Monday, 26 December 2022

दुष्यंत की ग़ज़लों में सामाजिक चेतना

 

दुष्यंत की ग़ज़लों में सामाजिक चेतना

(स्व. दुष्यंत कुमार 01 सितंबर 1933 - 30 दिसंबर 1975 )



 

अपने तीसरे कविता संग्रह 'जलते हुए वन का वसंत' की भूमिका में दुष्यंत कुमार कहते हैं कि 'मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएं नहीं हैं, मैं सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में साधारण आदमी की पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उनके संबंधों में उलझनों को जीता हूँ और व्यक्त करता हूँ। मेरे लिए मनुष्य मात्र की अवमानना सबसे अधिक कष्टप्रद है।' इसी भावभूमि, विचार और संवेदना के तहत दुष्यन्त का परवर्ती लेखन निरंतर निखरता रहा एवं अधिक समृद्ध होता गया। अपने पहले कविता संग्रह 'सूर्य का स्वागत' से लेकर 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसंत' और ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' तक उनकी काव्य-प्रतिभा और प्रखरता लगातार परवान चढ़ती रही। उनका  काव्य-नाटक 'एक कंठ विषपायी' और दो उपन्यास 'छोटे छोटे सवाल' तथा 'आँगन में एक वृक्ष' भी इस दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

दुष्यंत कुमार ने अपनी अधिकांश  लोकप्रिय गज़लें अंतिम समय में ही लिखीं। कहते हैं कि बुझते दिए की लौ तेज़ होती है। इन्हीं ग़ज़लों की वजह से दुष्यंत ने साहित्य में एक मुकम्मिल जगह बना ली। उनकी अंतिम समय की लिखीं ग़जलें न केवल बेइंतिहा लोकप्रिय हुई अपितु इन ग़ज़लों को एक जड़ व्यवस्था का तीव्र विरोध भी सहना पड़ा। व्यवस्थावादी लोगों ने कहा कि हिंदी में ग़ज़ल कोई विधा ही नहीं है। यह बहुत हल्की चीज़ है और साहित्य में इसका कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं। अब इसकी वजह क्या रही यह पता कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं। दरअसल दुष्यंत की ग़ज़लें एक पैनी सामाजिक और राजनैतिक चेतना की बेमिसाल नमूना थीं। वह इतनी संवेदनात्मक थीं कि लोगों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती थीं। अत: संवेदनहीन और रूढ़ व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा उनका विरोध होना स्वाभाविक ही था। इस से पहले न तो कभी ग़ज़ल को साहित्य की विधा मानने से इंकार किया गया,न ही उसे हल्की चीज़ माना गया। सत्तर के दशक के में दुष्यंत कुमार ने 'ग़ज़ल' को एक नई ज़िंदगी दी। दिल को छूने वाले सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने में दुष्यंत की भाषा एवं शैली ने जादू-सा कर दिया।

उर्दू ग़ज़ल का मिजाज़ दरबारी था। उसकी विषयवस्तु, उसकी शब्दावली, संवेदना, लय, उन्मान, प्रतीक सब सुनिश्चित थे। उन्हें तोड़ना या विकसित करना बहुत मुश्किल काम था। शमशेर बहादुर सिंह ने संभवत: इस दिशा में पहल की जब उन्होंने कहा - 'हक़ीक़त को लाए तखैयुल से बाहर, मेरी मुश्किलों का हल जो पाए' शमशेर जी के बाद दुष्यंत कुमार ही एक ऐसे शायर हुए जिन्होंने उर्दू ग़ज़ल के बँधे-बँधाए ढाँचे को एकदम तोड़ दिया। यूँ हिंदी में ग़ज़ल लिखने की पहल जयशंकर प्रसाद, निराला, देवी प्रसाद पूर्ण, राम नरेश त्रिपाठी आदि कवियों ने की पर वे चूँकि उर्दू की परंपरागत ग़ज़लों और उसके छंद शास्त्र से कतई भिन्न थी सो तब बहुत लोकप्रियता उन्हें हासिल नहीं हुई । इसका एक कारण उनका रूढ़ और पारंपरिक कंटेन्ट भी रहा होगा। पर दुष्यंत ने जब ग़ज़लें लिखीं तो उसका कंटेन्ट बहुत प्रभावी था। अब यहाँ नई मुसीबत आ खड़ी हुई, व्यवस्था-विरोध पूर्ण शिद्दत से इन ग़ज़लों में उभर कर आया। वहीं परंपरावादी ग़ज़लकारों, ग़ज़ल प्रेमियों को आम, सहज भाषा का प्रभावी इस्तेमाल भी अखरा। यूँ उर्दू की जदीद शायरी में भी आम बोलचाल की भाषा का काफ़ी इस्तेमाल होता रहा था पर दुष्यंत को कैफ़ियत देना पड़ी कि उन्होंने 'शह्र' को शहर और 'वज्न' को वज़न जैसे शब्दों का उपयोग क्यों किया। बहरहाल जब दो मिसरों की ग़ज़ल आम भाषा में नुमाया हुई तो रदीफ़, क़ाफ़िये, वज़न, टेक्सचर और भाषा के सवालात पैदा  हुए। पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने इन सारे सवालों को दरकिनार करते हुए अपनी पुख़्ता और मुकम्मिल ज़मीन बनाई। यहाँ यह बताना ग़ैरमुनासिब नहीं होगा कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने भी उर्दू की परंपरा और शैली में ग़ज़लें लिखीं थीं परंतु अपनी पारंपरिक शैली के कारण जनमानस में वह महत्त्वपूर्ण स्थान न पा सकीं । जाहिर है दुष्यंत की ग़ज़लों की लोकप्रियता के पीछे हिंदी और उर्दू का फ़र्क नहीं बल्कि ग़ज़लों का धारदार कंटेन्ट ही है।

हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि ग़ज़ल उर्दू हो या हिंदी, ग़ज़ल उर्दू से आई है वह हिंदी नहीं हो सकती। अलबत्ता उर्दू मिश्रित आम बोलचाल की भाषा में हो सकती है। ऐसी ग़ज़ल यदि लोगों के करीब हो तो कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। दुष्यंत की ग़ज़लों में सामाजिक स्थितियों की पैनी और गहरी पड़ताल है तो राजनीतिक चेतना भी ग़ज़ब की है। दुष्यंत आम आदमी के दुख दर्द, सियासत की चालबाज़ी, फ़रेब, पाखंड और जड़-व्यवस्था की मूल्यहीनता के ख़िलाफ़ बहुत तीखे ढंग से रीएक्ट करते हैं। वह साफ़ कह उठते हैं -                                                                                                                  

कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए

कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दुष्यंत की दृष्टि बहुत विस्तृत है। वह हर घर के लिए चराग़ की बात करते हैं। चराग़ का मतलब रोशनी से है और रोशनी का मतलब सुख, समृद्धि, शांति और समझदारी से है । हैरत की बात है कि आज चराग़ पूरे शहर के लिए यानि एक बहुत बड़े वर्ग के लिए मयस्सर नहीं है। यहाँ दुष्यंत की वर्ग चेतना बहुत स्पष्टता से मुखरित होती है लेकिन दुष्यंत इस स्थिति से हताश नहीं हैं । वह कहते हैं कि -

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए ।

हर पल दुष्यंत कुमार की चेतना, मूल्य हीनता, सियासती दाँव-पेंच, सिद्धांतहीनता और प्रतिगामी स्थितियों को आरपार चीरती नज़र आती है। उनकी संवेदनशीलता हर बार और अधिक वेधक हो उठती है -

कैसे-कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं ।।

वह देखते हैं कि आम अवाम किस क़दर असंवेदनशील हो गया है  तब वह कहते हैं कि -

गज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते

वो सब के सब परेशाँ है कि वहाँ पर क्या हुआ होगा ।

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते है

ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा ।।

दुष्यंत की ग़ज़लें देश के हालात ( ज़ाहिर है ख़स्ता हालात ) से रूबरू हैं। वे इससे इतने जुड़े हुए दिखते हैं कि प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और ग़ज़ल नुमाया होती है । दूसरी चीज़ जो इन ग़ज़लों में बखूबी देखी जा सकती है वह है लोगों की संवेदनाओं को तेज़ करने की ललक। वह कुछ लोगों की संवेदनहीनता और शेष की जड़ता पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते दीखते हैं -

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में

हम नहीं आदमी,  झुनझुने हैं ।

आज के निम्न वर्ग के हालात पर और दिल्ली के संसदी-सियासती ढ़ोंग पर गज़ल है -

भूख है तो सब्र कर,

रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ।

'लोक की चिंता' आजकल राजनीति की दुनिया में बस दिखाने भर की चीज़ बच गई है । लोगों की परेशानी की नुमाइश अब जलसों-जुलूसों में की जाती है । भव्य आयोजन होते हैं यह बताने के लिए कि वे सब अवाम के लिए कितने फ़िक्रमंद हैं -

ये लोग होमो हवन में यकीन रखते हैं

चलो यहाँ से चलें, हाथ जल न जाए कहीं ।

अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्ता का उससे डर दुष्यंत की एक ग़ज़ल में यूँ आया है -

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

दुष्यंत की ग़ज़लों की जो सब से बड़ी विशेषता है, वह है उनका आशावाद। यही बात कम से कम मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। वह साफ़गोई से कहते हैं -                                                                                                 

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए ।

सांप्रदायिकता और धार्मिक पाखंड पर वह क्षुब्ध होकर कह उठते हैं -

ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो

कुरानो उपनिषद खोले हुए हैं,

मज़ारों से दुआएं माँगते हो

अकीदे किस कदर पोले हुए हैं ।

दुष्यंत कुमार का यह दृढ़ विश्वास था कि असली कविता सामाजिक जीवन से ही उभरकर सामने आती है। वे किसी स्कूल या साहित्यिक मत के हिमायती नहीं थे। वे एक ऐसी कविता शैली की तलाश कर रहे थे जो स्वाभाविक हो। काव्य के प्रति उनके इसी दृष्टिकोण ने उनमें सामान्य जीवन के यथार्थ को पुनर्सृजित करने का विश्वास पैदा किया।

'वे कविताएं उसी हद तक मेरी हैं कि मैंने इन्हें लिखा और इन्हें जिया है। अगर आप इनमें एक परिचित आवाज़ को सुन पाते हैं, एक सहृदय भाषा और अपनापन महसूस करते हैं तो मैं समझूँगा कि मैं सफल हो गया।'  दुष्यंत ने एक उम्र कविताएं लिखने में गुज़ार दी, नाटक और उपन्यास भी लिखे पर लोकप्रियता ग़ज़ल से ही मिली, यह अकारण नहीं है। यहाँ तक कि उनके गीत भी ग़ज़लों की श्रेणी में पहचाने जाने लगे -

रह रह कर आँखों में चुभती है

निर्जन पथ की दोपहरी

आगे और बढ़ो तो शायद

दृश्य सुहाने आएंगे ।

और इन्हीं सुहाने दृश्यों की मधुर परिकल्पना के साथ  30 दिसंबर 1975 को अल्प वय में भोपाल में हुए हृदयाघात से दुष्यंत चले गए लेकिन छोड़ गए एक विस्तृत आकाश, समृद्ध परंपरा और आने वाले स्वर्णिम कल की उम्मीद।

 

 

मीता गुप्ता

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