हिंदी भाषा में लेखन और साहित्य-सृजन
हिंदी भाषा भारत और विश्व में सर्वाधिक
बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा तक
जातीं हैं परन्तु मध्ययुगीन भारत के अवधी, मागधी , अर्धमागधी
तथा मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य को हिंदी भाषा का आरम्भिक साहित्य माना जाता
हैं। हिंदी साहित्य ने अपनी शुरुआत लोकभाषा कविता के माध्यम से की और गद्य का
विकास बहुत बाद में हुआ। हिंदी का आरंभिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है।
हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है-गद्य,पद्य और चंपू(जो गद्य और पद्य दोनों में हो
उसे चंपू कहते है।)
खड़ी बोली की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है
लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखे गये उपन्यास परीक्षा
गुरु को हिंदी भाषा की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं।
साहित्य का अर्थ और महत्व-
अंधकार है वहां जहां आदित्य नही है ।
मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नही है ।
साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और
संस्कृति निर्जीव है। साहित्यकार का कर्म ही है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे, जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय समानता, विश्व-बंधुत्व और सद्भाव के साथ हाशिये के आदमी के जीवन को
ऊपर उठाने में उसकी मदद करे। साहित्य का आधार ही जीवन है।
साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ लिए बिना रचना कर ही
नहीं सकता है, क्योंकि सच्चे
साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज की अस्मिता की पहचान होता है। साहित्य
जब एक समाज के लिए उपयोगी है तभी तक ग्राह्य है। साहित्य की उपादेयता में ही
साहित्य की प्रासंगिकता है। साहित्यकार के अंतस में युगचेतना होती है और यही चेतना
साहित्य सृजन का आधार बनती है। श्रेष्ठ साहित्य भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति और समाज
को संस्कारित करता है उसका युग चेतना से साक्षात्कार कराता है।
साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे के
पूरक माने जाते हैं। साहित्य समाज के मानसिक तथा सांस्कृतिक उन्नति और सभ्यता के
विकास का साक्षी है। ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहा जाता है। साहित्य एक
ओर जहां समाज को प्रभावित करता है वहीं दूसरी ओर वह समाज से प्रभावित भी होता है।
साहित्य शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है पहला शब्द है ‘स’ जिसका मतलब
होता है साथ-साथ जबकि दूसरा शब्द है ‘हित’ अर्थात कल्याण। इस तरह से साहित्य का
अभिप्राय ऐसी लिखित सामग्री से है जिसके प्रत्येक शब्द और प्रत्येक अर्थ में लोक
हित की भावना समाई रहती है। प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग के प्रगतिशील
विचारों द्वारा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है। साहित्य हमारी कौतूहल
और जिज्ञासा वृत्तियों और ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और क्षुधापूर्ति करता
है।
उद्देश्य-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान॥
साहित्य से ही किसी राष्ट्र का इतिहास, गरिमा, संस्कृति
और सभ्यता, वहां के पूर्वजों के
विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन
रीति रिवाजों, रहन-सहन तथा परंपराओं
आदि की जानकारी प्राप्त होती है। साहित्य ही समाज का आईना होता है। किस देश में
कौन सी भाषा बोली जाती है, उस देश
में किस प्रकार की वेशभूषा प्रचलित है, वहां के लोगों कैसा रहन सहन है तथा लोगों के सामाजिक और
धार्मिक विचार कैसे हैं आदि बातों का पता साहित्य के अध्ययन से चल जाता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के
शब्दों में ‘साहित्य सामाजिक मंगल का विद्यालय है यह
सत्य है कि व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से ही साहित्य रचित होता है किंतु और भी अधिक
सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है।’साहित्यकार को समाज का
छायाकार या चित्रकार भी कहा जाता है क्योंकि साहित्यकार अपनी कृति को समाज में चल
रही मान्यताओं और परंपराओं के वर्णन द्वारा ही सजाता है इसलिए साहित्य और समाज में
अन्यायोश्रित संबंध प्रत्येक देश के साहित्य में देखने को मिल जाता है। कबीर ने
अपने समय के आडंबरों, सामाजिक
कुरीतियों और मान्यताओं के विरोध में अपनी आवाज उठाई। ठीक इसी तरह प्रेमचंद ने
अपनी कहानियों और उपन्यासों में किसी न किसी समस्या के प्रति संवेदना जताई है। कोई
भी साहित्यकार चाहे कितना भी अपने को समाज से अलग रखना चाहे लेकिन वह ऐसा नहीं कर
पाता है।
आदिकवि वाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी
हमारे ह्रदय मरूस्थल में मंजु मंदाकिनी प्रवाहित कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास जी
का अमर काव्य आज अज्ञानान्धकार में भटकते हुए असंख्य भारतीयों का आकाशदीप की भाँति
पथ-प्रदर्शन कर रहा है। कालिदास का अमर काव्य भी आज के शासकों के समक्ष रघुवंशियों
के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित करता है। आज भारतवर्ष युगों युगों से अचल
हिमालय की भांति अडिग खड़ा है, जबकि
प्रभंजन और झँझावात आए और चले गए। यदि आज हमारे पास चिर-समृद्ध साहित्य ना होता तो
ना जाने हम कहां होते और होते भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता था।
साहित्यकार समाज का प्राण होता है।
समाज में रहकर समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म
और व्यवहार वातावरण से ही अपनी रचना के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है और लोक भावना का
प्रतिनिधित्व करता है। अतः समाज की जैसी भावनाएं और विचार होंगे वैसा ही तत्कालीन
साहित्य भी होगा। इस प्रकार सामाजिक गतिविधियों तथा समाज में चल रही परंपराओं से
समाज का साहित्य अवश्य ही प्रभावित होता है। साहित्यकार समाज का एक जागरूक प्राणी
होता है। वह समाज के सभी पहेलूओं को बड़ी गंभीरता के साथ देता है और उन पर विचार
करता है फिर उन्हें अपने साहित्य में उतारता है।
साहित्य समाज से भाव सामग्री और प्रेरणा ग्रहण करता है तो
वह समाज को दिशाबोध देकर अपने दायित्व का भी पूर्णतः अनुभव करता है।
परमुखापेक्षीता से बचाकर उनमें आत्मबल का संचार करता है। साहित्य का पांचजन्य
उदासीनता का राग नहीं सुनता, वह
तो कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समर भूमि में उतरने
के लिए बुलावा देता है। इसलिए श्री महावीर प्रसाद जी ने साहित्य की शक्ति को तोप, तलवार, तीर
और बम के गोलों से भी बढ़कर स्वीकार किया है। बिहारी के एक दोहे से-
नहिं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास
इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन
हवाल।।
राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य का ज्ञान
हो गया और उसके जीवन में बदलाव आ गया। भूषण की वीर भावों से ओतप्रोत ओजस्वी कविता
से मराठों को नव शक्ति प्राप्त हुई। इतना ही नहीं स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में
माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी
चौहान जैसे कई कवियों ने अपनी ओजपूर्ण कविताओं से न जाने कितने युवा प्राणों में
देशभक्ति की भावना भर दी।
तात्पर्य यह है कि समाज के विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसके
साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है। अतः साहित्य समाज का दर्पण होना स्वाभाविक ही
है। साहित्य अपने समाज का प्रतिबिंब है, वह समाज के विकास का मुखर सहोदर है।
श्रेष्ठ साहित्य क्या है?
किसी भाषा के वाचिक और लिखित
(शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें
आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल
स्रोत है।साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है? क्या आत्मसंतुष्टि अथवा सुखानुभूति या प्रेरणा या संदेश या
जागृति?
संवेदना ही एक ऐसी चीज है, जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। संवेदनहीन साहित्य समाज को
कभी प्रभावित नहीं कर सकता और वह मात्र मनोरंजन कर सकता है। सिर्फ मनोरंजन द्वारा
ही साहित्य को जीवित रखना संभव नहीं है।
अगर साहित्य के पूरे इतिहास को सामने रखकर देखा जाए तो सहज
ही पता चल जाएगा कि महान साहित्य उसी को माना गया है जिसमें
1.अनुभूति की तीव्रता और भावना का प्राबल्य रहा है। श्रेष्ठ
साहित्य एक सार्थक, स्वतंत्र
एवं संभावनाशील विधाओं से जीवन के यथार्थ अंश, खंड, प्रश्न, क्षण, केंद्रबिंदु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करता है।
2.श्रेष्ठ साहित्य को मापने का न कोई पैमाना है, न ही कोई मापदंड, क्योंकि साहित्य इतना विराट और इतना सूक्ष्म है कि उसको
विश्लेषित करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। साहित्य का कार्य चुनौती देना या
लेना नहीं है। साहित्य 'सर्वजन
हिताय,
सर्वजन सुखाय' रचा जाता है। इस सर्व में निस्संदेह आत्म भी समाहित होता
है। कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती।
3.हिंदी भाषा में लेखन और साहित्य सृजन-रचनाकार जब जीवन की
सूक्ष्म,
गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की
सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत
पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं। श्रेष्ठ साहित्यिक रचना के कुछ मूलभूत संस्कार
हैं,
जो आम रचनाकार द्वारा पालित किए जाते हैं तो वह उच्च श्रेणी
की रचना बन सकती हैं।
श्रेष्ठ लेखन और साहित्य-सृजन की अर्हताएँ-
किसी भी साहित्य विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में
प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक
पक्ष,
शैली, संवेदनीयता
और उसका कला पक्ष प्रमुख हैं।
1. साहित्य
समाज का दर्पण- किसी भी साहित्य को कालजयी बनाने में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं-
पहला समय की पहचान और उस काल की संवेदनाओं को आवाज देना और दूसरा समकालीन विश्व
साहित्य से पूर्ण परिचय और उसके स्तर पर साहित्य रचना।
2. भाषा का
ज्ञान- भाषा, साहित्य, व्याकरण, शब्द
ज्ञान,
रचना कौशल, शिल्प
आदि गंभीर अध्ययन और मनन का विषय हैं जिसके लिए पर्याप्त समय, साधन, साधना, गहरी रुचि और समर्पण चाहिए। इनमें से कितना कुछ आज उपलब्ध
है?
ऐसी पृष्ठभूमि में यह अपेक्षा करना कि हर दृष्टि से शुद्ध
साहित्य ही परोसा जाए, केवल
दिवास्वप्न समान है। अंतरजाल के विशाल क्षेत्र में पनपते अनेक साहित्य समूहों, ई-पत्रिकाओं के लिए विशुद्ध साहित्यिक सामग्री पर निर्भरता
असंभव है।
3. रचना
कौशल- रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतरवस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने
के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं, वही रचना कौशल है। कालजयी वही रचनाएं हो सकीं जिनमें सहज
संप्रेषण था। लेखन एक कला है, जो
आते-आते आती है। इसे सहजता से स्वीकारने में संकोच क्यों हो। काव्यस सृजन उससे भी
कठिन है। आयोजनों के लिए रचा गया काव्य सामान्यतया रचनाकार का श्रेष्ठ कृतित्व
नहीं होता है।
4. कथानक-
कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केंद्रीयता, एकतंतुता और सांकेतिकता आदि होने से रचना की प्रभावशीलता
अधिक बढ़ जाती है इसलिए रचना के तत्वों में तीक्ष्णता, तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है।
चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने
कहा था'
को मोटे तौर पर देखें तो 3 विशेषताएं हैं, जो 'उसने कहा
था'
को कालजयी और अमर बनाने में अपनी-अपनी तरह से योगदान देती
हैं। इसका शीर्षक, फलक और
चरित्रों का गठन।
5. कथावस्तु-
कथावस्तु का विन्यास एवं घटनाओं का संयोजन भी बड़ा महत्व रखता है, क्योंकि कथावस्तु का विन्यास, घटनाओं के क्रम नियोजन की प्रस्तुति जब रचना में सशक्त होती
है,
तब वह पाठक को अपनी तरफ खींचती है। हर लेखक अपनी क्षमता के
अनुसार कथा विन्यास का उपयोग अपनी रचनाओं में करता है। समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली रचना में कथानक की एक सुगठित, सुग्रथित, सुसंबद्ध
एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा
आदि का निर्माण अत्यंत सावधानी से करना पड़ता है।
6. सुस्पष्ट
विचार श्रृंखला- साहित्य में विचारधारा एक विचारदृष्टि के रूप में रहती है और
कभी-कभी सृजन के स्तर पर वह भावबोध को निर्धारित भी करती है। 'मुक्तिबोध' ने
साहित्य में विचारधारा के उपयोग के लिए 'कामायनी' का
मूल्यांकन करते हुए कहा था-'काव्य
रचना जितनी उत्कृष्ट होती है, उसकी
प्रभाव क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है इसलिए उस काव्य कृति में व्यक्त विचारधारा
की प्रभाव शक्ति को ध्यान में रखते हुए उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन विचारधारा के मूल्यांकन को काव्यगुण के मूल्यांकन से
अलग रखना चाहिए।'
7. कथोपकथन-
किसी भी रचना में कथोपकथन का बहुत महत्व है। यह प्रभावोत्पादक, जानकारीपूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या
अभिप्राय प्राय: संवादों के जरिए सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यंत प्रभविष्णु अंश होता है
और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य
और महत्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं।
8. पात्रों
का चयन-साहित्यकार को इस प्रकार के पात्रों का चयन करना चाहिए, जो सहानुभूति और समझ के साथ विभिन्न सामाजिक वर्गों की एक
विस्तृत श्रृंखला को समाहित कर अलग-अलग परिस्थितियों को दृढ़तापूर्वक वर्णित करने
में सक्षम हों और परिस्थितियों पर 'एकल-बिंदु' परिप्रेक्ष्य
तक सीमित न हों। आरके नारायण की रचनाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय 'मालगुड़ी' की
पृष्ठभूमि से जुड़ी रचनाएं हैं। 'मालगुड़ी' ब्रिटिश शासनकाल का एक काल्पनिक नगर है। इसमें स्वामी, उसके दोस्त सहित तमाम चरित्र हैं। इसके सारे पात्र खांटी
भारतीय चरित्र हैं और सबकी अपनी विशिष्टताएं हैं।
9. मनोवैज्ञानिक
गहराई और प्रेरणा की स्पष्टता- किसी भी कालजयी रचना के पात्र मनोवैज्ञानिक गहराई
और प्रेरणा की स्पष्टता के साथ दिखाई देते हैं। ये पात्र सत्य, परिवर्तन, विकास
या जागरूकता को प्रक्षेपित करते हुए दिखाई देते हैं, साथ ही उस अनुभव को सम्प्रेषित करते हैं, जो समाज में इस तरह के बदलाव का कारण बनने के लिए उपयुक्त
हैं।
10. काल की युगभावना और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य- जिस काल में
रचना का निर्माण हो, उस काल
की युगभावना और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समाहित कर गहन कल्पनाशीलता के साथ
प्रस्तुति साहित्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है। 'तीसरी कसम' कहानी
को अगर शास्त्रीय कथानक के ढांचे के अंतर्गत विश्लेषित किया जाए तो हम पाएंगे कि
इसमें आदि, मध्य और अंत के
निश्चित ढांचे वाला कथानक ढूंढ पाना मुश्किल है। इसमें जीवन का एक लघु प्रसंग, उसी प्रसंग से उलझे जुड़े अन्य प्रसंग, मिथक, गीत-संगीत, मूड, सुगंध
आदि सब सम्मिलित रूप में मिलकर ही कथानक बन गए हैं।
11. मानवता और समाज के प्रति हमारे दायित्व का बोध- हमें अपनी
मानवता और समाज के प्रति हमारे संबंध और हमारे ब्रह्मांड के प्रति हमारे दायित्व
का बोध होना चाहिए। प्रेमचंद की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की
कहानी कहती हैं। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं
में वे नायक हुए जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोलचाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील
विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया।
12. आदर्शोन्मुख और
यथार्थवादी- साहित्यकार की कृति आने वाली पीढ़ी या समकालीन लेखकों के समक्ष
आदर्श प्रस्तुत करती हो या साहित्यकार उसका अनुसरण करने के लिए मानसिक रूप से
बाध्य हों तो समझिए आप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं।7.
13. लेखन-शैली व नए शब्द गठन का सामर्थ्य-आपकी लेखन की शैली एक विशिष्ट
भाषाशैली,
तरीके, शब्दों
के विन्यास या विधा तक सीमित नहीं होनी चाहिए।
14. औपचारिक अखंडता-लेखन में औपचारिक अखंडता होनी चाहिए, साहित्यकार को अपनी रचना पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहिए तथा
ऐसा कोई भी शब्द या प्रसंग रचना में न हो, जो उस रचना की कथावस्तु से संबंधित न हो। रचना अपना
उद्देश्य चरम के साथ प्राप्त करे, यही
श्रेष्ठ रचना का लक्षण होता है।
पाठक तो क्या, अधिकांश रचनाकार भी साहित्य सृजन की बारीकियों से अनभिज्ञ
हैं। 80-90 प्रतिशत लेखक व पाठक केवल भावपक्ष या तत्व पक्ष को ही
प्रधानता देते हैं। काव्य विधा की कई शाखाएं जैसे सोरठा, कुंडलियां, सवैयां
दोहा आदि लुप्त होते जा रहे हैं।
निष्कर्षतः साहित्य सृजन सचमुच उपासना है, अमरता की ओर ले जाने का पथ है। कहते हैं कही गई बात मिट
जाती है किन्तु लिखी हुई बात अमर हो जाती है।
जो कह दिया सो बह गया
जो लिख दिया सो रह गया
एक प्रवाह बन गया
दूसरा शाश्वत हो गया॥
साहित्य सृजन एक जटिल,रहस्यमयी एवं संश्लिष्ट प्रक्रिया है। एक रचनाकार अपने
अन्तर्मत में उपजे अमूर्त भावों एवं विचारों को मूर्त बनाकर अपनी रचना के माध्यम
से अभिव्यक्त करता है। समाज को देखने का प्रत्येक व्यक्ति अथवा रचनाकार का अपना
दृष्टिकोण होता है। समाज के यथार्थ को एक साहित्यिक रचनाकार जैसे देखता,समझता और महसूस करता है, उसके मन-मस्तिष्क पर समाज में घटित घटनाओं का वैसा प्रभाव
पड़ता है जो उसकी रचनाओं के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्फुटित होता है। अपने को
व्यक्त करने की इच्छा से सर्जक पहले अपनी निजता से मुक्त होता है और फिर
समाजोन्मुखी बनता है। अपनी निजी सोच के फलस्वरूप ही वह सामाजिक सत्य को अपनी
दृष्टि के अनुसार ही अभिव्यक्ति प्रदान करता है। इतना ही नहीं वह अपनी सृजनात्मकता
द्वारा यह भी दृष्टिगत करने का प्रयास करता है कि समाज कैसा होना चाहिए। यह 'कैसा होना चाहिए' ही उसकी अपनी भावानुभूतियों को प्रत्यक्ष रूप से सामने लाता
है जिसमें रचनाकार का व्यक्तित्व उसकी रचना के केंद्र में स्वत् ही समाविष्ट हो
जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो रचनाकार कोई भी साहित्यिक रचना यथार्थ की पुनर्सृष्टि
होती है।
मीता गुप्ता