त्योहारों पर हावी होता
बाज़ारवाद
बाज़ार मनुष्य की ज़रूरत और वस्तुओं के
बीच का सेतु है। वास्तव में ज़रूरत की चीज़ों की आपूर्ति के लिए ही बाज़ार अस्तित्व
में आया होगा। बाज़ार की वास्तविक धुरी लाभ नहीं,
बल्कि लेन-देन, आपसी सहयोग, भाईचारा और
आवश्यकता की वस्तुओं की उपलब्धता की एक भावना रही होगी। लेकिन आज बाज़ार का स्वरूप
बदल गया है। आज यह ज़रूरत की चीज़ों की उपलब्धता तक ही सिमटा नहीं है, बल्कि यह केवल लाभ का केंद्र बन गया है। पुराने बाज़ार में सामाजिकता और
सामूहिकता थी। लोगों के बीच परस्पर संवाद थे। परस्पर काम आप आने की चाहत थी। नए बाज़ार
ने सहकारिता के इस भाव को अपदस्थ कर दिया है। आदमी बाज़ार में होते हुए भी अकेला रह
गया है। पुराने बाज़ार की सामूहिकता आज बाज़ार
के अकेलेपन में तब्दील हो गई है। सामूहिकता पुरानी बाज़ार का मूल चरित्र था, तो नए बाज़ार का मूल चरित्र अकेलापन हो गया है। नया बाज़ार किसी भी तरह के
संवाद के बजाय चीज़ों के प्रति आक्रांत चेतना का निर्माण करता है, इसीलिए आज बाज़ार अपने संपूर्ण चरित्र में आक्रामक हो गया है। यह
आक्रामकता भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के चलते आई है। आज का बाज़ार और उसका
उपभोक्तावाद दरअसल भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की आड़ में चलने वाली नव साम्राज्यवादी
नीति का हथकंडा बन गए हैं। उपभोक्तावाद और बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था की मिली-जुली
संस्कृति के लिए एक और शब्द प्रचलित है, और वह है बाज़ारवाद या बाज़ारूपन । जो फ़र्क बाज़ार और बाज़ारवाद
में है, वही फ़र्क उपभोग और उपभोक्तावाद में है। बाज़ारवाद बाज़ार
की तार्किक परिणति है। बाज़ार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और बाज़ारवाद उन
समस्याओं को और उग्र करता है, जिसे मुक्ति दिलाने का वादा
करता है। बाज़ारवाद पूंजीवाद की नहीं, अपितु संकटग्रस्त
पूंजीवाद या उत्तर पूंजीवाद की संतान है।
हमारे त्योहार भी बाज़ारवाद की चपेट में
आ चुके हैं और बाज़ार की इस रंगीन दुनिया और रंगीन चश्मे को चढ़ा चुके हैं। यह
सर्वविदित है कि भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है। स्वाभाविक है यहां के लोग
धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और ईश्वर में उनकी अधिक आस्था है। संभवतः यह बात इन
अवसरवादी मुनाफाखोरों की समझ में अच्छी तरह आ चुकी है कि यदि भारतीयों की
धार्मिकता और आस्था को बाज़ार की व्यवस्थाओं में गड्डमड्ड कर दिया जाए, तो लाखों करोड़ों ही नहीं बल्कि अरबों-खरबों के वारे-न्यारे हो सकते हैं।
इसी वैश्विक सोच और बाज़ारवादी साज़िशों का नतीजा है कि अब हमारे धार्मिक आस्थाओं के
केंद्र त्योहारों को अधिकांशतः क्रय- विक्रय व आर्थिक विनिमय से संलग्न किया जाता
है।
दीपावली महालक्ष्मी की पूजा-आराधना का
पर्व है। लक्ष्मी यानी धन-धान्य और ऐश्वर्य की देवी। इस आधार पर देखें, तो हमारा देश जितना आध्यात्मिक है, उतना ही
भौतिकवादी भी जान पड़ता है। हम ज्ञान के साथ-साथ समृद्धि की भी उपासना करते आए हैं
क्योंकि हमें अपने परलोक को ही नहीं, इह लोक को भी सुंदर और
सफल बनाना है। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में भगवान
विष्णु को सृष्टि का सूत्रधार माना गया है।
वे ही सृष्टि का संचालन और पालन पोषण करते हैं। ज़ाहिर है इस दायित्व का निर्वाह
में अकेले नहीं कर सकते। इसमें उन्हें अपनी पत्नी लक्ष्मी का साथ चाहिए। इन
पौराणिक मान्यताओं के माध्यम से हमारे शास्त्र रचयिता ऋषियों-मनीषियों ने संभवत यह संदेश देना चाह है कि हमें धन की
उपासना तो अवश्य करनी चाहिए, लेकिन वह उपासना इस तरह हो, जैसे पूजा कर की जा रही हो अर्थात भौतिकतावाद के साथ पवित्रता का भाव भी
जुड़ा हो।
भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के
सर्वत्र प्रतिकूल आज पूंजी ही जीवन का अभीष्ट बन गया है। आज इस नव-उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को लागू हुए
अनेक दशक हो चुके हैं, तब से लेकर अब तक हम केवल बाज़ारवाद की ही
पूजा अर्चना कर रहे हैं, लक्ष्मी आज आराध्य नहीं, बल्कि एक ग्लोबल प्रतिमा बन कर रह गई हैं। उनकी पूजा में लोक-जीवन को संपन्न करने की इच्छा
कम और खुद को समृद्ध बनाने की लालसा ज्यादा व्यक्त की जाने लगी है। डिज़ाइनों और
ब्रांडों के बोलबाले ने मिट्टी की की प्रतिमाओं को कुम्हार के कलाकार हाथों से छीनकर डिज़ाइनर बना दिया है डिज़ाइनर देव के साथ ही ब्रांडेड मामबत्तियां का
भी चलन बढ़ा है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह अब ब्रांडेड मिठाइयां और मुनाफ़ाखोर
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चॉकलेट ने ले ली है।
दीपावली के त्योहार पर उपहार और मिठाई के
आदान-प्रदान का चलन पुराना है, लेकिन पहले उसमें गहरी
आत्मीयता थी। आज इस गिफ्ट संस्कृति का इस कदर प्रचलन हुआ है कि खून के रिश्तों को
भी अब गिफ्ट के फेविकोल की ज़रूरत है। कई लोग तो किसी का हिसाब चुकता करने, ओब्लाइज करने, धौंस जमाने या पैसे की पॉवर दिखाने के
लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आउर हां, इससे गिफ़्ट देने वाले की
हैसियत का भी अंदाज़ा लगता है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जिनकी हैसियत गिफ़्ट
देने की नहीं है, वे सामने वाले को त्यौहार की शुभकामनाएं
देने भी नहीं जाता है। बाज़ार इस कदर
हमलावर हुआ है कि उसके बिना अब ‘रिश्तों
की मिठास’ नहीं बच सकी। बाज़ार में वर्चस्व की अवधारणा से जुड़कर मनुष्य
को महज़ एक उपभोक्ता के रूप में बदल दिया है। इस तरह बाज़ार की नई अवधारणा मनुष्यता
की अवधारणा के खिलाफ़ है। मनुष्य की अवधारणा में विचार, तर्क, बुद्धि, संदेह और प्रतिरोध शामिल होते हैं, जो बाज़ार की अवधारणा में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। नए बाज़ार का हमला
मनुष्य होने की इन्हीं प्रवृत्तियों पर है। मनुष्य की इन्हीं प्रवृत्तियों को नष्ट
करके बाज़ार की वर्चस्व की अवधारणा को वास्तविक ज़मीन मिल सकती है। दरअसल वर्चस्व की
अवधारणा ही बाज़ार का मेकैनिज्म है।
आज से कुछ साल पहले तक भी त्यौहार अपनी
मूल भावना के साथ मनाया जाते थे। दिवाली पर माटी के दीए जलाए जाते थे, जिससे कुम्हार को भी काम मिलता था। इसकी जगह आजकल फैंसी लाइटों ने ले ली
है, जिससे बजट भी बिगड़ जाता है और जेब पर काफी प्रभाव पड़ता
है। अपने घर पर ही बनी हल्की मिठाइयां बना ली जाती थीं, जो
अड़ोस-पड़ोस के लोगों को खिलाई जाती थीं। अब ज्यादा महंगे गिफ्ट के चक्कर में
लोगों का आपसी प्यार भी बहुत कम हुआ है और लोग एक-दूसरे को जाकर शुभकामनाएं देने
के बजे फोन पर, व्हाट्सएप पर, मेल पर, इंस्टाग्राम, ट्विटर या फिर फेसबुक पर चार लाइन
लिखकर, चार लाइन टाइप करके अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं और
अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं। इससे आपसी भाईचारा और प्यार कम होता जा रहा
है। दिवाली की मूल भावना यह है कि हम इस दिन बुराइयों का त्याग करें, लेकिन वह भावना बदलकर अब बड़े-बड़े मंहगे पटाखे को छुड़ाने तक सीमित रह
गई है, जो ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण
और श्रवण प्रदूषण को बढ़ावा दे रही है। मूल भावना बुराइयों का त्याग करने की है, बुराइयों का अंत निश्चित है, यह सब अब समाप्त हो चुका है। पहले गांव में लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की
मूर्तियां बनाई जाती थीं, जिससे गांव के लोगों को रोज़गार
मिलता था और जब ये विसर्जित की जाती थीं, तो उनसे कोई
प्रदूषण भी नहीं होता था। आजकल तो केमिकल की मूर्तियां बनती हैं, जो नदियों और मृदा को प्रदूषित करती हैं।
बाज़ारवाद हमारे त्योहारों पर इस कदर
हावी हो गया है कि त्योहारों की असली चमक फीकी पड़ गई है। सभी त्योहारों की यही
स्थिति है। हम त्योहारों की मूल भावना को भूलकर बाज़ारवाद की चपेट में आ चुके हैं।
हम आकर्षक प्रचार के कारण उत्पादों की ओर खिंचे चले जाते हैं और त्योहारों को
पारंपरिक स्वरूप में नाम मनाकर बाज़ारवादी उपभोक्ता केंद्रित जाल में फंस कर गैर
पारंपरिक स्वरूप में मानने लगे हैं, यह विडंबना
नहीं तो और क्या है? बाज़ारों में जहां देखो, वहां वाकई में केवल और केवल धन बरसता ही दिखाई देता है। बर्तन हों, वाहन हों, सोना-चांदी हो,जवाहरात
या ऐश्वर्य और विलासिता के महंगे उपकरण हों, सभी शोरूम
जगमगाते दिखाई देते हैं। आम जनता में भी खरीदी का उत्साह चरम उत्कर्ष पर होता है।
बेहद हर्ष का विषय है, परंतु यह बात हार्दिक खेद भी है कि आपाधापी से भरे बाज़ारवाद में हमारे हमारी
मूल भारतीय संस्कृति से हमें दूर कर दिया है। त्योहार को मानना या ना मानना हमारी
क्रय शक्ति यानी परचेज़िंग पावर पर निर्भर करने लगा है।
निसंदेह बाज़ारवाद से देश में समृद्धि
का एक नया वातावरण निर्मित हुआ है। महानगरों में एक बड़े वर्ग के बीच हमेशा उत्सव
का माहौल रहता है, लेकिन उनके इस उत्सव में न तो बहुत ज्यादा
सामाजिकता होती है और ना ही इसके पीछे किसी प्रकार की कलात्मक उसमें जो कुछ होता
है उसे भोग विलास या आमोद प्रमोद का फुहार और बेकाबू वातावरण का सकते हैं यह सब
अगर एक छोटे से टपके तक सीमित रहता तो भी कोई हर्ष नहीं था लेकिन ज़्यादा मुश्किल
तो यह है कि यथा राजा तथा प्रजा की तर्ज पर
यही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी होते जा रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर
हैं या जिनकी आमदनी सीमित है उनके लिए बैंकों ने फ्रीडम की तर्ज पर क्रेडिट कार्ड
की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन प्रदान कर रखे हैं। विभिन्न कंपनियों के
शोरूम से निकलकर रोज़ाना सड़कों पर आ रही लगभग हजारों कारों और शानो-शौकत की तमाम
वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल पर लगने वाली भीड़ से भी इस वाचाल स्थिति का
अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर हर तरफ़ लालसा, लोभ, तृष्णा, अतृप्ति, असंतुष्टि
का तांडव ही ज़्यादा दिखाई देता है क्योंकि बाज़ार एक भूख को जन्म देता है, “मुझे और चाहिए....और चाहिए” की
भावना मनुष्य में जागृत होती है और उसे यह भी लगता है कि बाज़ार में सब कुछ फैला
हुआ है, सब कुछ सुंदर दिखाई दे रहा है और उसके पास कुछ भी
नहीं है। अतिरिक्त की यह लालसा बहुत खतरनाक है। देश में बढ़ रहे अपराधों खासतौर पर
यौन अपराधों की वजह यही है। देश में उन्हें इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे ऊंचा
है, जहां बाज़ारवाद का बोलबाला है। यह सब कहने का आशय सिर्फ़ अनैतिक
समृद्धि की रचनात्मक आलोचना करना है।
साथियों! क्या ऐसी आलोचना नहीं होनी चाहिए?
मीता गुप्ता
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