शारदा, ज्योतिर्मयी माता, करुणा की धारा बरसा दे,
ज्ञान-दीप जल जाए मन में, तम को तू आज हटा दे।
वीणा की मधुर तान तेरी, नव चेतना भर दे भीतर,
शब्दों में शक्ति का संचार हो, बोले मानव बन निर्भय तर।
अविचल बुद्धि, निर्मल वाणी, सत्य पथ की दे पहचान,
कर्मशील हो राष्ट्र के तरुण, नव निर्माण का लें संधान।
मंगल छंदों में गूंज उठे फिर तेरी सुमधुर बानी,
शांति, शक्ति और संस्कृति से भर दे यह भारत वानी।
वर दे, भगवति, वर दे हमको, सृजन की वो चिंगारी,
जो हर दुख से पार लगे, बन जाए जीवन की सहचारी।
छिन-छिन में हो तव प्रेरणा, मस्तिष्क जगे मनमोदक से,
अर्जुन-सा लक्ष्यनिष्ठ बनूँ मैं, तू भर दे नव शोधक से।
वीर रस की गाथाएँ फिर, वीणा पर गुंजायमान हों,
काव्य बने दीपक जन-जन का, चित्त हमारे बलवान हों।
संस्कृति की सजीव मूर्ति, तू ही तो भारत का गौरव,
हर युग में तूने ही संजोया, नूतनता में नित्य संकल्प।
जग-कल्याण की वाणी बन, फिर से अमर कथा कह जा,
ज्ञान-तपोवन की जड़ में तू, अविरल सरिता बन बह जा।
आज मेरी देह की होली जला दो !
घिर गया जब घोर अँधियारा गगन में
घुट रहे हैं प्राण सदियों से जलन में
विश्व ज्योतिर्मय करो भावी मनुज, लो —
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल की लपटें समा लें अश्रु-सागर,
हो अशिव सब भस्म जग का मौन कातर,
मात्र उसको हर असुन्दर कण बता दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
ज्वाल होगी जो प्रलय तक साथ देगी
सूर्य-सी जल भू-गगन रौशन करेगी,
इसलिए, तम से घिरे हो, ज्योति जला दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
यह जलेगी भव्य शोभा संचिता हो,
घेर लेना विश्व तुम मेरी चिता को,
देखकर बलिदान की धारा बहा दो !
आज मेरी देह की होली जला दो !
एक बक्सुआ
मेरी बूढ़ी अम्मा की
लाल कांच की चूड़ियां से पेंडुलम की तरह लटकता-मटकता
लगातार हिलता-डुलता रहता
जंगयाया एक बक्सुआ।
किसी इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टर की जो हैसियत होती है
मेरी बूढ़ी अम्मा के लिए इस वस्तुजगत में
बक्सुए की वही हैसियत थी
न जाने कितनी ही आपातकालीन परिस्थितियों में
उस बक्सुए ने संभाली थी जिंदगियां।
अरे! एक-दो रूपाल्ली का आता है बक्सुआ
किसी बच्चे की बेल्ट का हुक टूटा
तो अंततः याद आता था मेरी बूढ़ी अम्मा का बक्सुआ
जहां कहीं कुछ टूट-फूट, जहां कहीं कुछ उधड़ा-उधड़ाया
कि एक छोटी-सी पुलिया-सा तन जाता था बीचो-बीच
बेचारा अच्छे स्वभाव की सब खूबियां लिए,
कभी यहां, कभी वहां टंग जाता था वह बक्सुआ।
सब्जी की डलिया लटका कर इतराती-इठलाती जब निकलती थी बूढ़ी अम्मा सड़क पर
आंचल और ब्लाउज के बीच भी दृढ़ता का प्रतीक बनकर
टंगा रहता था उनका यह दुलारा बक्सुआ
मंडी के बीचों-बीच पहुंचकर मेरी बूढ़ी अम्मा को देखकर गोभी आलू से बोली,
इस औरत का नाम क्या है? कभी कोई इसके साथ नहीं दिखता?
आलू धीरे से फुसफुसाया, अटल मगर लुकाछुपा-सा है इसके साथ कोई
जिसे तुम देख नहीं पाती हो,वह है इसका विशाल-सा बक्सुआ
जो इसे नत्थी किए रहता है इस दुनिया से,
इसकी दुनिया को धरती से और आसमान से
सारी तकलीफें, उम्मीदें, आशाएं और बगावतें इस बड़े से बक्सुए से गुंथी हुई हैं,
जो कभी हिलती हैं, कभी डुलती हैं, कभी दस्तक देती हैं,
कभी भंवर जाल की अतल गहराइयों तक पहुंचा देती हैं, इसी बक्सुए से!
पर एक दिन तो गज़ब ही हो गया
सारा मोहल्ला रो रहा था, पर बूढ़ी अम्मा… अम्मा थी निश्चेष्ट
बूढ़ी अम्मा थीं विराम पर….पर बक्सुआ तो यूं ही लटक रहा था,
मैं सोचती रही जब सब कुछ बंध सकता था इस बक्सुए से,
तो ज़िंदगी क्यों न बांध पाया ये बक्सुआ?
बक्सुआ जो सारे संसार को अपनी मुट्ठी में कर सकता था,
कटे-फटे को सी सकता था,जोड़ सकता था,
वह क्यों न जोड़ पाया मेरी मेरी बूढ़ी अम्मा के जीवन को?
हाय रे कैसा है यह बक्सुआ?
सचमुच बिना किसी काम का है यह बक्सुआ!!!
साड़ी दिवस पर विशेष...
जब कभी मुझे मौका मिलता
मैं चुपचाप अपनी मां की साड़ी की अलमारी खोलकर
उनकी साड़ियों को सहला लेती हूं
कितने प्यारे रंग हैं....इतने प्यारे ढंग है
इतने रंग पर....रंगों के डिब्बे कहीं नहीं
कहीं लहर है, कहीं बादल, कहीं फूल, कहीं पत्ती,
कहीं चटकी हुई कलियां, कहीं कलियों की बूटियां,
कहीं तोता, कहीं मैंना, कहीं मोर और कहीं शानदार हाथी-घोड़े-पालकी,
अरे वाह! रंगों का तो कहना ही क्या?
कहीं आसमानी, कहीं जामुनी,
अरे! वह धानी भी तो है,
गुलाबी-लाल-स्लेटी-बैंगनी-काला-सफेद और न जाने कौन-कौन से रंग....
भगवान की जादुई कूची से बने हुए यह सुंदर-सुंदर रंग....
सोचती हूं जल्दी से बड़ी हो जाऊं...
बड़ी होकर इन सुंदर-सुंदर साड़ियों को पहनकर लहराती चलूं,
कल ही मैंने लेस लगाकर अपनी फ्रॉक अपने हाथों से सिली थी
पर मुझे तो मुझे नानी की साड़ियों से प्यार है,
हां, नानी की चटकदार बैंगनी और गुलाबी कांजीवरम की साड़ी
और उसमें जड़े सुनहरे और गुलाबी मोर
मस्ती से नाचते मोर,नानी की साड़ी है या जादू
साड़ी जो कभी बैंगनी दिखती है तो कभी गुलाबी
नानी खिलखिला कर हंसती और इतराते हुए कहती
यह धूप छांव वाली साड़ी है।
नानी की साड़ी से मोगरे की खुशबू आती
रोज़-रोज़ वे मोगरे का गजरा जो पहनतीं
उनके माथे की बड़ी-सी बिंदी मुझे उगते सूरज-सी लगती।
अरे देखो, देखो, मेरी बुआ घर आई,
शिखा बुआ….आसमान के सारे टिमटिमाते तारे टांककर अपनी साड़ी में
शिखा बुआ आई फूलों की पंखुड़ियां उनकी साड़ी में
इत्र की खुशबू आती है उनकी साड़ी में
वैसे अच्छी हैं, पर नाराज़ भी हो जाती हैं कभी-कभी
गंदे हाथों से छू जो लेती हूं उनकी साड़ी
फिर भी मैं तो बुआ की लाडली हूं
बुआ मुझे प्यार से कहती हैं,डॉली
डॉली मतलब गुड़िया.....गुड़िया जो सबकी प्यारी
वे मेरे बालों में गुलाबी रंग का हेयर बैंड लगाती,
लेकिन मुझे तो उनकी वही गुलाबी वाली साड़ी चाहिए...
अब आशा ताई की क्या बात क्या करूं?
वे तो सिंथेटिक साड़ी ही पहनती हैं,
लेकिन सिंथेटिक साड़ी में तो पूरे बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों की बहार
है, चटकीले रंग हैं,
कैसे-कैसे? न जाने कितने रंगों के फूल हैं,
और फूलों के साथ झूलती हुई डालियां हैं,
जैसे-जैसे आशा ताई घर में झाड़ू और पोंछा लगाती हैं,
वैसे-वैसे ही फूलों की डालियां भी मस्ती में झूलती-झूमती-लहराती हैं,
उनकी साड़ी से हल्दी-कुमकुम-मसाले की खुशबू आती है,
वे मुझे प्यार से ‘लल्ली’ बुलाती हैं,
वैसे मुझे यह नाम अटपटा लगता है क्योंकि....
क्योंकि अब मैं बड़ी हो रही हूं।
और अब मैं बात करती हूं अपनी मां की, मां....जो दुनिया में मुझे
सबसे ज़्यादा प्यारी हैं...
उनकी साड़ी रेशम की साड़ी है, जो अजब-गजब सी लगती है,
उसमें जंगल जैसा बना है,
कहीं मछलियां पानी में तैर रही हैं, तो कहीं पंछी आसमान में उड़ान भर रहे,
मां आंचल को सिर पर डालकर आंखें मूंद कर बैठी,
राम लला के भजनों को गाने में लीन,
ये भजन हैं या मिश्री,
इनको सुनकर ही मैं भी केवट मांझी के साथ-साथ नाव पर सवार,
राम-कथा के कई सपने बुन लेती हूं,
मां में एक अनोखी सी खुशबू आती है, अनोखी नायाब खुशबू,
मैं इसे बोतल में कैद करना चाहती हूं,
क्योंकि अगर मां कहीं चली गईं तो....
सोच-सोच कर डरती हूं….मां का सिल्क का पल्लू थाम लेती हूं,
कस कर जकड़ लेती हूं….कहीं छूट न जाए।
हर साड़ी कुछ बोलती है, जी हां, हर साड़ी की अपनी एक कहानी है,
ठीक सुना आपने,
ये साड़ियां हमसे कुछ-कुछ कहती हैं,अपने ताने-बाने में बहुत कुछ
कहती हैं,
हर बार एक नई कहानी, मौन रहकर...
चुपचाप..!!
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ!
श्वेतावर्णा बनकर सुख पाऊँ!
फुदक-फुदककर दूध-मलाई बन,
चीनी-चाशनी में बन-ठन ,
साँचे में जम-जम जाऊँ!
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ!
कितना अच्छा इसका जीवन?
आज़ाद सदा इनका तन-मन!
मैं भी इस-सी मिठास फैलाऊँ !
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ!
हर घर, हर द्वार पर खुशबू फैलाऊँ,
लू-धूसरित आंधी में भी सैर कर आऊँ,
इतराऊं-इठलाऊँ-सबको ललचाऊँ!
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ!
रीना-मीना-आभा-आरिफ़ आओ,
घर बैठे न यूँ शरमाओ,
देखो, इरम-प्रतिभा-वर्षा भी आई,
कुल्फ़ी माधुर्य-शीतलता लाई|
इसीलिए यह गुनती जाऊँ!
जी करता, कुल्फ़ी बन जाऊँ!
उत्तम प्रदेश-उत्तर प्रदेश हूँ मैं
हां जी, उत्तम प्रदेश-उत्तर प्रदेश हूँ मैं
त्रेता में श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या हूँ मैं
द्वापर में श्रीकृष्ण की तपोभूमि मथुरा हूँ मैं
बाबा विश्वनाथ की काशी, तीर्थराज प्रयागराज हूँ मैं
सात अजूबों में आगरा का ताजमहल हूँ मैं।।
उत्तर में हिमालय दक्षिण में विंध्य हूँ मैं
मध्य गंगा यमुना शस्य श्यामला हूँ मैं
यूनेस्को के वर्ल्ड हेरिटेज फतेहपुर सीकरी हूँ मैं
पुरा पाषाणिक अस्थिनिर्मित स्त्री बेलन घाटी हूँ मैं
हड़प्पा का पूर्वी छोर आलमगीरपुर हूँ मैं||
बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ हूँ मैं,
तो महापरिनिर्वाण कुशीनारा हूँ मैं
अशोक स्तंभ सिंह चतुर्मुख सारनाथ हूँ मैं
तो नेपोलियन समुद्र गुप्त का प्रयाग प्रशस्ति हूँ
देवगढ़ का दशावतार मंदिर व कन्नौज हूँ मैं।।
रामानंद का वैष्णववाद हूँ मैं
कबीर का सर्वधर्म एकात्मवाद हूँ मैं
साहित्य में तुलसी,सूर,कबीर की भूमि हूँ मैं
प्रेमचंद,पंत निराला फिराक, वसीम, शकील हूँ मैं
तो आगरा किला,फतेहपुर सीकरी हूँ मैं।।
बंगाल प्रेसीडेंसी,अवध से भी विख्यात हूँ मैं
मेरठ की क्रांति,चौरी चौरा भी हूँ मैं
महामना,टंडन जी का राष्ट्रवाद हूँ मैं
सरोजिनी,पंत,गढ़वाल,कुमाऊँ उत्तराखंड हूँ मैं
कला शिल्प लखनऊ की चिकनकारी हूँ मैं।।
भदोही का कालीन, पीतल मुरादाबादी हूँ मैं
बर्तन खुर्जा के,फिरोजाबादी कांच रंगीन हूँ मैं
गंगा उत्सव, बटेश्वर, कैलाश,रामनगरिया मेला हूँ मैं
बिठूर कानपुर गंगा घाट, हरि शरण हूँ मैं
आज़ाद, बिस्मिल, रोहेला की ललकार हूँ मैं||
वाल्मीकि की कठिन-स्थिर प्रतिज्ञ तपस्या हूँ मैं
तुलसीदास का ध्वनित रामचरितमानस हूँ मैं
सुभद्रा-महादेवी-प्रसाद- निराला-सरोज हूँ मैं
लक्ष्मी बाई, मंगल पांडे की भीषण ललकार हूँ मैं
कहीं केवट का मान,कहीं महाभारत का विनाश हूँ मैं।।
गंगा-यमुना-सरस्वती का पावन धाम हूँ मैं
सभी प्रदेशों से न्यारा-प्यारा-दुलारा हूँ मैं
बुद्ध के ज्ञान से अभिसिंचित-सुशोभित हूँ मैं
गन्ने-चावल-फल-सब्ज़ियां की सुरभि हूँ मैं
ग्राम-देवता की सुनहरी बाली वाली स्वेद-बूंदें हूँ मैं।।
ऐ उम्र..!
खतरे के निशान से
ऊपर बह रहा है
तेरा पानी।
कुछ कहा मैंने,
पर शायद तूने सुना नहीं..
तू छीन सकती है बचपन मेरा,
पर बचपना नहीं..!!
वक़्त की बरसात है कि
थमने का नाम
नहीं ले रही।
घर चाहे कैसा भी हो
उसके एक कोने में
खुलकर हंसने की जगह रखी है मैंने
सूरज चाहे आसमान में हो
उसको घर बुलाने का रास्ता रखा है मैंने
कभी कभी छत पर चढ़कर
तारे गिन आती हूं
हाथ बढ़ा कर
चाँद को छूने की कोशिश कर आती हूं
भीगकर बारिश में
एक काग़ज़ की किश्ती चला आती हूं
कभी हो फुरसत मिली
तो कागज़ की एक पतंग उड़ा आती हूं
घर के सामने जो पेड़ है
उस पर बैठे पक्षियों की बातें सुन आती हूं
घर चाहे कैसा भी हो
घर के एक कोने में
खुलकर हँसने की जगह रखी है मैंने
जिधर से गुज़र गई
मीठी सी हलचल मचा दी है मैंने
खतरे के निशान से
ऊपर बह रहा है
तेरा पानी।
कुछ कहा मैंने,
पर शायद तूने सुना नहीं..
तू छीन सकती है बचपन मेरा,
पर बचपना नहीं..!!
॥
कृतज्ञ हूं मैं
जैसे आसमान की कृतज्ञ है पृथ्वी
जैसे पृथ्वी का कृतज्ञ है किसान,
कृतज्ञ हूं मैं
जैसे सागर का कृतज्ञ है बादल
जैसे नए जीवन के लिए
बादल का आभारी है नन्हा बिरवा,
कृतज्ञ हूं मैं
जिस तरह कृतज्ञ होता है
अपने में डूबा ध्रुपदिया
सात सुरों के प्रति
जैसे सात सुर कृतज्ञ हैं
सात हजार वर्षों की काल-यात्रा के,
कृतज्ञ हूं मैं
जैसे सभ्यताएं कृतज्ञ हैं नदी के प्रति
जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति
जिसे उसने ईश्वर नाम दिया है।
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