दान का महत्व
पितृपक्ष
में पूर्वजों को याद करके दान धर्म करने की परंपरा है, हिंदू धर्म में इसका महत्व है। पितृ पक्ष पर पितरों की मुक्ति के लिए
कर्म किए जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितृ रुष्ट हो जाएं तो घर की तरक्की में बाधाएं उत्पन्न होने लगती
हैं। यही कारण है कि पितृ पक्ष में पितरों को खुश करने और आशीर्वाद प्राप्त करने
के लिए श्राद्ध किए जाते हैं।
यूं
तो हर धर्म में दान करने का बहुत महत्व माना जाता है और कहा जाता है कि दान करने
से मनुष्य का इस लोक के बाद परलोक में भी कल्याण होता है। लेकिन आज के बदलते समय
में लोगों के लिए दान का अर्थ केवल धन दान तक ही सीमित रह गया है चाहे इसे समय की
कमी कहें, या
कुछ और। दान कर्म को पुण्य कर्म में जोड़ा जाता है। भारतीय संस्कृति में वैदिक काल
से ही दान करने की परंपरा चली आ रही है। हिंदू सनातन धर्म में पांच प्रकार के
दानों का वर्णन किया गया है। ये पांच दान हैं, विद्या, भूमि, कन्या, गौ और अन्न दान...
भूमि दान-पहले के समय में राजाओं द्वारा योग्य और श्रेष्ठ लोगों को भूमि दान
किया जाता था। भगवान विष्णु ने बटुक ब्राह्मण का अवतार लेकर तीन पग में ही तीनों
लोक नाप लिए थे। यदि सही प्रकार से इस दान को किया जाए तो इसका बहुत महत्व होता
है। यदि आश्रम, विद्यालय, भवन, धर्मशाला, प्याउ, गौशाला निर्माण आदि के लिए भूमि दान
किया जाए तो श्रेष्ठ रहता है।
गौदान-सनातन
संस्कृति में गौ दान को विशेष महत्व माना जाता है। इस दान के संबंध में कहा जाता
है कि जो व्यक्ति गौदान करता है, इस लोक को बाद परलोक में भी उसका कल्याण होता है। दान करने वाले
व्यक्ति और उसके पूर्वजों को जन्म मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।
अन्न दान-अन्न दान करना बहुत ही पुण्य का
कार्य होता है। यह एक ऐसा दान है, जिसके द्वारा व्यक्ति भूखे को तृप्त कराता है। यह दान भोजन की महत्वता
को दर्शाता है। सभी प्रकार की सात्विक खाद्य सामाग्रियां इसमें समाहित हैं।
कन्या दान-कन्या दान को महादान कहा जाता है। सनातन धर्म में कन्या दान को
सर्वोत्तम माना गया है। यह दान कन्या के माता-पिता द्वारा उसके पाणिग्रहण संस्कार
पर किया जाता है। इस दान में माता-पिता अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में रखते हुए
संकल्प लेते हैं और उसकी समस्त ज़िम्मेदारियां वर को सौंप देते हैं।
विद्या दान-विद्या धन का दान गुरु द्वारा प्रदान किया जाता है। इस दान से मनुष्य
में विद्या, विनय औऱ विवेकशीलता के गुण आते हैं। जिससे समाज और विश्व का कल्याण
होता है। भारतीय संस्कृति में सदियों से गुरु-शिष्य परंपरा में विद्या दान चला आ
रहा है। विद्या एक ऐसा धन है जो बांटने से और भी बढ़ता है।
न चोर हार्यम् न च राज हार्यम् ,न भ्रातु भाज्यम् न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यम्,विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम् ।।
किंतु दान
की महिमा तभी होती है, जब वह नि:स्वार्थ भाव से
किया जाता है अगर कुछ पाने की लालसा में दान किया जाए तो वह व्यापार बन जाता है।
यहां समझने वाली बात यह है कि देना उतना जरूरी नहीं होता जितना कि 'देने का भाव'। अगर हम किसी को कोई वस्तु दे रहे हैं
लेकिन देने का भाव अर्थात इच्छा नहीं है तो वह दान झूठा हुआ, उसका कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार जब हम देते हैं और उसके पीछे यह भावना
होती है, जैसे पुण्य मिलेगा या फिर परमात्मा इसके
प्रत्युत्तर में कुछ देगा तो हमारी नजर लेने पर है, देने पर
नहीं तो क्या यह एक सौदा नहीं हुआ? दान का अर्थ होता है देने
में आनंद, एक उदारता का भाव, प्राणीमात्र
के प्रति एक प्रेम एवं दया का भाव, किंतु जब इस भाव के पीछे
कुछ पाने का स्वार्थ छिपा हो तो क्या वह दान रह जाता है?
गीता में
भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत
करो। हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है, उसके फल पर नहीं।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यह तो संसार एवं विज्ञान
का धारण नियम है। इसलिए उन्मुक्त हृदय से श्रद्धापूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान
एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ-साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक
सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें
प्राप्त होगा।
मीता
गुप्ता
8126671717
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