मैं नदिया, फिर भी मैं प्यासी
मेरी कॉलोनी में सड़कें हमेशा खूब साफ-सुथरी रहती हैं। इन हवेलीनुमा घरों के नौकर रोज़ ही घरों से कचरे की बड़ी-बड़ी पन्नियाँ उठा कर पास ही बनी झोंपड़-पट्टी के सामने फेंक आते है। फिर शुरू होता है. उस बस्ती के बच्चों का खेल....वह सब उस कचरे में से अपनी-अपनी पसंद के खिलौने खोजते हैं। एक दिन ऐसा ही हुआ। बहुत-से बच्चे उस कचरे में से अपने मतलब की चीज़ें छांट रहे थे। लेकिन एक छोटे बच्चे के हिस्से कुछ भी नहीं आया। वह बड़ी देर तक रोता रहा. फिर हार कर उसने उस कचरे से एक टूटी हुई गुड़िया खोज ली और बहुत ही प्यार से उससे खेलने लगा। उस बच्चे के चेहरे पर मैंने बहुत ही प्यार देखा, उस टूटे खिलौने के प्रति। वह घंटों खुद को भुला कर उस टूटे खिलौने के साथ था। कैसी शांति और कैसा प्रेम था उसके चेहरे पर? उसके गालों पर बहते आंसू अब इतिहास बन गए थे, गालों पर खिंची आंसुओं की धार अब्सोख चुकी थी और उसके होठों पर एक पवित्र मुस्कान थी। कैसे उस बच्चे ने उस टूटे हुए खिलौने में खुद को समा कर ख़ुशी खोज ली थी, यह घटना अभूतपूर्व थी।
खिलौने का एहसास बच्चों को सुरक्षित महसूस करने में मदद देता है, बच्चे अपनी पसंद के खिलौने को अपने साथ रखकर आश्वस्त महसूस करते हैं, खिलौने के खेल उन्हें समृद्ध करते हैं, उनके विकास में मदद करते हैं, उनकी कल्पनाशक्ति को प्रज्वलित करते हैं, संज्ञानात्मक और मोटर कौशल में सुधार की नींव रखते हैं, वे साझा करने, सहयोग करने और संचार के महत्व को सिखाने में भी मदद करते हैं, पर.....पर दोस्तों, यह प्यारा-सा, छोटा-सा बच्चा इन सबको नहीं जानता। उसने न शिक्षाशास्त्र पढ़ा कभी, न मनोविज्ञान की खबर और समझ है उसे. बस....वह तो खुश होना जानता है, संतुष्ट होना जानता है, और अपनी पवित्र मुस्कान से सारे क्षितिज को रंगीन कर देना जानता है। शायद उसकी मुस्कान से क्षितिज रंगीन हो गया है,.. वह यह भी नहीं जानता... कितना मासूम..कितना अबोध...कितना निश्छल..।
और इधर हम तथाकथित समझदार लोग खुश होने के लिए कितने जतन करते है, रात-दिन एक करते हैं, एक-दूजे को नीचा दिखाते हैं, गिराते हैं, झूठ बोलते हैं, छलते हैं, भेष बदलते हैं, मुखौटे लगाते हैं, कवच पहनते हैं, छवि गढ़ते हैं, दूसरों की ख़ुशी छीनने से नहीं हिचकिचाते.... और जब इन सबसे भी बात नहीं बनती, तो भौतिक वस्तुओं में...ऐशो-आराम की चीज़ों में....और तो और शॉपिंग में ख़ुशी तलाशते हैं। कोई अपने हवेलीनुमा मकान को देख खुश होता है, कोई अपनी लंबी-सी कार देख कर। कोई बैंक बेलेंस देख कर, तो कोई फेसबुक पर अपने पांच हजार ‘फ्रेंड्स’ देख कर। कोई अपनी रील के व्यूअर्स देखकर, तो कोई यूट्यूब के सब्सक्राइब्र्स देखकर। परंतु दोस्तों! क्या यह खुशी असली खुशी है? क्या यह खुशी हमारे अंतस को सुख देती है? शांति देती है? संतुष्टि देती है? और फिर एक बात और भी है दोस्तों! यह ख़ुशी क्षणिक होती है, पानी का बुलबुला होती है, गर्म तवे पर छुन्न से गिरती और गायब होती पानी की बूंद होती है, जो टिकती नहीं। फूलों से खुशबू की तरह उड़ क्यों जाती है? इतना सब पा लेने के बाद भी वह संतुष्टि नहीं दिखती....वह मुस्कराहट नहीं खिलती, जो उस गरीब बच्चे के चेहरे पर टूटे, बेकार से खिलौने ने खिला दी थी।
आखिर भेद क्या है इसका? क्या मंत्र है इसका?
दरअसल उस बच्चे ने उस खिलौने में खुद को डुबा दिया....समा लिया.....भुला दिया। जब-जब भी हम खुद को भुला कर खुश होते हैं, वह ख़ुशी स्थायी होती है। उस ख़ुशी का अहसास जीवन भर हमारे साथ चलता है। जैसे किसी बहुत सुंदर दृश्य को देख हम खुद को भूल जाते हैं या कोई लम्हा जब हमें अपने आपसे ही जुदा कर जाता है, वह लम्हा, वह पल हम कभी नहीं भूलते, और उस पल में गुम हो जाते हैं...वे पल हमेशा हमारे साथ चलते हैं....हमारे जीवन का हिस्सा बनकर।
मार्गरेट वॉल्फ़ हंगर्फोर्ड ने यूं ही तो नहीं कह दिया होगा कि सुंदरता देखने वालों की आँख में होती है। लेकिन कैसे?
एक दिन किसी नदी के किनारे जाना हुआ। वहाँ कुछ लोग अपनी मन्नतों के दीपक सिरा रहे थे, तो कुछ अपने पाप धो-धो कर नदी को मैला कर रह रहे थे। कई उस पानी का इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कर रहे थे। बड़ा शोर मचा हुआ था चारों और, लेकिन...लेकिन...लेकिन मैंने चुपके से सुना कि लहरें, किनारों से बतिया रही है। ज़रा ध्यान दिया तो उनकी आवाज़ें भी सुनाई देने लगी। कितनी सुंदर। कितनी आज़ाद थीं ये लहरें। अपनी मर्जी से आती और जाती थी। अहंकार से अकड़े किनारे भीग-भीग जाते थे, लेकिन अपनी जगह से हिलते नहीं, और लहरें वापस चली जातीं। उस दिन मैंने ये जाना कि नदी का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते-करते हम कितने स्वार्थी हो गए हैं कि कभी भी दो घड़ी बैठ कर उसकी सुंदरता को नहीं निहार सके...उसकी बात नहीं सुन सके। कितनी ही नदियों ने कहा होगा हमसे कि मैं नदिया फिर मैं भी प्यासी...क्या सुन पाए हम।
मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद ये गहरा बात ज़रा-सी।
हाँ! उस दिन ये भी जाना कि सौंदर्य आखों में ही होता है और प्रेम मन में। जब तक आप प्रेम से लबालब नहीं होते, ये दुनिया आपको सुंदर नज़र नहीं आती । पिछली रात बहुत कोहरा था, ओस थी। ये तो सभी कहते हैं, लेकिन कितने लोग देख पाते हैं कि पिछली रात चुपके से आसमान ने धरती को एक प्रेम-पत्र लिख भेजा है। ओस की बूंदों से लिखा हुआ प्रेमपत्र। ये जो सुबह हम पत्तियों पे ओस देखते हैं ना, ध्यान से देखिए, तो आपको एक प्रेम कविता नज़र आएगी। क्या आसमान सिर्फ़ पानी बरसाता है? या वह धरती को कोई संदेश देता है? क्या सागर सिर्फ़ नदियों के जुड़ने से बना है? या आसमान के आंसूओं को समेट कर चुपचाप पड़ा है। हमें ऐसा नहीं लगता, क्यों हमे नहीं दिखता। अब इसका भेद क्या है? इसका भेद यह है क्योंकि हम भीतर से सूख गए हैं, अब हमारे भीतर कोई हरापन नहीं बचा, कोई गीलापन नहीं, कोई तरलता नहीं, सब बंजर कर दिया हमने। हम खोखले हो गए भीतर से।
जब-जब हम भीतर से कंगाल होते हैं, गरीब होते हैं, खोखले होते हैं, तभी हम उस कमी को पूरा करने के लिए बाहर भटकते है। अपने खालीपन को लिए लिए सौ जगह भटकते हैं, लेकिन फिर भी खाली ही रहते है, रीते ही रहते है। जिस दिन हम खुद प्रेम से भरे होते है, उस दिन पाने के लिए नहीं देने के लिए आतुर होते हैं। जिस तरह फूल की सुगंध उसकी पहचान है, उसी तरह प्रेम की भी एक खुशबू है। जो आप के भीतर से निकल कर बिखरती है, बशर्ते हमारा दिमाग चालाकियों से खाली हो, मन के भीतर सौंदर्य और प्रेम भरा हो।
ख़ुशी और प्रेम पाने का भेद गहरा है। लेकिन बात ज़रा-सी ही है, जो समझ गए उन्होंने प्रेम कलश को भर लिया… नहीं तो रीते के रीते।
एक और बहुत सुंदर बात- आप खुद को हमेशा प्रेम से भरे रखिए। एक दिन आपका प्रेमी खोजता हुआ आपके पास चला आएगा। तो चलिए ना... आज से खुद को भीतर से महसूस करें...खुद के भीतर महसूस करें.....सौंदर्य, प्रेम और बहुत-सा प्यार...मुहब्बत...इंसानियत...मुरव्वत.. और जाने क्या-क्या? और सबको बता दें, नदिया अब यह न कह सकेगी कि मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी .....क्योंकि अब तो हम समझ गए हैं कि भेद ये गहरा ज़रूर है, पर बात है ज़रा-सी! है न दोस्तों !!
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