साड़ी दिवस पर
विशेष...
जब कभी मुझे मौका मिलता
मैं चुपचाप अपनी मां की साड़ी की अलमारी खोलकर
उनकी साड़ियों को सहला लेती हूं
कितने प्यारे रंग हैं....इतने प्यारे ढंग है
इतने रंग पर....रंगों के डिब्बे कहीं नहीं
कहीं लहर है, कहीं बादल, कहीं फूल, कहीं पत्ती,
कहीं चटकी हुई कलियां, कहीं कलियों की बूटियां,
कहीं तोता, कहीं मैंना, कहीं मोर और कहीं शानदार
हाथी-घोड़े-पालकी,
अरे वाह! रंगों का तो कहना ही क्या?
कहीं आसमानी, कहीं जामुनी,
अरे! वह धानी भी तो है,
गुलाबी-लाल-स्लेटी-बैंगनी-काला-सफेद और न जाने
कौन-कौन से रंग....
भगवान की जादुई कूची से बने हुए यह सुंदर-सुंदर
रंग....
सोचती हूं जल्दी से बड़ी हो जाऊं...
बड़ी होकर इन सुंदर-सुंदर साड़ियों को पहनकर
लहराती चलूं,
कल ही मैंने लेस लगाकर अपनी फ्रॉक अपने हाथों से
सिली थी
पर मुझे तो मुझे नानी की साड़ियों से प्यार है,
हां, नानी की चटकदार बैंगनी और गुलाबी कांजीवरम की साड़ी
और उसमें जड़े सुनहरे और गुलाबी मोर
मस्ती से नाचते मोर,नानी की साड़ी है या जादू
साड़ी जो कभी बैंगनी दिखती है तो कभी गुलाबी
नानी खिलखिला कर हंसती और इतराते हुए कहती
यह धूप छांव वाली साड़ी है।
नानी की साड़ी से मोगरे की खुशबू आती
रोज़-रोज़ वे मोगरे का गजरा जो पहनतीं
उनके माथे की बड़ी-सी बिंदी मुझे उगते सूरज-सी
लगती।
अरे देखो, देखो, मेरी बुआ घर आई,
शिखा
बुआ….आसमान के सारे
टिमटिमाते तारे टांककर अपनी साड़ी में
शिखा बुआ आई फूलों की पंखुड़ियां उनकी साड़ी में
इत्र की खुशबू आती है उनकी साड़ी में
वैसे अच्छी हैं, पर नाराज़ भी हो जाती हैं कभी-कभी
गंदे हाथों से छू जो लेती हूं उनकी साड़ी
फिर भी मैं तो बुआ की लाडली हूं
बुआ मुझे प्यार से कहती हैं,डॉली
डॉली मतलब गुड़िया.....गुड़िया जो सबकी प्यारी
वे मेरे बालों में गुलाबी रंग का हेयर बैंड
लगाती,
लेकिन मुझे तो उनकी वही गुलाबी वाली साड़ी
चाहिए...
अब आशा ताई की क्या बात क्या करूं?
वे तो सिंथेटिक साड़ी ही पहनती हैं,
लेकिन सिंथेटिक साड़ी में तो पूरे बगीचे के
रंग-बिरंगे फूलों की बहार है, चटकीले रंग हैं,
कैसे-कैसे? न जाने कितने रंगों के फूल हैं,
और फूलों के साथ झूलती हुई डालियां हैं,
जैसे-जैसे आशा ताई घर में झाड़ू और पोंछा लगाती
हैं,
वैसे-वैसे ही फूलों की डालियां भी मस्ती में
झूलती-झूमती-लहराती हैं,
उनकी साड़ी से हल्दी-कुमकुम-मसाले की खुशबू आती
है,
वे मुझे प्यार से ‘लल्ली’ बुलाती हैं,
वैसे मुझे यह नाम अटपटा लगता है क्योंकि....
क्योंकि अब मैं बड़ी हो रही हूं।
और अब मैं बात करती हूं अपनी मां की, मां....जो दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा प्यारी हैं...
उनकी साड़ी रेशम की साड़ी है, जो अजब-गजब सी लगती है,
उसमें जंगल जैसा बना है,
कहीं मछलियां पानी में तैर रही हैं, तो कहीं पंछी आसमान में उड़ान भर रहे,
मां आंचल को सिर पर डालकर आंखें मूंद कर बैठी,
राम लला के भजनों को गाने में लीन,
ये भजन हैं या मिश्री,
इनको सुनकर ही मैं भी केवट मांझी के साथ-साथ नाव
पर सवार,
राम-कथा के कई सपने बुन लेती हूं,
मां में एक अनोखी सी खुशबू आती है, अनोखी नायाब खुशबू,
मैं इसे बोतल में कैद करना चाहती हूं,
क्योंकि अगर मां कहीं चली गईं तो....
सोच-सोच कर डरती हूं….मां का सिल्क का पल्लू थाम
लेती हूं,
कस कर जकड़ लेती हूं….कहीं छूट न जाए।
हर साड़ी कुछ बोलती है, जी हां, हर साड़ी की अपनी एक कहानी
है,
ठीक सुना आपने,
ये साड़ियां हमसे कुछ-कुछ कहती हैं,अपने ताने-बाने में बहुत कुछ कहती हैं,
हर बार एक नई कहानी, मौन रहकर...
चुपचाप..!!
डॉ मीता गुप्ता
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