हमारी
संस्कृति, हमारी विरासत
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली
में सरसों पीली
यमुना-तीर, घाट गंगा के,
तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ
गाँव के, हाट गाँव की
शहरों को गोदी में लेकर, चली
गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली।
भारत एक प्राचीन भूमि है, इतनी प्राचीन
जितना इतिहास स्वयं। इसमें ऐसी विशिष्टताएं हैं, जो इसे शेष
विश्व से एक पृथक पहचान प्रदान करती है और दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता का
मुकुट पहनाती है। देश सभ्यताओं से बनता है और सभ्यताएँ लोगों से तथा लोग अपनी
शारीरिक विशेषताओं एवं नियमाचरण से। विकास क्रम में हमें प्रकृति से प्राकृतिक
संसाधन एवं अपने पूर्वजों से संस्कृति प्राप्त हुई, जिसे हम
अपनी सुविधानुसार ढालते गए। इस क्रम में हम अपनी मर्यादाओं को जाने-अनजाने लांघते
ही रहे। परिणामस्वरूप, आज हम विकट परिस्थिति में जी रहे हैं। प्रकृति ने
मनुष्य को बुद्धि, ज्ञान एवं कौशल से संपन्न कर श्रेष्ठता की
उपाधि से विभूषित किया है, इसलिए नहीं,
कि हम स्वार्थी होकर सभी संसाधनों का दोहन करें, बल्कि इसलिए
कि प्रकृति-प्रदत्त तथा हमारे पूर्वजों के अथक एवं अद्वितीय प्रयासों से उद्भूत
हुई विरासत का संरक्षण एवं विकास कर सकें।
अक्सर विरासत का अभिप्राय सांस्कृतिक गतिविधियों एवं
ऐतिहासिक महत्ता की वस्तुओं से लगाया जाता है, लेकिन गहनता
से अवलोकन करने पर इसके अन्यान्य वृहद आयाम और वैविध्यपूर्ण रूप सामने आते हैं,
जितना हम इसे सामान्यतः समझते हैं, हमें जो
कुछ भी आज सुलभ है, वह सब हमारे लिए विरासत का ही एक अंग है
तथा हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए जो कुछ भी छोड़ कर जाएंगे, वह हमारी विरासत ही होगी। अपनी संपूर्णता में विरासत संस्कृति (रहन-सहन,
धार्मिक मूल्य, नैतिकता, विविध कलाएं आदि), हमारी नृजातीय विशेषता और सामाजिक
आचरण, हमारी परंपराएं, हमारा पर्यावरण,
प्राकृतिक संसाधन, अन्य प्रजातियां (पशु-पक्षी
आदि) तथा और बहुत कुछ समेटती है, जिसे जीवित रखने और अगली
पीढ़ी तक अग्रसारित करने के लिए इसका संरक्षण एवं प्रसार नितांत आवश्यक है।
मनुष्य के स्वार्थ ने मानवोचित आचरण का पतन कर के उसे एक ऐसे
संसार की ओर धकेल दिया है, जहाँ मानवोचित आचरण एवं
नैतिकतावादी मूल्यों के लिए बहुत कम स्थान शेष रह गया है। इन श्रेष्ठ गुणों के लिए
जितना भी स्थान शेष है, वह भी जागरूकता के अभाव और भौतिकता
की अंधी दौड़ में शनैः-शनैः विलुप्तप्रायः हो चुका है। आज हम एक ऐसे मुक़ाम पर
पहुँच गए हैं, जहाँ हम जीवन के चौराहे पर खड़े हैं और अपने
नफ़े-नुकसान का विश्लेषण कर सकते हैं। भौतिकतावाद ने हमारी सर्व-कल्याण की सनातन
परंपरा को एक विकराल दावानल की भांति जला कर राख
कर दिया है। स्वयं तथा अपने परिवार के अलावा किसी और वस्तु या व्यक्ति के
बारे में सोचने का समय अब किसी के पास भी नहीं है। मज़बूत जड़ें ही किसी वृक्ष की
वृद्धि और उसके अस्तित्व को सुनिश्चित करती हैं। जल एवं उर्वरक से पत्तियों,
फूलों, फलों अथवा तनों को नहीं, अपितु जड़ों को सींचा जाता है, ताकी विपरीत एवं
प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वृक्ष पर कोई आंच न आने पाए। हमारे जीवन-वृक्ष में
हम सब तने, पत्तियों, फल-फूल के रूप
में उसके अनिवार्य अंग हैं, वहीं हमारी विरासत उसकी जड़ों के
रूप में विद्यमान है। अपनी विरासत के प्रति अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्व से
मुंह मोड़ना अपने जीवन-वृक्ष की जड़ों को स्वार्थ के दीमक द्वारा खोखला करना
सर्वथा अनुचित है। इस हरे-भरे फल-पुष्पयुक्त वृक्ष को ठूंठ करके हम अपने ही भविष्य
एवं भावी आगंतुकों के साथ खिलवाड़ करेंगे। एक ऐसा खिलवाड़,
जिसकी परिणति एक अपूरणीय क्षति के रूप में होगी। यदि हम अपनी इस विरासत को अपनी
भावी पीढ़ी के हाथों में सौंपते हैं, जिसके लिए उसका संरक्षण
अत्यावश्यक है, तो हमारी संतति न सिर्फ़ अच्छा जीवन जिएगी, अपितु एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण करेगी, जहाँ हर जगह “वसुधैव कुटुम्बकं”
की भावना व्याप्त होगी। हमारे लिए ये याद रखना ज़रूरी है कि, “ज़रूरी नहीं के हमें विरासत में क्या मिला,
ज़रूरी ये है के हम विरासत में क्या छोड़ेंगे।”
हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए एक
बेहतर कल बनाना तो चाहते हैं, पर हमारी सोच और पहुँच वित्तीय
प्रतिभूतियों और जीवन के भौतिकतावादी पक्षों तक ही सीमित रह जाती है। हम कभी एक
बेहतर स्थान, पर्यावरण और समाज के निर्माण पर विचार नहीं
करते। ऐसी संकीर्ण सोच हमारी उन्नति के पथ के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगी। कल्पना
कीजिए, एक ऐसे संसार के बारे में जहाँ हमारी भावी पीढ़ी
स्वच्छ एवं शुद्ध वातावरण में साँस ले सकेगी, अधिक
स्वास्थ्यप्रद भोजन कर सकेगी, वैविध्यपूर्ण मनोरंजन कर सकेगी,
बेहतर माध्यमों से सीखे और पढ़ेगी, जीवन में
अधिकाधिक अवसर पाएगी, आपस में मैत्री एवं सद्भावना होगी,
एक समतामूलक एवं सहिष्णु समाज का गठन होगा, नृजातीय
एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण होगा तथा वह एक अधिक उत्कृष्ट जीवन जिएगी, बनिस्बत उसके, जैसा कि हम जीते हैं। हमारी विरासत
सब संभव बनाती है तथा उसे संरक्षित और अग्रसारित कर के सभी लक्ष्यों की प्राप्ति
का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसलिए, आज के इस युग में
जहाँ हम कगार पर रह रहे हैं, हमें कुछ ऐसी युक्तियाँ और उपाय
करने की आवश्यकता है, जिससे जीवन जीने की एक संपूर्ण तथा
त्रुटिहीन पद्धति की आसन्नपूर्ण हानि के खतरों को कम एवं सीमित किया जा सके। ऐसा इसलिए
कि न केवल शेष विश्व, वरन मानवता भी हमारी ओर आशावादी दृष्टि
से देख रही है। इससे पहले कि अपूरणीय विलंब हो जाए, हमें
उपलब्ध अवसर का सदुपयोग करना होगा, क्रियाशील होना होगा,
हमें यह भी याद रखना होगा कि यह एक अनवरत प्रक्रिया है, जो कभी समाप्त नहीं होती। आवश्यकता है केवल इसे पूरी दृढ़ता के साथ
आत्मसात करने की ताकी यह युगों-युगों तक चलने वाले संकर-संस्कृतिकरण एवं अन्य
बाह्य बाधाओं से भी जीर्ण या धूमिल न होने पाए। जो नया है, अच्छा
है, उसे अवश्य अपनाना चाहिए, पर जो
पुराना और बेहतर है, उसे भूलना भी नहीं चाहिए। एक जागृत आज
कल की थाती होगा।
आइए! अपनी प्राचीन और महान विरासत को संरक्षित और प्रसारित
करने के लिए हाथ से हाथ मिलाएं और बूँद-बूँद से सागर भर दें तथा इसे अविभाज्य और
अक्षुण्ण-अजस्र बनाए रखें, जैसी यह सदैव से थी। इसी में
हमारी जीत निहित है और हमारा उत्थान भी।
मीता गुप्ता
No comments:
Post a Comment