए जा रहे हैंपहले अपने लिए योग्य साथी की तलाश, फिर विवाह का खर्चा और फिर विवाह को बचाने की जद्दोजहद। विवाह में होने वाले खर्चे से ज़्यादा है महंगा है विवाह को बचाना। टूटते रिश्ते, बढ़ती दूरियाँ, अवसाद, निराशा, अकेलापन और मानसिक तनाव का पर्याय बनकर रह गए हैं विवाह।

इन दिनों देश-विदेश में हज़ारों महिला और पुरुष अपने विवाह को बचाने या उससे छुटकारा पाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। विवाह के अलावा आजकल आज बिना विवाह के भी एक़ दूजे के साथ रहने की रीत चल पड़ी है, जिन्हें हम लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं, जिसमें पुरुष और महिला बिना विवाह किए साथ-साथ रहते हैं।

शादी एक साझेदारी है, गठबंधन है कम्पैटिबिलिटी का, जिसमें दोनों पक्ष शामिल होने का फैसला करते हैं, जिसका मतलब है कि आप दोनों एक रिश्ते में बंधे हैं, अपने कार्यों के लिए आप जवाबदेह होने के साथ-साथ प्रतिबद्ध भी हैं। जब चीज़ें खराब होती हैं, तो पति या पत्नी को आईने में दिखने वाले अपने अक्स के बजाय किसी और पर दोष मढ़ना आसान लगता है। ज़िम्मेदारी लेना रिश्ते को बचाने का सबसे अच्छा तरीका है। जिस क्षण आप "हां" कहते हैं, उस क्षण से लेकर विवाह समाप्त होने तक, जो कुछ भी होता है, उसके लिए जिम्मेदार होते हैं, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। आपको खुद को कोसने की ज़रूरत नहीं है; आपको बस इतना करना है कि चीजों को सुधारने से पहले खुद से झूठ बोलना बंद कर दें। रिश्ते को बचाने के लिए, व्यक्ति को पूरी ज़िम्मेदारी तो लेनी ही पड़ेगी।

दोस्तों! कभी-कभी चुप रहना भी ज़रूरी है। मेरी मां अक्सर कहा करती हैं कि एक चुप सौ को हरावे। है भी सच! विवाद के समय, झगड़े के समय आप जितना ज़्यादा बात करेंगे, वह उतना ही आग में घी का काम करेगा। घी के स्रोत को हटा दें, और आग बुझ जाएगी, जिससे आप दोनों को संभलने और अपनी कठिनाइयों को दूर करने के तरीके पर पुनर्विचार करने का समय मिलेगा। जब कोई जीवनसाथी क्रोधित या भयभीत होता है, तो उसका व्यवहार अनपेक्षित हो जाता है, ऐसे में यदि दूसरा व्यक्ति चुप रह सकता है, उस जगह से हट सकता है, क्या उसी समय सारा फ़ैसला करना ज़रूरी है? पर हमें तो अपना अहम शांत करना है, अपने साथी को दंगल में हराना है, फिर चाहे रिश्ता टूटे तो टूटे!

हां दोस्तों! अंधड़ के गुज़र जाने के बाद बातचीत सबसे बड़ा अस्त्र है, मसले सुलझाने के लिए... आप अपने साथी के साथ बैठें, बात करें, चाय-कॉफ़ी की चुस्की लें, थोड़ा घूमने चले जाएं, दूर नहीं, तो मॉर्निंग वॉक कर लें, इस दौरान बात करें शांति से, समझदारी से, रिश्तों को निभाने की मंशा अगर दोनों रखते हैं, तो यह कारगर होगा।

कई बार हम अपने आसपास के लोगों को नहीं समझ पाते हैं। हम जिनके साथ समय बिताते हैं, दिनभर बातें करते हैं, वे लोग चाहे हमारे घर के हों, या फिर हमारे दफ़्तर के या हमारे मिलने-जुलने वाले, ये हमारे रिश्तेदार भी हो सकते हैं, इनमें से बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो या तो पूर्वाग्रही ही होते हैं या फिर नकारात्मक होते हैं, जिनके द्वारा कही गई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बातें हमें प्रभावित करती हैं और उनका असर हमारे रिश्तों पर होता है। इस बात के लिए हमें सजग रहना चाहिए कि हमारे मित्र, मिलने-जुलने वाले और रिश्तेदार, जिनके परिवार खुशहाल हैं, उनके साथ हम समय बिताएं अपने विवाहित जीवन को कैसे जीना है या इसके लिए हम अपने रोल मॉडल भी बना सकते हैं, हम अपने आसपास के लोगों में ढूंढें, तो हमें ऐसे सकारात्मक लोग अवश्य मिलेंगे। जैसी संगति होती है, वैसा ही हमारा मानसिक स्तर और मानसिक क्षितिज बन जाता है, यह याद रखना ज़रूरी है दोस्तों! है न....।

जब विवाहित जोड़े लड़ते हैं, तो यह आसानी से “हर आदमी अपने लिए” वाली स्थिति में बदल सकता है। यह एक ढलान वाला चक्र है, जो अक्सर विनाशकारी परिणाम की ओर ले जाता है। रिश्ते को टूटने से बचाने के लिए, यदि आप चीजों को बदलना चाहते हैं, तो आपको अपने समझौता कौशल में सुधार करना होगा। इसकी शुरुआत थोड़ा-बहुत से की जा सकती है, जैसे वेज और नॉन वेज भोजन....यदि इसी को मुद्दा बनना था, तो शादी से पहले क्यों नहीं सोचा? पर्याप्त छोटी-छोटी कोशिशों से हताशा फीकी पड़ने लगेगी। आप पाएंगे कि बीच में रहना सड़क पर रहने से कहीं ज़्यादा अच्छा है। यदि आप अपने जीवनसाथी के सुख को अपने जीवन में अपने सुख से ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, तो यह किसी की नज़र में नहीं आएगा। रिश्ते को बचने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदमों में से एक है समझौता करने का प्रयास करना। अगर आप अपने विवाह को बचाना चाहते हैं, तो आपको अपने रिश्ते को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा। इसका मतलब है इसे अपने बच्चों, अपने करियर या किसी और एंगेजमेंट से ऊपर रखना होगा। आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि पति-पत्नी साथ-साथ बैठे हैं, पर दोनों अपने=अपने फोन में लगे हुए हैं। जो सामने है, वह अदृश्य है, जो अदृश्य है, आभासी है, वर्चुअल है, वह दिल में है।आपको अपने रिश्ते को अपने जीवन की अन्य सभी भी रिश्ते से ऊपर रखना ही होगा। एक-दूसरे के साथ समय बिताना और एक-दूसरे की भावनाओं को साझा करना, यह प्रेम के धागे को टूटने नहीं देता, उसमें गांठ नहीं पड़ने देता।

लेकिन संतोषजनक बात ये है कि मनोविज्ञान में ऐसी चिकित्सा विधियां हैं, जिनके द्वारा विवाह या टूटते रिश्तों को फिर से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। वैवाहिकी चिकित्सा एक़ तरह की समूह चिकित्सा है, जो पारिवारिक चिकित्सा के बहुत करीब है। इस चिकित्सा विधि में पति और पत्नी के बीच के पारस्परिक संबंधों को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाता है। निस्संदेह आपके लिए भी यही सच है। काउंसलिंग करवाना रिश्ते से बचने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है। भारत में छोटे शहरों में काउंसिलिंग के महत्व को समझने में अभी वक्त लगेगा, पर बड़े शहरों में लोग थेरेपी ले भी रहे हैं, और ठीक भी हो रहे हैं। हां, विदेशों में इसका खूब चलन है और लोग इस बात को छुपाते नहीं, कि वे थेरेपिस्ट से मिल रहे हैं। दोस्तों, हमें भी इन कृत्रिम दीवारों को गिराना होगा, क्योंकि ये अभेद्य नहीं हैं।

अरे हां! बातों-बातों में सौरभ को तो भूल ही गई....आज वह खुशहाल शादीशुदा ज़िंदगी जी रहा है, दीक्षा के साथ नहीं, आकांक्षा के साथ.....

दोस्तों! विवाह प्रेम के धागे से बुना एक इंद्रधनुषी कपड़ा है, इसे प्रेम से ही सहेजना होगा। ये धागा है विश्वास का है, भरोसे का है, जीवन-भर का हैइसे मत तोड़ो चटकाय...

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24. दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस15/12/26

 EPISODE-24

INTRO MUSIC

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तकिस्से- कहानियां सुनाने वाली आपकी मीतजी हाँ, आप सुन रहे हैं मेरे पॉडकास्ट, यूँ ही कोई मिल गया’ के दूसरे सीज़न का अगला एपिसोड ... जिसमें हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर वही पुरानी यादें...उसी मखमली आवाज़ के साथ...जी हाँ दोस्तों, आज मैं बात करूंगी कुछ रूहानी, प्रेम की उस पराकाष्ठा की जहाँ विरहिणी कह उठती है-

कागा सब तन खाइयो मेरा चुन चुन खाइयो मांस,

दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस…।

MUSIC

आखिर क्या अर्थ है, क्या मायने हैं बाबा फ़रीद की इन पंक्तियों के, जिन्हें मैं बचपन से सुनती आई हूँ, पहले इनका अर्थ समझ ही नहीं आता था। कागा यानी ‘कौए’ से कोई क्यों ऐसा कहेगा?

कि चाहे मेरे तन को तुम नष्ट कर दो, पर मेरी दो आँखों को मत नष्ट करना, क्योकि उनमें पिया से मिलने की आस भरी हुई है| लेकिन जैसे-जैसे ज़िंदगी बहती गई और रंग दिखाती गई, इन पंक्तियों के अर्थ समझ आने लगे। बाबा फ़रीद जब ध्यान-साधना और भक्ति के चरम पर पहुँच गए थे, तो उन्होंने शरीर को आत्मा का वस्त्र मानकर त्याग और विरक्ति का मार्ग अपनाया था। किवदंती के अनुसार एक दिन बाबा फ़रीद ध्यान में बैठे थे और उन्हें एक गहन अनुभूति हुई| उन्होंने देखा कि जब वे मर जाएंगे, उनके निर्जीव शरीर को खाने कौवे आएँगे और उनका मांस नोचेंगे। इस दृश्य ने उन्हें विचलित नहीं किया, बल्कि वे भीतर से और गहरे प्रेम में डूब गए। उन्होंने मन में सोचा, अगर यह शरीर अब मेरे काम का नहीं रहा, तो इसे कौवे खा लें, क्या अंतर पड़ता है? हे कागा! तुम चाहे तो तन के हर जगह का मांस खाना, पर आँखों को छोड़ देना, उन्हें बक्श देना, क्योंकि मरने के बाद भी आँखों में अपने पिया से मिलने की आस रहेगी, न जाने वे कब मिल जाएँ, तुम मेरी आँखें नष्ट कर दोगे, तो उन्हें देखूंगी कैसे? पहचानूंगी कैसे?

पिया की राह तकते-तकते वियोगी स्त्री वृद्धा हो गई है, अब मौत की कगार पर खड़ी है और उस मुक़ाम पर वह कहती है किअरे कागा! अरे कौवे! इस शरीर की मुझे बहुत परवाह नहीं। अब मर तो मैं जाऊँगी ही; तुझे जहाँ-जहाँ से माँस नोचना होगा, नोच लेना, चुग-चुग कर खा लेना, पर आँखें छोड़ देना मेरी। नैनों पर चोंच मत मारना।’ क्यों? क्योंकि इनमें पिया मिलन की आस है, पिया मिलन की आस है, पिया मिलन का विश्वास है।

समझे दोस्तों?

MUSIC

हमारी पूरी हस्ती में, देह में, सिर्फ़ वह अंग सबसे महत्वपूर्ण है, जो प्रियतम से जुड़ा हुआ हो, जिसमें प्रियतम बसे हुए हैं, बाक़ी सब निरर्थक है। बाक़ी सब चाहे नष्ट हो जाए, कोई बात नहीं, पर जो कुछ ऐसा है, जो जुड़ गया प्रीतम से, वो नष्ट नहीं होना चाहिए।

कई बार सोचती हूँ  दोस्तों! बहुत कुछ हैं हम, और बहुत सी दिशाओं में भागते रहते हैं हम। हमारे सारे उपक्रमों में, हमारी सारी दिशाओं में, सिर्फ़ वो काम और वो दिशा क़ीमती है, जो उस पिया की ओर जाती है। चौबीस घंटे का दिन हैं न? बहुत कुछ किया दिन भर? वो सब कचरा था। उसमें से क़ीमती क्या था? बस वो, जिसकी दिशा प्रीतम की ओर जाती हो। और संत वो, जिसकी धड़कन भी आँख बन जाए, जो नख-शिख नैन हो जाए, जिसका रोंया-रोंया, जिसकी हर कोशिका सिर्फ़ प्रीतम की ओर देख रही हो, वो साँस ले रहा हो, तो किसके लिए? जी हां दोस्तों! उसी प्रीतम के लिए।

कभी-कभी सोचती हूँ  दोस्तों! कि कागा का मतलब दुनिया के वे तमाम रिश्ते, जो स्वार्थ, ज़रुरत, ईर्ष्या और ठगी पर टिके हैं, जो सदैव आपसे कुछ ना कुछ लेने की बाट ही जोहते हैं, कभी बहन बनकर, कभी भाई बनकर, कभी पति, कभी पत्नी, कभी दोस्त या कभी संतान बनकर हमें ठगते हैं, क्या उनके मुखौटों के पीछे एक कागा ही होता है, जो अपनी नुकीली चोंच से हमारे वजूद को, हमारे अस्तित्व को, हमारे व्यक्तित्व को, हमारे स्व को, हमारे निज को खाता रहता है। हम लाख छुड़ाना चाहें खुद को, वो हमें नहीं छोड़ता। वो हमारी देह को, हमारे तन को खाता रहता है चुन- चुन कर, माँस का भक्षण करता रहता है। वो कई बार अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में हमसे जुड़ता है और धीरे-धीरे हमें ख़तम किए जाता है। ये तो हुआ कागा पर......हम कौन हैं?

क्या सिर्फ़ देह?

सिर्फ़ भोगने की वस्तु

किसी की ज़रूरत का डिमांड ड्राफ्ट?

और पिया कौन है?

पिया वो परम आत्मा है, जिससे मिलने की चाह में हम ज़िंदा हैं

MUSIC

कागा के द्वारा संपूर्ण रूप से तन को खा जाने का भी हमें ग़म नहीं, बल्कि हम तो निवेदन करते हैं कि “दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस” --कौन है ये पिया? यक़ीनन वो परमात्मा ही होगा, जिसकी तलाश में ये दो नैना टकटकी लगाए हैं कि अब बस बहुत हुआ, आ भी जाओ और सांसों के बंधन से देह को मुक्त कर दो।

ये कागा उस विरहिणी का मालिक भी है, जिसको उसने बंदिनी बना रखा है। विरहिणी अपने प्रियतम की आस में आँखों को बचाए रखने की विनती करती है। कितना दर्द.....गहरा अर्थ है इन पंक्तियों में.....

कागा! तू जी भर कर इस भौतिक देह को खाले, चुन चुन कर तू इसका भोग कर ले, मगर दो नैना छोड़ देना क्योंकि इनको पिया मिलन की आस है और कागा क्या करता है?

वो अपना काम बखूबी करता है। अपनी ज़रूरत, अपने अवसर और अपने सुख के लिए वो मांस का भक्षण किए जाता है…किए जाता है। उसे विरहिणी की आँखों में, या मन में झांकने की फुर्सत ही नहीं है। वो तो देह का सौदागर है...और सौदागरों ने हमेशा अपने लाभ देखे हैं, अपने ही स्वार्थ साधे हैं,किसी की आँखों में बहते दर्द, वे तो उसे दिखते ही नहीं....और ना ही दिखती है पराई पीर । इसीलिए वो विरहिणी कह उठी होगी कि “कागा सब तन खाइयो...”

MUSIC

इसी लिए कहती हूँ  दोस्तों! अगर हमारा हाथ उठ रहा है, तो किसके लिए? दिल धड़क रहा है, तो किसके लिए? आहार ले रहे हैं, तो किसके लिए? गति भी कर रहे हैं, तो किसके लिए? उस पिया के लिए न...और पिया...पिया तो कहीं ओट में छिपा बैठा है...कहीं दूर...झील के उस पार...उस पार है पिया.....दूर झील के उस पार है पिया....पिया जो बुलाता तो है उस पार से,पर दिखता नहीं...दिखता नहीं, तो क्या हुआ...यकीनन वह है, है और विरहिणी की पीड़ा से वाकिफ़ भी है, तभी तो बसा है नैनों में, याद है न मीरा क्या कहती थीं, बसो मेरे नैनन में नंदलाल...|

जी हां दोस्तों! जिएँ तो ऐसे जिएँ, कि हर आस, हर प्यास , बस उसके दर पर जाकर ठहर जाए। वरना तो, समय काटने के बहाने और तरीक़े हज़ारों हैं। थोड़ी गणित ही लगा लें। देख लें रोज़, कि आज कितना प्रतिशत समय उसके ख़याल में, उसके ज़िक्र में, उसकी साधना में, उसके अनुसंधान में, उसके तसव्वुर में लगाया। कितना? जितना लगाया, बस समझ लो उतना ही समय आप जिए, दोस्तों। बाक़ी समय तो बेहोशी थी।

आँखें बचाने लायक सिर्फ़ तब है, जब आप ‘उसको’ तलाशें। आपकी आँखों की छवि में उसका तस्सवुर, उसका नूर हो,  कान बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं, जब ‘उसको’ सुनें, बंसी के सजे सुर कानों में गुंजायमान हों। कंठ, ज़बान, होंठ बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब आप ‘उसका’ ज़िक्र करें। पाँव बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं, जब उसकी ओर बढ़ें, हाथ बचाने लायक तब हैं जब उसका नमन करें, उसकी इबादत में उठें, उसकी प्रार्थना के लिए जुड़ें और उसके बन्दों की मदद करने के लिए आगे आएं और सिर बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब उसके द्वार के सामने झुके।

इसलिए दोस्तों! यह समझना होगा कि शरीर तो नश्वर है और यह नष्ट हो जाएगा, लेकिन आत्मा और उसकी ईश्वर से मिलने की आकांक्षा अमर है। शरीर चाहे नष्ट हो जाए, लेकिन आत्मा की परमात्मा से मिलने की इच्छा हमेशा जीवित रहती है। यह एक विशेष निवेदन है कि "दोइ नैना मत खाइयो" अर्थात मेरे दोनों नेत्र मत खाना, क्योंकि इन नेत्रों में मेरे प्रिय से मिलने की आस बसी हुई है, परमात्मा से मिलने की अभिलाषा बसी हुई है, जो जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है।

MUSIC

बातों के सिलसिले को यूं ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....क्या करें.....? पिया तो अपरंपार है, उसकी बातें ही अपरंपार हैं, अपने पिया के किस्से-कहानियाँ मुझे मैसेज बॉक्स में लिखकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है,बाबा फ़रीद की विरहिणी की कहानी में आपके भी किस्से छिपे होंगे.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ... ___________ को....

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC

 

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25.हज़ारों मील लंबे रास्ते तुझको बुलाते01/12/26

यायावरी का अपना ही मज़ा है। घूमने का शौक मुझे हमेशा से रहा, तो साल में अनेक बार देश के, विदेश के. नए-नए देशों के, नए-नए शहरों के, शहरों में बनी हुई संकरी या वृहद सड़कों के, उन सड़कों में छिपे इतिहास के, इतिहास के उन पन्नों में उन आवाजों के, जो वहां कभी बसती होंगी, से मैं अक्सर रूबरू होती रहती हूं। चाहे सर्दी हो, या गर्मी, बरसात हो या फिर कोई और मौसम, मेरी यात्राओं का दौर कभी रुकता नहीं। और छोटी यात्राएं अक्सर सड़कों पर होती हैं। इन सड़कों पर चलते हुए कभी-कभी मैं सोचती हूं कि यह सड़क आखिर जाती कहां होगी? यह अपने मुसाफ़िर को अपनी मंज़िल तक पहुंचाती है, पर क्या मंज़िल तक पहुंचने पर यह सड़क खत्म हो जाती है? या फिर किसी और मंज़िल की तलाश में निकल पड़ती है? इसमें तो न जाने कितने मोड़ हैं, कितनी नीचाइयां हैं, कितनी ही ऊंचाइयां है, कभी सर्पिणी की तरह बलखाती, कभी कालिदास की शकुंतला के केशों के घूंघर कर की तरह, कभी सपाट, कभी गड्ढ़ों से भरी, कहीं पथरीली, कहीं रेतीली, कहीं पगडंडी और कहीं एक्सप्रेस हाईवे, यही तो स्वरूप है ना इन सड़कों का... इतनी विभिन्नता लिए हुए ये सड़कें सभी मुसाफिरों को उनकी मंज़िल तक पहुंचाती है। यह बात अलग है कि सबकी मंज़िलें अलग-अलग होती हैं, राहें जुदा-जुदा होती हैं।

ऐसा सोचते सोचते एक दिन मुझे ऐसा लगा कि जब-जब मैं ऐसा सोचती हूं, तो कहीं कोई महीन-सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ती है, अब उसे आवाज़ को सुनने के लिए रुकना ही श्रेयस्कर था, सो रुक गई और ध्यान लगाकर सुनने लगी। आखिर यह कौन बोल रहा है?

तभी पतली-सी आवाज़ आई-मैं सड़क हूं।

अच्छा! तुम सड़क हो? यह तो मैं भी जानती हूं कि तुम सड़क हो, पर क्या तुम्हारा यही रूप-स्वरूप है जो मुझे दिखाई देता है, कहीं पथरीला, कहीं सपाट, कहीं ऊंचा, कहीं नीचा, कहीं इतने घूंघर, पास हो तो चौड़ी दिखती हो, और दूर हो तो महीन, और फिर कहीं विलुप्त होती हुई...बताओ न...आज बता ही डालो, सखी!

सड़क कुछ गंभीर होकर बोली, तुम भी तो जीवन के सफ़र में चलते-चलते कभी दुखों, कभी सुखों, कभी आशाओं, कभी आकांक्षाओं, कभी परेशानियों, कभी खुशियों से रूबरू होती हो ना! ठीक वैसे ही मैं हूं।

अच्छा!, फिर मैं सड़क से पूछ ही बैठी, चलो ठीक है, माना तुम्हारा जीवन और मेरा जीवन एक जैसा ,है पर यह तो बताओ जब तेज़ रफ्तार की गाड़ियां, लदे-फदे ट्रक, बड़ी-बड़ी और तरह-तरह की कारें चलती हैं, यह कहूं कि तुम्हें रौंदती हुई चली जाती हैं, तब तुम्हें कैसा लगता होगा?

सड़क बोली, ठीक वैसा ही लगता है बहन! जैसे किसी स्त्री की अस्मिता को उससे पूछे बिना तार-तार कर दिया जाए, उसकी आत्मा को छलनी कर दिया जाए, उसके रूप-स्वरूप को बिगाड़ दिया जाए, तहस-नहस कर दिया जाए, वो कितना भी साथ सिंगार करें, घूंघट से अपने को ढकने का प्रयास करे, पर तेज़ हवाओं के झोंके न केवल उसका घूंघट उघाड़ जाए, बल्कि उसके सलीके से बंधे हुए केशों को भी उड़ा-उड़ा कर उसके कांधों पर फैला जाए....बस ऐसा ही लगता है.....

मैं गहरी सोच में डूब गई....

फिर माहौल की नज़ाकत को समझते हुए पूछ बैठी....सखी, कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं ना, जो सफ़र पर निकाल कर रास्तों में हमसफ़र बना लेते हैं? चाहे उनके पांव कितने भी थके हों, उनके हौसले कितने भी पस्त हों, पर उनके जोश में कोई कमी नहीं आती, उनके हौसले बुलंद रहते हैं, वे नहीं जानते कि दूर से टिमटिमाता इस चिराग की रोशनी कब तक चलेगी? वे यह भी नहीं जानते कि मंज़िल मिलेगी या नहीं मिलेगी, दुनिया भी उन्हें टोकती है, रोकती है, पर वे झरने के वेग से आगे बढ़ते जाते हैं और अंत में.... अंत में उन्हें सागर मिल ही जाता है।

हे सखी! तुमने कहा कि तुम कहीं नहीं जातीं, पर मैं तो यह कहूंगी तुम न केवल शहरों और गांव के बीच की दूरियों को कम करने के लिए सेतु का काम करती हो, बल्कि तुम्हारे ही कारण तो गांव शहरों को अपनी गोदी में लेकर चलने के काबिल हो गए हैं, उन दो बिंदुओं को भी जोड़ती हो रेखाओं की तरह, जिन्हें कोई नहीं जानता। तुम हमारे सुख-दुख, चिंताओं, प्रेम, घृणा, रोज़गार-दिहाड़ी, इन सबके लिए गांवों से शहरों तक और एक शहर से दूसरे शहर तक जाती हो, कभी-कभी जर्जर होती इच्छाओं, आकांक्षाओं, उम्मीदों का बोझ भी उठाती हो, फिर भी उफ़्फ़ तक नहीं करतीं। तुम्हारे सीने में दफन है ना जाने कितने किस्से दुनिया को जीत लेने के, सफल-असफल अभियानों से लेकर रक्त और लाशों से पटे भीषण पलायनों के। जब सब डर भाग रहे थे, तुम वहीं की वहीं स्थिर थीं, वैसे ही चल रही थी तुम..... भाग दौड़ की इस कोलाहल में जब सुबह के समय तुम्हारे किनारे भीगी हुई हरी घास दिखाई देती है, तो ऐसा लगता है कि सारी यात्राएं पूरी हो गई हैं, यह तुम्हारा ही तो जलवा है, हे सखी! फिर तुम उदास क्यों हो?

इतनी बातें कहने के बाद, मैं कुछ हिचकिचाते हुए, कुछ अपने शब्दों पर संयम रखते हुए धीरे से बोली, सुनो सखी! एक बात और है, सोचती हूं पूछूं कि ना पूछूं, कहीं तुम बुरा तो नहीं मान जाओगी?

सड़क हंसकर बोली, मैंने क्या कभी किसी का बुरा माना है? न जाने कितने लोगों ने मुझे रौंदा, न जाने कितने लोगों ने मुझे, मेरी आत्मा को, मेरे शरीर को कष्ट दिया, मैं क्या कभी कुछ बोली हूं? क्या मैंने कभी कोई शिकायत की है? ऐसा सुनकर मैं बोली, हे सखी! क्या कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो जीवन भर सफ़र में रहते हैं? सड़क पर चलते हैं जीवनभर, जीवन के पथ पर तो चलते हैं, परंतु फिर भी कहीं पहुंचते नहीं।

सड़क मुस्काई और बोली, सही पूछा तुमने, इस दुनिया के ज़्यादातर लोग तो ऐसे ही हैं, जिन्हें अपने लक्ष्य का पता नहीं, कहां जाना है?, यह कभी सोचा नहीं। बस यूं ही सड़क के भोथरे पत्थरों के समान कभी यहां लुढ़के, कभी वहां लुढ़के, जहां पहुंच गए उसी को मंज़िल मान लिया।

यह सुनकर मैं सकते में आ गई, कुछ गंभीर हो गई, कुछ सोचने लगी।

मुझे गहरी सोच में डूबा देखकर सड़क फिर बोली, क्यों बहन दुख हुआ ना? सचमुच है तो दुखी ही बात, लेकिन क्या तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जिन्हें अपने ही वजूद का पता नहीं, अपनी की शक्ति का ज्ञान नहीं, अपने ही अस्तित्व का भान नहीं?

हां, यह बात बिल्कुल सच है कि मैं सभी मुसाफ़िरों को उनकी मंज़िलों तक पहुंचती हूं, सबकी मंज़िलें अलग-अलग होती हैं, पर उनकी मंजिलों तक उन्हें मैं ही पहुंचाती हूं। पर बहन एक बात और भी है, मैं जीवन भर चलती हूं, पर पहुंचती कहीं भी नहीं हूं। मेरी कोई मंज़िल नहीं, मेरा जीवन क्या ऐसा ही निरुद्देश्य जीवन बन कर रह जाएगा?

मैं आगे बढ़ चुकी थी, लेकिन मेरे बढ़ते हुए कदम फिर रुक गए और मैंने कहा, बहन! आओ मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन का एक नया रंग, एक नया इंद्रधनुष, एक नए क्षितिज दिखाती हूं। वह सफ़र, जिसे तुम पूरा करवाती हो, वह सफ़र प्रेमियों को मिलाता है, तीर्थ करवाता है, कहीं सीमा पर बैठे हुए सैनिकों को घर ले आता है, मां की गोद में बेटा इसीलिए तो सिर रखकर सो पाता है, क्योंकि तुम हो। सोचो, तुम्हारे बिना सड़क का यह सफ़र कैसा होता और सड़क का ही क्यों कहूं, ज़िंदगी का सफ़र भी कैसा होता? इसलिए बहन ना तो दुखी होना, ना ही रोना, तुम्हारा जीवन केवल उत्सर्ग के लिए है, परोपकार के लिए है, तुम जो करती हो, वह व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ता तुम्हारा यह कदम है। और हां बहन! मैंने भी आज तुमसे यही सीखा है कि परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं अच्छा सखी! अब चलती हूं फिर मिलूंगी अगले सफ़र में,,,,,,

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

26. मैं नदिया, फिर भी मैं प्यासी15/01/27

किताब-ए-दिल का कोई भी पन्ना सादा नहीं होता,

निगाह उस को भी पढ़ लेती हैजो लिखा नहीं होता|

जी हां दोस्तों! हम ज़िंदगी भर अनगिनत किताबें पढ़ते हैं और इन किताबों में मन के प्रश्नों के उत्तर खोजते हैंना जाने कितनी किताबें पढ़ डाली होंगी। अभी तक मैने भी कितनी की किताबें पढ़ी होंगीकुछ

थोड़ी-थोड़ी याद रह गईंकितनी ही पढ़ कर भूल गई। लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो हमें ताउम्र याद रहती हैं।

दोस्तों! हम सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी जीते हैंकोई अपने लिए जीता है, तो कोई किसी और के लिए अपना पूरा जीवन गुज़ार देता है। यह  जीवन भी तो एक किताब ही है ना, जिस लिए हम जन्म के दिन से लिख रहे हैं और अंतिम दिन तक लिखते रहेंगे। कितने हजारों-लाखों शब्दों से अपने जीवन की किताब को लिख डाला, कौन जानेकैसे लिखा है? अधूरा लिखा है या पूरा लिखाखुशी लिखी है या गम लिखा? कभी सोचा ही नहीं, बस लिखते ही चले गए| कभी इस किताब को पढ़ने की सोची ही नहीं और जिस दिन पढ़ने बैठे, उस दिन किताब ही रूठ गई, बोली, अब बहुत देर हो चुकी है,अब सो जाओ तुम।

क्यों समय रहते हमने जीवन की किताब नहीं पढ़ी हमनेभूल गए क्या? या फिर हम कहीं आलस से भर गएअंतिम नींद से पहले हमें सारी किताब पढ़ लेनी चाहिए थी। हम रोज़ नए-नए पन्नों पर हर पल का हिसाब लिखते चले गएबही खाते लिख-लिख कर खुश होते चले गए, लेकिन इन खातों को, इन पोथियों को कभी गलती से भी उलट-पलट कर नहीं देखा। क्या बहुत बिजी रहेकिसी दिन फुर्सत मिली भी तो...किसी दिन फुर्सत से अगर देखने बैठे, तो पाएंगे कि हमारी ज़िंदगी का पहला पन्ना हमारे जन्म से शुरू होता है। रोज़ नई इबारत, रोज़ नई इमारतबचपन की वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी, गुड्डे-गुड़िया के ब्याह और इन्हीं में रंगे-रंगे से कुछ पन्ने, कभी आम के पेड़ से कच्चे आम चुराने के आनंद से सराबोर कुछ पन्नेकुछ आगे बढ़ें, तो युवावस्था के इंद्रधनुषी पन्ने हैंजिनमें कहीं प्रेम का सुर्ख गुलाब हैतो कहीं पीले-नारंगी एहसासात, मैने पहले भी कहा था ना....इंद्रधनुषी रंग, ऐसे रंग जो हमारी जवानी के रंग में रेंज थेकहीं फागुन के रंग हैं, तो कहीं सावन की भिगोती फुहार से भीगे पन्ने। इस किताब में कुछ पन्ने गुलाबी और थोड़े सुर्ख भी हैं, जिन पर लिखी हैं प्रेम की, इज़हार की, मिलन की इबारत, ये पन्ने इस किताब के सबसे चमकीले पन्ने हैं। जो पूरी ज़िंदगी हमें रोमांचित करते रहते हैंहमें इन्हें बार बार पढ़ना चाहते हैं क्योंकि प्रेम के ये पन्ने कभी बदरंग नहीं होतेवे उम्र के हर मोड़ पर हमें लुभाते हैं। इन पन्नों पे हमने अपनी सबसे सुंदर भावनाएं दर्ज की होती हैंलेकिन..लेकिन देखो तो ज़रा इस किताब की कुछ पन्ने स्याह क्यों हैं? काले-नीले-सलेटी और थोड़े बदरंग...राख जैसे धूसर से...ज़रूर ये दर्द-दुःख और पीड़ा के पन्ने होंगे, तन्हाहियों के पन्ने, इंतज़ार के पन्ने, जो आंसुओं से भीग-भीग कर गल गए हैं। ज़रा ध्यान से....इन्हें ज़रा आराम से उलटना-पलटनावरना ये चूर-चूर हो जाएंगे और चिंदी-चिंदी हो कर चारों ओर फैल जाएंगे। ये दर्द के पन्ने, हम दोबारा कभी पढ़ना नहीं चाहते। इन्हें पढ़ने से हमारा अंतर्मन दुखी होता है, हम दुख के सागर में डूब जाते हैं। ये काले-धूसर पन्ने हमें बिल्कुल नहीं सुहाते|

चलो आगे बढ़ाते हैंआगे इस किताब में कुछ सतरंगी पन्ने जगमगा रहे हैं। इनमे दर्ज है, किसी की मुस्कराहट, जो कभी उसके होठों पर हमने सजाई थी, या किसी ने रख दी थी हमारे होंठो पर| ये हँसी-ख़ुशी के पन्ने....मुहब्बत के पन्ने...मुरव्वत के पन्ने...इंसानियत के पन्ने....सतरंगी-इंद्रधनुषी पन्ने......सब झूम-झूम कर मुझे बुलाते हैं...देखो न...कितने मासूम..कितने कोमल हैं ये पन्ने|

अरे यह क्या?...हमने किताब में ये कुछ पन्नेमोड़ कर क्यों रखे हैंये तो शायद बिल्कुल निजी हैंमेरे अपने पन्ने हैंशायद इनमें मैने अपने निजी पलों में छिपा कर रखा है। ये पन्नेमेरे गिर कर उठने का हिसाब रखते हैंफ़र्श से अर्श की हमारी सीढ़ी की ऊंचाई पर नज़र रखते हैंमेरे आंसू कब मेरी शक्ति बं गएइसका ब्योरा रखते हैंज़िंदगी की किताब के ये पन्ने हमें जीने का हौसला देते हैं। तन्हाइयों में जब कोई पास नहीं होता, तो ये हमें प्यार से थपकी देते हैं। कभी हमारे कंधे पर हाथ रख देते हैंहमें सहारा देते हैंकहीं जब हम फिसलने लगते हैं, गिरने लगते हैंतो एक छोटी-सी ऊँगली का सहारा देकर ये हमें उठा लेते हैं, हमारा संबल बनते हैं और फिर हमारी आँखों से आंसुओं की गर्म धारा बहने लगती है| पर इन्हें छूना नहीं, हाथ जल सकते हैं।

चलो! अब अगले पन्ने पलट कर देखते हैं, पर इन पर तो कुछ लिखा ही नहीं हैंबिल्कुल कोरे...आखिर क्यों? इन पन्नों में शायद कुछ ख़ास है.....ये पन्ने उन भावनाओं, उन ख्वाहिशों के नाम के पन्ने हैं, जिन्हें कभी व्यक्त नहीं किया जा सका, बहुत-सी अनकही बातें छुपी हैं यहाँ, बहुत-सी अनकही बातें लिखी जाएँगी यहाँ, कुछ नहीं लिखी गयी हैं और कुछ लिखी हैं, पर दिखती नहीं हैं....ऐसी हैं ये बातें। इसलिए ये पन्ने आज खाली दिखाई देते हैं....संवेदनाओं के नाम लिखे गए ये पन्ने हैं...छोड़े गए ये पन्ने हैं| वैसे शब्दों में इतना सामर्थ्य है भी कहां कि वे किसी की भावनाओं को, संवेदनाओं को, इच्छाओं को पूरी तरह व्यक्त कर देसारा अनकहा इन्हीं पन्नों में लिखा है। चाहे वे टूटी-फूटी ख्वाहिशें हों, आधे-अधूरे अरमान होंकुछ रिश्ते होंकुछ प्रेम भरे ख़त हों, जो कभी लिखे ही नहीं गए और अगर लिखे भी गए, तो कभी भेजे नहीं गए। कुछ आंसू, जो गालों पर ही सूख गएकुछ अनकही बातेंजो होंठो के किनारे पर ही चिपककर रह गई हों| दोस्तों! इन पन्नों को पढ़ने की नहींमहसूसने की ज़रुरत है। इन्हें आप छुए नहीं, बहुत कोमल हैंइनके मुरझाने का डर है|

ज़िंदगी की किताब कई पन्नों से पूरी है,

पर कुछ कहानियाँ हैजो लफ़्ज़ों में भी अधूरी है.

और इस किताब के आख़िरी कुछ पन्ने फटे हुए से दिखते हैं। ज़रुर ये वो पन्ने होंगे, जो ज़िंदगी की किताब से हमेशा के लिए दूर हो गए होंगे। मगर उनसे अलग होने के निशान किताब पर बखूबी देखे जा सकते हैं। बहुत से रिश्ते, बहुत से नातेबहुत से प्रियबहुत से अपने...जो हमसे छूट गए, जो हमसे रूठकर सदा-सदा के लिए चले गएजिनके लिए मन आज भी तड़पता है और कहता है, कहाँ गया उसे ढूंढो....ऐसे रिश्तों के निशान अमिट होते हैंहम इन्हें भूलना भी चाहेंतो भी दिल इन्हें भूलने नहीं देता|

तो दोस्तोंये है ज़िंदगी की किताब...हर एक की अपनी किताब होती है...अब हमें तय यह करना है कि हम उसे किस तरह संजोते हैं? पढ़ते हैं? लिखते हैं? या फिर पन्नों को फाड़ डालते हैं? हमारे जाने के बाद हमारे पन्नों को कोई प्रेम से क्यों पढ़ना चाहेगाक्यों न ऐसी  किताब बन जाएंजिसमें सूखे हुई गुलाब के फूल सदियों-सदियों तक महका करें और यह कह सकें- रहें न रहें हम, महका करेंगे बनके कली,बनके सबा बागेवफ़ा में....

 

 

 

 

27.आप मुझे अच्छे लगने लगे01/01/2027

आप मुझे अच्छे लगने लगे,

सपने सच्चे लगने लगे|

जी हां , दोस्तों! बहुत ही प्यारा गीत है, फिल्म शायद जीने की राह है और नायिका बड़ी ही प्यार से नायक से इस बात का मनुहार करती है कि नायक उसे अच्छा लगने लगा है, अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा लगने लगा है| जब नायक अच्छा लगने लगा है, तो और क्या-क्या अच्छा लगने लगा है? सबसे पहले उसने जो सपने देखे थे, जीवनसंगी को लेकर, वे सब सच्चे लगने लगे| और उसे अच्छे लगने लगे, शायद यह धरती, यह नदिया, ये रातें, ये दिन, यह सुबह, यह शाम, सब अच्छे लगने लगे हैं| अक्सर सोचती हूं कि क्या ये नदियां, धरती, पहाड़, आसमान, हमेशा से ही सबको अच्छे लगते हैं, पर उनके साथ आप कौन है? मुझे लगता है कि जीवन का सारा अच्छापन और सारा सच्चापन इसी आपकी वजह से है| सोचिए, ये नदियां, पहाड़, पंछी, फूल, तारे, सितारे, ये तो शाश्वत हैं, फिर इस दुनिया के सभी लोगों को ये बड़े अच्छे क्यों नहीं लगते, या यू कहूं कि सबसे अच्छे क्यों नहीं लगते? मुझे तो लगता है यह दुनिया, इसकी सारी चीज़ें, तभी खूबसूरत लगती हैं, जब कोई आप हमारे जीवन में आता है| मेरे-आपके, हम सबके जीवन में उस आप की वजह से ही ज़िंदगी पूरी होती है|

तभी तो मन झूम-झूमकर गाने लगता है कि जीवन इस और में गाता है कि आप मुझे अच्छे लगने लगे, आप मुझे बड़े अच्छे लगने लगे| जब जीवन में आप हो, तो फूलों में महक बसती है, खुशबू महकती है, बहता पानी नदियों जैसा लगता है, खुरदुरी, पथरीली, धरती सोंधी महक देने लगती है, पेड़ों पर बैठे पंछियों की भाषा समझ में आने लगती है, मन पंछी की तरह आकाश के, क्षितिज के कोने-कोने को छूना चाहता है| और फिर, अपने आसपास पल रहे सभी रिश्ते सच्चे लगने लगते हैं| आखिर ऐसा हुआ क्यों? और अचानक हमने ऐसा सोचा क्यों? हमारे मन की दहलीज़ पर जब कोई आहट होती है, जब कोई अपने कदमों के गहरे निशान बनाने लगता है दिल की ज़मीन पर, तब हमें समझ आता है कि सागर के खारा  होते हुए भी नदियों को वह अच्छा क्यों लगता है?

रात के सन्नाटों में लहरें जड़ किनारों के कानों में जा जाकर यही फुसफुसाती होंगी ना...अरे! किनारों, तुम कितने जड़ हो, बहते क्यों नहीं मेरे साथ? क्यों अभिमान से भरे हो? क्यों नहीं तरल हो जाते मेरी तरह? क्यों नहीं सरल हो जाते मेरी तरह? क्यों अहंकार में अकड़े से दिखाई देते हो, हरा समय? कभी झुको भी, झूमो भी, लहराओ भी! और फिर किसी दिन कोई किनारा चुपके से लहरों के साथ बह जाता होगा, यह कहकर कि आप मुझे अच्छे लगने लगे| किसी बड़े वृक्ष के तने से लिपटी हुई कोमल वल्लरी, कोमल लता भी तो हौले- हौले यही कहती होगी ना, आप मुझे अच्छे लगने लगे| सुबह-सुबह पेड़ों की पत्तियों पर जो अनगिनत  ओस की बूंदे दिखती है ना, कभी उन्हें ध्यान से देखिएगा, किसी ने रात को बड़े प्रेम से लिखा होगा... कि आप मुझे अच्छे लगने लगे| सुबह सूरज की गर्मी के स्पर्श से ये ओस की बूँदें पिघल जाती होंगी और कहती होंगी कि आप मुझे अच्छे लगाने लगे|

जैसे जिंदगी की धूप हमारे जीवन में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता को पिघलाकर, हमारे सूखेपन भर देती हैं, यह सूखापन ही हमें खुरदरा बनाता है, मार ही डालता है और भीतर का गीलापन, भीतर की नमी हमें जिंदा रखती है| जब तक हमारे मन के अंदर गीलापन नहीं होगा, तरलता नहीं होगी, सरलता नहीं होगी, मुहब्बत  नहीं होगी, परवाह नहीं होगी, हम किसी से जुड़ नहीं सकेंगे,और ना ही हमें कोई अच्छा ही लगेगा| किसी अहम् को गलाना पड़ता है| अगर अहम् रहेगा तो हम कभी भी सुंदरता को महसूस नहीं कर पाएंगे और ना ही हम कभी कह पाएंगे कि आप मुझे अच्छे लगने लगे|

इस प्यार को, स्नेह को, गीलेपन को बचा लिया यदि, तो दुनिया में इतने संदेह, शक, फरेब, अविश्वास और आतंक नहीं होंगे| हर किसी को नदियां, धरती, आसमान, पर्वत, फूल पत्ते, बूटे, सभी बड़े सुहाने, बड़े अच्छे लगने लगेंगे| इस सुंदर दुनिया को देखने के लिए सुंदर आंखें और सुंदर मन चाहिए| कहा भी गया है कि सुंदरता देखने वाले की दृष्टि में समाहित होती है| लेकिन सबसे ज़रूरी बात, एक आप भी होना चाहिए| वह आप जो हममें, आपमें, आपके ज़िंदा होने का एहसास करवाए| आपके अंदर लहरों की तरंगों को जन्म दे, जिसे आप अपनी जिंदगी के गीत में शामिल कर सकें, जिसके आने से आपको सूरज की धूप भी ठंडक पहुंचाए और जिसके समीप आने पर बर्फ भी सुलगती पिघलती सी महसूस हो, जिसे सोचने के बाद आपकी सोच बदल जाए, मन बदल जाए, इस आप का होना लाज़मी है| उसके होने से आपकी आंखों में चमक और होठों पर मुस्कान खिल जाए| वह आप हम सबके पास है, आसपास है, लेकिन क्या हमने कभी उस आप से कहा कि दुनिया की सारी उलझानों, परेशानियों, ज़िम्मेदारियों, मजबूरियों, दुश्वारियों, दूरियों के बावजूद मुझे ज़िंदगी हसीं लगती है, सिर्फ़  इसलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि मुझे आप अच्छे लगने लगे हो| और हां यह दौलत, यह शोहरत, गाड़ियां, बंगले, बैंक अकाउंट, सब दरअसल कितने झूठे हैं, सब कितने फेक हैं, सब कितने बड़े छलावा हैं, मगर सच्ची लगती है वे आंखें, वे बातें, वे  शिकायतें, वे झगड़े, और...और जी हां...अगर आप अभी तक नहीं कह पाए हैं, तो आज कह भी दीजिए, अच्छा लगता है कहना भी, और सुनना भी... कि आप मुझे अच्छे लगने लगे....!

"जब तू सामने आता है..."

जब तू सामने आता है, दिल कुछ कहने लगता है,

बेमौसम सावन सा मन भीगने लगता है।

तेरी मुस्कान की गर्मी में कुछ तो खास है,

वरना ठंडी हवा में भी ऐसा एहसास कहाँ होता है।

तेरा नाम जुबां पर नहीं, पर दिल में रच गया है,

जैसे कोई गीत बिना सुर के भी सच्चा लग गया है।

बातें तेरी यादों में गूँजती हैं हर रात,

जैसे तन्हाई में मिल जाए कोई मीठी बात।

पता नहीं क्या है ये, इश्क़ नहीं तो क्या है,

पर तेरी मौजूदगी में ये दुनिया हसीं-सी लगने लगी है।

जब कोई अच्छा लगने लगता है, तो मन में एक अजीब सी हलचल होने लगती है—जैसे कोई मीठा सा राज़ छुपा हो। दिल बार-बार उसी इंसान की ओर खिंचने लगता है, उसकी बातें, उसकी हँसी, उसकी मौजूदगी सब कुछ खास लगने लगता है। मन में उत्सुकता, उम्मीद और थोड़ी सी घबराहट की तरंगें उठती हैं। कभी-कभी बिना किसी वजह के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, और दिल यह सोचकर धड़कने लगता है कि अगली बार उससे कब मुलाकात होगी।"जब कोई अच्छा लगने लगता है..."वो एक अजीब सी बात होती है—ना कोई शोर, ना कोई एलान—बस चुपचाप, किसी शाम की तरह उतर आता है दिल में। उसकी हँसी जैसे किसी पुराने गाने की धुन हो, जो कानों से नहीं, सीधे दिल से सुनाई देती है। उसके आने से जैसे हवा में कुछ बदल जाता है—हल्की सी ठंडक, मीठा सा सुकून। मन पूछता है: "क्या उसे भी ऐसा ही महसूस होता होगा?" और जवाब में बस एक हल्की सी मुस्कान होती है, जो खुद-ब-खुद होंठों पर आ जाती है।कभी उसके नाम से दिल धड़क उठता है, और कभी उसकी एक झलक से दिन सँवर जाता है। ये एहसास... शायद प्यार नहीं, पर प्यार का पहले खत से तो ज़रूर होता है।

है न दोस्तों!

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और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...