देखो नूतन वर्ष है आया
वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।
गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल!
वास्तव में, नया वर्ष, नए संकल्पों, नए स्वप्नों और नए सृजन का ही तो
साक्षी पर्व है। नव वर्ष हमें ओढ़ने का नहीं, आत्मसात कर
लेने का आह्वान करता है। आत्मसात करने से जीवन की कायाकल्प हो जाती है, जबकि ओढ़ी हुई चादर तो समय के साथ हट जाती है।नए साल के संदर्भ में सोचती
हूं, तो आभास होता है कि मानो साल समय के पर्यटन स्थल का वह
नन्हा मार्गदर्शक है, जिसकी अंगुली थामकर हम इस पर्यटन स्थल
की बारह महीने सैर करते हैं। बारहवें माह तक यह वृद्ध हो चुका होता है, तब यह हमारी अंगुली एक नए मार्गदर्शक को थमाकर हमसे विदा हो जाता है।
हमारी नियति इन्हीं नन्हीं अंगुलियों के भरोसे अपनी यात्रा करने की है और इतिहास
गवाह है कि शिशु कभी छलते नहीं हैं। आज जब हम इस शिशु की अंगुली थामकर अपनी यात्रा
आगे बढ़ा रहे हैं, तो यह विश्वास करना चाहिए कि हमें यह शिशु
वर्ष 2022 में हर्ष और उल्लास, विकास
और प्रगति तथा समृद्धि और सामर्थ्य के उन स्थलों का भ्रमण करवाएगा, जिनसे साक्षात होने का स्वप्न हमने सदैव संजोया था।
हर नया वर्ष इन्हीं सपनों के संबंध में
यह विचार करने का अवसर देता है कि वे सपने कितने पूरे हुए? कितने अधूरे रह गए?
लेकिन सपने कहां पूरे होते हैं? इसलिए वर्षो
के आगमन का सिलसिला कभी नहीं थमता। आकांक्षाएं अंतहीन होती हैं, इसलिए सपनों का देखा जाना कभी विराम नहीं पाता। सपने क्या हैं? हमारी अनंत आशाओं और आकांक्षाओं के वे प्रतिबिंब, जो
खुली आंखों से आईनों में नहीं, बंद आंखों की पुतलियों के
दर्पण में देखे जाते हैं। ये बंद आंखें नए वर्ष की पहली भोर को खुलती हैं।
नए साल की पहली सुबह जब अपनी दस्तक से
बंद आंखों की पलकों को खोलती है,
तब ये आंखें यथार्थ के आईने में इन सपनों की हकीकत के अक्स देखती
हैं। हम इस नए शिशु थामे हम कर्म के रास्ते पर बढ़ जाते हैं, निःशंक....अविराम....बिना विश्राम किए.... । प्रत्येक नव वर्ष देश में शीत
ऋतु में आता है। यह ओढ़ने की ऋतु है। जब हम अपनी देह को मोटी चादर से ओढ़कर उसे
शीत से बचाने का यत्न करते हैं, तो वास्तव में नव वर्ष हमें
ओढ़ने का नहीं, आत्मसात कर लेने का आह्वान करते हैं। आत्मसात
करने से जीवन का कायाकल्प हो जाता है, जबकि ओढ़ी हुई चादर तो
समय के साथ फटकर तार-तार हो जाती है। इसलिए नव वर्ष के आगमन पर जो औपचारिक
शुभकामनाएं दी जाती हैं, वे ओढ़ी हुई चादर की तरह होती हैं,
जिन्हें ओढ़ा तो जा सकता है, पर आत्मसात नहीं
किया जा सकता। यदि मंगल की यह कामना व्यक्तिगत न हो, लोक के
लिए हो, उसके पीछे सामूहिक लोक मंगल का भाव हो, तो फिर एक चिंगारी अलाव में तब्दील हो सकती है और यह- ‘वसुधैव कुटुंबकं’ के मंत्र को सारे आकाशमंडल में
संचरित कर देगा। सच कहूं तो तभी नव वर्ष मंगलमय होगा।
हर नया वर्ष अपने गर्भ में ऐसी आशाओं को
समेटे रखता है, जो सुनहरे भविष्य के स्मारक की आधारशिलाएं होती हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों इस वर्ष के पांव आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे हमारे आचरण से
ये आधारशिलाएं डगमगाने लगती हैं। जिसका यह परिणाम होता है कि हमारे भविष्य का यह
उजेला केवल हमारी कल्पना में रह जाता है, आकार में ढल नहीं
पाता। यदि कर्मण्यता हो, रचनात्मक दृष्टि हो और पौरुष से
भरपूर जिजीविषा हो, तो हर नए साल की आशाओं को एक सुघड़
शिल्पकार की भांति उपलब्धि के दमकते, भव्य शिल्प में ढाला जा
सकता है। नव वर्ष का आगमन मनुष्य के जागरण की बेला होती है। सूरज के उजास में वह
नए पथ पर अग्रसर होता है। नव वर्ष का आगमन उसके हाथों द्वारा नए लक्ष्यों को
प्राप्त करने के लिए ली जाने वाली शपथ है और उसके कानों द्वारा सुनी जाने वाली वह
भैरवी है, जिसके स्वर आशा के माधुर्य को नव वर्ष के कंठ से
गाते हैं। नया वर्ष जीवन शक्ति का साक्षी है।
लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं कि जीवन का
एक वर्ष कम हो गया। वे ऐसा इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे लोग
जीवन को खंड में देखते हैं, जबकि वह तो अखंडित होता है। उसे
पूर्णता में देखना चाहिए, लंबाई में नहीं। कितने वर्ष जीए,
मायने इस बात के नहीं, मायने इस बात के हैं कि
कैसे जीए। नया वर्ष जीवन को पूर्णता में देखने और जी लेने का अवसर है। वह दीये की
उस लौ की तरह है, जिसके आकार की कोई अहमियत नहीं होती,
अहमियत उस लौ से फैलने वाली रोशनी की होती है। संसार जगमगाते आंगन
देखता है, लौ नहीं देखता। नया वर्ष हमें इतिहास की देहरी पर
एक ज्योतिर्मय दीप बनाकर रख देता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी लौ को
कितना ऊपर उठा पाते हैं। नए वर्ष की यही चुनौती है कि अपने सपनों को पूरा करने के
लिए हम कैसे अपने संकल्प की लौ को और ऊपर उठाएं और संसार को ज्योतिर्मय बनाएं।
रास्ते बिना प्रकाश के दिखाई नहीं देते, मंज़िल तक तो प्रकाश
ही पहुंचाता है। यह प्रकाश वह प्रकाश मात्र नहीं है, जिसमें
आंखों की पुतलियां संसार के भौतिक उपादानों को देखकर उन्हें पहचानती हैं। सच्चा
प्रकाश तो मन की उन आंखों के पास होता है, जो सूर के पास
थीं। जिन्हें अंर्तदृष्टि कहा जाता है, जिनसे सच्चे श्याम की
पहचान होती है। जो राधा-माधव की उस जुगल जोड़ी को देखती हैं, जिसने हमारे इतिहास के गलियारों को अपने माधुर्य रस से सींच लिया। हमें
वही आत्मप्रकाश चाहिए, जो सार्थक देखे। सार्थक सूर ने देखा
था इसलिए सूर की दृष्टि ही सच्ची दृष्टि है और उसमें समाया हुआ आलोक ही सार्थक
प्रकाश है। अटल जी के शब्दों में-
भरी
दुपहरी में अँधियारा
सूरज
परछाईं से हारा
अंतरतम
का नेह निचोड़ें,
बुझी
हुई बाती सुलगाएं
आओ
फिर से दिया जलाएं \
आहुति
बाक़ी यज्ञ अधूरा
अपनों
के विघ्नों ने घेरा
अंतिम
जय का वज्र बनाने
नव
दधीचि हड्डियाँ गलाएं
आओ
फिर से दिया जलाएं ।
नया वर्ष यदि हमारा प्रकाश पर्व सिद्ध हो
सका तो यह हमारी ही नहीं, पूरे राष्ट्र की, पूरे मनुष्यता की उपलब्धि होगी,
क्योंकि सुबह नव वर्ष पर हमारी पलकों पर थपकी देकर उन्हें इसलिए
नहीं खोलती कि वे बंदी बन फिर अंधेरे को आत्मसात कर लें, बल्कि
इसलिए खोलती है ताकि सूरज के प्रकाश में अपनी यात्रा जारी रखने के लिए रास्ते
जगमगा जाएं। नया वर्ष, नए संकल्प, नए
स्वप्न और नए सृजन का ही तो साक्षी पर्व है। आइए उल्लास की अंजुरी में उल्लास के
भाव पुष्पों से इसका अभिनंदन करें।
सभी चाहते हैं कि सब कुछ शुरू से शुरू
हो। बीता साल तमाम आशंकाओं और जीवन की धीमी रफ्तार के साथ गुज़रा तो अब इस नए वर्ष
की शुरुआत हम इच्छाओं के नए चबूतरे पर खड़े होकर करना चाहते हैं। हम भीतर ही भीतर
यह भी चाहते हैं कि अतीत के सब शिलालेख मिटा दिए जाएं और हम अपने हाथों से नए
भविष्य की ऐसी नींव रखें, जिस पर खुशियों का वह साम्राज्य हो, जिसमें सच का
साथ देने वाले विजयी हों, झूठ और फरेब में उलङो हुए लोगों को
पश्चाताप करना पड़े। हमें अपने लिए ऐसी परिस्थिति चाहिए, जिसमें
भले ही कठोर तप हो, संघर्ष हो, लेकिन
आनंद की वह माधुरी भी हो, जिसके साथ हमारा जीवन बहता चला
जाए।
नए वर्ष की शुरुआत में हम कई लोगों को
संकल्प (रेज़्योल्यूशन) लेते हुए देखते हैं,
जो अपने आत्मविश्वास को जगाते हैं, लेकिन
थोड़ी दूर तक चलने के बाद ही वे भूल जाते हैं कि तय क्या हुआ था। वे फिर उसी पटरी
पर चलने लग जाते हैं, जिस पर उन्होंने ठोकरें खाई थीं,
संताप किया था और जिसके चलते निराशा ने उन्हें धर दबोचा था। इसमें
संदेह नहीं कि उन्होंने एक अच्छा सपना देखा था, लेकिन उसे
पूरा करने के अचूक निशाने उनके पास नहीं थे। जिसके चलते होता यह है कि वे आनंद के
स्रोत के सामने खड़े रहकर भी रीते के रीते रह जाते हैं।
बीता साल चाहे जैसा भी गुजरा, नए साल के स्वागत की
तैयारियों का जोश देखने लायक होता है। यह जोश केवल एक धर्म को मानने वालों में
नहीं, बल्कि दुनियाभर के तमाम लोगों में दिखाई देता है। ताज्जुब
यह है कि हद से हद चौबीस घंटे तक चलने वाली पार्टी, आतिशबाजी,
मौज-मस्ती और धूम के बाद सारा जोश इस तरह ठंडा पड़ जाता है, जैसे नव वर्ष आकर चला गया हो। नए वर्ष का नया सूरज जो संदेश लेकर आता है,
हम उसे समझ नहीं पाते। दरअसल, उत्साह के जाग
उठने के मुहूर्त में जो शक्तिपात होता है, वह हमारे हाथ से
फिसलता चला जाता है और शाम ढलते-ढलते वही सूनापन, वही ढिलाई,
वही बेरुखी, वही खालीपन पसर जाता है।
दरअसल, नव वर्ष का ज़ोरदार स्वागत होना चाहिए। ऐसा
स्वागत, जैसा घर आई नई-नवेली दुल्हन का होता है, जैसा खेत में उग आने वाले गन्ने और गेहूं की बालियों का होता है या आम की
शाखाओं पर झूलने वाली नई-नई मंजरियों का होता है। यह स्वागत एक आरंभ है। यह स्वागत
पूरे वर्ष को उत्सव के रंग में ढालने के संकल्प का स्वस्ति वाचन है। स्वागत की इस
बेला में कोई एक नया संकल्प हो और उसके साथ नई यात्रा का श्रीगणोश हो, तो आनंद का भाव उपजता ही है। इसके साथ ही पुराने रिश्तों की चाशनी में पगी
हुई मीठी-मीठी यादों के सिलसिले हों, तो उम्मीद भरे दिनों के
सपने सजने लगते हैं।
21वीं शताब्दी के दो दशक
पूरे होने के बाद इस नए वर्ष में महसूस करके देखिए, हमारे
अंतरंग में मनुष्य की विजय का आह्वान चल रहा है। समय के कैनवास पर नए रंग भरे जा
रहे हैं, जीवन की प्रणाली बदल रही है, परंतु
सृजन और प्रलय साथ-साथ झूलते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, जीवन के
रहस्यों पर पड़े हुए कई पर्दे हटा दिए गए हैं। इस बार यह वर्ष नवनिर्माण की अद्भुत
संभावनाएं लेकर आया है। आप और हम सहज ही अनुभव कर सकते हैं कि पिछले साल हमने कड़ी
परीक्षा दी और जान-माल की भारी हानि उठाने के बावजूद हम उत्तीर्ण घोषित हुए हैं,पर हमने अनेक अपनों को खोया भी है। यह नया साल उनके गुज़र जाने की टीस देकर
जा रहा है, पर यह सीख भी कि अहंकारी मनुष्य से ऊपर कुछ और भी
है, जो हमें हमारी बेबसी और लाचारी का आइना दिखा गया है । अब
करना क्या होगा, जीवन थोड़ा अनुशासित, संयमित
और नियमित करना होगा, तमाम सारे भ्रमों को दूर करते हुए अपने
देशज मूल्यों की शरण में लौटना होगा, मां प्रकृति के क्षरण
को रोकना होगा, विज्ञान के विध्वंसकारी रूप को समझना होगा और
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के अर्थ को समझना होगा।
नव वर्ष के आगमन की खुशी को एक या दो दिन
में समेट लेने का क्या औचित्य?
माना खुशी का यही स्तर वर्ष के आखिरी महीने के आखिरी दिन तक ज्यों
का त्यों तो नहीं रह सकता, क्योंकि समय करवट लेता रहता है,
उतार-चढ़ाव बने रहते हैं और हमेशा हमारे मन की बात नहीं होती,
लेकिन उमंग और उत्साह की गर्मी बनाए रखने की पहल तो हर पल की जा
सकती है। हमारे पुरखों ने यही पहल की थी, इसीलिए उन्होंने
त्योहारों की ऐसी विस्तृत श्रंखला बनाई कि परिवार में रस घुलता रहे और आशाओं के
दीप जलते रहें। हमारे मन का विश्वास कमज़ोर न हो और खुशियों की बारात घर-आंगन में
आती रहे, ताकि हर दिन नया और चमकदार बने। इसलिए, आइए नई ऊर्जा, नई आशा और नए उत्साह के साथ 2023
का स्वागत करें। हर ओर नया और सकारात्मक देखें। सभी चेहरे को नयी
नजर से देखें। हर चीज में नयापन तलाशें। नयी प्रेरणा से देखें। नई आशा से देखें।
नई राह की ओर देखें। नए सपने देखें, नए मार्ग बनाएं और उन ओर
चलना शुरू करें। इच्छाशक्ति को प्रबल करें। पाखंड का त्याग करें। भरोसा करें,
भरोसे लायक बनें। विश्वास करें, विश्वास
जीतें। अपनी गरिमा समझें, दूसरे की अहमियत समझें। अपनी
स्मृतियों से पूर्वाग्रहों को मुक्त करें। निराशा जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। अतः
उसे कभी भी अपने ऊपर हावी न होने दें। घर में यदि कोई बुज़ुर्ग हों, तो उसके प्रति तन-मन-धन से समर्पित रहें। परिवार में एक दूसरे के प्रति
मान सम्मान एवं आपसी प्रेम-भावना सदैव बनाकर रखें।
और हां! अपने स्वास्थ्य का
ध्यान रखें....कोरोना के नए वेरियंट की दस्तक फिर सुनाई देने लगी है.....
मीता
गुप्ता
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