नारी सृष्टि की संवेदना शक्ति- द्रौपदी के परिप्रेक्ष्य में
सहस्रों दीप मालिकाओं से सुसज्जित उस विशाल सभागार में
द्यूत क्रीड़ा का आयोजन हुआ था। धूप-अगरू में सुवासित उस प्रेक्षागृह में दूर-दूर
से कौतुकप्रिय जन आए थे। प्राचीन कुरु वंश की प्रमुख दोनों शाखाओं में आज रोचक
द्यूत-स्पर्धा थी। औत्सुक्य और कौतूहल के
क्षण अब तक शमशान की भयावह शांति में बदल चुके थे।
सभागार के केंद्र में उच्च सिंहासन पर नेत्र ज्योति विहीन
महाराज धृतराष्ट्र विराजमान थे। निकट ही उनकी साध्वी पत्नी गांधारी नेत्रों पर
वस्त्र-पट्टी बांधे बैठी थी। पुत्र स्नेह में वे दोनों आंखों से ही नहीं, विवेक से भी अंधे हो चुके थे। पुत्र-मोह की
पट्टी दोनों के नेत्रों पर बंधी थी। अधर्म की पट्टी बांधे रहने से उनके
ज्ञान-चक्षु भी मूंद चुके थे।
अनेक प्रकांड विद्वान, मनीषी, विधि-मर्मज्ञ,
धर्मज्ञाता, साधु पुरुषों एवं पराक्रमी राजपुत्रों से
सुशोभित यह सभामंडप जगमगा रहा था। वहां परम प्रतापी पितामह भीष्म थे। प्रसिद्ध
धनुर्वेद गुरुवर द्रोणाचार्य थे। महर्षि विदुर थे। शरद्वान पुत्र कृपाचार्य थे। इन
सबमें प्रत्येक का व्यक्तित्व अज्ञान रूपी अंधकार में प्रकाश-स्तंभ की भांति था। एक-एक का व्यक्तित्व मणि-स्तंभ का जाज्वल्य्मान था।
उनका ऐसा नीर-क्षीर विवेक था और ऐसा उनका धर्मानुकूल आचरण था।
किंतु……..आज
वे समस्त मनीषी, वे समस्त ज्ञान-पुंज निस्तेज थे। आज वह राजसभा उनकी उपस्थिति में
भी श्रीहीन थी। वे सब क्षुब्ध थे। अनिष्ट की काली छाया अपने डैने फड़फड़ाती जैसे सभा
के चारों ओर मंडरा रही थी।
सभागृह के मध्य में पांचो पांडव बैठे थे। अपने ही दुर्व्यसन
द्युत-विलास से पराजित। उनके कभी न झुकने वाले मस्तक झुके हुए थे। चौड़े पुष्ट स्कंध आज शिथिल थे। वे
महातेजस्वी योद्धा, अपमान से क्षुब्ध एवं असहाय को जैसे लौह-पिंजरे में बांध दिया
हो। उनके अस्त्र-शस्त्र, आभूषण एवं किरीट उतरे हुए एक ओर भूमि पर रखे हुए थे। सबके
सब राज्यश्री विहीन, सत्ताच्युत, उपहास और अपमान के पात्र।
भयंकर नीरवता के पल थे। बीच-बीच में हल्की-सी हंसी दबी-दबी
सुनाई पड़ती थी दुर्योधन की मित्र मंडली से। वे भी प्रतीक्षारत थे। विराट-सी
प्रतीक्षा पूरे सभागार में छाई हुई थी। सब श्वास रोके बैठे थे।
अचानक द्वार पर
सामूहिक हाहाकार की ध्वनि से सज्जनगढण सिहर उठे। पांडवों ने विचलित हो अपने हाथों
से हृदय थाम लिए। सब की दृष्टि मुख्य द्वार की ओर घूम गई। महाराज द्रुपद की महा विदुषी
युवराज्ञी तथा महापराक्रमी पांडवों की सती साध्वी पत्नी, इंद्रप्रस्थ की सम्राज्ञी
द्रौपदी को दुशासन हाथ पकड़कर खींचता ला रहा था। पीछे-पीछे आकुल-व्याकुल सखियां,
दास-दासी, परिचारक एवं सेवकों की रोती-बिलखती भीड़ चली आ रही थी।
छोड़ दे पापी!.. मेरे परमपूज्य श्वसुर महाराज धृतराष्ट्र की
राजसभा है। इस धर्मस्थल पर अधर्म नहीं होता। दुष्ट! दुराचारी! छोड़! यहां
न्यायप्रित विद्वतजन बैठे हैं, वयोवृद्ध बैठे हैं, क्यों उनके कोप का भाजन बनना
चाहता है? नराधम! पांचाली का स्वर प्रखर था। ‘मुझे बचाएं तात! माता गांधारी..’
पांचाली दौड़ पड़ी महाराज धृतराष्ट्र एवं महारानी गांधारी की शरण में। कितना
विश्वास था उसको कि वे धर्मज्ञ हैं और रक्षा करेंगे। कितनी बड़ी भ्रांति!
राजसिंहासन की ओर भागती द्रौपदी की वेणी पकड़कर दुशासन ने
तड़ित वेग से झटका दिया। वेणी खुल गई। नील कुंतल केशराशि लहरा गई। वेणी में गुंथी
चंद्रमल्लिका की पुष्पमाल्य टूट कर गिर गई। दुष्ट ने निर्ममता से पैरों से उसे
कुचल दिया। शुभ्र शेवंती चंद्रमल्लिका की पुष्प कलिकाएं नव तारिकाओं-सी नीले केशों
से झड़ने लगीं।
अथाह पीड़ा से पांचाली का हाथ तत्क्षण वेणी पर पहुंचा,
किंतु अनायास वह निश्चल हो गई। भरी सभा में जहां महान तत्वज्ञानी और धर्मज्ञ के
बैठे हैं! और कोई विरोध नहीं कर रहा है!! कोई प्रतिवाद नहीं!!! अपमान से उसका
मुखमंडल आशक्त हो गया। क्षोभ और पीड़ा से मुख विवर्ण हो उठा। उसका कोई रक्षक नहीं?
उसने एक बार फिर सभी की ओर देखा-धर्मज्ञों, नीतिज्ञों एवं
महावीरों की सभा को। सभी चुप्पी साधे थे। उसने बिलखते हुए पूछा-क्या स्त्री मात्र
वस्तु है? पदार्थ है, जिसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, जब जो चाहे जिस तरह उपभोग
करे? मैं महाराज पांडु की स्नुषा आपकी कन्या की हूं। पितामह उठिए! नारी को विवश
करने वाले हाथों को उखाड़ फेंकिए। आंचल पसार पर भीख मांगती हूं। कुरुओं की इस
राजसभा में शील का व्यापार मत होने दीजिए। उठिए! स्त्रियों की लज्जारक्षण परंपरा
इस मदांध नीच को खडक से दिखा दीजिए।
परंतु......................
पितामह भीष्म कुरुकुल का मेरुदंड! मेरुदंड! ऋषिवर्य वशिष्ठ
का अधीत वेद शिष्य! बृहस्पति और शुक्राचार्य से शास्त्राध्ययन करने वाला पराक्रमी
क्षत्रिय। च्यवन, भार्गव और
मार्कंडेय से धर्म का गंभीर ज्ञान प्राप्त करने वाला धर्मज्ञ! शांतनु महाराज का
साक्षात गंगापुत्र। काशिराज और उग्रायुध के दांत खट्टे करने वाला वीर। जिसमें
धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की उन्हीं जमदग्नि पुत्र परशुराम को धर्म युद्ध में
पराजित कर, ‘सत्शिष्य गुरु से कुछ-न-कुछ
श्रेष्ठ ही होता है’ सिद्ध करने वाला विख्यात धनुर्धारी।
आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले तेज का ज्वलितपुंज। वह भीष्म भी सिर झुका कर
चुप था।
‘तात विदुर! आप महात्मा हैं, धर्मज्ञ हैं। आप ही धर्म की व्याख्या कर सकते हैं,
बताइए, क्या नारी का कोई स्वतंत्र जीवन नहीं है? बताइए आर्य! युधिष्ठिर को मुझे दांव में लगाने का क्या अधिकार है? तात धृतराष्ट्र! आचार्य द्रोण! कृपाचार्य! गुरुपुत्र अश्वत्थामा! आर्य
अमात्य! आप सब चुप क्यों हैं?’ आज द्रौपदी के एक-एक स्वर में
हृदय विदीर्ण करने वाली आर्तता थी। वह बिलखती हुई हाथ फैला कर आक्रोश करती हुई
प्रत्येक आसन के सामने होकर आगे सरकने लगी। ‘हस्तिनापुर के
श्रेष्ठ पुरुषों! समरांगण में चमकने वाले वीर योद्धाओं! भारतवर्ष के तत्व ज्ञानी मनीषियों!
मैं आप सब से पूछती हूं, क्या आप सभी ने नारी की कोख से जन्म
नहीं लिया? अरे, नारी की कोख से जन्म
लेने वाले पुरुषों! एक स्त्री का विलाप आपके पुरुषार्थ को जागृत नहीं कर रहा?’
एक हाथ फैलाकर दूसरे हाथ से दुशासन को धकेलती हुई वह, एक के बाद एक आसन के सम्मुख आक्रोश करती
हुई आगे बढ़ रही थी। प्रलय की महानदी में जैसे एक देवदार वृक्ष लुढ़कता हुआ चला आ
रहा था। वैसे ही दुशासन उसकी विपुल केशराशि की पिंडलियों तक लंबी लटों के साथ लुढ़कता
हुआ खिंचा चला जा रहा था। यह दुशासन के पौरुष को ज्वलंत चुनौती थी, जिसे वह सहन न कर सका। चिढ़कर बौखलाया हुआ दुशासन उसकी लटों को अपने हाथों
के चारों ओर लपेटकर द्रौपदी की गर्दन को बारंबार झटके देने लगा।
उसने बड़ी व्यथा से पतियों की ओर देखा। बड़ी करुण मुद्रा
में उसने युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए कहा, ‘आप धर्मराज कहलाते हैं, क्या
धर्म मीमांसा का सार, नारी को वस्तु समझने में है? क्या यही है धर्म शास्त्रों का निर्णय कि नारी को जुए में दांव पर लगा
दिया जाए?’
द्रौपदी के मुख से जैसे प्रश्नों की झड़ी निकल रही थी.....
पर कोई उत्तर नहीं! कोई नहीं बोलता!! सब निरुत्तर थे। वह
चारों ओर देख रही थी-किरीटयुक्त शीश झुके हुए थे। महामनीषियों के हाथ नेत्रों पर
थे। लोग नत-नयन थे। इन महारथियों, मनीषियों एवं वेद-वेदांत के मर्मज्ञों में से किसी
ने साहस नहीं था कि एक बिलखती-छटपटाती नारी के प्रश्नों का उत्तर दे पाते। नत शिर! नत नयन! किस ग्लानि
में? किस क्षोभ में? किस
पश्चाताप में? इतनी विराट सभा में कोई उसका नहीं!! उसके अपने
कहलाने वाले पति भी उसके अपने नहीं?? किसी में साहस नहीं? कोई धर्म का पक्षधर नहीं?
इतने में उसकी बातों से चिढ़े हुए दुर्योधन ने पुकारा-दुशासन!
इस वाचाल स्त्री का साहस कि सबको धर्म और
शास्त्र सिखाए। उतार दो इसके समस्त वस्त्र परिधान! यहीं इसी सभा में!
अविश्वसनीय! कानों पर विश्वास नहीं हो रहा। इस नीचता पर भी कुरु
कुमार उतर सकते हैं। क्षण भर को द्रौपदी प्रबल प्रभंजन में पड़ी सुकुमार दीपशिखा-सी
प्रकंपित हो उठी। किंतु दूसरे ही क्षण उसने मन से समस्त मानवीय शक्तियों को हटाकर
परमात्मा में एकाग्र कर लिया। इन क्षणों में वह सभी रिश्ते-नातों से ऊपर थी। देह, मन, प्राण से उसकी
चेतना सिमटकर सृष्टि संचालक को समर्पित हो चुकी थी।
वह आकुल स्वर से पुकार उठी- ‘ऐसी विकट परीक्षा तो भगवती सीता की भी नहीं ली गई थी। भगवती सीता को जब अधम
रावण हरकर ले जा रहा था तो पशु-पक्षियों तक ने उनके लिए संघर्ष किया था। जटायु ने
प्राणों का उत्सर्ग किया था और ये मूर्धन्य विद्वान, शिलाओ
से जड़वत बैठे हैं। आह री! पुरुषों की सभा!!
तभी दुर्योधन की वाणी पुनः गूंज उठी- ‘उतार ले इसके वस्त्र-आभूषण, दुशासन!’
दुशासन आगे बढ़ता चला है। अब कोई नहीं रक्षक!!
पांचाली भय से थरथरा उठी। उसकी अंतरात्मा से अंतिम प्रश्न
उभरा- ‘हे भगवान! क्यों सृजन किया तूने नारी का? प्रभु आखिर क्या अस्तित्व रह गया है नारी का तुम्हारी सृष्टि में? क्या वह सिर्फ भोग,बलात्कार,
उत्पीड़न सहने के लिए बनी है? हे अंतर्यामी! हे जनार्दन! हे
कृष्ण! अब सब कुछ तुझ पर निर्भर है।
अंतरात्मा से उभरा यह प्रश्न अबकी बार अनुत्तरित नहीं रहा।
प्रश्न के उत्तर में देखते ही देखते क्षितिज से महादैत्यों
की भांति कालमेघ हुंकार भरते उठ खड़े हुए। चारों दिशाओं से भयंकर भूत-प्रेत-पिशाचों
की भांति प्रलयंकारी विराट काले जलधर उमड़ उठे। अंतरिक्ष में पड़ी सोती हुई दामिनी
चीत्कार करती हुई जाग पड़ी और आग उगलती हुई दिग्दिगंत में कौंध गई। दीर्घ केश
फैलाए पिशाचिनी-सी हाथ में नग्न खंग लिए, उन्माद से थरथराती हुई दौड़ पड़ी तड़ित ज्वाल चारों। वज्र लपलपा उठा।
वृक्षों को गिराता हुआ, प्रासादों को कंपकंपाता हुआ, झंझावत भैरवनाद करता हुआ हरहरा उठा। शेषनाग सहस्र फनों से फुंफकार उठे।
पृथ्वी का कठोर मर्म तड़क गया। धरती डोल रही थी। भूकंप चक्रवात! झंझा! महावात!!
धूलि का कण-कण जैसे अपार शक्तिमान वज्र बन गया था। आज अणु-अणु
कुपित हो उठा था। भयंकर घर्षण था। नाद था। जैसे युगांत का महाघंट बज रहा हो!
कोई कुछ नहीं समझ रहा था कि अकस्मात ये आवाज़ें कहां से आ रही हैं? सभाभवन की छत में
प्रकाश के लिए बनाई गई थाली जैसे गोल छिद्र से एक प्रकाश-पुंज सीधे भीतर आया और
द्रौपदी के समस्त अंगों पर फैल गया। घनघोर झंझा के बीच दुशासन के हाथों की तीव्रता
के अनंत गुना वेग से द्रौपदी की साड़ी का छोर बढ़ने लगा। भगवान महाकाल की करुणा झर
रही थी द्रौपदी पर। कालचक्र को थामने वाले हाथ आज नारी की रक्षा के लिए
कृतसंकल्पित थे।
शरीर में शक्ति न रहने के कारण हाथ नीचे और दुशासन घिसटता
हुआ जैसे-तैसे अपने आसन के पास पहुंचा। उसके स्वेद भरे मस्तक से कुछ बूंदें उसी के
आसन पर टपक पड़ीं। वह खड़ा-खड़ा ही उन बूंदों पर धड़ाम से गिर पड़ा। जैसे शक्ति
बिल्कुल न रही हो। प्रायः सभी के मन में उसके प्रति घृणा थी। अपनी बातों से उसका
समर्थन करने वाले अब आतंकित थे।
सभागृह में मध्य वस्त्रों में घिरी द्रौपदी अपने दोनों हाथ
आकाश की ओर जोड़े भाव-निमग्न खड़ी थी।
उसके नेत्रों से आंसू झर रहे थे। अचानक वातावरण को अपनी गूंज से झंकृत करती हुई
किसी अदृश्य वाणी के स्वर फैलने लगे- ‘नारी सृष्टि की संवेदना शक्ति है। उसका सृजन
हिंसा और बर्बरता के शमन के लिए किया गया है। वह सृजन की देवी है। पुरुष का पौरुष
विस्तार और अनुगमन के लिए है। जिस पर उसने उसके अप।मान का साहस किया है, उसे नष्ट
होना पड़ेगा।’
देवी द्रौपदी! तुम्हें अपमानित करने वाली बर्बरता नष्ट होगी।
सभा में विद्यमान पुरुष अपनी वीरता, विद्वत्ता, साहस का उचित उपयोग नहीं कर सके।
अतएव भावी समय में उनकी प्रधानता स्वयमेव नष्ट हो जाएगी। यह समस्त मानव समाज ऐसा
समय अवश्य देखेगा-‘जब धरा पर नारी का प्रभुत्व आएगा। नारी अभ्युदय का नवयुग मेरा
अटल विधान है।’ महाकाल के इन स्वरों में नारीत्व अपने प्रश्न का समाधान पा चुका था।
द्रौपदी अभी तक भावनिमग्न हो परावाणी की अनुगूंज को सुन रही थी।
मीता गुप्ता , प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय पूर्वोत्तर रेलवे
बरेली
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