अनुकरणीय बाबा
साहेब
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अगाध ज्ञान के भंडार, घोर अध्यवसायी, अद्भुत प्रतिभा,
सराहनीय निष्ठा , न्यायशीलता तथा
स्पष्टवादिता के धनी डॉ. भीमराव अंबेडकर एक विधिवेत्ता,
अर्थशास्त्री, समाज सुधारक,
संविधान शिल्पी और राजनीतिज्ञ थे। अंबेडकर जी का संपूर्ण जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित था। अस्पृश्यों
तथा दलितों के वे मसीहा थे। उन्होंने उनके विरूद्ध होने वाले अत्याचारों, शोषण-अन्याय तथा अपमान से
संघर्ष करने के लिए शिक्षा रूपी शक्ति दी। उनके अनुसार सामाजिक प्रताड़ना राज्य
द्वारा दिए जाने वाले दंड में भी कहीं
अधिक दुःखदायी हैं। उन्होंने न सिर्फ समाज में वंचितों की स्थिति में सुधार के लिए
कार्य किया, अपितु श्रमिकों, किसानों,
महिलाओं तथा समाज के प्रत्येक वर्ग के अधिकारों और उनकी शिक्षा के लिए कार्य किया। अंबेडकर जी द्वारा किए गये
कार्यों के कारण ही उन्हें भारत का अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर कहा गया है तथा
उन्हें बोधिसत्व की उपाधि से भी विभूषित किया
गया।
डॉ. अंबेडकर भारत माता के ऐसे प्रभावशाली मेघावी एवं यशस्वी
सपूत हैं, जिनकी अप्रतिम सेवाओं के लिए देश चिरकाल तक ऋणी
रहेगा। आवश्यक सुविधाओं से वंचित रहते हुए तथा बचपन से ही अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी उन्होंने एम. ए., पीएचडी, एम.एस.सी., डी.एस.सी. डी.लिट. जैसी शिक्षा की उच्चतम उपाधियां प्राप्त करना उनके अदम्य
साहस, लगन, निष्ठा,
धैर्य और शिक्षा के प्रति गहनतम लगाव महत्वपूर्ण उदाहरण है।
अपने जीवन में उन्होंने जो भी उपलब्धि प्राप्त की, वह शिक्षा के बल पर ही प्राप्त की थी इसलिए उन्होंने हर प्रकार के विकास के लिए शिक्षा को एक अमोध अस्त्र
बताया तथा शिक्षा को मानव जीवन का अभिन्न अंग माना है।
डॉ. अंबेडकर का मानना था
कि शिक्षा ही एकता, बंधुता और देशप्रेम के विवेक को जन्म देती है।
सभ्यता और संस्कृति का भवन शिक्षा के स्तंभ
पर ही बनता है। शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है तथा शिक्षा के अभाव
में मानव पशुतुल्य होता है। बाबा साहेब ने
कहा है कि ‘शिक्षा वह शेरनी का दूध है, जो पिएगा,
वही दहाड़ेगा|’ और उन्होंने
शिक्षा को सामाजिक समरसता व व्यक्ति में सात्विक गुणों का विकास करने वाला अस्त्र
बताया है।
बाबा साहेब तत्कालीन प्रचलित शिक्षा तथा शिक्षण पद्धति को
बदलना चाहते थे। उनका मानना था कि समरसता निर्माण करने वाली व लोकतान्त्रिक
मूल्यों की भावना का विकास करने वाली शिक्षा व पाठ्यक्रम को ही पढ़ाया जाना चाहिए।
उनका ये दृढ़ मत था कि समाज में ऐसी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए, जिसकी समय के अनुकूल आवश्यकता है। वे मानते थे कि शिक्षा
का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए, जिससे बालक में रूचि से
पढ़ने के स्वभाव का निर्माण हो। उनका मानना था कि विघालय समाज का एक लघुरूप होता है
तथा उन्होंने अपने छात्र जीवन से ही यह महसूस किया था कि विघालय में रहकर सामूहिक
अवधारणाओं को समाप्त किया जा सकता है।
डॉ. अंबेडकर भारत के
शिल्पकार के साथ-साथ एक महान शिक्षक भी थे। उनका मानना था कि शिक्षा से ही ज्ञान
का ताला खुलता है। वे शिक्षक को राष्ट्र निर्माता मानते थे। शिक्षक के सम्बन्ध में
उन्होंने कहा है कि शिक्षक ज्ञान पिपासा, अनुसंधान करने
वाला व आत्मविश्वासी होना चाहिए। उनका मानना था कि शिक्षा के बिना कोई भी समाज आगे
नहीं बढ़ सकता है। अंधविश्वासों से मुक्ति, अज्ञानता,
अन्याय और शोषण के विरुद्ध ललकारने की ताकत भी शिक्षा से ही
संभव है। भारत सैकड़ों वर्षो तक विदेशी सत्ता, शासकों के पराधीन
रहा, जिससे भारत में पतन और अवनति का दौर अनंतकाल तक
चलता रहा और बाबा साहेब यह मानते
थे कि देश की इस पराधीनता का कारण शिक्षा भी है और मुख्यतः महिला शिक्षा का
न होना। इसलिए उन्होंने स्त्री शिक्षा पर भी बहुत बल दिया और विशेषकर वंचित
महिलाओं की शिक्षा पर अधिक बल दिया। उनका स्पष्ट मत था कि यदि वंचित समाज की
महिलायें शिक्षित होगी, तो वे अपनी संतानों को
भी शिक्षित व संस्कारवान बना सकती है।
अंबेडकर जी ने वंचितों की
शिक्षा की भी वकालत की। उनका मानना था कि इस वर्ग के माथे पर लगे अज्ञानता के टीके
और समाज में फैली उनकी दुर्भावना से निकलने का एक ही मार्ग था कि वे पढ़-लिखकर अपनी
मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करें। इसलिए वे ऐसे समाज के उद्धार में शिक्षा को एक बड़ा
स्रोत मानते थे। बाबा साहेब के शिक्षा
संबंधी विचार देश, काल, परिस्थिति के
प्रभाव से परे है। उनके विचार न केवल तत्कालीन परिस्थितियों में प्रासंगिक थे, अपितु हर काल समय अथवा आज भी उतने ही समीचीन है। उनके
द्वारा दिया गया मंत्र ‘शिक्षित बनो, संघर्ष करो,
संगठित रहो’ में ही उनके संघर्षपूर्ण जीवन का व उनके
शैक्षिक विचारों का सारांश है। बाबा साहेब ने न केवल वंचित समाज की शिक्षा पर बल दिया, बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग के साथ सभी महिला व पुरूषों
के समान शिक्षा की भी स्पष्ट बात की। उनका मानना था कि यदि स्वाभिमानशून्य समाज की
अपने जीवन को पुनः चलायमान रखना है, तो उसकों शिक्षित
होना ही होगा।
अंबेडकर जी का संपूर्ण
जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित था। वंचितों के वे मसीहा थे। उन्होंने
सदियों से पद वंचित वर्ग को सम्मानपूर्वक जीने के लिए एक सुस्पष्ट मार्ग दिया।
उनके अनुसार सामाजिक प्रताड़ना राज्यों द्वारा दिए जाने वाले दंड से भी कहीं अधिक दुःखदायी है। उन्होंने प्राचीन
भारतीय ग्रंथों का विशद अध्ययन कर यह बताया कि भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था,
जाति प्रथा तथा अस्पृश्यता का प्रचलन समाज में कालांतर में
आई विकृतियों के कारण उत्पन्न हुई है, न कि यह यहां के
समाज में प्रारंभ से ही विद्यमान थी। उन्होंने वंचित वर्ग पर होने वाले अन्याय का
विरोध ही नहीं किया, अपितु उनमें आत्म-गौरव,
स्वावलंबन, आत्मविश्वास,
आत्मसुधार तथा आत्मविश्लेषण करने की शक्ति प्रदान की।
अंबेडकर एक अनुकरणीय व्यक्तित्व थे, आज उनकी
जन्म-जयंती के अवसर पर उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम !
मीता गुप्ता
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