क्या करें समय ही नहीं मिलता?
स्वाध्याय के लिए,
आत्म चिंतन के लिए, साधना के लिए,
अक्सर लोग यह कहते रहते हैं कि क्या करें? समय ही नहीं मिलता!!!
वे अपने आप को बहुत व्यस्त बताते हैं। ज़रूरी कामों से फुरसत पाए बिना, भला आध्यात्मिक कामों के लिए इन्हें किस प्रकार समय मिल सकता है? विचार करना चाहिए कि क्या वास्तव में उन्हें फुर्सत नहीं मिलती? क्या वास्तव में वे इतने व्यस्त होते हैं कि आत्म निर्माण के लिए ज़रा भी
समय ना निकाल सकें? जिन कामों को वे ज़रूरी समझते हैं, क्या वे वास्तव में इतने ज़रूरी होते हैं कि उसे थोड़ा भी समय कम ना किया
जा सकें।
हम देखते हैं कि अपने को बहुत ही
व्यस्त समझने वाले व्यक्ति भी काफी समय गपशप में,
मनोरंजन में, मटरगश्ती में तथा आलस्य में व्यतीत करते हैं।
उनके कार्यों का बहुत सारा भाग ऐसा होता है, जो उतना आवश्यक
नहीं होता, फिर भी वे अपनी रूचि एवं दृष्टि के अनुसार उसे ज़रूरी
समझते हैं।
असल बात यह है कि समय ना मिलना या फ़ुर्सत
ना मिलना, इसका मतलब है दिलचस्पी ना होना। जिस काम
में आदमी को दिलचस्पी नहीं होती, जो उतना आवश्यक, महत्वपूर्ण, लाभदायक या रुचिकर प्रतीत नहीं होता, उसके लिए कह दिया जाता है कि इस काम के लिए हमारे पास फ़ुर्सत नहीं है।
अगर बेटा बीमार पड़ जाए, तो तिजारत के सारे कामों को एक तरफ़
हटाकर पिता या माता अपने बेटे की चिकित्सा में लग जाते हैं। विवाह के दिनों में
सोने के लिए पूरा समय नहीं मिलता। विश्राम के घंटों का कार्यक्रम घटाकर उस समय को
शादी-संबंधी कामों में लगाया जाता है। सिनेमा, नाटक, तमाशा देखने वाले लोग रातें बिता देते हैं, इन सब
कार्यों के लिए फ़ुर्सत मिल जाती है, पर कथा-कीर्तन के लिए
समय नहीं मिलता, सत्संग के लिए समय नहीं मिलता, अच्छी किताबें पढ़ने के लिए समय नहीं मिलता। दैनिक कार्यक्रम को बारीकी
से देखा जाए, तो हर व्यक्ति के पास थोड़ा बहुत समय फालतू
अवश्य होता है। वह चाहे तो आसानी से थोड़ा समय आत्म-साधना,
आत्म-मूल्यांकन या आत्म-उत्थान के लिए निकाल ही सकता है।
प्रश्न रुचि का है विचार करना चाहिए कि
क्या आत्म-साधना, आत्म-विश्लेषण, आत्म-उत्थान
ऐसी निरर्थक चीज़ें हैं, जिसके लिए दुनियादारी के साधारण काम
का, बचा कर समय का एक टुकड़ा भी न रखा जा सके। थोड़ा बहुत
भोजन तो हम भिखारी को भी दे देते हैं, तो सोचना चाहिए कि
आत्मा का महत्व क्या उससे भी कम है? शरीर की भूख बुझाने के
लिए हम तरह-तरह के बढ़िया साधन जुटाते हैं, काफी समय खर्च
करके भोजन सामग्री कमाते हैं, पर आत्मा की क्षुधा बुझाने के
लिए स्वाध्याय चिंतन-मनन तथा साधना के लिए थोड़ा भी समय नहीं निकाल पाते। क्या
सचमुच यह सब चीजें इतनी तुच्छ है कि इनकी उपेक्षा की जाए?
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