ऐसी बानी बोलिए…
ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा
खोय।
औरन को शीतल करै आपहूं शीतल
होय।।
संत कबीर के अनुसार मीठे बोल यानी वाणी की मधुरता सुनने वाले एवम्
बोलने वाले दोनों के मन को शांत करती है। यहां मात्र बोलों या वाणी की मधुरता की
ही बात नहीं कही गई है, यहां
शब्दों के संस्कारवान और शिष्ट होनी की बात कही गई है| यदि
आप से यह पूछा जाए कि कोई आपसे कटु वचन बोलता है, तो आपको कैसा लगता है? स्वाभाविक है कि आपको अप्रिय लगेगा।
ठीक उसी प्रकार आपके कटु वचन दूसरों को भी अप्रिय लगेंगे|
स्वामी विवेकानंद के अनुसार बोलते वक्त
सजग और सतर्क रहने की आवश्यकता है, तभी वाणी में मधुरता बनी रह सकती है।
यदि भाषा संतुलित हो, वाणी
में मधुरता हो, तो सुनने वाले को मधुर प्रतीत होता है, उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। और ऐसा
करने से बोलने वाले को भी शांति मिलती है। इससे संवाद करने के आशय के सार्थक बने
रहने की संभावना बढ़ जाती है।
परंतु संतों द्वारा कहे गए सदवचन कितने
ही प्रभावी क्यों न हों, अर्थ
यदि किसी के मन को छू न सके तो व्यर्थ है।
पढ़ना, सुनना, बोलना सब व्यर्थ है। यदि
ज्ञानियों की कही बातों को हम जीवन में नहीं उतार सकें, तो ये भी निरर्थक बातें हैं। वैसे
ज्ञानियों की वाणी रहस्यमय होती है, इतनी आसानी से समझ में नहीं आती। कबीर की वाणी के भाव को, एक एक शब्द के सही अर्थ को समझने के
लिए गहन चिंतन की आवश्यकता है।
भारत, जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और पारिवारिक मूल्यों के लिए विश्वभर में
जाना जाता है, आज सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर
विकृत भाषा और नैतिक पतन का सामना कर रहा है। हाल ही में एक यूट्यूब शो में जिस
प्रकार की अभद्र भाषा और संस्कारहीन बातें की गईं, वह केवल एक शर्मनाक हरकत नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक और नैतिक जड़ों पर हमला है। ऐसे में सार्वजनिक
मंचों पर ऐसी टिप्पणी करना न केवल अमर्यादित है, बल्कि सामाजिक विघटन को बढ़ावा देने वाला भी है। वर्तमान में सोशल
मीडिया के नाम पर जिस प्रकार के कंटेंट परोसे जा रहे हैं, वे समाज को नैतिक दिवालियापन की ओर
धकेल रहे हैं। अश्लीलता, फूहड़ता
और लाइक्स के लालच में तथाकथित इन्फ्लुएंसर मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ रहे हैं।
इसका सबसे बुरा प्रभाव युवाओं पर पड़ रहा है, जो इन विकृत विचारों को सामान्य मानकर अपने आचरण में ढालने लगते हैं।
जब सरकारें शराब, कोकीन, हेरोइन और अन्य मादक पदार्थों को युवाओं के लिए घातक मानते हुए उन पर
सख्त कार्रवाई करती हैं, तब
स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर लोगों को गालियां देना और भाषा की सारी मर्यादाएं तोड़
देना, क्या मानसिक नशे से कम है? युवा पीढ़ी को गलत दिशा में धकेलने के
लिए केवल नशीले पदार्थ ही उत्तरदायी नहीं होते बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों का
ह्रास भी उतना ही खतरनाक होता है। जब स्टैंडअप कॉमेडियन और सोशल मीडिया
इन्फ्लुएंसर बेहूदगी और भद्दे मजाक को 'हास्य' का
नाम देकर इसे सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं तो यह किसी भी समाज के लिए आत्मघाती
होता है।
अश्लीलता और अभद्र भाषा की समस्या केवल
यूट्यूब और स्टैंडअप कॉमेडी तक सीमित नहीं रही। टीवी शो और फिल्मों, विशेषतौर पर ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर हिंदी
में डब्बड फ़िल्मों में जहां पहले शालीनता होती थी, अब वहां भी द्विअर्थी संवाद और फूहड़ता बढ़ती जा रही है। आश्चर्य की
बात यह है कि ये पात्र बड़ी ही सहजता से अपशब्द बोलते सुनाई पड़ते हैं, जो खासी परेशानी का सबब है|
सोशल मीडिया की भाषा सर्वव्यापी हो गई
है| सोशल मीडिया के लिए लिखते समय
संक्षिप्त शब्दों,
संक्षिप्ताक्षरों
और यहां तक कि इमोजी के साथ मसालेदार प्रस्तुतीकरण होता है और यह अनौपचारिक भाषा शैली अधिक तथ्यात्मक
और पेशेवर भाषा बनती जा रही है। ऐसी
अनौपचारिक भाषा के व्यापक प्रयोग को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें स्लैंग और फैशनेबल
संक्षिप्ताक्षर शामिल हैं, जो भाषा की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। सोशल मीडिया के
लिए विकसित होने वाली भाषा में संक्षिप्ताक्षर, संक्षिप्तीकरण, आकस्मिक संदर्भ होते हैं, जिनके परिणामस्वरूप संभावित गलत व्याख्या या गलतफहमियां हो सकती हैं।
अनुपयुक्त और त्रुटिपूर्ण व्याकरण और वर्तनी का प्रयोग सोशल मीडिया के लिए भरपूर
हो रहा है, जिसका अर्थ है कि लोग अक्सर एलिडिंग
(शब्दों में स्वरों को हटाना) पर भरोसा करते हैं और व्याकरण के नियमों की अनदेखी
करते हैं। सीमित या कम शब्दावली का प्रयोग बढ़ रहा है| बोलते समय वाक्यांशों और अनौपचारिक
संकुचन (उदाहरण के लिए, चाहने
के बजाय इच्छा) का बार-बार उपयोग स्वाभाविक लग सकता है, लेकिन यह आपकी समग्र शब्दावली को सीमित
कर सकता है। देवनागरी में रोमन शब्दावली के घालमेल पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों
पर पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी जगह मज़बूत करता जा रहा है|
आज की हिंदी के जो दो रूप मुझ जैसे
लोगों को परेशान करते हैं, वह है हिंग्लिश (हिंदी और अंग्रेज़ी
का मिश्रण) और कोलोक्विअल हिंदी (बेहद अनौपचारिक किस्म की हिंदी और सरल
अंग्रेज़ी की खिचड़ी) जिसे प्रायः रोमन
लिपि में लिखा जाता है, जिन्हें
पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं है|
आजकल भाषाविदों की आम चिंता यह है कि
सोशल मीडिया पर होने वाले अटपटे-चटपटे भाषायी प्रयोगों और प्रचलनों से पारंपरिक
व्याकरण परंपरा का अवमूल्यन हो रहा है और वहां अव्यवस्थित और असंगठित, अनुशासन मुक्त और अनौपचारिक भाषा का
परिवेश निर्मित हो रहा है| थोड़ी गहराई में जाएं, तो यह पता चलता है कि सोशल मीडिया भाषा का अतिशय सरलीकरण करने पर
आमादा है, जिससे भाषा की शाब्दिक साहित्यिक
समृद्धि और प्रांजल प्रकृति खतरे में पड़ गई है| इंटरनेट की भाषा टपोरी भाषा (स्लैंग) और शब्द संक्षेपीकरण नाराज़गी का
कारण है| इस बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ऐसा माना
जा रहा है और यह सच भी है कि युवा पीढ़ी में संचार का वैसा कौशल नहीं रह गया है, जैसा पहले हुआ करता था| परिणामतः भाषा का पारंपरिक सौंदर्य
उसकी परिशुद्धता और सुस्पष्ट प्रकृति संकट में है|
इंटरनेट के प्रभाव से हिंदी में आए
बदलावों को शायद हम सब ने देखा है| अंग्रेज़ी के कई शब्द संक्षेप
जैसे LOL (लाफ आउट लाउड यानी ठहाका) BRB (बी राइट बैक यानी अभी लौटता हूं)
आदि-आदि| ईमानदारी से कहूं, तो अब हिंदी में भी ऐसा संक्षिप्तीकरण
चल निकला है, पर ऐसे शब्द-संक्षेप अक्सर रोमन लिपि
में ही लिखे जाते हैं, जो
अंततः हिंदी की लिपि को प्रभावित कर रहे हैं| देवनागरी में रोमन शब्दावली का घालमेल होने पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यम पर
पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन
धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी मज़बूत जगह बनाता जा रहा है| लिखित संवादों में स्माइली, इमोजी, जीआईएफ चित्रों का प्रयोग होने लगा है| लिखित संवादों में दृश्यात्मकता और चित्रात्मकता हिंदी के लिए नई चीज़
है| ट्विटर ने हमारी भाषा को # (हैशटैग) जैसी चीज़ दी है| हालांकि इस तरह के चिह्नों के लिए
हमारी लिपि में कोई व्यवस्था नहीं है| पिछले दो-तीन दशकों से अधिक की अवधि में हुए नए मीडिया के विकास और
इंटरनेट के अपरिमित प्रयोग, चुनौतियों और अवसरों की कसौटियों पर प्रयोक्ता कस चुके हैं| नतीजतन आज वह हमारे समाज की परिपक्व और
जीवंत वास्तविकता बन गई है आज विभिन्न कोणों से उसके अध्ययन, शोध, विश्लेषण, मंथन
और दस्तावेजीकारण का समय आ गया है| सतर्क इसलिए भी होना आवश्यक है क्योंकि हिंदी तथा अन्य सभी भारतीय
भाषाओं में ऐसे बदलाव बहुतायत में देखने को मिल रहे हैं|
आज भारत की युवा पीढ़ी सिर्फ आधुनिक
तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों में
भी अग्रणी होनी चाहिए। यदि देश की युवा शक्ति संस्कारों से समृद्ध होगी, तो भारत का भविष्य उज्ज्वल और सशक्त
बनेगा। डिजिटल युग में विकास और आधुनिकता आवश्यक है, लेकिन इनके साथ नैतिकता और संस्कारों का संतुलन बना रहना चाहिए। यदि
युवा अपने मूल्यों और भारतीय सभ्यता से कट जाएंगे, तो उनकी ऊर्जा दिशाहीन हो जाएगी।
यूं तो, भारतीय दंड संहिता और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में ऐसे मामलों के
लिए कड़े प्रावधान हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 292 अश्लील सामग्री के निर्माण, बिक्री और प्रचार-प्रसार को अपराध मानती है। आईटी एक्ट की धारा 67 इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से अश्लीलता
फैलाने पर सजा का प्रावधान करती है। इसी प्रकार पौक्सो एक्ट नाबालिगों के समक्ष
किसी भी प्रकार की अश्लील या यौनिक अभिव्यक्ति को अपराध मानता है। लेकिन सवाल यह
उठता है कि क्या इन कानूनों का सही ढंग से क्रियान्वयन हो रहा है?
इस तरह की घटनाएं केवल कुछ लोगों की
गलती नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था की चूक को दर्शाती हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स
पर लगातार फैल रही अश्लीलता पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, शिक्षण संस्थानों में डिजिटल नैतिकता
को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम
और अन्य डिजिटल मंचों पर इस तरह के कंटेंट को तुरंत हटाने और संबंधित क्रिएटर्स पर
सख्त कार्रवाई करने के नियम बनाए जाएं। ऐसे मामलों में त्वरित न्याय और कठोर दंड
की व्यवस्था हो,
ताकि
भविष्य में कोई भी इस तरह की अशोभनीय कृत्य करने से पहले सौ बार सोचे। इसके अलावा
यह सिर्फ सरकार और प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज को भी यह तय करना होगा कि वह किन्हें 'इन्फ्लुएंसर' बनने का मौका देता है। कुल मिलाकर आज
सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर भाषा का गिरता स्तर, माता-पिता के सम्मान पर प्रहार और
नैतिकता का पतन हमारे समाज के लिए खतरनाक संकेत हैं। यदि यह प्रवृत्ति ऐसे ही
बढ़ती रही, तो हमारी आने वाली पीढ़ी नशे की तरह
मानसिक रूप से भी भ्रष्ट हो जाएगी। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस बढ़ती अश्लीलता
और अभद्रता के खिलाफ़ सख्त कदम उठाए ताकि
हमारी आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकें कि हम एक सभ्य, संस्कारी और सशक्त समाज का हिस्सा हैं।
यहां सतर्क होना आवश्यक है, नहीं तो कुँवर नारायण जी के शब्द सत्य सिद्ध हो जाएंगे-
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे
डर था
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूङी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने
लगी!
डॉ मीता गुप्ता
विचारक, शिक्षाविद
No comments:
Post a Comment