Tuesday, 25 April 2023

बुरा जो देखन मैं चला

बुरा जो देखन मैं चला


 

बुरा जो देखन मैं चल , बुरा न मिलिया कोय ।

जो दिल खोजूं आपना, मुझसे बुरा न कोय ॥

उपर्युक्त पंक्तियां कवि हृदय की एक पीड़ा है , एक अकुलाहट है, जो कहीं न कहीं उसके मन को कचोटती है । हमारे जीवन के दो ही पथ हैं । एक भलाई का और दूसरा बुराई का । हमारे धर्मग्रंथों, मनीषियों ने भलाई के पथ को सर्वश्रेष्ठ माना है । “नेकी पर चलें और बदी से डरें, ताकि हंसते हुए निकले दम” नेकी यानी भलाई और बदी माने बुराई। सभी लोग और सभी नीतिशास्त्र भलाई के रास्ते पर चलने की शिक्षा देते हैं। फिर भी हम बुराई के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। जब इस बात पर ज़ोर डाल कर सोचते हैं, तब पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति जानबूझ कर बुराई के रास्ते पर नहीं जाना चाहता है। हर व्यक्ति सोचता है कि मैं अच्छा इंसान बनूं, अच्छा नागरिक बनूं, सभी लोग मुझे अच्छे कार्यों के लिए जानें। फिर भी व्यक्ति अच्छा इंसान नहीं बन पाता है। अच्छा इंसान न बन पाने का मुख्य कारण यह है कि वह अपने अवगुणों पर दृष्टि नहीं डालता है, उसे अपनी बुराइयां नज़र ही नहीं आती हैं क्योंकि वह दूसरों की बुराइयों पर अपनी नज़र गड़ाए रहता है।

मन में जिज्ञासा उठती है कि क्या भला है और क्या बुरा! वास्तविकता में भलाई और बुराई को परिभाषित करना इतना आसान भी नहीं है। देश और समाज हित में किए गए कार्य भलाई की श्रेणी में आते हैं और इसके विपरीत कार्य बुराई के अंतर्गत हैं । सही और गलत का निर्णय बहुत ही कठिन काम है । हमारी अंतरात्मा जिन कार्यों को करने की अनुमति देती है , वे सही और जिन कार्यों को करने की अनुमति नहीं देती है या जिन कार्यों को करने से हमारी अंतरात्मा कतराती है , वे सब गलत कार्य हैं । कोई भी काम करने के पहले हम दो मिनट एकाग्र हो कर सोचें, फिर उन्हें असली जामा पहनाएं ।भले या बुरे, दोनों तरह के काम अपना प्रभाव डालते हैं-

क- व्यक्तिगत रूप से

ख- सामाजिक रूप से

ग- राष्ट्रीय रूप से

इन तीनों रूपों से घनात्मक प्रभाव वाले कार्य अच्छे कहलाते हैं । हो सकता है कि व्यक्तिगत रूप से हमें अच्छा लगने वाला कार्य समाज व देश के लिए अच्छा न हो । वर्तमान में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी हमें व्यक्तिगत रूप से तो अच्छे लग सकते हैं किंतु समाज व देश के लिए हितकर नहीं हैं । काम अच्छा हो या बुरा , सभी की हमारे जीवन में अमिट छाप रहती है । अपने अंत:पटल मे जाकर हम टटोल सकते हैं कि अभी तक हमने क्या किया है । सही ढंग से यदि हम इसका मनन करें , तो हम पाएंगे कि हमने अपने इस जीवन में अभी तक कुछ नहीं किया है। सिर्फ़ अपना और अपने बच्चों का पेट भरा है, ,जो सभी प्राणी करते हैं । हम तो इंसान हैं । “परहित सरिस धरम नहिं भाई , पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।" परोपकार से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बढ़ कर कोई अधर्म नहीं है। जब मैं एकांत मे बैठ कर चिंतन करती हूं, तो पाती हूं कि दूसरों की तुलना मे मैं कहीं अधिक बुरी हूं । यह विचार,यह चिंतन हमें सुधार की ओर ले जाता है। बुरे कार्यों से सचेत रहने को कहता है । यदि हम यह मान लें कि हम तो ठीक हैं, केवल दूसरा व्यक्ति ही गलत है, तो इस सिद्धांत से हमारा सुधार नहीं हो पाएगा ।अपने आप को सुधारने के लिये हमें अपने अंदर की बुराइयों पर नजर रखनी होगी, तभी हम जीवन मे सफल हो सकते हैं ।

कहते हैं मानव की सबसे बड़ी गलतफ़हमी है कि हर किसी को लगता है कि वो गलत नहीं है। जब भी हम दुखी होते हैं तो हमें लगता है कि हम फ़लाने व्यक्ति के कारण दुखी हैं।। उसने ऐसा कैसे कर दिया।। या ऐसा क्यों नहीं किया।।। या उसको वो करना चाहिए था।।।।या परिस्थितियों को रोते हैं।। काश ऐसा हो जाता।। काश वैसा हो जाता।। वगैरह वगैरह। यह अमूमन हम सब करते हैं। यह मानवीय व्यवहार है, अपने दुख का दोषी किसी व्यक्ति अथवा परिस्थिति को ठहराना। कभी क्रोध आ जाए, तो हम उसका दोष भी किसी दूसरे को देते हैं और हमें हमेशा लगता है कि हम सही हैं। हमसे तो कभी कोई भूल हो ही नहीं सकती। ये हमारा अहं ही है, जो हमे इस तरह सोचने पर मजबूर कर देता है। अपनी गलतियों का कारण हम दूसरों में खोजते हैं। नतीजा, हम किसी दूसरे की आलोचना करते हैं और उसे ही भला बुरा कहने लगते हैं।

कबीर कहते हैं कि क्यों व्यर्थ में हम किसी दूसरे में दोष ढूँढने लगते हैं? वे कहते हैं कि हमें अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिए। यदि कहीं कोई कमी है तो वो "मुझमें" है। मैं किसी दूसरे व्यक्ति में गलतियाँ क्यों ढूँढू? यदि मैं किसी के साथ निभा नहीं पा रही हूँ, तो बदलाव मुझे करना है।

हाँ, मैं यह जानती हूँ कि हर व्यक्ति चाहे वो हमेशा अच्छा लगे या बुरा, उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर पड़ता है। जिस व्यक्ति की आपसे नहीं निभती, वहीं आपके व्यवहार की परीक्षा होती है कि आप उससे किस प्रकार बर्ताव करते हैं। किंतु सब आपके हाथ में ही है। आपको अपने जीवन को किस ओर ले कर जाना, यह कोई दूसरा निर्धारित नहीं करता। गाड़ी आपकी है, ड्राईवर आप हैं, मंज़िल आपको चुननी हैं, रास्ता आपने बनाना है। कोई भी व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता। बस मतभेद होते हैं।

संत कबीर केवल एक कवि ही नहीं, वरन एक समाज सुधारक तथा कटु सत्य को बयां करने वाले विद्वान थे, उनके दोहों में दार्शनिक भाव के लोक दिखावे की बजाय जीवन सच्चाई के दर्शन होते हैं। उन्होंने जीवन मे जो कुछ देखा अथवा अनुभव किया, उसे ही अपने शब्दों में उतारा।उन्होंने देखा-देखी कथित बातों को सत्य स्वीकार कर लेने की बजाय अनुभवजन्य यथार्थ को स्वीकार करने पर बल दिया, यही बात उन्होंने एक दोहे के माध्यम से कही।

मानव स्वभाव से अंतर्मुखी कम तथा बहिर्मुखी अधिक होता हैं। वह अंदर झाँकने-समझने और सुधार करने की बजाय बाहरी दिखावे पर अधिक ध्यान देता हैं। वह लोगों की कमियां निकालने उन्हें बिना मांगे सलाह देने तथा छोटी छोटी कमियों पर उन्हें हीन दिखाने की मानसिकता से ग्रस्त रहता है। इसी अहम भाव के चलते वह स्वयं को संसार का सबसे गुणी तथा अन्य लोगों को दीन-हीन समझने लगता है।

अपने इस स्वभाव के कारण मानव न सिर्फ़ अपनी चंद खूबियों का बखान करता हैं बल्कि दूसरों की कमियों को ढूंढता रहता हैं ऐसा करके उसे अपार संतुष्टि एवं आत्म सुख मिलता है। कबीर दास ने मानव के इस दोगलेपन को एक दोहे के ज़रिए प्रस्तुत किया हैं-

दुर्जन दोष पराए लखि चलत हसंत हसंत,

अपने दोष ना देखहिं जाको आदि ना अंत॥

हमेशा औरों में बुराई के दुर्गुणों को ढूढने के कारण मानव कभी किसी को अपना स्वीकार नहीं कर सकता, इस बुरी प्रवृत्ति के चलते अपना मानने वाले उनके सच्चे मित्र भी दूरी बना लेते हैं। स्वभाव से मानव में अच्छाई तथा बुराई दोनों के भाव विद्यमान रहते हैं। यह देखने वाले पर निर्भर करता हैं कि वह किसे देखना पसंद करता हैं। पूर्व चयनित सोच और बुराई ही देखने की प्रवृति के कारण लोगों के प्रति उनके मनभेद उत्पन्न हो जाते हैं। जो द्वेष वैमनस्य तथा घृणा को जन्म देता हैं।

इस तरह के भावों से न व्यक्ति न ही समाज का भला होता हैं बल्कि दिलों में कटुता के बीज बोने का कार्य करता हैं और यही भाव एक दिन उनके विनाश का कारण बनता हैं। हमारी भारतीय संस्कृति दिलों में अच्छाई को ढूढने का संदेश देती है, तभी तो हम भारतवासी विभिन्न धर्म, जाति, मत मजहब क्षेत्र भाषा में बंटे होने के उपरांत भी सभी को अपना भाई व बहिन मानते हैं वही यदि एक क्षेत्र, धर्म, जाति के लोगों में अन्य जाति धर्म या क्षेत्र के लोगों में केवल दोष देखने की प्रवृत्ति है, तो यह उन्माद को जन्म देती है, जिससे एक जाति या क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे जाति क्षेत्र के व्यक्ति को अच्छा नहीं लगता तथा मन ही मन वह उसे अपना दुश्मन मानने लग जाता हैं।

ज्ञानी लोग कभी दूसरों में केवल बुराई का दर्शन नहीं करते हैं ऐसा केवल अज्ञानी ही करते हैं। जिनमें थोडा बहुत विवेक और ज्ञान होता हैं वह दूसरे लोगों की अच्छाई व सद्गुणों के दर्शन भी करते हैं लोगों के बीच उनकी प्रशंसा करते हैं तथा जीवन में उन गुणों को अपनाने का प्रयास करते हैं। मानव में अच्छे बुरे दोनों गुण होते हैं, एक सज्जन व्यक्ति दूसरे में बुरे गुण अर्थात अवगुण देख कर मित्र भाव से उनमें सुधार कर सही राह पर लौट आने की प्रेरणा देता हैं।

मानव को दूसरों के गुणों अवगुणों की व्यर्थ चर्चा करने अथवा उपदेश देने की बजाय अपने अंदर देखना चाहिए तथा अपने मन को टटोलकर बुराइयों अथवा कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए। यदि वह स्वयं के अवगुणों के दर्शन कर उन्हें दूर करने के प्रयास करता हैं निश्चय ही वह एक महान व्यक्तित्व का धनी बन सकता हैं। लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमें चाहिए कि हम अंतर दृष्टि अपनाए तथा ऐसा करके हम अपने अवगुणों के प्रति सचेत हो सकते सकते हैं। इस तरह के भाव रखने से मानव में दूसरो की कमियां निकालने की प्रवृत्ति हम होती जाती हैं तथा अपने अवगुणों का त्याग कर सद्गुणों की ओर प्रवृत्त होने लगता हैं।

अपने जीवन में सद्गुणों को संग्रह करने की यह प्रवृत्ति आत्मा को पावन बना देती हैं। ऐसा करके मनुष्य सर्व सिद्धि की कामना करने के साथ ही उन्हें प्राप्त भी कर लेता हैं। बड़े संत महात्माओं मे ये गुण ही देखने को मिलते हैं। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता हैं कि हम दूसरो में अवगुण खोजने की बजाय स्वयं की बुराइयों तथा कमजोरियों की पहचान कर उन्हें दूर करने के प्रयास करें इस तरह आत्म चिंतन के बल से हम जीवन में ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकते हैं।

मनुष्य को दूसरों की ओर देखने की बजाए अपने अंदर झांकना चाहिए। अपने ह्रदय को टटोलने से व्यक्ति को अपनी बुराइयों का, अपनी कमजोरियों का पता चल सकता है। यदि अपने अवगुणों पर गौर करके वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें, तो फिर सफलता अवश्यंभावी है। अतः अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यक्ति को आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य अपने दोषों के प्रति सजग हो जाता है और दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति खत्म होने लगती है।

इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य धीरे-धीरे अपने अवगुणों को त्यागने लगता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जाता है। सद्गुण एकत्र करने की प्रवृत्ति उसे पवित्र बना देती है और इसी कारण वह जो कुछ भी प्राप्त करना चाहता है, प्राप्त कर लेता है। विश्व के सभी महापुरुषों में यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है। 


Thursday, 20 April 2023

हम और हमारी सांस्कृतिक विरासत

विश्व सांस्कृतिक विरासत दिवस के अवसर पर सभी को सादर नमस्कार
हम और हमारी सांस्कृतिक विरासत
किसी भी राष्‍ट्र के विकास में संस्‍कृति एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह साझे दृष्टिकोण मूल्‍यों, लक्ष्‍यों और प्रथाओं का समूह प्रस्‍तुत करती है। संस्‍कृति और सृजनात्‍मकता लगभग सभी आर्थिक, सामाजिक और अन्‍य कार्यकलापों में स्‍वयं को प्रकट करती है। भारत जैसा विविधता वाला देश अपनी संस्‍कृति की बहुलता द्वारा अपने प्रतीकात्‍मक स्‍वरूप को प्रस्‍तुत करता है। 
सांस्कृतिक विरासत रीति-रिवाजों, प्रथाओं, स्थानों, वस्तुओं, कलात्मक अभिव्यक्तियों और मूल्यों का एक संग्रह है, जिसे एक समुदाय द्वारा विकसित किया गया है और पीढ़ी से पीढ़ी तक पारित किया गया है। अमूर्त और मूर्त सांस्कृतिक विरासत दो शब्द हैं, जिनका उपयोग सांस्कृतिक विरासत का वर्णन करने के लिए किया जाता है। सांस्कृतिक विरासत मानव गतिविधि के हिस्से के रूप में मूल्य प्रणालियों, विश्वासों, परंपराओं और जीवन शैली का मूर्त प्रतिनिधित्व करती है। सांस्कृतिक विरासत, समग्र रूप से संस्कृति के एक अभिन्न अंग के रूप में, पुरातनता से लेकर हाल के अतीत तक के इन दृश्यमान और मूर्त निशानों को समाहित करती है। 
सांस्कृतिक विरासत
सांस्कृतिक विरासत में मूर्त संस्कृति (भवन, स्मारक, परिदृश्य, किताबें, कला के कार्य और कलाकृतियां), अमूर्त संस्कृति (लोकगीत, परंपराएं, भाषा और ज्ञान), और प्राकृतिक विरासत (सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण परिदृश्य और जैव विविधता सहित) शामिल हैं। स्वदेशी बौद्धिक संपदा की रक्षा के बारे में चर्चाओं में इस शब्द का प्रयोग अक्सर किया जाता है।
प्राकृतिक धरोहर
प्राकृतिक विरासत में ग्रामीण इलाकों और प्राकृतिक पर्यावरण शामिल हैं, जिसमें वनस्पति और जीव, वैज्ञानिक रूप से जैव विविधता के रूप में जाना जाता है, और भूवैज्ञानिक तत्व (खनिज, भू-आकृति विज्ञान, जीवाश्म विज्ञान और अन्य भूवैज्ञानिक तत्व शामिल हैं), जिन्हें वैज्ञानिक रूप से भू-विविधता के रूप में जाना जाता है। ये विरासत स्थल अक्सर देश के पर्यटन उद्योग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू दोनों तरह के आगंतुकों को आकर्षित करते हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक परिदृश्य को विरासत (सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ प्राकृतिक विशेषताएं) भी माना जा सकता है।
भारतीय संस्कृति
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली

यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की 
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की 
                                    
शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली।
बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म सहित दुनिया के कुछ प्रमुख धर्मों की उत्पत्ति भारत में हुई है। इस्लाम और ईसाई धर्म जैसे अन्य धर्मों ने हाल ही में आबादी में घुसपैठ की है, हालांकि हिंदू धर्म सबसे लोकप्रिय है। सामाजिक मानदंड, नैतिक मूल्य, पारंपरिक रीति-रिवाज, विश्वास प्रणाली, राजनीतिक प्रणाली, कलाकृतियां, और प्रौद्योगिकियां जो जातीय भाषाई रूप से विविध भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुई हैं या उनसे जुड़ी हैं, भारतीय संस्कृति का गठन करती हैं। भारत से परे, यह शब्द विशेष रूप से दक्षिण एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया में आप्रवासन, उपनिवेशीकरण या प्रभाव के कारण भारत के साथ मजबूत संबंधों वाले देशों और संस्कृतियों को संदर्भित करता है। भारत की भाषा, धर्म, नृत्य, संगीत, वास्तुकला, भोजन और रीति-रिवाज एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होते हैं। भारतीय संस्कृति, जिसे अक्सर कई संस्कृतियों के मिश्रण के रूप में संदर्भित किया जाता है, एक सहस्राब्दियों के लंबे इतिहास से प्रभावित हुई है जो सिंधु घाटी सभ्यता और अन्य प्रारंभिक सांस्कृतिक क्षेत्रों से जुड़ी हुई है।
धार्मिक संस्कृति
भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं, प्रत्येक की अपनी संस्कृति है, और यह दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। भारतीय संस्कृति, जिसे अक्सर कई अलग-अलग संस्कृतियों के मैश-अप के रूप में वर्णित किया जाता है, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाती है और एक लंबे इतिहास से प्रभावित और आकार लेती है। पूरे इतिहास में धार्मिक धर्मों का भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव रहा है। हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म सभी भारतीय मूल के धर्म हैं जो धर्म और कर्म की अवधारणाओं पर आधारित हैं। अहिंसा, या अहिंसा, मूल भारतीय धर्मों का एक महत्वपूर्ण पहलू है, महात्मा गांधी इसके सबसे प्रसिद्ध प्रस्तावक के रूप में, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत को एकजुट करने के लिए सविनय अवज्ञा का इस्तेमाल किया।
जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली 
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली 
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली। 
धार्मिक समूहों की विविधता के कारण भारत में संघर्ष और हिंसा का इतिहास रहा है। भारत हिंदुओं, ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों के बीच हिंसक धार्मिक संघर्षों का दृश्य रहा है। कई समूहों ने विभिन्न राष्ट्रीय-धार्मिक राजनीतिक दलों का गठन किया है। सरकारी नीतियों के बावजूद अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों को भारत के विशिष्ट क्षेत्रों में संसाधनों को बनाए रखने और नियंत्रित करने के लिए अधिक प्रभावशाली समूहों से पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। भारतीय संस्कृति की एक विशेषता, जो उसे सर्वोत्तम बनाती है, वह है उसका पारंपरिक और आधुनिक दोनों का सम्मिश्रण। किसी भी देश का विकास उसकी समकालीन संस्कृति पर निर्भर करता है। एक राष्ट्र की संस्कृति उसके मूल्यों, लक्ष्यों, प्रथाओं और साझा विश्वासों को समाहित करती है। भारतीय संस्कृति कभी भी कठोर नहीं रही है, इसलिए यह आधुनिक युग में फली-फूली है। यह सही समय पर विभिन्न अन्य संस्कृतियों के गुणों को आत्मसात करती है और एक आधुनिक और स्वीकार्य परंपरा के रूप में उभरती है। यही वह है जो भारतीय संस्कृति को अलग करता है, और यह विकसित होता है।
अभिवादन की परंपराएं
भारत में अभिवादन की परंपराओं की एक विस्तृत श्रृंखला है। इस शहर में अलग-अलग धर्मों में दूसरों का अभिवादन करने के अलग-अलग तरीके हैं। उदाहरण के लिए, "नमस्ते" प्रमुख हिंदू परिवारों में बाहरी लोगों और बड़ों का अभिवादन करने का सबसे आम तरीका है। दोनों हथेलियाँ एक साथ और चेहरे के नीचे उठी हुई हैं जो दूसरों के प्रति सम्मान दर्शाती हैं और अभिवादन करने वाले को स्नेह का अनुभव कराती हैं।
 भारत में विवाह
भारतीय समाज में विवाह से बड़ा कोई उत्सव नहीं होता।  हालांकि समय बदल गया है, फिर भी उदारता हमेशा भारतीय शादियों का एक अभिन्न और आवश्यक हिस्सा रही है। भारत में आज भी शादी को एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है, जो दो लोगों को ही नहीं. बल्कि दो परिवारों को एक साथ लाती है। नतीजतन, यह हमेशा बहुत सारे संगीत और नृत्य के साथ उत्सव का आह्वान करता है। भारत में हर जाति और समुदाय का विवाह संस्कार करने का अपना तरीका होता है। उदाहरण के लिए, पंजाबी हिंदू विवाहों में शादियों में 'रोका' समारोह करते हैं, जबकि हिंदू 'रोका' समारोह करते हैं।
निष्कर्ष
 भविष्य के लिए वर्तमान से सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का सायास कार्य है, जिससे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, जातीय और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखा जा सकता है। विरासत संरक्षण वैश्विक पर्यटन उद्योग की आधारशिला बन गया है, जो स्थानीय समुदायों को महत्वपूर्ण आर्थिक मूल्य प्रदान करता है और वैश्विक संदर्भों में  स्वाभिमान से जीना सिखाता है।
जय हिंद! जय भारत!
 
            मीता गुप्ता  

Friday, 14 April 2023

भारत के यशस्वी सपूत- डॉ . भीमराव अंबेडकर

 

भारत के यशस्वी सपूत- डॉ .  भीमराव   अंबेडकर



 

अगाध   ज्ञान   के   भंडार ,  घोर   अध्यवसायी ,  अदभुत   प्रतिभा ,  सराहनीय   निष्ठा ,  न्यायशीलता   तथा   स्पष्टवादिता   के   धनी   डॉ .  भीमराव   अंबेडकर    एक   विधिवेत्ता ,  अर्थशास्त्री ,  समाज   सुधारक ,  संविधान   शिल्पी   और   राजनीतिज्ञ   थे।   अंबेडकर    जी   का   संपूर्ण   जीवन   भारतीय   समाज   में   सुधार   के   लिए   समर्पित   था।   अस्पृश्यों   तथा   दलितों   के   वे   मसीहा   थे।   उन्होंने   उनके   विरूद्व   होने   वाले   अत्याचारों ,  शोषण- अन्याय   तथा   अपमान   से   संघर्ष   करने   के   लिए    शिक्षा   रूपी   शक्ति   दी।   उनके   अनुसार   सामाजिक   प्रताड़ना   राज्य   द्वारा   दिए    जाने   वाले   दंड    में   भी   कहीं   अधिक   दुःखदायी   हैं।   उन्होंने       सिर्फ   समाज   में   वंचितों   की   स्थिति   में   सुधार   के   लिए    कार्य   किया,   अपितु   श्रमिकों ,  किसानों ,  महिलाओं   तथा   समाज   के   प्रत्येक   वर्ग   के   अधिकारों   और   उनकी   शिक्षा   के   लिए    कार्य   किया।   अंबेडकर    जी   द्वारा   किए    गये   कार्यों    के   कारण   ही   उन्हें    भारत   का   अब्राहम   लिंकन   और   मार्टिन   लूथर   कहा   गया   है   तथा   उन्हें   बोधिसत्व   की   उपाधि   से   भी   विभूषित   किया   गया।

डॉ .   भीमराव   अंबेडकर    जी   के   शैक्षिक   विचार-

डॉ .   अंबेडकर    भारत   माता   के   ऐसे   प्रभावशाली   मेघावी   एवं   यशस्वी   सपूत   हैं,   जिनकी   अप्रतिम   सेवाओं   के   लिए देश   चिरकाल   तक    ऋणी   रहेगा। आवश्यक   सुविधाओं   से   वंचित   रहते   हुए    तथा   बचपन   से   ही  अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी उन्होंने   एम . ए . ,  पीएच . डी . ,एम . एस . सी . ,डी . एस . सी .  डी . लिट.    जैसी   शिक्षा   की   उच्चतम   उपाधियां    प्राप्त   करना   उनके   अदम्य   साहस ,  लगन,   निष्ठा ,  धैर्य   और   शिक्षा   के   प्रति   गहनतम   लगाव   महत्वपूर्ण   उदाहरण   है।   अपने   जीवन   में   उन्होंने   जो   भी   उपलब्धि   प्राप्त   की,   वह   शिक्षा   के   बल   पर   ही   प्राप्त   की   थी  इसलिए    उन्होंने    हर   प्रकार   के   विकास   के   लिए    शिक्षा   को   एक   अमोध   अस्त्र   बताया   तथा   शिक्षा   को   मानव   जीवन   का   अभिन्न   अंग   माना   है।

डॉ. अंबेडकर    का   मानना   था   कि   शिक्षा   ही   एकता ,  बंधुता   और   देशप्रेम   के   विवेक   को   जन्म   देती   है।   सभ्यता   और   संस्कृति   का   भवन   शिक्षा   के   स्तंभ   पर   ही   बनता   है।   शिक्षा   ही   मनुष्य   को   मनुष्यत्व   प्रदान   करती   है   तथा   शिक्षा   के   अभाव   में   मानव   पशुतुल्य   होता   है।   बाबा   साहब   ने   कहा   है   कि   ‘शिक्षा   वह   शेरनी   का   दूध   है,   जो   पिएगा,   वही   दहाड़ेगा|’  और   उन्होंने    शिक्षा   को   सामाजिक   समरसता      व्यक्ति   में   सात्विक   गुणों   का   विकास   करने   वाला अस्त्र   बताया   है।

बाबा   साहब   प्रचलित   शिक्षा   तथा   शिक्षण   पद्वति   को   बदलना   चाहते   थे।   उनका   मानना   था   कि   समरसता   निर्माण   करने   वाली      लोकतान्त्रिक   मूल्यों   की   भावना   का   विकास   करने   वाली   शिक्षा      पाठ्यक्रम   को   ही   पढ़ाया   जाना   चाहिए।   उनका   ये   दृढमत   था   कि   समाज   में   ऐसी   शिक्षा   व्यवस्था   होनी   चाहिए   जिसकी   समय   के   अनुकूल   आवश्यकता   है।   वे   मानते   थे   कि   शिक्षा   का   माध्यम   मातृभाषा   में   होना   चाहिए ,  जिससे   बालक   में   रूचि   से   पढ़ने   का   स्वभाव   का   निर्माण   हो।   उनका   मानना   था   कि   विघालय   समाज   का   एक   लघुरूप   होता   है   तथा   उन्होंने    अपने   छात्र   जीवन   से   ही   यह   महसूस   किया   था   कि   विघालय   में   रहकर   सामूहिक   अवधारणाओं   को   समाप्त   किया   जा   सकता   है।

डॉ .   अंबेडकर    जी   भारत   के   शिल्पकार   के   साथ - साथ   एक   महान   शिक्षक   भी   थे।   उनका   मानना   था   कि   शिक्षा   से   ही   ज्ञान   का   ताला   खुलता   है।   वे   शिक्षक   को   राष्ट्र   निर्माता   मानते   थे।   शिक्षक   के   सम्बन्ध   में   उन्होंने    कहा   है   कि   शिक्षक   ज्ञान   पिपासु ,  अनुसंधान   करने   वाला      आत्म   विश्वासी   होना   चाहिए।   उनका   मानना   था   कि   शिक्षा      बिना   कोई   भी   समाज   आगे   नहीं   बढ   सकता   है।   अंध   विश्वासों   से   मुक्ति ,  अज्ञानता,  अन्याय   और   शोषण   के   विरू़द्व   ललकारने   की   ताकत   भी   शिक्षा   से   ही   संभव   है।   भारत   सैकड़ों   वर्षो   तक   विदेशी   सत्ता ,  शासकों   के   पराधीन   रहा ,  जिससे   भारत   में   पतन   और   अवनति   का   दौर   अनंतकाल   तक   चलता   रहा   और   बाबा   साहब   यह   मानते   थे   कि   देश   की   इस   पराधीनता   का   कारण   शिक्षा   भी   है   और   मुख्यतः   महिला   शिक्षा   का      होना।   इसलिए    उन्होंने    स्त्री   शिक्षा   पर   भी   बहुत   बल   दिया   और   विशेषकर   वंचित   महिलाओं   की   शिक्षा   पर   अधिक   बल   दिया।   उनका   स्पष्ट   मत   था   कि   यदि   वंचित   समाज   की   महिलायें   शिक्षित   होगी   तो   वे   अपनी   संतानों   को   भी   शिक्षित      संस्कारवान   बना   सकती   है।

अंबेडकर    जी   ने   वंचितों   की   शिक्षा   की   भी   वकालत   की।   उनका   मानना   था   कि   इस   वर्ग   के   माथे   पर   लगे   अज्ञानता   के   टीके   और   समाज   में   फैली   उनकी   दुर्भावना   से   निकलने   का   एक   ही   मार्ग   था   कि   वे   पढ   लिखकर   अपनी   मुक्ति   का   रास्ता   प्रशस्त   करें।   इसलिए   वे  ऐसे   समाज   के   उद्वार   में   शिक्षा   को   एक   बड़ा   स्त्रोत   मानते   थे।   बाबा   साहब   के   शिक्षा   संबंधी   विचार   देश ,  काल ,  परिस्थिति   के   प्रभाव   से   परे   है।   उनके   विचार      केवल   तत्कालीन   परिस्थितियों   में   प्रासंगिक   थे   अपितु   हर   काल   समय   अथवा   आज   भी   उतने   ही   समीचीन   है।   उनके   द्वारा   दिया   गया   मंत्र   शिक्षित   बनो ,  संघर्ष   करो ,  संगठित   रहो  में   ही   उनके   संघर्षपूर्ण   जीवन   का      उनके   शैक्षिक   विचारों   का   सारांश   है।  बाबा   साहब   ने      केवल   वंचित   समाज   की   शिक्षा   पर   बल   दिया   बल्कि   समाज   के   प्रत्येक   वर्ग   के   साथ   सभी   महिला      पुरूषों   के   समान   शिक्षा   की   भी   स्पष्ट   बात   की।   उनका   मानना   था   कि   यदि   स्वाभिमान   शून्य   समाज   की   अपने   जीवन   को   पुनः   चलायमान   रखना   है,   तो   उसकों   शिक्षित   होना   ही   होगा।

डॉ .   अंबेडकर    जी   के   सामाजिक   विचार

अंबेडकर    जी   का   संपूर्ण   जीवन   भारतीय   समाज   में   सुधार   के   लिए    समर्पित   था।   वंचितों   के   वे   मसीहा   थे।   उन्होंने    सदियों   से   पद - वंचित   वर्ग   को   सम्मानपूर्वक   जीने   के   लिए    एक   सुस्पष्ट   मार्ग   दिया।   उनके   अनुसार   सामाजिक   प्रताड़ना   राज्यों   द्वारा   दिए    जाने   वाले   दंड    से   भी   कहीं   अधिक   दुःखदायी   है।  उन्होंने    प्राचीन   भारतीय   ग्रंथों   का   विशद   अध्ययन   कर   यह   बताया   कि   भारतीय   समाज   में   वर्ण   व्यवस्था ,  जाति   प्रथा   तथा   अस्पृश्यता   का   प्रचलन   समाज   में   कालांतर   में   आई   विकृतियों   के   कारण   उत्पन्न   हुई   है ,     कि   यह   यहां   के   समाज   में   प्रारंभ   से   ही   विद्यमान   थी।   उन्होंने    वंचित   वर्ग   पर   होने   वाले   अन्याय   का   विरोध   ही   नहीं   किया   अपितु   उनमें   आत्म - गौरव ,  स्वावलंबन ,  आत्मविश्वास ,  आत्मसुधार   तथा   आत्मविश्लेषण   करने   का   शक्ति   प्रदान   की।

डॉ .   अंबेडकर    ने   भारतीय   आर्यों   के   सामाजिक   संगठन   का   आधार   रही   चातुर्वर्ण   व्यवस्था   का   विरोध   किया   तथा   उसकी   कटु   आलोचना   की।   उनके   अनुसार   यह   विभाजन   श्रम   के   विभाजन   पर   आधारित   ने   होकर   श्रमिकों   के   विभाजन   पर   आधारित   था।   उनका   मत   था   कि   उन्नत   तथा   कमज़ोर   वर्गो   में   जितना   संघर्ष   भारत   में   है,   वैसा   विश्व   के   किसी   अन्य   देश   में   नहीं   है।   डॉ .  अंबेडकर    ने   जाति   व्यवस्था   के   बारे   में   यह   स्पष्ट   किया   कि   यह   भारतीय   समाज   की   एक   बहुत   बड़ी   विकृति   है,   जो   दुःखभाव   समाज   के   लिए    बहुत   ही   घातक   है।   उनके   अनुसार   जाति   व्यवस्था   ने   केवल   हिंदू   समाज   को   ही   दुष्प्रभावी   नहीं   किया,   अपितु   भारत   के   राजनीतिक,  आर्थिक   तथा   नैतिक   जीवन   में   भी   जहर   घोल   दिया।   उन्होंने    समाज   में   प्रचलित   कुरीतियों   को   अन्यायपूर्वक   मानते   हुए    उसका   प्रबल   विरोध   किया।   उनका   दृष्टिकोण   था   कि   यदि   हिंदू   समाज   का   उत्थान   करना   है,   तो   इन कुरीतियों   का   जड़   से   निराकरण   आवश्यक   है।   उन्होंने    इसके निवारण   के   लिए    सामाजिक ,  राजनीतिक ,  आर्थिक   नैतिक      शैक्षणिक   आदि   स्तरों   पर   रचनात्मक   कार्यक्रम   तथा   संगठित   अभियान   का   आग्रह   किया।   उनका   मानना   था   कि   हिंदू   समाज   मे   स्वतंत्रता ,  समानता   तथा   न्याय   पर   आधारित   व्यवस्था   स्थापित   करने   के   लिए    कठोर   नियमों   में   संशोधन   आवश्यक   है।   वे   जातीय   बंधन   को   समाप्त   करने   के   समर्थक   थे।   उन्होंने    स्वयं   अंतर्जातीय   विवाहों   तथा   सहभोजों   को   प्रोत्साहित   किया।   वे   दलितों   में   शिक्षा   के   प्रसार   को   महत्वपूर्ण   मानते   थे ,  वे   उन्हें    केवल   औपचारिक   शिक्षा   देने   की   नहीं   बल्कि   अनौपचारिक   शिक्षा   की   भी   बात   करते   थे।

अंबेडकर    जी   का   मानना   था   कि   वंचित   वर्ग   को   अपने   हितों   की   रक्षा   के   लिए       विधायी   कार्यों    को   अपने   पक्ष   में   प्रभावित   करने   के   लिए    राजनीति   में   पर्याप्त   प्रतिनिधित्व   मिलना   चाहिए।   इसलिए    उनका   मानना   था   कि   केंद्रीय   तथा   प्रांतीय   विधानमण्डलों   में   दलितों   की   भागीदारी   हेतु   पर्याप्त   प्रतिनिधित्व   के   लिए    कानून   बनाया   जाना   चाहिए।   वह   दलितों   को   सरकारी   सेवाओं   में   पर्याप्त   प्रतिनिधित्व   तथा   आरक्षण   की   भी   बात   करते   थे।   उन्होंने    भारतीय   समाज   में   विद्यमान   स्त्रियों   की   हीन   दशा   की   कटु   आलोचना   की।   उन्होंने    हमेशा   स्त्री - पुरूष   समानता   का   व्यापक   समर्थन   किया।   यही   कारण   है   कि   उन्होंने    स्वतंत्र   भारत   के   प्रथम   विधिमंत्री   रहते   हुए    हिंदू   कोड   बिल   संसद   में   प्रस्तुत   करते   समय   हिंदू   स्त्रियों   के   लिए    न्याय   सम्मत   व्यवस्था   बनाने   के   लिए    विधेयक   में   व्यापक   प्रावधान   रखे।

डॉ .   अंबेडकर    के   सामाजिक   दर्शन   में   वंचितों तथा   शोषित   वर्ग   के   उत्थान   के   लिए    व्यापक   कार्य   झलकते   है।   वे   उनके   उत्थान   के   माध्यम   से   एक   ऐसा   आदर्श   समाज   स्थापित   करना   चाहते   थे।   जिसमें   स्वतंत्रता ,  समानता   तथा   भ्रातृत्व   के   तत्व   समाज   के   आधारभूत   सिद्वांत   हो।

अध्ययन   का   महत्व

वंचितों  के   मसीहा   कहे   जाने   वाले   डॉ .   भीमराव   अंबेडकर    जी   के   सामाजिक   और   शैक्षिक   विचारों   के   अध्ययन   के   महत्व   को   निम्नलिखित   बिंदुओं   के   माध्यम   से   स्पष्ट   रूप   से   समझा   ला   सकता   हैः -

अंबेडकर    जी   ने   शिक्षा   को   समाज   के   विकास   का   सबसे   बड़ा   हथियार   बताया   है।   उनके   अनुसार   बिना   शिक्षा   के   मनुष्य   पशु   समान   होता   है।

अंबेडकर    जी   के   शैक्षिक   विचारों   के   कारण   ही   उन्हें    अमेरिका   द्वारा   ज्ञान   का   प्रतीक  ( Symbol of Knowledge )  की   उपाधि   से   विभूषित   किया   गया   है।

भारतीय   समाज   में   अंबेडकर    जी   के   विचारों   के   द्वारा   ही   समानता   के   बीज   पडे़   है।

सामाजिक   कार्यों    में   सर्वप्रमुख   महिला   शिक्षा   और   महिलाओं   को   समानता   का   अधिकार   दिलाने   का   कार्य   बाबा   साहब   द्वारा   किया   गया।

वर्तमान   समाज   में   वंचित ,  श्रमिक ,  किसान      शोषित   वर्ग   यदि   समानता   के   साथ   प्रत्येक   वर्ग   के   साथ   रह   रहा   है ,  तो   उसमें   अंबेडकर    जी   के   विचारों   और   उनके   द्वारा   कृत्य   कार्यों       प्रयासों   का   अतुलनीय   योगदान   है।

 

       मीता गुप्ता

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