Friday, 28 February 2025

मंज़िल

 

कुछ अपनों को लेकर, कुछ सपनों को लेकर,

मैं अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ी,

रास्ता कुछ था धुंधला सा,

दूर तक नहीं था कोई अपना सा।

सफ़र  काँटों से भरा था,

कुछ कांटे जो मेरे अपनों ने बिछाए थे,

कुछ उड़कर जाने कहां से आए थे?

कुछ को मैंने साफ किया,

कुछ को मैंने माफ़ किया।

 

दूर तलक था अंधेरा,

रोशनी का नहीं था बसेरा।

अब तक नज़र आ रहा था,

कहीं खोया हुआ सा सपना मेरा,

मंज़िल  अभी भी साफ़ नहीं थी,

रास्ता था अनजान,

अनभिज्ञ मैं,

जो मेरे अपने थे, कुछ दूर तक चले।

कुछ अपनों ने छोड़ा साथ,

पर कुछ ने अब तक पकड़ा था हाथ।

 

अभी भी मंज़िल  का कोई पता ना था,

पूछा था माँ से एक रोज़ बचपन में,

"माँ, मेरी मंज़िल  है कहां?"

माँ ने कहा था,

"ज़मीन-आसमान मिलते हो जहां ।"

मैं ढूँढने लगी वह जहां,

ज़मीन-आसमान मिलते हो जहां ..

अब रास्ता कुछ साफ हो चला था,

कुछ नए लोगों का साथ मिला था,

जो खुद मेरी तरह अटल थे,

थे अविचल,

वो भी मंज़िल की तलाश में गए थे निकाल ।

 

बस अब मंज़िल  दूर नहीं लगती थी,

धुंध की चादर हटती सी लगती थी,

क्योंकि जो थे अब तक अनजाने,

वे हो चले थे पहचाने,

अब वे मेरे अपने हो गए थे

हम एक दूसरे के सपनों में खो गए थे।

 

अब आसमान साफ था,

मंज़िल  का अहसास था,

ज़िंदगी  के सफ़र  में एक नया आभास था,

"कौन अपना, कौन पराया?"

अब मुझे विश्वास था।

 

जब मैं मंज़िल  पर पहुँची ,

वहाँ एक भीड़ थी, जिसमें मेरे जैसे,

लाखों हजारों लोग थे,

सब बाधाओं को तोड़ कर,

तिनके-तिनके को जोड़कर,

विजय ध्वज फहरा रहे थे,

विजय गान वो गा रहे थे।

और मेरे सामने था वह जहां,

ज़मीन-आसमान मिलते थे जहां ।


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