जो बादलों में उतर रही गगन से आकर, जो पर्वतों पर बिखर रही है सफ़ेद चादर, वही तो मैं हूँ.... वही तो मैं हूँ.... जो इन दरख्तों के सब्ज़ पत्तों पे डोलती है, जो ओस बनकर हर मौसम को खेलती है, वही तो मैं हूँ...
Friday, 14 March 2025
हर रंग कुछ कहता है
Monday, 3 March 2025
डिजिटल क्रांति में त्योहारों का बदलता स्वरूप
डिजिटल क्रांति
में त्योहारों का बदलता स्वरूप
जो हो
गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
कृषि प्रधान होने के कारण हमारे देश
में प्रत्येक ऋतु-परिवर्तन त्योहारों के माध्यम से हंसी-ख़ुशी मनोरंजन की बयार
लेकर आता है। व्रतोत्सव, पर्व-त्यौहार और मेले है, सांस्कृतिक प्रतीक होते
हैं, जिनका उद्देश्य भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों और विचारों की रक्षा करना है।
इस श्रेणी में हिंदुओं के सभी बड़े-बड़े पर्व-त्यौहार आ जाते है, जैसे-होलिका-उत्सव, दीपावली, बसन्त,
श्रावणी, संक्रान्ति आदि, जिनकी आत्मा
संस्कृति की रक्षा में बसी होती है।
हमारे यहाँ हर दिन में एक त्यौहार होता
है। अनेकता में एकता की मिसाल इन्हीं त्यौहारों-पर्वों के अवसरों पर देखी जा सकती है। रोज़मर्रा की भागती-दौड़ती, उलझनों से भरी हुई
ऊर्जा प्रधान हो चुकी, वीरान-सी बनती जा रही ज़िंदगी में ये
त्यौहार ही व्यक्ति के लिए सुख, आनंद, हर्ष
एवं उल्लास के साथ ताज़गी भरे पल लाते हैं। यह मात्र हिंदू धर्म में ही नहीं वरन्
विभिन्न धर्मों, संप्रदायों पर लागू होता है। वस्तुतः ये
पर्व विभिन्न जनसमुदायों की सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और
पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। सभी त्यौहारों की अपनी परंपराएँ, रीति-रिवाज़ होते हैं और ये मानव जीवन में करुणा, दया,
सरलता, आतिथ्य-सत्कार, पारस्परिक
प्रेम, सद्भावना, परोपकार जैसे नैतिक
गुणों का विकास कर मनुष्य को चारित्रिक एवं भावनात्मक बल प्रदान करते हैं। भारतीय
संस्कृति के गौरव, ये पर्व, ये त्यौहार सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अति
महत्त्वपूर्ण हैं।
परंतु, डिजिटल क्रांति ने सारी व्यवस्थाएँ बदल कर रख दी है। हमारे
उत्सव-त्योहार भी इससे अछूते नहीं रहे। शायद इसीलिए प्रमुख त्यौहार अपनी रंगत खोते
जा रहे हैं और लगता है कि हम त्यौहार सिर्फ़ औपचारिकताएँ निभाने के लिए मनाए जाते
हैं। किसी के पास फ़ुरसत ही नहीं है कि इन त्योहारों की आत्मा को पहचान सके| सब धन
कमाने की होड़ में लगे हैं। हम सैकड़ों साल गुलाम रहे। लेकिन हमारे बुजुर्गों ने
इन त्योहारों की रंगत कभी फीकी नहीं पड़ने दी। आज इस अर्थ युग में सब कुछ बदल गया
है। कहते थे कि त्यौहार के दिन न कोई छोटा और न कोई बड़ा। सब बराबर। लेकिन अब रंग
प्रदर्शन भर रह गए हैं और मिलन मात्र औपचारिकता। हम त्यौहार के दिन भी हम अपनों से, समाज से पूरी तरह नहीं जुड़ पाते। जिससे मिठाइयों का
स्वाद कसैला हो गया है। बात तो हम पूरी धरा का अँधेरा दूर करने की करते हैं,
लेकिन ख़ुद के भीतर व्याप्त अंधेरे तक को दूर नहीं कर पाते।
त्योहारों पर हमारे द्वारा की जाने वाली इस रस्म अदायगी शायद यही इशारा करती है कि
हमारी पुरानी पीढिय़ों के साथ हमारे त्यौहार भी विदा हो गए हैं।
डिजिटल क्रांति ने जन्म दिया ऐसे बाज़ार को, जिसके ढंग भी निराले हैं। यह
हमारी ज़िंदगी को भी अपने हिसाब से हांकता है। कभी पंडिजी तय करते थे कि किस
त्योहार को कैसे मनाया जाए, अब बाज़ार तय
करता है। श्रीमद्भागवत् महापुराण के रासपंचाध्यायी में महारास का अद्भुत वर्णन है।
यही रास अब गरबा डांडिया के रूप में है। गुजरात से चला और ढोकले की तरह समूचे
उत्तर भारत में छा गया। यह अब महानगरों की मस्ती का मसला नहीं रहा। कस्बों में भी
पहुंच गया। था तो यह अराधना का उत्सव, लेकिन इसमें फिल्मी तड़का लग गया। बहुत
क्रेज खींच रहा इन दिनों क्योंकि इसकी चुटइया जो बाज़ार के हाथों में है।
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी फागुन का महीना आ ही गया| फागुन का महीना
अन्य महीनों की भांति चुपचाप नहीं आता| उसे चुपचाप आना सुहाता भी नहीं है| फागुन
है या बिन बुलाया मेहमान, क्या करें, स्वागत करना ही पड़ता है इस रंगीन पाहुन का|
वैसे बाज़ारवाद के इस दौर में त्योहार कोई भी हो, स्वतः ही प्रमुख त्योहार बन जाता
है| बाज़ार की नजर से भला कौन बच पाया है, जो होली का त्योहार बच जाता? अब जब नजर
में आ ही गए, तो बाज़ार ने अपनी संभावनाएं ढूँढने में ज़रा देर नहीं लगाई|
हरि
संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी,उर अंतर को अनुराग।।
आज होली के अवसर पर न जाने कहाँ गए हरि और न जाने कहाँ गया
फाग....सारे गए-बजाए जानेवाले ढोल, मजीरें, झांझ, धमाए, चैती और ठुमरी, लोकगीत, लोक उत्सव और पारंपरिक संगीत धीरे-धीरे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और
चेतना से लुप्त होते जा रहे हैं। बदलते दौर में फागुन का अंदाज़ बदलने लगा है। पहले
वसंत की अंगड़ाई, जहां-तहां खिलने वाले फूल और पछुआ की
सरसराहट से फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी, लेकिन
आधुनिकता की इस दौड़ में हमारी परंपराएं सिसकने लगी हैं। फागुन के महीने में फाग
गाने और ढोलक की थाप सुनने को कान तरस गए हैं। फाग का सदियों पुराना राग शहरों में
ही नहीं, गांवों की चौपालों से भी गुम हो गया है। अब
कोई नहीं कहता-
रंग
भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
बदलते समय के
साथ साथ होली के त्योहार मनाने के अंदाज में बदलाव देखने को मिल रहा है। अब कई स्थानों
में होली में बाहर के कलाकारों को बुलाकर कार्यक्रम कराया जाता है, जबकि पूर्व में
गांव के लोग ही खुद ढोल नगाड़ा लेकर फगुवा गीत गाते थे और एक दूसरे के घर जाकर होली
खेलते थे। डिजिटल इंडिया बन रहे हिंदुस्तान में अब डिजिटल होली भी देखने को मिल
रहा है। लोग होली के दिन घर से बाहर नहीं निकलते है और सोशल मीडिया जैसे, व्हाट्अप, फेसबुक, ट्विटर पर ही
अपने दोस्तों और परिजनों को रंग और पिचकारी भेज कर होली का डिजिटल आनंद लेते हैं।
होली की मिठाइयां भी सोशल मीडिया से ही
भेज दी जाती हैं। होली के रंग का समय बीतने के बाद क्या सब सोशल मीडिया से नहाने
के लिए बाल्टी भर पानी और साबुन भी भेजा जाएगा?
आज के दौर में होली कुछ-कुछ फिल्मी और कुछ व्यावसायिक रंग में रंगी
नजर आती है। यह धार्मिक निष्ठा, उत्सव, मनोरंजन, रंगों
से मनों को सराबोर होने का त्यौहार गाना-बजाना, हुडदंग
मचाना, टेसू के फूल और भंग का रंग इत्यादि का त्योहार
है, ये बातें अब सिर्फ़ किताबी और पौराणिक लगने लगती हैं। विशेषत:
महानगरों में, या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए, या मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करनेवालों के लिए उत्सव की यह परंपरा लगभग
सिमटती जा रही है। इससे नई पीढ़ी अपनी परंपराओं और ज़मीन से कटती जा रही है।
चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा खत्म हो
रही है। इनकी जगह रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा है, जो शरीर और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। एकल परिवारों की तादाद बढ़ने के
कारण मिलने-मिलाने, पारिवारिक स्नेह मिलन, दावतें, मिठाइयों की परंपरा नष्ट हो रही है।
बंद घरों में टीवी के सामने ठुमके लगातीं अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की होली देखकर
हम धन्य हो रहे हैं। समय के साथ जब सारे संदर्भ बदल रहे हैं, तो होली जैसे उत्सव के भी संदर्भ बदल रहे हैं। मनोरंजन
के अन्य साधनों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है।
इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा, अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार
सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली। जैसे-जैसे परंपराएं बदल रही है, रिश्तों का मिठास खत्म होता जा रहा है।
फाल्गुन की मस्ती का नज़ारा अब गुज़रे जमाने की बात हो गई है। कुछ सालों
से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुजुर्गों का कहना है कि ‘न हंसी- ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न
ढप और न भंग’ ऐसा क्या
फाल्गुन? न पानी से भरी
‘खेली’ और न ही होली आई रे....का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ
घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई….तांबा पीतल का मटका भरवा दो…सोना रुपाली लाओ
पिचकारी…के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।
होली के दिन खान-पान में भी अब अंतर आ गया है। गुझिया, पूड़ी-कचौड़ी, आलू दम, महजूम (खोवा) आदि मात्र औपचारिकता रह गई है। अब तो होली के दिन भी
मेहमानों को कोल्ड ड्रिंक्स और फास्ट फूड जैसी चीज़ों को परोसा जाने लगा है। होली
के मौके पर बनने वाली ठंडई और भांग की जगह अब अंग्रेजी शराब ने ली है। चारों ओर
बाज़ारवाद हावी होता जा रहा है। वहीं, होलिका के चारों
तरफ सात फेरे लेकर अपने घर के सुख शांति की कामना करना, वो गोबर के विभिन्न आकृति के उपले बनाना, दादी-नानी
का मखाने वाली माला बनाना, रंग-बिरंगे ड्रेस में अपनी
सखी-सहेलियों संग घर-घर मिठाई बांटना, गेहूं के पौधे
भूनना, अब यह सब परंपराएं तो मानो नाम की ही रह गई हैं।
पहले पूरा दिन घरों में पकवान बनते थे और मेहमानों की आवभगत होती थी। अब तो सबकुछ
बस घरों में ही सिमट कर रह गया है। आजकल तो मानों रिश्तों में मेल-मिलाप की कोई
जगह ही नहीं रह गई हो। मन आया, तो औपचारिकता में फोन पर
हैप्पी होली कहकर इतिश्री कर लिए। कुछ हुड़दंगी लड़के मोटरसाइकिल का साइलेंसर निकाल
कर भड़भड़ाते-गुर्राते से हर शहर में देखे जा सकते हैं। क्या यही होली है? अब हालात यह है कि होली के दिन बहुत से लोग खुद को कमरे में बंद कर लेते
हैं।
होली हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं, जिसे मनाना या
यूँ कहें कि बार-बार मनाना, हर साल मनाना सबको अच्छा लगता है। होली की मान्यताओं, परंपराओं और विचारों में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनगिनत सरोकार छुपे
हैं। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की
सोच मन में उमंग और उत्साह के नए प्रवाह को जन्म देती है। हमारी उत्सवधर्मिता
परिवार और समाज को एक सूत्र में बाँधती है। संगठित होकर जीना सिखाती है। सहभागिता
और आपसी समन्वय की सौगात देती है। होली, जो हम सबके जीवन को
रंगों से सजाती है, सामाजिक त्यौहार एक अनूठा मंच प्रदान करती
है, अपने साथियों का सहयोग करने, मिलने और सामूहीकरण करने,
अपनी प्रतिभा दिखाने और विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के बारे
में सीखने-सिखाने की क्षमता बढ़ाती है। आठ सामाजिक समरसता कर इस अनुपम त्योहार पर
बाज़ारीकरण का प्रभाव कम से कम पड़ने दें, क्योंकि इसे यदि अभी रोका नहीं गया, तो वह
दिन दूर नहीं, कि जब हम केवल डिजिटल होली, वर्चुअल होली ही मनाते रह जाएंगे|
डिजिटल क्रांति के कारण जन्मे बाज़ार के नकारात्मक प्रभाव को कम करने
के लिए हम होली के सांस्कृतिक और पारंपरिक पहलुओं, जैसे अनुष्ठान, गीत और नृत्य पर ध्यान केंद्रित
करें, पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों, जैसे प्राकृतिक रंग,
पुन: प्रयोज्य पानी की बंदूकें और बायोडिग्रेडेबल सजावट का विकल्प
चुनें, सिंथेटिक रंगों से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में जागरूकता फैलाएं और
सुरक्षित, जैविक विकल्पों के उपयोग को प्रोत्साहित
करें।,खर्च करने की आदतों के प्रति सचेत रहें और होली मनाने के सार्थक, कम लागत वाले तरीकों पर ध्यान केंद्रित करें और सबसे ज़रूरी, समुदाय के साथ
जुड़ें और ऐसे कार्यक्रम आयोजित करें, जो भौतिकवाद पर मानवीय जुड़ाव और अनुभवों को
प्राथमिकता दे। इन नकारात्मक प्रभावों के प्रति सचेत रहकर और सचेत विकल्प बनाकर,
हम होली को इस तरह से मना सकते हैं, जिसमें त्योहार की सच्ची भावना
का सम्मान हो और उपभोक्तावाद के प्रतिकूल प्रभाव कम से कम हो सकें।
डॉ मीता गुप्ता
शिक्षाविद, विचारक, वरिष्ठ साहित्यकार
और न जाने क्या-क्या?
कभी गेरू से भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ सुहाग पूड़ा बाँसबीट हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता औ...
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