बुरा जो देखन मैं चला
बुरा जो देखन मैं चल , बुरा न
मिलिया कोय ।
जो दिल खोजूं आपना, मुझसे बुरा
न कोय ॥
उपर्युक्त पंक्तियां कवि हृदय की एक पीड़ा है , एक अकुलाहट है, जो कहीं न कहीं उसके मन को कचोटती है । हमारे जीवन के दो ही
पथ हैं । एक भलाई का और दूसरा बुराई का । हमारे धर्मग्रंथों, मनीषियों ने भलाई के पथ को सर्वश्रेष्ठ माना है । “नेकी पर
चलें और बदी से डरें, ताकि
हंसते हुए निकले दम” नेकी यानी भलाई और बदी माने बुराई। सभी लोग और सभी
नीतिशास्त्र भलाई के रास्ते पर चलने की शिक्षा देते हैं। फिर भी हम बुराई के प्रति
आकर्षित हो जाते हैं। जब इस बात पर ज़ोर डाल कर सोचते हैं, तब पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति जानबूझ कर बुराई के
रास्ते पर नहीं जाना चाहता है। हर व्यक्ति सोचता है कि मैं अच्छा इंसान बनूं, अच्छा नागरिक बनूं, सभी लोग मुझे अच्छे कार्यों के लिए जानें। फिर भी व्यक्ति
अच्छा इंसान नहीं बन पाता है। अच्छा इंसान न बन पाने का मुख्य कारण यह है कि वह
अपने अवगुणों पर दृष्टि नहीं डालता है, उसे अपनी बुराइयां नज़र ही नहीं आती हैं क्योंकि वह दूसरों
की बुराइयों पर अपनी नज़र गड़ाए रहता है।
मन में जिज्ञासा उठती है कि क्या भला है और क्या बुरा!
वास्तविकता में भलाई और बुराई को परिभाषित करना इतना आसान भी नहीं है। देश और समाज
हित में किए गए कार्य भलाई की श्रेणी में आते हैं और इसके विपरीत कार्य बुराई के
अंतर्गत हैं । सही और गलत का निर्णय बहुत ही कठिन काम है । हमारी अंतरात्मा जिन
कार्यों को करने की अनुमति देती है , वे सही और जिन कार्यों को करने की अनुमति नहीं देती है या
जिन कार्यों को करने से हमारी अंतरात्मा कतराती है , वे सब गलत कार्य हैं । कोई भी काम करने के पहले हम दो मिनट
एकाग्र हो कर सोचें, फिर
उन्हें असली जामा पहनाएं ।भले या बुरे, दोनों तरह के काम अपना प्रभाव डालते हैं-
क- व्यक्तिगत रूप से
ख- सामाजिक रूप से
ग- राष्ट्रीय रूप से
इन तीनों रूपों से घनात्मक प्रभाव वाले कार्य अच्छे कहलाते
हैं । हो सकता है कि व्यक्तिगत रूप से हमें अच्छा लगने वाला कार्य समाज व देश के
लिए अच्छा न हो । वर्तमान में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी हमें व्यक्तिगत रूप से तो
अच्छे लग सकते हैं किंतु समाज व देश के लिए हितकर नहीं हैं । काम अच्छा हो या बुरा
,
सभी की हमारे जीवन में अमिट छाप रहती है । अपने अंत:पटल मे
जाकर हम टटोल सकते हैं कि अभी तक हमने क्या किया है । सही ढंग से यदि हम इसका मनन
करें ,
तो हम पाएंगे कि हमने अपने इस जीवन में अभी तक कुछ नहीं
किया है। सिर्फ़ अपना और अपने बच्चों का पेट भरा है, ,जो सभी प्राणी करते हैं । हम तो इंसान हैं । “परहित सरिस
धरम नहिं भाई , पर पीड़ा सम नहिं
अधमाई ।" परोपकार से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बढ़ कर
कोई अधर्म नहीं है। जब मैं एकांत मे बैठ कर चिंतन करती हूं, तो पाती हूं कि दूसरों की तुलना मे मैं कहीं अधिक बुरी हूं
। यह विचार,यह चिंतन हमें सुधार
की ओर ले जाता है। बुरे कार्यों से सचेत रहने को कहता है । यदि हम यह मान लें कि
हम तो ठीक हैं, केवल दूसरा व्यक्ति
ही गलत है, तो इस सिद्धांत से
हमारा सुधार नहीं हो पाएगा ।अपने आप को सुधारने के लिये हमें अपने अंदर की
बुराइयों पर नजर रखनी होगी, तभी हम
जीवन मे सफल हो सकते हैं ।
कहते हैं मानव की सबसे बड़ी गलतफ़हमी है कि हर किसी को लगता
है कि वो गलत नहीं है। जब भी हम दुखी होते हैं तो हमें लगता है कि हम फ़लाने
व्यक्ति के कारण दुखी हैं।। उसने ऐसा कैसे कर दिया।। या ऐसा क्यों नहीं किया।।। या
उसको वो करना चाहिए था।।।।या परिस्थितियों को रोते हैं।। काश ऐसा हो जाता।। काश
वैसा हो जाता।। वगैरह वगैरह। यह अमूमन हम सब करते हैं। यह मानवीय व्यवहार है, अपने दुख का दोषी किसी व्यक्ति अथवा परिस्थिति को ठहराना।
कभी क्रोध आ जाए, तो हम
उसका दोष भी किसी दूसरे को देते हैं और हमें हमेशा लगता है कि हम सही हैं। हमसे तो
कभी कोई भूल हो ही नहीं सकती। ये हमारा अहं ही है, जो हमे इस तरह सोचने पर मजबूर कर देता है। अपनी गलतियों का
कारण हम दूसरों में खोजते हैं। नतीजा, हम किसी दूसरे की आलोचना करते हैं और उसे ही भला बुरा कहने
लगते हैं।
कबीर कहते हैं कि क्यों व्यर्थ में हम किसी दूसरे में दोष
ढूँढने लगते हैं? वे कहते
हैं कि हमें अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिए। यदि कहीं कोई कमी है तो वो
"मुझमें" है। मैं किसी दूसरे व्यक्ति में गलतियाँ क्यों ढूँढू? यदि मैं किसी के साथ निभा नहीं पा रही हूँ, तो बदलाव मुझे करना है।
हाँ, मैं यह
जानती हूँ कि हर व्यक्ति चाहे वो हमेशा अच्छा लगे या बुरा, उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर पड़ता है। जिस व्यक्ति की
आपसे नहीं निभती, वहीं
आपके व्यवहार की परीक्षा होती है कि आप उससे किस प्रकार बर्ताव करते हैं। किंतु सब
आपके हाथ में ही है। आपको अपने जीवन को किस ओर ले कर जाना, यह कोई दूसरा निर्धारित नहीं करता। गाड़ी आपकी है, ड्राईवर आप हैं, मंज़िल आपको चुननी हैं, रास्ता आपने बनाना है। कोई भी व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं
होता। बस मतभेद होते हैं।
संत कबीर केवल एक कवि ही नहीं, वरन एक समाज सुधारक तथा कटु सत्य को बयां करने वाले विद्वान
थे,
उनके दोहों में दार्शनिक भाव के लोक दिखावे की बजाय जीवन
सच्चाई के दर्शन होते हैं। उन्होंने जीवन मे जो कुछ देखा अथवा अनुभव किया, उसे ही अपने शब्दों में उतारा।उन्होंने देखा-देखी कथित
बातों को सत्य स्वीकार कर लेने की बजाय अनुभवजन्य यथार्थ को स्वीकार करने पर बल
दिया,
यही बात उन्होंने एक दोहे के माध्यम से कही।
मानव स्वभाव से अंतर्मुखी कम तथा बहिर्मुखी अधिक होता हैं।
वह अंदर झाँकने-समझने और सुधार करने की बजाय बाहरी दिखावे पर अधिक ध्यान देता हैं।
वह लोगों की कमियां निकालने उन्हें बिना मांगे सलाह देने तथा छोटी छोटी कमियों पर
उन्हें हीन दिखाने की मानसिकता से ग्रस्त रहता है। इसी अहम भाव के चलते वह स्वयं
को संसार का सबसे गुणी तथा अन्य लोगों को दीन-हीन समझने लगता है।
अपने इस स्वभाव के कारण मानव न सिर्फ़ अपनी चंद खूबियों का
बखान करता हैं बल्कि दूसरों की कमियों को ढूंढता रहता हैं ऐसा करके उसे अपार
संतुष्टि एवं आत्म सुख मिलता है। कबीर दास ने मानव के इस दोगलेपन को एक दोहे के
ज़रिए प्रस्तुत किया हैं-
दुर्जन दोष पराए लखि चलत हसंत हसंत,
अपने दोष ना देखहिं जाको आदि ना अंत॥
हमेशा औरों में बुराई के दुर्गुणों को ढूढने के कारण मानव
कभी किसी को अपना स्वीकार नहीं कर सकता, इस बुरी प्रवृत्ति के चलते अपना मानने वाले उनके सच्चे
मित्र भी दूरी बना लेते हैं। स्वभाव से मानव में अच्छाई तथा बुराई दोनों के भाव
विद्यमान रहते हैं। यह देखने वाले पर निर्भर करता हैं कि वह किसे देखना पसंद करता
हैं। पूर्व चयनित सोच और बुराई ही देखने की प्रवृति के कारण लोगों के प्रति उनके
मनभेद उत्पन्न हो जाते हैं। जो द्वेष वैमनस्य तथा घृणा को जन्म देता हैं।
इस तरह के भावों से न व्यक्ति न ही समाज का भला होता हैं
बल्कि दिलों में कटुता के बीज बोने का कार्य करता हैं और यही भाव एक दिन उनके
विनाश का कारण बनता हैं। हमारी भारतीय संस्कृति दिलों में अच्छाई को ढूढने का
संदेश देती है, तभी तो हम भारतवासी
विभिन्न धर्म, जाति, मत मजहब क्षेत्र भाषा में बंटे होने के उपरांत भी सभी को
अपना भाई व बहिन मानते हैं वही यदि एक क्षेत्र, धर्म, जाति
के लोगों में अन्य जाति धर्म या क्षेत्र के लोगों में केवल दोष देखने की प्रवृत्ति
है, तो यह उन्माद को जन्म देती है, जिससे एक जाति या क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे जाति क्षेत्र के व्यक्ति को
अच्छा नहीं लगता तथा मन ही मन वह उसे अपना दुश्मन मानने लग जाता हैं।
ज्ञानी लोग कभी दूसरों में केवल बुराई का दर्शन नहीं करते
हैं ऐसा केवल अज्ञानी ही करते हैं। जिनमें थोडा बहुत विवेक और ज्ञान होता हैं वह
दूसरे लोगों की अच्छाई व सद्गुणों के दर्शन भी करते हैं लोगों के बीच उनकी प्रशंसा
करते हैं तथा जीवन में उन गुणों को अपनाने का प्रयास करते हैं। मानव में अच्छे
बुरे दोनों गुण होते हैं, एक सज्जन
व्यक्ति दूसरे में बुरे गुण अर्थात अवगुण देख कर मित्र भाव से उनमें सुधार कर सही
राह पर लौट आने की प्रेरणा देता हैं।
मानव को दूसरों के गुणों अवगुणों की व्यर्थ चर्चा करने अथवा
उपदेश देने की बजाय अपने अंदर देखना चाहिए तथा अपने मन को टटोलकर बुराइयों अथवा
कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए। यदि वह स्वयं के अवगुणों के दर्शन कर उन्हें दूर
करने के प्रयास करता हैं निश्चय ही वह एक महान व्यक्तित्व का धनी बन सकता हैं।
लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमें चाहिए कि हम अंतर दृष्टि अपनाए तथा ऐसा करके हम अपने
अवगुणों के प्रति सचेत हो सकते सकते हैं। इस तरह के भाव रखने से मानव में दूसरो की
कमियां निकालने की प्रवृत्ति हम होती जाती हैं तथा अपने अवगुणों का त्याग कर
सद्गुणों की ओर प्रवृत्त होने लगता हैं।
अपने जीवन में सद्गुणों को संग्रह करने की यह प्रवृत्ति
आत्मा को पावन बना देती हैं। ऐसा करके मनुष्य सर्व सिद्धि की कामना करने के साथ ही
उन्हें प्राप्त भी कर लेता हैं। बड़े संत महात्माओं मे ये गुण ही देखने को मिलते
हैं। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता हैं कि हम दूसरो में अवगुण
खोजने की बजाय स्वयं की बुराइयों तथा कमजोरियों की पहचान कर उन्हें दूर करने के
प्रयास करें इस तरह आत्म चिंतन के बल से हम जीवन में ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकते
हैं।
मनुष्य को दूसरों की ओर देखने की बजाए अपने अंदर झांकना
चाहिए। अपने ह्रदय को टटोलने से व्यक्ति को अपनी बुराइयों का, अपनी कमजोरियों का पता चल सकता है। यदि अपने अवगुणों पर गौर
करके वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें, तो फिर सफलता अवश्यंभावी है। अतः अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए
व्यक्ति को आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने से
मनुष्य अपने दोषों के प्रति सजग हो जाता है और दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति
खत्म होने लगती है।
इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य धीरे-धीरे अपने अवगुणों को
त्यागने लगता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जाता है। सद्गुण एकत्र
करने की प्रवृत्ति उसे पवित्र बना देती है और इसी कारण वह जो कुछ भी प्राप्त करना
चाहता है,
प्राप्त कर लेता है। विश्व के सभी महापुरुषों में यही
प्रवृत्ति देखने को मिलती है।