वेदों में नारी-विमर्श
प्रशस्ता धार्मिकी विदषी माता विद्यते यस्य स
मातमान।
अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी
विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।
वेदों के मुख्य विषय हैं- कर्म, उपासना और ज्ञान, जो
समस्त मानव जाति के धर्म हैं। वेद ज्ञान
के भंडार हैं, उस भंडार में खोज करने पर नारी के महत्व और
उसके सामाजिक-शैक्षिक योगदान को प्रकाशित करने वाले विषय भी
दृष्टिगोचर होते हैं। चारों वेदों में से अधिकांशतः ऋग्वेद में ही प्राचीन काल से
चली आने वाली नारी की सभ्यता और संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। वैदिक काल में
महिलाओं की स्थिति समाज में अत्यंत ऊंची थी और उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण
स्वतंत्रता प्राप्त थी। उन्हें धार्मिक
क्रियाओं में पुरोहितों एवं विशेषज्ञों का दर्जा प्राप्त था। वे धर्म -शास्त्रार्थ
में भी भाग लेती थीं।
मानव-जीवन तीन आधारों पर टिका है-ज्ञान, धर्म और शांति। ज्ञान, धर्म व शांति की स्वामिनी के रुप में ‘श्री’ वाचक शब्द का प्रयोग होना उसकी श्रेष्ठता को बताता है।‘श्री’ को समृद्धि और संस्कृति की अधिष्ठात्री भी कहा
जाता है। ‘परा’ और ‘अपरा’ शक्ति के रूप में तत्वज्ञानी हमेशा से चर्चा करते
रहे हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि
अनेक रूपों में उसकी आराधना होती रही है। इन्हीं शक्तियों का संयुक्त एवं
मूर्तिमान रूप नारी है। हिंदू समाज में नारी का सम्मान और आदर प्राचीन काल से ही
आदर्शात्मक और मर्यादायुक्त था। परिवार और
समुदाय में उनके द्वारा कन्या, पत्नी,
वधू और मां के रूप में किए जाने वाले योगदान का सर्वदा महत्व और गौरव रहा है। सरस्वती देवी पतित पावनी,
धन दायिनी, सत्य की ओर प्रेरित करने वाली शिक्षिका और ज्ञानदात्रि
मानी गई है। इस काल में विशपला और मृदुगलानी जैसी तत्कालीन ख्याति प्राप्त नारियों
का वर्णन भी प्राप्त होता है। शिक्षा. गृहस्थ-जीवन. यज्ञ-अनुष्ठान में स्त्रियों
को सम्मान सम्मान प्राप्त था। विधाओं का पुनर्विवाह भी प्रचलित था। जब हम वैदिक
कालीन नारी की बात करते हैं, तो हमें उस के विभिन्न रूपों और
कार्यों का अवलोकन करना होता है| शिक्षा, धर्म-व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उसका महान
योगदान था| नववधू को श्वसुर-गृह की साम्राज्ञी माना जाता था।
उसे पति के साथ प्रत्येक कार्य में सहयोगी माना जाता था। ऋग वैदिक नारी पुरुष की ही
तरह समाज की स्थाई और गौरवशाली अंग थी। वह अत्यंत सुशिक्षित,
सुसभ्य और सुसंस्कृत होती थी। वह पति के साथ मिलकर समस्त कार्य संपन्न कराती थी।
वैदिक युग में नारी स्वच्छंद एवं मुख्य थी, साथ ही उसे
सामाजिक मान-सम्मान प्राप्त था। वैदिक युग में स्त्री-शिक्षा अपनी उच्चतम सीमा पर
थी।
ऋग्वैदिक पंडिता स्त्रियों यथा-रोमेशा, अपाला, उर्वशी, विश्ववारा,, सिकता, निवावरी, घोषा, लोपामुद्रा आदि ने अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ
अनेक ऋचाओं का भी प्रणमन किया था। उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री को विवाह योग्य
अत्यधिक उत्तम माना जाता था। वैदिक कालीन स्त्रियां ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते
हुए उपनयन संस्कार भी कराती थीं, तब शिक्षा ग्रहण करती थीं।
ब्रह्मयज्ञ में जिन ऋषियों की गणना की जाती है, उनमें सुलभा, गार्गी, मैत्रयी आदि ऋषियों के भी नाम सम्मान
पूर्वक लिए जाते हैं, जिनकी प्रतिष्ठा वैदिक ऋषियों के समान
थी। वैदिक ज्ञान के साथ-साथ ललित कलाओं में भी वे पारंगत होती थीं। तब शिक्षण
पद्धति के अंतर्गत ही छात्र-छात्राएं एक साथ शिक्षा ग्रहण करती थीं। पूर्व वैदिक कालीन अपाला ने अपने पिता को कृषि-कार्य
में सहयोग प्रदान किया था, जो स्त्री-ज्ञान के विभिन्न
क्षेत्रों का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
वैदिक कालीन स्त्रियां गाय दुहना, सूत कातना, बुनना, वस्त्र सिलना भी जानती थीं। तत्कालीन स्त्रियां नृत्य कला में भी निपुण थीं
और साथ ही ऋचाओं का गान भी करती थीं। इस प्रकार वैदिककालीन स्त्री वैदिक शिक्षा के
साथ-साथ नृत्य, संगीत, गान, चित्रकला आदि विषयों की भी शिक्षा ग्रहण करती थी। स्त्री अपना सर्वांगीण
विकास करने हेतु तत्पर रहती थी। ‘ब्रह्मचर्येण कन्या
युवानं विन्दे पतिं’ इस वाक्य
से ज्ञात होता है कि कन्याएं ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरुकुल में निवास कर शिक्षा पूर्ण
करने के अनंतर ही युवक से विवाह करने की
कामना करती थी| विवाह के अवसर पर पति-पत्नी दोनों ही कतिपय प्रतिज्ञाएं करते थे,
जिन का प्रयोजन एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन बिताना होता था|
प्राचीन काल में सभी स्त्रियां विवाह करके गृहस्थ जीवन ही व्यतीत नहीं करती थीं,
बल्कि बहुत सी स्त्रियां नृत्य, वादन, संगीत द्वारा जनसाधारण का मनोरंजन भी करती
थीं, ऐसी स्त्रियों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था । विवाह संस्कार के
अनिवार्य अनुष्ठान आज तक वैसे ही चले आ रहे हैं।यथा-
बालिका अहं बालिका नव युग जनिता अहं बालिका ।
नाहमबला दुर्बला आदिशक्ति अहमम्बिका ।।
अर्थात एक आधुनिक युग की स्त्री हूं, में
शक्तिहीन नहीं हूं| में आदिशक्ति हूं, में
अम्बिका हूं
वैदिक युग में स्त्री को संपत्ति के अधिकार प्राप्त थे।
वैदिक मंत्रों में संकेत मिलता है कि संतान न होने पर पति के पश्चात पत्नी ही
संपत्ति की स्वामिनी होती थी। पुत्र ना होने पर पुत्री पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारी मानी जाती थी। कभी-कभी स्त्रियां
अपनी संपत्ति विषयक अधिकार हेतु न्यायालय भी जाती थीं। इसका तात्पर्य यह है कि
वैदिक स्त्री अपने अधिकारों के प्रति जागरूक थी। वैदिक युग में स्त्री स्वतंत्र और
स्वच्छंद भी थी। उस समय पर परदा या अवगुंठका कोई प्रचलन नहीं था| शिक्षा का
वातावरण था| साथ ही ऋग्वैदिक वर्णन बताते हैं कि नववधू सभी अथिथियों को दिखाई जाती
थी। यह प्रदर्शित करता है कि वैदिक युगीन नारी नैतिकता, चारित्रिक सोच,
निष्ठा उज्ज्वल आचरण, सुसंस्कृत थी। तत्कालीन स्त्री वैदिक समाज का एक आदर्श उदाहरण
थी तथा यह आशा की जाती थी कि वह अपनी वृद्धावस्था तक जनसभाओं में बोल पाएगी और
लोगों को समझा पाएगी। वैदिक कालीन नारी विधान सभा और समिति तथा उत्सव और मेला में
स्वतंत्रता पूर्वक सम्मिलित होती थी। नारी स्त्रीधन से ब्राह्मणों को दान देती थी।
वृद्धावस्था तक नारी अपने घर में प्रभुता रखती थी। यथा-
नारीशक्ति शक्तिशाली समाजस्य निर्माणं करोति .
अर्थात शक्तिशाली नारी ही एक शक्तिशाली समाज का
निर्माण करती करती है|
वैदिक ग्रंथों के अध्ययनों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन
नारी की दशा अत्यंत उन्नत और परिपक्व थी तथा वह सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र
में समान रूप से आदृत और प्रतिष्ठित थी।उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि
वैदिक कालीन नारी का समाज में सम्माननीय और गरिमामय स्थान था। वैदिककालीन नारी में
अनेकानेक गुण थे, जिसके
कारण वह समाज में देवी और श्री के रूप में अदृत और सम्मानित थी। वैदिक युगीन
स्त्री अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प रहती थी। तत्कालीन
नारी हर क्षेत्र में अपना योगदान देती थी। वैदिक वर्णनों से परिलक्षित होता है कि
तत्कालीन नारी अपने विकास के प्रति भी जागरूक थी। वैदिक साहित्य में ख्याति
प्राप्त महिलाओं के वर्णन से ज्ञात होता है कि वे तत्कालीन समाज में विशिष्ट
ख्याति प्राप्त थीं। वैदिक काल में स्त्री को उचित स्थान प्रदान किया जाता था। उसे
वरिष्ठ माना जाता था तथा उसे देवी की उपमा दी जाती थी। वर्तमान में महिलाओं ने
ऐतिहासिक वर्णनों के अध्ययनों से प्रेरित होकर अपने लिए ही नहीं, समाज से लिए भी नई मंज़िलें, नए रास्ते तय किए हैं।
महिलाओं की स्थिति में सुधार ने देश के आर्थिक, सामाजिक और
राजनीतिक मायने बदल दिए हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में महिलाएं अपने
अधिकारों के प्रति पहले से अधिक सचेत हैं। नारी उत्थान में ही भारत के उज्ज्वल
भविष्य की संभावनाएं सन्निहित हैं और ऐसा इसलिए है क्योंकि वैदिक काल से ही भारत
में स्त्रियों को समुचित आदर और सम्मान मिलता रहा है। यथा-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला
क्रिया:॥
अर्थात जहां स्त्रियों का आदर होता है, वहां देवता
रमण करते हैं । जहां उनका का आदर नहीं होता, वहां सब काम निष्फल होते हैं।
मीता गुप्ता
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