प्रारंभ हुआ है युद्ध,
आरंभ हुआ है
युद्ध,
युद्ध कि जिसने खड़ा किया
मुझे,
अपने अंतर के
विरुद्ध,
भावनाओं के
विरुद्ध,
मेरे रूदन के
विरुद्ध।
हे प्रभु! कैसे समझाऊँ
मैं मन को ?
मन दुविधा में है, कण-कण को,
ना! ये युद्ध ना
अब लड़ पाऊँगी मैं,
रखती हूँ धरा पे
धनुष और बाण,
ये है मेरे युद्ध
का पूर्णविराम !
उत्तर आया :
काया क्या है ?,
केवल है माया,
धरती चाहे जो ऐसी
है छाया।
अग्नि, पाषाण, वायु, जल, वसुधा,
बस पाँच तत्व का
पिंजरा है काया।।
इस पिंजरे में एक
है हंस,
जो अजर अमर आत्मा
कहलाया।
मृत्यु क्या है ?केवल है माया,
केवल है माया.फिर
तू क्यों पछताया ?
उड़ गया रे हंस
अपने घर आया,
उसने चारों धाम
का सुख पाया।।
तू मौत का गम
क्यों करे?
दैवीय विधान से
तू क्यों डरे?
ये आत्मा
मेरी-तेरी,
ये जन्म और
मृत्यु सभी,
क्या सूर्य और
क्या ये ज़मीं,
कालचक्र से ही
सभी चले ।
बस तेरा काम ही
स्वीकार्य है,
बस कर्म पर ही
तेरा अधिकार है,
कर्म में ही तेरी
शान है,
कर्म तेरी पहचान
है,
बस कर्म, बस कर्म।
चल छोड़ मन की
कमजोरियाँ,
रिश्तों की
मजबूरियाँ,
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
मैं सही-गलत
चुनने न आई,
जीवन की रण लड़ने
आई।
सूरज की तरह हर
अंधियारा कर भस्म,
जीवन आलोकित करने
आई ।
चल छोड़ मन की
कमजोरियाँ,
रिश्तों की
मजबूरियाँ,
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
जीवन संघर्ष से
बचना ही क्या?
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