दिवाली या दिवाला ?
दीप जलाओ,दीप जलाओ, आज दिवाली रे!
खुशी-खुशी सब हंसते आओ, आज दिवाली रे!!
मैं तो लूंगा खील-खिलौने, तुम भी लेना भाई,
नाचो-गाओ खुशी मनाओ, आज दिवाली आई॥
जब बचपन में यह कविता पढ़ी थी, तब दिवाली से निकलने वाले दिवाले का अंदाज़ा ही नहीं था। दिवाली हिंदुओं का
सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा उत्साह से मनाया जाने वाला त्योहार है । इस उत्सव को
अच्छे से संपन्न करने के लिए घर के मुखिया को कितना मैनेजमेंट करना पड़ता है, यह वही जानता है। ज़माना कोई भी रहा हो सीमित संसाधन के चलते आने वाले बेतहाशा
खर्च निश्चित ही कुछ समय के लिए असहज तो कर ही देते है। वही हर किसी की साल भर की
ख्वाहिश को पूर्ण करने की ज़िम्मेदारी घर के हेड होने के कारण उन्हीं के कंधे पर
रहती है। फिर प्राथमिकता तय करनी पड़ती है कि किसे पूरा करे और किसे छोड़ दें। एक
की मांग पूरी करो,
तो दूसरा असंतुष्ट हो जाता है। त्योहार होने से कहीं से मदद
की संभावना भी कम हो जाती है। आज लोगों के रहन-सहन का स्तर बदल गया है। आज का
परिवार बाज़ार मार्केटिंग का भी शिकार हो रहा है। उत्सव में छूट के लोक-लुभावने
विज्ञापन यह सोचने को मजबूर कर देते हैं कि ऐसा मौका पुनः मिलेगा कि नही? इसलिए इन दिनों भीड़-भाड़ में वो वह चीज़ भी ले लेता है, जो उसने बाज़ार जाने से नहीं थी। दुकान में अमीर ग्राहक पर ज़्यादा तवज्जो दी
जाती है, क्योंकि दुकानदार को उसी से तो कमाना है।
‘दीपावली’ अर्थात दीयों की पंक्ति, एक पावन त्यौहार जिसे
दीपोत्सव नाम से भी जाना जाता है। इस मौके पर दीप जलाकर अंधेरे को दूर किया जाता
हैं, खुशियां मनाई जाती हैं,
तरह-तरह की मिठाइयां, पकवान, पटाखे और नये कपड़े खरीदे जाते हैं, घरों की सफाई की जाती है।
लेकिन इस बार दिवाली के मौके पर आम लोगों के चेहरे उतरे नज़र आ रहे हैं। लोगों के
चेहरे से त्योहार की रौनक की चमक दूर होने का कारण है महंगाई। महंगाई ने आम आदमी
की कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोडी है। महंगाई की वजह से त्योहारों की खुशी भी
कहीं खो गई है। सभी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। दिवाली आते ही घर का बजट
गडबडाने का डर सताने लगता है। लेकिन करें भी तो क्या करें। बढ़ती मंहगाई ने अमीर व
गरीब के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। आज अमीर और अमीर हो रहा है, ऐसे में वो तो महंगी से महंगी चीज़ बड़ी आसानी से खरीद सकते हैं लेकिन इस
महंगाई के दौर में गरीब आदमी की तो मन गई दिवाली…वो तो सिर पकड़कर बैठ जाता है कि
दिवाली कैसे मनाएं?
और अगर किसी तरह गरीब इंसान मंहगाई से बच भी जाए तो नकली
मिठाई, नकली पटाखे आदि आपका दीवाला निकाल देंगे और रही-सही कसर नशाखोर और जुएबाज़ लोग
पूरी कर देंगे।
हिंदुओं के मुहूर्त का भी बेजा फायदा
बाज़ार उठाता है। किसी भी दिन का अखबार उठा लो, एक-दो दिन की आड़ में ये
लोग ऐसी तिथि निकाल लेते हैं, जो कभी सत्तर साल पहले, कभी-कभी सौ साल की तिथि दिखाकर बाज़ार की तरफ रुख करने के लिए विवश कर ही देते
हैं। पर इस सब में घर का मुखिया अंत मे सब की मांग पूरी कर अपनी ज़रूरत को पीछे
छोड़कर त्योहार में सब आर्थिक गम को दरकिनार कर शामिल होता है। घर वाले ज़रूर बोलते
हैं कि आपने अपने लिए तो कुछ लिया ही नहीं, तो छद्म हंसी के साथ मेरे
पास सब कुछ है;
कहकर बात को विराम लगा देता है। कुल मिलाकर यह त्योहार
अच्छे से संपन्न हो सके,
उसकी यही कोशिश रहती है। ईनाम वालों की अघोषित और अनगिनत
फौज और खड़ी हो जाती है,
जो इसका हक तो नहीं रखती पर तथाकथित स्टेटस को रखने के लिए
न चाह कर भी उसे संतुष्ट तो करना पड़ता है। कुल मिलाकर यह जंग से कम नही है ।
दीपावली अपने साथ पांच त्योहार लेकर आती है- धनतेरस, छोटी दीपावली या नर्क चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भाई दूज। इन त्योहारों को मनाने के तरीकों में विविधता है, फिर भी गांवों में आज भी इन्हें शालीनता और शांति से मनाया जाता है। पटाखे, आतिशबाजी औरा विस्फोटक सामग्री हिंदू धर्म की पहचान कभी भी नहीं रही। पटाखों
से ध्वनि और वायु प्रदूषण से सनातन परंपरा में विकृति आती है। ध्यान रहे दीपावली
शब्द का सीधा अर्थ है दीपों की कतार, इसमें पटाखे शामिल नहीं
होते हैं। इस देश में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध से पहले शायद तोपखाना या
अन्य विस्फोटक प्रयोग नहीं हुए थे। पटाखा की सामग्री मध्यपूर्व के देशों से आई है।
भारत में विस्फोटक खनिजों के भंडार पाए ही नहीं जाते थे। प्रभु राम का स्वागत ढोल, नगाड़ों,
गीतों और पुष्प वर्षा से हुआ होगा। लक्ष्मी के स्वागत के
लिए गांवों में उनके पद चिह्न को अपने घर की तरफ बनाते हैं। गन्नों के खंडों, पत्र पुष्पों से स्थानीय सामग्री से लक्ष्मी का प्रतीक बनाते है। शहरों में
विशेषकर लक्ष्मी गणेश की मूर्तियों की पूजा करते हैं, लेकिन पटाखों की पूजा कब आरंभ हुई, यह जिज्ञासा का विषय है ।
ग्रामीण इलाकों में आज भी दीयों का ज्यादा महत्व है। ..
खुशियों का प्रतीक दीपोत्सव पर्व बीत
चुका है। बच्चे ही नहीं,
बड़े भी पूरे उल्लास से बम-पटाखे, फुलझड़ियां और अनार जला चुके हैं। तरह-तरह की आवाज़ व रोशनी निकल चुकी है। चिंता
की बात ये है कि इनसे ध्वनि व वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ चुका है, जो हमारी-आपकी सेहत का
दिवाला निकाल रहा है। श्वांस, हृदय व अन्य गंभीर रोगियों के लिए तो
ये दिन काफी काफी कष्टदायक बन गए हैं। कई हादसों में आंखों व त्वचा को नुकसान का
खतरा भी बढ़ा है। ऐेसे में विशेषज्ञ आतिशबाजी को लेकर सचेत रहने व सावधानी बरतने की
सलाह देते रहे हैं,
लेकिन इस बौद्धिक दिवालिएपन का इलाज उनके पास भी नहीं है।
बहरहाल दिवाली आकर चली भी गई , लेकिन वो दिवाली वाली बात कहीं नजर नहीं आ रही…कुछ साल पहले तक दिवाली की
तैयारियां एक महीने पहले ही शुरु हो जाती थी…लगता था कोई बड़ा त्योहार आ रहा है, लेकिन हमारी परंपराएं और हमारे त्योहार आधुनिकता और बाज़ारवाद की भेंट चढ़ गए
हैं…दिया जलाओ,
न जलाओ, लेकिन कुछ मीठा हो जाए…पूजा करो, न करो. लेकिन दिवाली के जश्न में थोड़ी शराब हो जाए। बाज़ार भी दिवाली के
साजो-समान से भरा तो हुआ है लेकिन ज्यादातर सामान चाईनीज है…मिट्टी के दीयों की
जगह चाईनीज दीयों और लाईटों ने ले ली है, यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश
भी चाईनीज है…वाह रे इंडिया…अब चाईनीज गणेश जी की पूजा भी चाईनीज में करेंगे शायद…
खैर, ये
चाईनीज चीजें भी गरीबों के लिए नहीं है, ऐसी स्थिति में आम आदमी
बड़ी मुश्किल से दिवाली मना पाता है और दिवाली मनाने का खामियाजा 2-3 महीने तक खर्चों में कटौती करके भुगतता है…और गरीब आदमी की बात छोड़ ही दीजिए
वो बेचारा दिवाली वाले दिन भर पेट खाना भी खा ले, तो
उसकी दिवाली तो मन गई समझो…गरीबों के लिए तो एक दीया तक जलाने के पैसे जुटाना भारी
पड़ जाता है…सालभर अंधेरे में डूबी उनकी झोंपड़ी दिवाली के दिन भी जगमागा नहीं
पाती…उनके बच्चे भी दिवाली के दिन आसमान में रोशनी देखकर ही खुश हो जाते है या
अमीरों के बच्चों की ओर टकटकी लगाए देखते रहते है…शायद कोई उन्हें भी पटाखे या
फुलझड़ी दे दे। लाखों घरों में दिवाली खुशी नहीं, बल्कि
दुख और निराशा लेकर आती है।
दिवाली की रात की गई आतिशबाजी का असर
पूरे भारत में दिखने लगा है। सोमवार सुबह ही दिल्ली-एनसीआर में स्मॉग की मोटी चादर
देखी गई है। हालांकि,
यह हाल सिर्फ इस क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि दिवाली के बाद प्रदूषण का यह असर कई और शहरों में भी देखा जा रहा है।
इनमें मुंबई और कोलकाता जैसे मेट्रो शहर भी शामिल हैं। दोनों ही शहरों में सुबह ही
धुंध छाई रही। … अब तो ये ही लगता है कि ‘दिवाली तो दिवाला निकाल देगी’।
दीप जलाओ,दीप जलाओ, आज दिवाली रे!
खुशी-खुशी सब लुटते आओ, आज दिवाली रे!!
मैं तो लूंगा विदेशी उपहार, मिठाई-चॉकलेट आई,
अब कैसे नाचे-गाएं, आज दिवाला भया भाई॥
मीता गुप्ता
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