Friday, 28 February 2025

घर

 

घर

सभी धर्म-ग्रंथों से पवित्र

ईश्वर और अल्लाह से बड़ा

स्वर्ग से भी बढ़कर

लुप्त हो चुकी महान सभ्यताओं से भी खूबसूरत

मैं कहूंगी—घर!

 

माँ की गोद-सा गरम और नरम

पिता के हाथों-सा भरापूरा

कभी न भूले जा सकने वाले

प्रणय-संबंध-सा अविस्मरणीय

मैं कहूंगी—घर!

 

हवाएं जहां मंद-मंद मुस्काती हैं

बदरी जहां मुक्तछंद-सी बरसती है,

झूम-झूम राग गाती हैं

दीवारें एक-दूजे से खिलंदड़ी करना

जहाँ कभी नहीं भूलती

मैं कहूंगी—घर!

 

सुबह जहां बच्चे-सी मासूम और

शाम इंद्रधनुषी मालूम जान पड़ती है

चांद पंख फैलाए जहां, जहां रोशन करता है

रंगीन ख़्वाबों-सा घर

दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शब्द

मैं कहूंगी—घर!

नए घर में प्रवेश की बधाई!

नया संग मंगलमय बना रहे!

यही आशीर्वाद हमारा.. !!

मंज़िल

 

कुछ अपनों को लेकर, कुछ सपनों को लेकर,

मैं अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ी,

रास्ता कुछ था धुंधला सा,

दूर तक नहीं था कोई अपना सा।

सफ़र  काँटों से भरा था,

कुछ कांटे जो मेरे अपनों ने बिछाए थे,

कुछ उड़कर जाने कहां से आए थे?

कुछ को मैंने साफ किया,

कुछ को मैंने माफ़ किया।

 

दूर तलक था अंधेरा,

रोशनी का नहीं था बसेरा।

अब तक नज़र आ रहा था,

कहीं खोया हुआ सा सपना मेरा,

मंज़िल  अभी भी साफ़ नहीं थी,

रास्ता था अनजान,

अनभिज्ञ मैं,

जो मेरे अपने थे, कुछ दूर तक चले।

कुछ अपनों ने छोड़ा साथ,

पर कुछ ने अब तक पकड़ा था हाथ।

 

अभी भी मंज़िल  का कोई पता ना था,

पूछा था माँ से एक रोज़ बचपन में,

"माँ, मेरी मंज़िल  है कहां?"

माँ ने कहा था,

"ज़मीन-आसमान मिलते हो जहां ।"

मैं ढूँढने लगी वह जहां,

ज़मीन-आसमान मिलते हो जहां ..

अब रास्ता कुछ साफ हो चला था,

कुछ नए लोगों का साथ मिला था,

जो खुद मेरी तरह अटल थे,

थे अविचल,

वो भी मंज़िल की तलाश में गए थे निकाल ।

 

बस अब मंज़िल  दूर नहीं लगती थी,

धुंध की चादर हटती सी लगती थी,

क्योंकि जो थे अब तक अनजाने,

वे हो चले थे पहचाने,

अब वे मेरे अपने हो गए थे

हम एक दूसरे के सपनों में खो गए थे।

 

अब आसमान साफ था,

मंज़िल  का अहसास था,

ज़िंदगी  के सफ़र  में एक नया आभास था,

"कौन अपना, कौन पराया?"

अब मुझे विश्वास था।

 

जब मैं मंज़िल  पर पहुँची ,

वहाँ एक भीड़ थी, जिसमें मेरे जैसे,

लाखों हजारों लोग थे,

सब बाधाओं को तोड़ कर,

तिनके-तिनके को जोड़कर,

विजय ध्वज फहरा रहे थे,

विजय गान वो गा रहे थे।

और मेरे सामने था वह जहां,

ज़मीन-आसमान मिलते थे जहां ।


Friday, 21 February 2025

‘फणीश्वरनाथ रेणु’ कृत ‘मैला आँचल’

‘फणीश्वरनाथ रेणु’ कृत ‘मैला आँचल’



‘फणीश्वरनाथ रेणु’ कृत ‘मैला आँचल’ को गोदान के बाद हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास के द्वारा ‘रेणु’ जी ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। स्वयं रेणु जी के शब्दों में :-इसमें फूल भी हैं शूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चंदन भी सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।“

हिंदी के उपन्यासों की एक खास बात उनका रोचक परिचय या भूमिका होती है। इस उपन्यास का कथानक पूर्णिया जिले के एक गाँव मेरीगंज का है ।

फणीश्वर नाथ 'रेणु' द्वारा रचित ‘मैला आँचल’ कहानी का मुख्य पात्र डॉक्टर प्रशांत बनर्जी है, जो कि पटना के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से पढ़ने के बाद अनेक आकर्षक प्रस्ताव ठुकराकर मेरीगंज में मलेरिया और काला-अजर पर शोध करने के लिए आता है। डॉक्टर गाँववालों के व्यव्हार से आश्चर्यचकित है। वह रूढ़ियों को नहीं मानता और जो लोग गाँववालों  द्वारा तिरस्कृत हैं, वह उनको सहारा देता है। उसकी सच का साथ देने की और लोगों को सही राह बताने की यही आदत बाद में उसके लिए मुश्किल खड़ी कर देती है। कहानी की नायिका है कमली, जो किसी अज्ञात बीमारी से पीड़ित है, लेकिन डॉक्टर उसको धीरे-धीरे ठीक कर देता है या यूँ कहा जाए कि डॉक्टर खुद ही उसकी बीमारी का इलाज है। कमली का हृदय विशाल और कोमल है। वह अपने अभिभावकों को किसी प्रकार का कष्ट देना नहीं चाहती। कमली के पिता विश्वनाथ मलिक गाँव के तहसीलदार हैं और फिर बाद में तहसीलदारी छोड़कर कांग्रेस के नेता हो जाते हैं। वह इस कहानी में सही मायने में ज़मींदारी व्यवस्था के प्रतीक हैं| उनका दोहरा चरित्र उपन्यास में दिखाया गया है। घर आने पर वे एक समझदार और हंसोड़ व्यक्ति हो जाते हैं और बाहर निकलने पर ज़मीन की लिप्सा से ग्रस्त हो जाते हैं, जिसके लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाने से भी नहीं चूकते। कहानी के अन्य पात्र किसी न किसी विचारधारा के प्रतीक हैं और उनको कहानी में लाया ही गया है उस ‘वाद’ को दिखने के लिए। कोई जातिवाद, कोई समाजवाद, तो कोई स्वराज्य आंदोलन का झंडाबरदार है।

जैसा कि रेणु जी ने भूमिका में ही कहा है कि यह एक आंचलिक उपन्यास है। आंचलिकता से तात्पर्य है कि किसी उपन्यास में किसी क्षेत्र के शब्दों और परंपराओं का बहुतायत में पाया जाना। इस उपन्यास में मिथिला क्षेत्र में प्रयोग किये जाने वाले अनेक शब्द मिल जाएंगे। सबसे बढ़कर गाँवों की अपनी एक परंपरा होती है - अंग्रेज़ी नामों का क्षेत्रीकरण करने की। तो स्टेशन टीसन हो जाता है , एम.एल.ए. मेले हो जाता है और सोशलिस्ट सुशलिंग हो जाता है। गांधी जी गनही, जवाहरलाल जमाहिरलाल, स्वराज सुराज  और राजेंद्र प्रसाद रजिन्नर परसाद हो जाते हैं। उपन्यास में प्रयुक्त आंचलिक शब्दावली सिर्फ़ मिथिला में प्रयुक्त होती हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सैकड़ों किलोमीटर दूर एक अवधी भाषी को भी सैकड़ों शब्द अपने से लगेंगे क्योंकि वहाँ भी इन्हीं शब्दों को बहुतायत में प्रयोग होता है। लोगों के नामों में भी यह प्रयोग देखा जा सकता है। राम खेलावन, काली चरन, शिवशक्कर सिंह, हरगौरी सिंह, रमपियरिया, रामजुदास इत्यादि नामों ने इस उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि को और सुदृढ़ कर दिया है। यदि आंचलिकता की परिभाषा को बड़ा किया जाए, तो गाँव की घटनाएं भी इस दायरे में आ जाएंगी। किसी शुभ अवसर पर लोगों को भोज देते समय बड़ी जातियों का छोटी जातियों के साथ खाने से इंकार करना, फसल कटाई-बुवाई के समय लोकगीत गाना, अखाड़ा होना, वाद-विवादों के निपटारे के लिए पंचायत बुलाना आदि को भी आंचलिकता का एक रूप कहा जा सकता है।

उपन्यास में एक गाँव में प्रचलित जातिवाद के एक वीभत्स चेहरे को दिखाया गया है। कई सारी घटनाएं और परंपराएँ दिखाई गई हैं, जिससे लगता है कि ये जातिवाद का भस्मासुर कितनी गहराई में अपनी जड़ें जमा चुका है। जब डॉक्टर साहब नए-नए गाँव में आते हैं, तो लोग उनकी जाति जानने को आतुर रहते हैं। डॉक्टर को खुद अपनी जाति नहीं मालूम होती है क्योंकि वह अज्ञात कुल-शील था और उसने कभी अपनी जाति को महत्व नहीं दिया था। गाँव में सभी जातियों के रहने के स्थान अलग-अलग थे और उनका अपना एक नेता होता था। जाति को लेकर राजनीति भी बहुत होती थी। जब कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियां गाँव में आईं,  तो लोगों पर उनका प्रभाव अलग-अलग था।

रेणु जी ने इस उपन्यास का काल-खंड एकदम उपयुक्त चुना है। कहानी देश आज़ाद होने के कुछ समय पहले शुरू होती है। इस से अंग्रेज़ों का राज करने का तरीका देखने का मौका मिलता है और साथ ही साथ कांग्रेसी गतिविधियों को देखा जा सकता है। बाद में सोशलिस्ट पार्टी ने भी गाँव में अपने झंडे गाड़ दिए थे। इन दोनों पार्टियों की विचारधारा और कार्य करने के तरीकों में अंतर को विभिन्न घटनाओं के द्वारा दर्शाया गया है। बाद में जब देश आज़ाद हुआ, तो लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया भी दिखाई गई। लोगों ने यह भी पूछा कि आज़ादी के कारण ज़मीनी बदलाव क्या हुए। बाद में जब भारत के लोग एम.एल.ए., मिनिस्टर, आदि पदों पर बैठने लगे, तो उनके भ्रष्ट होने को भी दिखाया गया है। गांधी जी की मृत्यु पर पूरे गाँव में शोकयात्रा भी निकाली गई। गाँव के लोगों को भले ही गांधी जी के जीवन और विचारों के बारे में कुछ न मालूम हो, लेकिन गांधी जी महापुरुष हैं, इतना मालूम है।

हिंदी साहित्य को पढ़ने के बाद यह भावना मन में ज़रूर आती है कि लेखक को सामाजिक और राष्ट्रीय ज़िम्मेदारियों का एहसास होता है। इस उपन्यास में भी रेणु जी ने कहानी के पात्रों के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की है कि मनुष्य को अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं में अपनी ज़िम्मेदारी का परिचय देना चाहिए। डॉक्टर प्रशांत ने अपनी कर्मभूमि के रूप में एक पिछड़े गाँव को चुना। उन्होंने वहीँ पर मलेरिया अनुसंधान करने की ठानी। ज़िम्मेदारियों का यह बोध ममता द्वारा डॉक्टर को लिखे गए एक पत्र में दृष्टिगोचर होता है-

‘डॉक्टर! रोज़ डिस्पेंसरी खोलकर शिवजी की मूर्ति पर बेलपत्र चढाने के बाद, संक्रामक और भयानक रोगों के फैलने की आशा में कुर्सी पर बैठे रहना, अथवा अपने बंगले पर सैकड़ों रोगियों की भीड़ जमा करके रोग की परीक्षा करने के पहले नोटों और रुपयों की परीक्षा करना, मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों पर पांडित्य की वर्षा करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझना और अस्पताल में कराहते हुए गरीब रोगियों के रूदन को जिंदगी का एक संगीत समझकर उपभोग करना ही डॉक्टर का कर्त्तव्य नहीं!’

इस उपन्यास की शैली सहज है और पूरे उपन्यास में प्रवाह बना रहता है। रेणु जी ने संवाद की शैली का प्रयोग कम करते हुए प्रश्नोत्तर विधा का प्रयोग कहीं अधिक किया है। गांव में किसी का किसी बारे में सोचना या निरर्थक वार्तालापों को उन्होंने ऐसे ही व्यक्त कर दिया है। एक बानगी देखिए- ‘चलो! चलो! पुरैनियाँ चलो! मेनिस्टर साहब आ रहे हैं! औरत-मर्द, बाल-बच्चा, झंडा-पत्तखा और इनकिलास-जिन्दबाघ करते हुए पुरैनियाँ चलो ! … रेलगाड़ी का टिकस? … कैसा बेकूफ है! मिनिस्टर साहब आ रहे हैं और गाड़ी में टिकस लगेगा?  बालदेव जी बोले हैं, मिनिस्टर साहब से कहना होगा, कोटा में कपडा बहुत कम मिलता है।‘ पूरे उपन्यास में लोकगीतों का जमकर प्रयोग किया गया है जिनमे संयोग, वियोग, प्रकृति प्रेम इत्यादि भाव व्यक्त किए गए हैं। वाद्य यंत्रों की आवाज को रेणु जी ने जगह-जगह प्रयोग किया है और ये आवाजें कई बार कथानक बदलने के लिए इस्तेमाल की गई हैं।

'मैला आँचल' फणीश्वरनाथ रेणु जी की कालजयी कृति है और हिंदी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है| अभी राजकमल प्रकाशन ने इसके 48 वें संस्करण का प्रकाशन किया है| अभी तक नहीं पढ़ा है, तो अवश्य पढ़ें|

प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स

मूल्य- 399 /- मात्र

समीक्षक-

डॉ मीता गुप्ता

विचारक, समीक्षक, साहित्यकार  


Thursday, 20 February 2025

ऐसी बानी बोलिए…

ऐसी बानी बोलिए…



 

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करै आपहूं शीतल होय।।

 संत कबीर के अनुसार मीठे बोल यानी वाणी की मधुरता सुनने वाले एवम् बोलने वाले दोनों के मन को शांत करती है। यहां मात्र बोलों या वाणी की मधुरता की ही बात नहीं कही गई है, यहां शब्दों के संस्कारवान और शिष्ट होनी की बात कही गई है| यदि  आप से यह पूछा जाए कि कोई आपसे कटु वचन बोलता है, तो आपको कैसा लगता है? स्वाभाविक है कि आपको अप्रिय लगेगा। ठीक उसी प्रकार आपके कटु वचन दूसरों को भी अप्रिय लगेंगे|

स्वामी विवेकानंद के अनुसार बोलते वक्त सजग और सतर्क रहने की आवश्यकता है, तभी वाणी में मधुरता बनी रह सकती है। यदि भाषा संतुलित हो, वाणी में मधुरता हो, तो सुनने वाले को मधुर प्रतीत होता है, उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। और ऐसा करने से बोलने वाले को भी शांति मिलती है। इससे संवाद करने के आशय के सार्थक बने रहने की संभावना बढ़ जाती है।

परंतु संतों द्वारा कहे गए सदवचन कितने ही प्रभावी क्यों न हों, अर्थ यदि  किसी के मन को छू न सके तो व्यर्थ है। पढ़ना, सुनना, बोलना सब व्यर्थ है। यदि  ज्ञानियों की कही बातों को हम जीवन में नहीं उतार सकें, तो ये भी निरर्थक बातें हैं। वैसे ज्ञानियों की वाणी रहस्यमय होती है, इतनी आसानी से समझ में नहीं आती। कबीर की वाणी के भाव को, एक एक शब्द के सही अर्थ को समझने के लिए गहन चिंतन की आवश्यकता  है।

भारत, जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और पारिवारिक मूल्यों के लिए विश्वभर में जाना जाता है, आज सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर विकृत भाषा और नैतिक पतन का सामना कर रहा है। हाल ही में एक यूट्यूब शो में जिस प्रकार की अभद्र भाषा और संस्कारहीन बातें की गईं, वह केवल एक शर्मनाक हरकत नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक और नैतिक जड़ों पर हमला है। ऐसे में सार्वजनिक मंचों पर ऐसी टिप्पणी करना न केवल अमर्यादित है, बल्कि सामाजिक विघटन को बढ़ावा देने वाला भी है। वर्तमान में सोशल मीडिया के नाम पर जिस प्रकार के कंटेंट परोसे जा रहे हैं, वे समाज को नैतिक दिवालियापन की ओर धकेल रहे हैं। अश्लीलता, फूहड़ता और लाइक्स के लालच में तथाकथित इन्फ्लुएंसर मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ रहे हैं। इसका सबसे बुरा प्रभाव युवाओं पर पड़ रहा है, जो इन विकृत विचारों को सामान्य मानकर अपने आचरण में ढालने लगते हैं।

जब सरकारें शराब, कोकीन, हेरोइन और अन्य मादक पदार्थों को युवाओं के लिए घातक मानते हुए उन पर सख्त कार्रवाई करती हैं, तब स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर लोगों को गालियां देना और भाषा की सारी मर्यादाएं तोड़ देना, क्या मानसिक नशे से कम है? युवा पीढ़ी को गलत दिशा में धकेलने के लिए केवल नशीले पदार्थ ही उत्तरदायी नहीं होते बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों का ह्रास भी उतना ही खतरनाक होता है। जब स्टैंडअप कॉमेडियन और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बेहूदगी और भद्दे मजाक को 'हास्य' का नाम देकर इसे सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं तो यह किसी भी समाज के लिए आत्मघाती होता है।

अश्लीलता और अभद्र भाषा की समस्या केवल यूट्यूब और स्टैंडअप कॉमेडी तक सीमित नहीं रही। टीवी शो और फिल्मों, विशेषतौर पर ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर हिंदी में डब्बड फ़िल्मों में जहां पहले शालीनता होती थी, अब वहां भी द्विअर्थी संवाद और फूहड़ता बढ़ती जा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि ये पात्र बड़ी ही सहजता से अपशब्द बोलते सुनाई पड़ते हैं, जो खासी परेशानी का सबब है|

सोशल मीडिया की भाषा सर्वव्यापी हो गई है| सोशल मीडिया के लिए लिखते समय संक्षिप्त शब्दों, संक्षिप्ताक्षरों और यहां तक ​​कि इमोजी के साथ मसालेदार प्रस्तुतीकरण होता है  और यह अनौपचारिक भाषा शैली अधिक तथ्यात्मक और  पेशेवर भाषा बनती जा रही है। ऐसी अनौपचारिक भाषा के व्यापक प्रयोग को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें स्लैंग और फैशनेबल संक्षिप्ताक्षर शामिल हैं, जो भाषा की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। सोशल मीडिया के लिए विकसित होने वाली भाषा में संक्षिप्ताक्षर, संक्षिप्तीकरण, आकस्मिक संदर्भ होते हैं, ​​ जिनके परिणामस्वरूप संभावित गलत व्याख्या या गलतफहमियां हो सकती हैं। अनुपयुक्त और त्रुटिपूर्ण व्याकरण और वर्तनी का प्रयोग सोशल मीडिया के लिए भरपूर हो रहा है, जिसका अर्थ है कि लोग अक्सर एलिडिंग (शब्दों में स्वरों को हटाना) पर भरोसा करते हैं और व्याकरण के नियमों की अनदेखी करते हैं। सीमित या कम शब्दावली का प्रयोग बढ़ रहा है| बोलते समय वाक्यांशों और अनौपचारिक संकुचन (उदाहरण के लिए, चाहने के बजाय इच्छा) का बार-बार उपयोग स्वाभाविक लग सकता है, लेकिन यह आपकी समग्र शब्दावली को सीमित कर सकता है। देवनागरी में रोमन शब्दावली के घालमेल पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों पर पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी जगह मज़बूत  करता जा रहा है|

आज की हिंदी के जो दो रूप मुझ जैसे लोगों को परेशान करते हैं, वह है हिंग्लिश (हिंदी और अंग्रेज़ी  का मिश्रण) और कोलोक्विअल हिंदी (बेहद अनौपचारिक किस्म की हिंदी और सरल अंग्रेज़ी  की खिचड़ी) जिसे प्रायः रोमन लिपि में लिखा जाता है, जिन्हें पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं है|

आजकल भाषाविदों की आम चिंता यह है कि सोशल मीडिया पर होने वाले अटपटे-चटपटे भाषायी प्रयोगों और प्रचलनों से पारंपरिक व्याकरण परंपरा का अवमूल्यन हो रहा है और वहां अव्यवस्थित और असंगठित, अनुशासन मुक्त और अनौपचारिक भाषा का परिवेश निर्मित हो रहा है| थोड़ी गहराई में जाएं, तो यह पता चलता है कि सोशल मीडिया भाषा का अतिशय सरलीकरण करने पर आमादा है, जिससे भाषा की शाब्दिक साहित्यिक समृद्धि और प्रांजल प्रकृति खतरे में पड़ गई है| इंटरनेट की भाषा टपोरी भाषा (स्लैंग) और शब्द संक्षेपीकरण नाराज़गी का कारण है| इस बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ऐसा माना जा रहा है और यह सच भी है कि युवा पीढ़ी में संचार का वैसा कौशल नहीं रह गया है, जैसा पहले हुआ करता था| परिणामतः भाषा का पारंपरिक सौंदर्य उसकी परिशुद्धता और सुस्पष्ट प्रकृति संकट में है|

इंटरनेट के प्रभाव से हिंदी में आए बदलावों को शायद हम सब ने देखा है| अंग्रेज़ी  के कई शब्द संक्षेप जैसे LOL (लाफ आउट लाउड यानी ठहाका) BRB (बी राइट बैक यानी अभी लौटता हूं) आदि-आदि| ईमानदारी से कहूं, तो अब हिंदी में भी ऐसा संक्षिप्तीकरण चल निकला है, पर ऐसे शब्द-संक्षेप अक्सर रोमन लिपि में ही लिखे जाते हैं, जो अंततः हिंदी की लिपि को प्रभावित कर रहे हैं| देवनागरी में रोमन शब्दावली का घालमेल होने पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यम पर पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी मज़बूत जगह बनाता जा रहा है| लिखित संवादों में स्माइली, इमोजी, जीआईएफ चित्रों का प्रयोग होने लगा है| लिखित संवादों में दृश्यात्मकता और चित्रात्मकता हिंदी के लिए नई चीज़ है| ट्विटर ने हमारी भाषा को # (हैशटैग) जैसी चीज़ दी है| हालांकि इस तरह के चिह्नों के लिए हमारी लिपि में कोई व्यवस्था नहीं है| पिछले दो-तीन दशकों से अधिक की अवधि में हुए नए मीडिया के विकास और इंटरनेट के अपरिमित प्रयोग, चुनौतियों और अवसरों की कसौटियों पर प्रयोक्ता कस चुके हैं| नतीजतन आज वह हमारे समाज की परिपक्व और जीवंत वास्तविकता बन गई है आज विभिन्न कोणों से उसके अध्ययन, शोध, विश्लेषण, मंथन और दस्तावेजीकारण का समय आ गया है| सतर्क इसलिए भी होना आवश्यक है क्योंकि हिंदी तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं में ऐसे बदलाव बहुतायत में देखने को मिल रहे हैं|  

आज भारत की युवा पीढ़ी सिर्फ आधुनिक तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों में भी अग्रणी होनी चाहिए। यदि देश की युवा शक्ति संस्कारों से समृद्ध होगी, तो भारत का भविष्य उज्ज्वल और सशक्त बनेगा। डिजिटल युग में विकास और आधुनिकता आवश्यक है, लेकिन इनके साथ नैतिकता और संस्कारों का संतुलन बना रहना चाहिए। यदि युवा अपने मूल्यों और भारतीय सभ्यता से कट जाएंगे, तो उनकी ऊर्जा दिशाहीन हो जाएगी।

यूं तो, भारतीय दंड संहिता और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में ऐसे मामलों के लिए कड़े प्रावधान हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 292 अश्लील सामग्री के निर्माण, बिक्री और प्रचार-प्रसार को अपराध मानती है। आईटी एक्ट की धारा 67 इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से अश्लीलता फैलाने पर सजा का प्रावधान करती है। इसी प्रकार पौक्सो एक्ट नाबालिगों के समक्ष किसी भी प्रकार की अश्लील या यौनिक अभिव्यक्ति को अपराध मानता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इन कानूनों का सही ढंग से क्रियान्वयन हो रहा है?

इस तरह की घटनाएं केवल कुछ लोगों की गलती नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था की चूक को दर्शाती हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लगातार फैल रही अश्लीलता पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, शिक्षण संस्थानों में डिजिटल नैतिकता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और अन्य डिजिटल मंचों पर इस तरह के कंटेंट को तुरंत हटाने और संबंधित क्रिएटर्स पर सख्त कार्रवाई करने के नियम बनाए जाएं। ऐसे मामलों में त्वरित न्याय और कठोर दंड की व्यवस्था हो, ताकि भविष्य में कोई भी इस तरह की अशोभनीय कृत्य करने से पहले सौ बार सोचे। इसके अलावा यह सिर्फ सरकार और प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज को भी यह तय करना होगा कि वह किन्हें 'इन्फ्लुएंसर' बनने का मौका देता है। कुल मिलाकर आज सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर भाषा का गिरता स्तर, माता-पिता के सम्मान पर प्रहार और नैतिकता का पतन हमारे समाज के लिए खतरनाक संकेत हैं। यदि यह प्रवृत्ति ऐसे ही बढ़ती रही, तो हमारी आने वाली पीढ़ी नशे की तरह मानसिक रूप से भी भ्रष्ट हो जाएगी। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस बढ़ती अश्लीलता और अभद्रता के खिलाफ़  सख्त कदम उठाए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकें कि हम एक सभ्य, संस्कारी और सशक्त समाज का हिस्सा हैं। यहां सतर्क होना आवश्यक है, नहीं तो कुँवर नारायण जी के शब्द सत्य सिद्ध हो जाएंगे-

आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था

ज़ोर ज़बरदस्ती से

बात की चूङी मर गई

और वह भाषा में बेकार घूमने लगी!

डॉ मीता गुप्ता

विचारक, शिक्षाविद

 

 


Thursday, 6 February 2025

खिल गया दिग दिगंत

 खिल गया दिग दिगंत


आ गया ऋतुराज बसंत।
प्रकृति ने ली अंगड़ाई,
खिल गया दिग दिगंत।।
भाव नए जन्मे मन में,
उल्लास भरा जीवन में।
प्रकृति में नव सृजन का,
दौर चला है तुरंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
कूकू करती काली कोयल,
नव तरुपल्लव नए फल।
हरियाली दिखती चहुंओर,
पतझड़ का हो गया अंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
बहकी हवाएं छाई,
मस्ती की बहार आई।
झूम रही कली-कली
खुशबू हुई अनंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
सोए सपने सजाने,
कामनाओं को जगाने।
आज कोंपले कर रही,
पतझड़ से भिड़ंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
x

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...