Sunday, 6 October 2024

बुजुर्ग ना हो तो घर घर नहीं रहता

 

बुजुर्ग ना हो तो घर घर नहीं रहता


छत नहीं रहती

दहलीज़ नहीं रहती

दीवारों दर नहीं रहता
          घर में बुजुर्ग ना हो तो घर घर नहीं रहता

एक अक्टूबर को संपूर्ण विश्व में अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस मनाया जाता है। समाज और नई पीढ़ी को सही दिशा दिखाने और मार्गदर्शन के लिए वरिष्ठ नागरिकों के योगदान को सम्मान देने के लिए इस आयोजन का फैसला संयुक्त राष्ट्र ने 1990 में लिया था। इस दिन पर वरिष्ठ नागरिकों और बुज़ुर्गों का सम्मान किया जाता है। वरिष्ठों के हित के लिए चिंतन भी होता है। प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई ? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई हैं ? चिंतन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि हम पतन के इस गलत प्रवाह को रोकें क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फ़ासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अंतहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिए सही दिशा में चलें, सही सोचें, सही करें। इसके लिए आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की ज़रूरत है।

आज का वृद्ध समाज-परिवार से कटा रहता है और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय तो लेना चाहता है और ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमीयत समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। वृद्ध समाज को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आज हम बुज़ुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हें प्यार और देखभाल की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तो वो ज़िंदगी का पूरा आनंद ले सके। वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा, जैसा कि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि यदि वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ती हैं तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।

प्रश्न है कि आज हमारा वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है? अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिए ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व में बुज़ुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुज़ुर्ग दिवस मनाने का निर्णय लिया।

एक पेड़ जितना ज़्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है, यानी वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुज़ुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है। जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुज़ुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुज़ुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। बड़े घरों और अमीर लोगों की पार्टी में हाथ में छड़ी लिए और किसी के सहारे चलने वाले बूढ़ों को अधिक नहीं देखा जाता, क्योंकि वह इन बूढ़े लोगों को अपनी आलीशान पार्टी में शामिल करना तथाकथित शान के खिलाफ समझते हैं। यही रुढ़िवादी सोच उच्च वर्ग से मध्यम वर्ग की तरफ चली आती है। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। आदमी जीवन मूल्यों को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सब कुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। आज के समाज में मध्यम वर्ग में भी वृद्धों के प्रति स्नेह की भावना कम हो गई है। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप। वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय बनने दे।

वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुज़ुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं खड़ी हुई हैं। इसीलिए सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता।वृद्ध लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।

दरअसल, नई जीवनशैली और नए मूल्य बूढ़ों को समाज में कोई जगह नहीं देते, बल्कि उन्हें उनकी जगह से भी विस्थापित करते हैं। विकास की अबाध गति उन्हें असहाय छोड़ देती है और वे निसहाय से अपने अतीत के गलियारों में डोलने लगते हैं। आज का समाज सेवानिवृत्त होते ही उस व्यक्ति को नकार देता है, वह चाहे जितना ही साधन संपन्न हो, उसकी पूछ कम हो जाती है और लोग उसे अभिवादन की सामान्य औपचारिकता प्रदान करने में भी कोताही करने लगते हैं।

बदलते दौर में ये कैसा वक्त आया है
हमीं से दूर हो रहा हमारा साया है हम आज उनकी जुबाँ पे लगा रहे बंदिश
जिन बुजुर्गों ने हमें बोलना सिखाया है

आज जहां अधिकांश परिवारों में भाइयों के मध्य इस बात को लेकर विवाद होता है कि वृद्ध माता-पिता का बोझ कौन उठाए, वहीं बहुत से मामलों में बेटे-बेटियां, धन-संपत्ति के रहते माता-पिता की सेवा का भाव दिखाते हैं, पर ज़ीमन -जायदाद की रजिस्ट्री तथा वसीयतनामा संपन्न होते ही उनकी नजर बदल जाती है। इतना ही नहीं संवेदनशून्य समाज में इन दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं, जब संपत्ति मोह में वृद्धों की हत्या कर दी गई।

ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुज़ुर्गों कोओल्ड होम्समें शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपिओल्ड होम्सकी स्थिति भी ठीक नहीं है।

पहले जहां वृद्धाश्रम में सेवा-भाव प्रधान था, पर आज व्यावसायिकता की चोट में यहां अमीरों को ही प्रवेश मिल पा रहा है। ऐसे में मध्यमवर्गीय परिवार के वृद्धों के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध पहाड़ बन जाता है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की ज़िम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं महिला वृद्ध एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है।

पर कौन सोचता है, किसे फर्सत है, वृद्धों की फिक्र किसे हैं? भौतिक ज़िंदगी की भागदौड़ में नई पीढ़ी नए-नए मुकाम ढूंढने में लगी है, आज वृद्धजन अपनों से दूर ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर कवीन्द्र-रवीन्द्र की पंक्तियां गुनगुनाने को क्यों विवश है- दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशाप अर्थात दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है।

वृद्ध व्यक्तियों को सुखद एवं खुशहाल जीवन प्रदत्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम तो उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने पर ध्यान देना होगा। बेसहारा वृद्ध व्यक्तियों के लिए सरकार की ओर से आवश्यक रूप से और सहज रूप मे मिल सकने वाली पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसे वृद्ध व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, उनके लिए समाज को कम परिश्रम वाले हल्के-फुल्के रोज़गार की व्यवस्था करनी चाहिए।

वृद्धों के कल्याण के कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए, जो उनमें जीवन के प्रति उत्साह उत्पन्न करे। स्वयं वृद्धजन को भी अपने तथा परिवार और समाज के हित के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ- युवा परिजनों के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करें और उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने दें। गांवों से निकल कर कस्बों तथा नगरों में आने वाले अधिकांश युवाओं की सोच इस रूप में पुख्ता हो जाती है कि संयुक्त परिवार व्यक्तिगत उन्नति में बाधक होते हैं। चीज़ों की ललक में स्वहित इतने हावी हो जाते हैं कि संवेदनहीनता मानवीय रिश्तों की महक को क्षण में काफूर कर देती है और तन्हा बुढ़ापा घुटनभरी सांसों के साथ जीने को बाध्य हो जाता है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नज़रअंदाज़ किया जाता रहा, तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे, जो इन लोगों के पास है। वृद्ध दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें परिवार में सम्मानजनक जीवन देंगे, उनके शुभ एवं मंगल की कामना करेंगे, नहीं तो, शायर के शब्द सही साबित हो जाएंगे-

जब से लोग बुज़ुर्गों की इज्जत कम करने लगे,
तब से लोग दामन में दुयाएं कम, दवाएं ज्यादा भरने लगे

डॉ मीता गुप्ता

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