Tuesday, 8 August 2023

अति से बचें

 

अति से बचें




अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

शास्त्रकारों ने सत्य कहा है- अति सर्वत्र वर्जयेत्। उन्होंने सब कामों में अति का विरोध किया है। कुछ विशिष्ट आत्माएं असाधारण तेज अपने साथ लेकर आती हैं, उनकी गतिविधि आरंभ से ही असाधारण होती है उनके कार्य भी लोकेत्तर होते हैं। ऐसी विशिष्ट आत्माओं की बात छोड़कर सर्वसाधारण के लिए मध्य मार्ग ही उचित और उपयुक्त है। भगवान बुद्ध ने मध्यमा का आचरण करने के लिए सर्वसाधारण को उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि मोक्ष तक पहुँचने के तीन सरलतम मार्ग हैं- पहला आष्टांग योग, दूसरा जिन त्रिरत्न और तीसरा आष्टांगिक मार्ग। आष्टांगिक मार्ग सर्वश्रेष्ठ इसलिए है कि यह हर दृष्टि से जीवन को शांतिपूर्ण और आनंदमय बनाता है। बुद्ध ने इस दुःख निरोध प्रतिपद आष्टांगिक मार्ग को 'मध्यमा प्रतिपद' या मध्यम मार्ग की संज्ञा दी है। अर्थात जीवन में संतुलन ही मध्यम मार्ग पर चलना है।

बहुत तेज़ दौड़ने वाले जल्दी थक जाते हैं और बहुत धीरे चलने वाले अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचने में पिछड़ जाते हैं, जो मध्यम गति से चलता है, वह बिना रुके, बिना पिछड़े उचित समय पर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच जाता है। चलिए, हाथी का उदाहरण लेते हैं....हाथी जब किसी नदी को पार करता है, तो अपना हर कदम बड़ी सावधानी से रखता है। आगे की ज़मीन को टटोल कर उस पर एक पैर जमाता है, जब देख लेता है कि कोई खतरा नहीं है, तो उस पर बोझ रखकर पिछले पैरों को हटाता है। इस गतिविधि से वह अत्यधिक वेग वाली नदी को भी पार कर लेता है। यदि वह जल्दी बाजी करे, तो वह गहरे पानी में डूब सकता है, किसी दलदल में फंस सकता है या किसी गड्ढे में औंधे मुंह गिरकर अपने प्राण गवां सकता है। साथ ही यदि वह कदम बढ़ाने का साहस न करें, पानी की तेज़ गति से बहती धारा को देख कर डर जाए, तो वह कभी नदी पार नहीं कर पाएगा। हाथी एक बुद्धिमान प्राणी है, वह अपने शरीर के भारी-भरकम डीलडौल का ध्यान रखता है, नदी पार करने की आवश्यकता अनुभव करता है, पानी की विस्तृत धारा को समझता है और पार करते समय आने वाले खतरों को जानता है। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए वह अपना कार्य गंभीरतापूर्वक आरंभ करता है, जहां खतरा दिखता है, वहां से पैर पीछे हटा लेता है और फिर दूसरी जगह रास्ता ढूंढता है। इस प्रकार वह अपने कार्य को पूरा करता है।

मनुष्य को भी हाथी की बुद्धिमानी सीखनी चाहिए और अपने कार्यों को मध्यम गति से पूरा करना चाहिए। विद्यार्थी उतावली करें, तो भी एक दो-महीने में अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकते, कर भी लेंगे, तो उसे जल्दी ही भूल जाएंगे। क्रमाक्रम से नियत काल में पूरी की गई शिक्षा ही मस्तिष्क को सुस्थिर करती है। पेड़-पौधे-वृक्ष-पशु-पक्षी, सभी अपनी नियत अवधि में परिपक्व और वृद्ध होते हैं। यदि उस नियत गतिविधि में जल्दबाजी की जाए, तो परिणाम बुरा हो सकता है। हमें अपनी शक्ति सामर्थ्य, योग्यता, मनोभूमि, परिस्थिति आदि का ध्यान रखकर निर्धारित लक्ष्य को पूरा करना चाहिए। बहुत खाना, भूख से ज़्यादा खाना बुरा है, इसी प्रकार बिल्कुल ना खाना, भूखे रहना भी बुरा है। अति का भोग बुरा है, पर अमर्यादित तप भी बुरा है। अधिक विषयी क्षीण होकर असमय ही मर जाते हैं, पर जो अमर्यादित अतिशय तप करते हैं, शरीर को अत्यधिक कस डालते हैं, वह भी दीर्घ जीवी नहीं होते। अति का कंजूस होना ठीक नहीं, पर इतना दानी होना भी किसी काम का नहीं कि कल खुद ही दाने-दाने को मोहताज होना पड़े। आलस्य में पड़े रहना हानिकारक है और सामर्थ्य से अधिक श्रम करते रहने पर जीवन की शक्ति को समाप्त होने लगती है। कुबेर बनने की तृष्णा में पागल हो जाना या कंगाली में दिन काटना दोनों ही स्थितियां अवांछनीय है।

नित्य मिठाई ही खाने को मिले तो उससे अरुचि और साथ-साथ पेट भी खराब हो जाएगा। पर भोजन में मीठे की मात्रा बिल्कुल ना हो, तो चमड़ी पीली पड़ जाएगी। बहुत ही खाने से मंदाग्नि हो जाती है, पर यदि खाना बिल्कुल भी ना मिले, तो खून खराब हो जाएगा। बिल्कुल कपड़े ना हों, तो सर्दी में निमोनिया हो जाने का और गर्मी में लू लग जाने का खतरा है, पर जो कपड़ो की परतों से बेतरह लिपटे रहते हैं, उनका शरीर पके आम की तरह पीला पड़ जाता है। बिल्कुल ना पढ़ने से मस्तिष्क का विकास नहीं होता, पर दिन-रात पढ़ने की धुन में व्यस्त रहने से भी दिमाग भी थक जाता है और आंखें कमज़ोर पड़ जाती हैं। घोर कट्टर और असहिष्णु सिद्धांत वादी बनने से काम नहीं चलता, दूसरों की भावनाओं का भी आदर करके सहिष्णुता का परिचय देना होता है। अविश्वासी होना बुरी बात है, विवेकपूर्ण हंस की भांति नीर-क्षीर का अन्वेषण करते हुए ग्राह्य-अग्राह्य को पृथक करना ही बुद्धिमानी है। देशकाल और पात्र के भेद से नीति, व्यवहार और क्रिया पद्धति में भेद करना पड़ता है। यदि न करें, तो हम अतिवादी कहे जाएंगे। अतिवादी आदर्श से उपस्थित कर सकते हैं, पर नेतृत्व नहीं कर सकते।

आदर्शवाद हमारा लक्ष्य होना चाहिए, हमारी प्रगति उसी और होनी चाहिए, पर सावधान कहीं अपरिपक्व अवस्था में ऐसी बड़ी छलांग न लग जाए, जिसके परिणाम स्वरूप हम हताहत हो जाएं और हमें यातना सहनी पड़े। कार्यो को पूरा करने के लिए मज़बूत व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। मज़बूत व्यक्तित्व धैर्य वालों का होता है। उतावलापन दिखाने वाले महत्वपूर्ण सफलताएं नहीं प्राप्त करते, जो धैर्यवान प्राप्त कर पाते हैं। धैर्यवान विवेकपूर्ण होकर मजबूत कदम उठाते हैं और अतिवादी आवेश और अतिवाद के प्रभाव में। धैर्यवान आवेश से बचकर मध्य मार्ग पर चलने की नीति को अपनाते हैं। नियमितता, दृढ़ता एवं स्थिरता के साथ समगति से कार्य करते रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा ही महान कार्यों का संपादन होता है।

मीता  गुप्ता

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