Wednesday, 2 July 2025

20 दिल चाहता है..

  20 दिल चाहता है..

जब भी तुम्हें देखती हूं, तुम्हें बिखरा-बिखरा- सा पाती हूं, लगता है जैसे आसमान में किसी देवदूत के गले से टूट कर गिरी हुई माला के मोती हो तुम, जो धरती पर आते-आते बिखर गई हो| तुम कुछ इस तरह से टूट कर गिरे, कि माला का वह धागा, उस देवदूत के गले में ही छूट गया और सभी कीमती मोती इधर-उधर हो गए, जिनसे अलौकिक प्रकाश और खुशबू निकल रही है| मैं उन्हें छूने जाती हूं, तो वह जुगनू बन जाते हैं और दर्द के स्याह अंधेरों में लुकाछिपी खेलने लगते हैं| कभी मैंने चाहा कि तुम्हें समेट लूं अपने दोनों हाथों में, फिर से एक सुंदर माला बना दूं, लेकिन उन्हें समेटना मेरे मेरे बस की बात भी तो नहीं| छूते ही गायब हो जाते हैं, वे मोती| सुनो! ऐसा करो कि तुम खुद को समेट लो, हर मोती को सहज लो, मैं अपनी सांसों का अनमोल धागा तुम्हें दे सकती हूं| दरअसल जब मैं आई थी ना, इस धरती पर, तब से यह मेरे पास बेकार ही पड़ा है| मेरे पास तो कीमती मोती भी नहीं, जिन्हें मैं इनमें पिरोकर माला बना सकूं| अब तुम ऐसा करो, इस धागे में अपने सभी मोतियों को आहिस्ता आहिस्ता पिरो दो, यहां-वहां बिखरे मोती अच्छे नहीं लगते, देखो ज़रा आराम से, धागे में गांठ न पड़े, सुनो ना.... सुन रहे हो ना तुम!

जो जोड़ता था आकाश को हवाओं से, जो जोड़ता था मन को कल्पनाओं से, जो जोड़ता था पानी को मिट्टी से, जो जोड़ देता था घास को तलहटी से, जो कच्चे रिश्तों को पकाता था, वक्त के अलाव में जो टूट कर भी नहीं टूटा, वह सिर्फ विश्वास था, जो जोड़ता रहा, मगर खुद टूटता रहा, जो दरारें भरता रहा, पर खुद भीतर से रिसता रहा, जो आज भी आसमान को गिरने नहीं देता, जो आज भी धरती को थमने नहीं देता, जो आज भी मन के दिए को बुझाने नहीं देता, वह विश्वास ही तो है| जो जोड़ता है वह भी विश्वास है और जो टूट रहा है, वह भी विश्वास है| टूटने और जोड़ने के खेल में छुपी है एक आस|  दरिया के पास अपनी बहुत प्यास है, जो जोड़ता है सबको, वह भीतर से यकीनन टूटा जरूर होगा| जो साथ है हरदम, वह एक दिन यकीनन छूटा जरूर होगा| दिल के भीतर देखकर भीतर उसका छूट जाना और भीतर ही भीतर टूट जाना, कोई नहीं देख पाता, कोई नहीं सुन पाता कि वह अब भी कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ छोड़ रहा होगा, खुद के मन की मिट्टी से कोई कोना तोड़ रहा होगा, मन समझते हैं ना आप?

जब हम रिश्तों के गांव बसे होते हैं ना, तो एहसास की पतली गलियां उनके बीच खुद खुद बन जाती हैं| यह गांव इन्हीं गलियों से सांस लेते हैं, गांव के जीवित रहने में और बस्तियों के तबाह हो जाने में इन पतली संकरी गलियों का बड़ा योगदान होता है, इसलिए शायद गलियों के सिरे खुले छोड़े जाते रहे योग्य इंजीनियरों द्वारा और बातों के सिरे खुला छोड़ देते हैं समझदार लोग| वे जुलाहे की तरह गांठ लगाकर छुपाते नहीं, वे तो सिरे खुले छोड़ते हैं ताकि आने जाने की सुविधा बनी रहे, ताकि जाने वाले अपने अहम, अपने स्वार्थ और अवसरवादिता का सामान लेकर कभी भी उठकर जा सकें और आने वाले कभी भी अपने अहम को भुलाकर, अहंकार को गलाकर, किसी भी सिरे से लौट सकें|

जी हां दोस्तों! बहुत ज़रूरी है बातों के सिरे खुला रखना ताकि जीवन बचा रहे, साँसों में घुटन न हो, ताकि समझ आ सके जिसे सही समझ कर प्यार करते रहे, वह कितना सही था और जिससे गलत समझ कर बचते रहे, क्या वह सच में गलत था? सड़कें खुली रहती हैं, तो जीवित रहती हैं और सिरे खुले रहने से जीवित रहते हैं रिश्ते| इतना खुलापन तो ज़रूरी ही है आज के संदर्भ में, हम इस स्पेस कह सकते हैं| हर किसी को अपनी-अपने स्पेस की तलाश है और स्पेस की जरूरत भी है| तो क्यों ना मिलकर एक दूसरे को स्पेस दें, सब की निजता का सम्मान करें| है न दोस्तों!

दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं, खाई अभी जोड़ती हैं, नदियों को जोड़ने का काम पुल सदियों से करते आए हैं, लेकिन पहाड़ों को जोड़ती खाइयों पर ध्यान किसी का नहीं गया, सोचती हूं इन ऊंचे कठोर बदरंग और रुखे, अपने ही अभिमान में अकड़े-अकड़े से पहाड़ कभी भी अपनी जगह से नहीं हिले, लेकिन उनके बीच की गहरी खाई उन्हें हमेशा जोड़े रखती है, यह जोड़ बड़ी कोमलता लिए हुए हैं, बहुत ही सरलता से , बहुत ही तरलता से जुड़े हैं| दोनों सिरों से स्थिर रहने के कारण ये अभिशप्त ज़रूर हैं ये पहाड़, ये पर्वत लेकिन जब-जब भी ये दोनों एक दूजे को दूर से देखते होंगे, उनकी धुंधलाई-सी आंखों से अनगिनत पीड़ा के झरने, असंख्य तड़पती नदियां बहने लगती होगीं और खाई में बिखर जाती होगीं| यह खाई ही उन्हें जोड़ती है, जितनी गहरी खाई उतना गहरा प्रेम! कौन देख सका है भला पल-पल खाई में तब्दील होते पहाड़ों को|                                                                                    देखना! एक दिन ऐसा भी आएगा, जब ये ऊंचे पहाड़ अपने दुख से गल जाएंगे, अपनी पीड़ा में बह जाएंगे और उनके अविरल बहते आंसू बीच की गहरी खाई को पाट देंगे, पीर पर्वत-सी हो जाएगी, पहाड़ नदी हो जाएंगे, उस दिन दो नदियां आपस में मिल जाएँगी और खाई पट जाएगी| इस अनोखा मिलन देखकर धरती गाएगी, नाचेगी, मुस्काएगी, लहराएगी और... और आसमान फिर इतिहास लिखने लगेगा, उस दिन दोनों पहाड़ एक दूजे का माथा चूमेंगे, उस दिन खाई भी मुस्कराएगी|

कुछ रिश्ते आसमान में बने होते हैं| उनका धरती पर कोई आधार नहीं होता, इसलिए कभी समझ नहींते और ना समझ आती है ऐसी धरती, जहां पर प्रेम लिखा तो खूब गया, लेकिन कितना किया गया, कौन जाने? लोगों ने बिना प्रेम किए, प्रेम लिखा| यह ऐसा ही था, जैसे समंदर के किनारे बैठकर उसकी गहराई पर चर्चा करना| अध्याय लिखे जाएंगे ज़रूर आसमानों में| प्रेम उन्मुक्त होगा वहां, सुना है, आसमानों में कोई जेल नहीं, कोई रस्सी नहीं, कोई कानून नहीं, वहां ज़रूर प्रेम जीवित रहता होगा, जिन्हें धरती ने नहीं संभाला, आसमान ने उन्हें थामा है क्योंकि कहते हैं कि आसमान का दिल बहुत बड़ा है, उसका न कोई ओर है, न छोर|

सुनो, सतह पर कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा गया| कुशल योद्धा गहरे में उतरकर ही लड़ते हैं| जो सिर्फ लहरों की सुंदरता निहारने का शौक रखते थे, वे शाम को ही लहरों को निहार कर लौट गए, जो जूझने का हुनर रखते थे, उन्होंने लहरों के संग खूब कलाबाजियां कीं| समंदर सभी को उसकी पसंद के उपहार देता है| किसी को नमक, किसी को मोती, किसी को रेत, किसी को गरल, तो किसी को अमृत| समस्त संसार की मीठी नदियों के दर्द को खुद में समेटे वह किस कदर थमा रहता है, कौन जाने? समंदर बाहर ही नहीं, हमारी आंखों के अंदर भी है, इस समंदर का कभी कोई किनारा क्यों नहीं मिलता? कौन पता देगा कि अगर मैं उसकी आंखों के गहरे समंदर में खो जाऊं, तो भी मुझे किनारा नहीं मिलेगा या नहीं, और अगर मैं खुद दर्द के समंदर में डूब जाऊं, तब भी किनारा मिलेगा या नहीं, कौन जाने? कभी-कभी सोचती हूं, सारी दुनिया का दर्द खुद में समेट लेने वाले, सभी को आसरा देने वाले, अहोभाग्य हैं, परंतु समंदर को समंदर के भीतर सहारा देने कौन आएगा? समंदर कितना अकेला है, उसमें तो न जाने कितने डूब गए, लेकिन वह कहां जाए कि खुद को डुबो सके? उसके किनारों पर हजारों को मंज़िलें मिलीं, लेकिन उसे शहर कौन देगा? और वह तो हमेशा मुसाफिर का मुसाफिर रह जाएगा और कहता रहेगा- मुसाफिर हूं यारों ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना| है न दोस्तों!

 


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