Saturday, 28 October 2023

त्योहारों पर हावी होता बाज़ारवाद

 

त्योहारों पर हावी होता बाज़ारवाद



 

बाज़ार मनुष्य की ज़रूरत और वस्तुओं के बीच का सेतु है। वास्तव में ज़रूरत की चीज़ों की आपूर्ति के लिए ही बाज़ार अस्तित्व में आया होगा। बाज़ार की वास्तविक धुरी लाभ नहीं, बल्कि लेन-देन, आपसी सहयोग, भाईचारा और आवश्यकता की वस्तुओं की उपलब्धता की एक भावना रही होगी। लेकिन आज बाज़ार का स्वरूप बदल गया है। आज यह ज़रूरत की चीज़ों की उपलब्धता तक ही सिमटा नहीं है, बल्कि यह केवल लाभ का केंद्र बन गया है। पुराने बाज़ार में सामाजिकता और सामूहिकता थी। लोगों के बीच परस्पर संवाद थे। परस्पर काम आप आने की चाहत थी। नए बाज़ार ने सहकारिता के इस भाव को अपदस्थ कर दिया है। आदमी बाज़ार में होते हुए भी अकेला रह गया है। पुराने बाज़ार की सामूहिकता आज  बाज़ार के अकेलेपन में तब्दील हो गई है। सामूहिकता पुरानी बाज़ार का मूल चरित्र था, तो नए बाज़ार का मूल चरित्र अकेलापन हो गया है। नया बाज़ार किसी भी तरह के संवाद के बजाय चीज़ों के प्रति आक्रांत चेतना का निर्माण करता है, इसीलिए आज बाज़ार अपने संपूर्ण चरित्र में आक्रामक हो गया है। यह आक्रामकता भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के चलते आई है। आज का बाज़ार और उसका उपभोक्तावाद दरअसल भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की आड़ में चलने वाली नव साम्राज्यवादी नीति का हथकंडा बन गए हैं। उपभोक्तावाद और बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था की मिली-जुली संस्कृति के लिए एक और शब्द प्रचलित है, और वह है बाज़ारवाद या बाज़ारूपन । जो फ़र्क बाज़ार और बाज़ारवाद में है, वही फ़र्क उपभोग और उपभोक्तावाद में है। बाज़ारवाद बाज़ार की तार्किक परिणति है। बाज़ार हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और बाज़ारवाद उन समस्याओं को और उग्र करता है, जिसे मुक्ति दिलाने का वादा करता है। बाज़ारवाद पूंजीवाद की नहीं, अपितु संकटग्रस्त पूंजीवाद या उत्तर पूंजीवाद की संतान है।

हमारे त्योहार भी बाज़ारवाद की चपेट में आ चुके हैं और बाज़ार की इस रंगीन दुनिया और रंगीन चश्मे को चढ़ा चुके हैं। यह सर्वविदित है कि भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है। स्वाभाविक है यहां के लोग धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और ईश्वर में उनकी अधिक आस्था है। संभवतः यह बात इन अवसरवादी मुनाफाखोरों की समझ में अच्छी तरह आ चुकी है कि यदि भारतीयों की धार्मिकता और आस्था को बाज़ार की व्यवस्थाओं में गड्डमड्ड कर दिया जाए, तो लाखों करोड़ों ही नहीं बल्कि अरबों-खरबों के वारे-न्यारे हो सकते हैं। इसी वैश्विक सोच और बाज़ारवादी साज़िशों का नतीजा है कि अब हमारे धार्मिक आस्थाओं के केंद्र त्योहारों को अधिकांशतः क्रय- विक्रय व आर्थिक विनिमय से संलग्न किया जाता है।

दीपावली महालक्ष्मी की पूजा-आराधना का पर्व है। लक्ष्मी यानी धन-धान्य और ऐश्वर्य की देवी। इस आधार पर देखें, तो हमारा देश जितना आध्यात्मिक है, उतना ही भौतिकवादी भी जान पड़ता है। हम ज्ञान के साथ-साथ समृद्धि की भी उपासना करते आए हैं क्योंकि हमें अपने परलोक को ही नहीं, इह लोक को भी सुंदर और सफल बनाना है। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में भगवान विष्णु को  सृष्टि का सूत्रधार माना गया है। वे ही सृष्टि का संचालन और पालन पोषण करते हैं। ज़ाहिर है इस दायित्व का निर्वाह में अकेले नहीं कर सकते। इसमें उन्हें अपनी पत्नी लक्ष्मी का साथ चाहिए। इन पौराणिक मान्यताओं के माध्यम से हमारे शास्त्र रचयिता ऋषियों-मनीषियों  ने संभवत यह संदेश देना चाह है कि हमें धन की उपासना तो अवश्य करनी चाहिए, लेकिन वह उपासना इस तरह हो, जैसे पूजा कर की जा रही हो अर्थात भौतिकतावाद के साथ पवित्रता का भाव भी जुड़ा हो।

भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वत्र प्रतिकूल आज पूंजी ही जीवन का अभीष्ट बन गया है। आज  इस नव-उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को लागू हुए अनेक दशक हो चुके हैं, तब से लेकर अब तक हम केवल बाज़ारवाद की ही पूजा अर्चना कर रहे हैं, लक्ष्मी आज आराध्य नहीं, बल्कि एक ग्लोबल प्रतिमा बन कर रह गई हैं।  उनकी पूजा में लोक-जीवन को संपन्न करने की इच्छा कम और खुद को समृद्ध बनाने की लालसा ज्यादा व्यक्त की जाने लगी है। डिज़ाइनों और ब्रांडों के बोलबाले ने मिट्टी की की प्रतिमाओं को  कुम्हार के कलाकार हाथों से छीनकर  डिज़ाइनर बना दिया है  डिज़ाइनर देव के साथ ही ब्रांडेड मामबत्तियां का भी चलन बढ़ा है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह अब ब्रांडेड मिठाइयां और मुनाफ़ाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चॉकलेट ने ले ली है।

दीपावली के त्योहार पर उपहार और मिठाई के आदान-प्रदान का चलन पुराना है, लेकिन पहले उसमें गहरी आत्मीयता थी। आज इस गिफ्ट संस्कृति का इस कदर प्रचलन हुआ है कि खून के रिश्तों को भी अब गिफ्ट के फेविकोल की ज़रूरत है। कई लोग तो किसी का हिसाब चुकता करने, ओब्लाइज करने, धौंस जमाने या पैसे की पॉवर दिखाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आउर हां, इससे गिफ़्ट देने वाले की हैसियत का भी अंदाज़ा लगता है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जिनकी हैसियत गिफ़्ट देने की नहीं है, वे सामने वाले को त्यौहार की शुभकामनाएं देने भी नहीं जाता है।  बाज़ार इस कदर हमलावर हुआ है कि उसके बिना अब रिश्तों की मिठास नहीं बच सकी।  बाज़ार में वर्चस्व की अवधारणा से जुड़कर मनुष्य को महज़ एक उपभोक्ता के रूप में बदल दिया है। इस तरह बाज़ार की नई अवधारणा मनुष्यता की अवधारणा के खिलाफ़ है। मनुष्य की अवधारणा में विचार, तर्क, बुद्धि, संदेह और प्रतिरोध शामिल होते हैं, जो बाज़ार की अवधारणा में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। नए बाज़ार का हमला मनुष्य होने की इन्हीं प्रवृत्तियों पर है। मनुष्य की इन्हीं प्रवृत्तियों को नष्ट करके बाज़ार की वर्चस्व की अवधारणा को वास्तविक ज़मीन मिल सकती है। दरअसल वर्चस्व की अवधारणा ही बाज़ार का मेकैनिज्म है।

आज से कुछ साल पहले तक भी त्यौहार अपनी मूल भावना के साथ मनाया जाते थे। दिवाली पर माटी के दीए जलाए जाते थे, जिससे कुम्हार को भी काम मिलता था। इसकी जगह आजकल फैंसी लाइटों ने ले ली है, जिससे बजट भी बिगड़ जाता है और जेब पर काफी प्रभाव पड़ता है। अपने घर पर ही बनी हल्की मिठाइयां बना ली जाती थीं, जो अड़ोस-पड़ोस के लोगों को खिलाई जाती थीं। अब ज्यादा महंगे गिफ्ट के चक्कर में लोगों का आपसी प्यार भी बहुत कम हुआ है और लोग एक-दूसरे को जाकर शुभकामनाएं देने के बजे फोन पर, व्हाट्सएप पर, मेल पर, इंस्टाग्राम, ट्विटर या फिर फेसबुक पर चार लाइन लिखकर, चार लाइन टाइप करके अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं और अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं। इससे आपसी भाईचारा और प्यार कम होता जा रहा है। दिवाली की मूल भावना यह है कि हम इस दिन बुराइयों का त्याग करें, लेकिन वह भावना बदलकर अब बड़े-बड़े मंहगे पटाखे को छुड़ाने तक सीमित रह गई है, जो ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और श्रवण प्रदूषण को बढ़ावा दे रही है। मूल भावना बुराइयों का त्याग करने की है, बुराइयों का अंत  निश्चित है, यह सब अब समाप्त हो चुका है। पहले गांव में लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाई जाती थीं, जिससे गांव के लोगों को रोज़गार मिलता था और जब ये विसर्जित की जाती थीं, तो उनसे कोई प्रदूषण भी नहीं होता था। आजकल तो केमिकल की मूर्तियां बनती हैं, जो नदियों और मृदा को प्रदूषित करती हैं।

बाज़ारवाद हमारे त्योहारों पर इस कदर हावी हो गया है कि त्योहारों की असली चमक फीकी पड़ गई है। सभी त्योहारों की यही स्थिति है। हम त्योहारों की मूल भावना को भूलकर बाज़ारवाद की चपेट में आ चुके हैं। हम आकर्षक प्रचार के कारण उत्पादों की ओर खिंचे चले जाते हैं और त्योहारों को पारंपरिक स्वरूप में नाम मनाकर बाज़ारवादी उपभोक्ता केंद्रित जाल में फंस कर गैर पारंपरिक स्वरूप में मानने लगे हैं, यह विडंबना नहीं तो और क्या है? बाज़ारों में जहां देखो, वहां वाकई में केवल और केवल धन बरसता ही दिखाई देता है। बर्तन हों, वाहन हों, सोना-चांदी हो,जवाहरात या ऐश्वर्य और विलासिता के महंगे उपकरण हों, सभी शोरूम जगमगाते दिखाई देते हैं। आम जनता में भी खरीदी का उत्साह चरम उत्कर्ष पर होता है। बेहद हर्ष का विषय है, परंतु यह बात हार्दिक खेद भी  है कि आपाधापी से भरे बाज़ारवाद में हमारे हमारी मूल भारतीय संस्कृति से हमें दूर कर दिया है। त्योहार को मानना या ना मानना हमारी क्रय शक्ति यानी परचेज़िंग पावर पर निर्भर करने लगा है।

निसंदेह बाज़ारवाद से देश में समृद्धि का एक नया वातावरण निर्मित हुआ है। महानगरों में एक बड़े वर्ग के बीच हमेशा उत्सव का माहौल रहता है, लेकिन उनके इस उत्सव में न तो बहुत ज्यादा सामाजिकता होती है और ना ही इसके पीछे किसी प्रकार की कलात्मक उसमें जो कुछ होता है उसे भोग विलास या आमोद प्रमोद का फुहार और बेकाबू वातावरण का सकते हैं यह सब अगर एक छोटे से टपके तक सीमित रहता तो भी कोई हर्ष नहीं था लेकिन ज़्यादा मुश्किल तो यह है कि यथा राजा तथा प्रजा की तर्ज पर यही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी होते जा रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है उनके लिए बैंकों ने फ्रीडम की तर्ज पर क्रेडिट कार्ड की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन प्रदान कर रखे हैं। विभिन्न कंपनियों के शोरूम से निकलकर रोज़ाना सड़कों पर आ रही लगभग हजारों कारों और शानो-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल पर लगने वाली भीड़ से भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर हर तरफ़ लालसा, लोभ, तृष्णा, अतृप्ति, असंतुष्टि का तांडव ही ज़्यादा दिखाई देता है क्योंकि बाज़ार एक भूख को जन्म देता है, “मुझे और चाहिए....और चाहिए” की भावना मनुष्य में जागृत होती है और उसे यह भी लगता है कि बाज़ार में सब कुछ फैला हुआ है, सब कुछ सुंदर दिखाई दे रहा है और उसके पास कुछ भी नहीं है। अतिरिक्त की यह लालसा बहुत खतरनाक है। देश में बढ़ रहे अपराधों खासतौर पर यौन अपराधों की वजह यही है। देश में उन्हें इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे ऊंचा है, जहां बाज़ारवाद का बोलबाला है। यह सब कहने का आशय सिर्फ़ अनैतिक समृद्धि की रचनात्मक आलोचना करना  है। साथियों! क्या ऐसी आलोचना नहीं होनी चाहिए?

 

 

                      मीता गुप्ता

खादी-राष्ट्र के लिए, फ़ैशन के लिए

 

खादी-राष्ट्र के लिए, फ़ैशन के लिए




खादी, यह शब्द स्वयं 'खद्दर' से लिया गया है, जो भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में हाथ से बुने गए कपड़े के लिए एक शब्द है। जबकि खादी आमतौर पर कपास से निर्मित होती है, आम धारणा के विपरीत, यह रेशम और ऊनी धागे (जिन्हें क्रमशः खादी रेशम और खादी ऊन कहा जाता है) से भी बनाई जाती है।

इतिहास में खादी के बारे में कुछ बेहद दिलचस्प तथ्य मिलते हैं। हाथ से कताई और हाथ से बुनाई करना भारतीयों को हजारों वर्षों से ज्ञात है। पुरातात्विक साक्ष्य, जैसे टेराकोटा स्पिंडल (कताई के लिए), हड्डी के उपकरण (बुनाई के लिए) और बुने हुए कपड़े पहने हुए मूर्तियाँ, संकेत देते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में वस्त्रों की एक अच्छी तरह से विकसित और समृद्ध परंपरा थी। वास्तव में, मोहनजोदड़ो (पुरातत्वविदों द्वारा पुजारी राजा की संज्ञा दी गई) में पाई गई प्रसिद्ध पत्थर की मूर्ति सजावटी रूपांकनों और पैटर्न के साथ एक सुंदर वस्त्र पहनती है जो अभी भी आधुनिक गुजरात, राजस्थान और सिंध में उपयोग में है। हालाँकि हड़प्पावासियों द्वारा उपयोग की जाने वाली खेती की वास्तविक विधि या कताई की विधि के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। सिंधु घाटी सभ्यता में हाथ से काते गए कपास का प्रमाण मिलता है, जो खादी को प्राचीन बनाता है। जैसे-जैसे साल आगे बढ़े, इसका नाम मलमल, चिंट्ज़ और केलिको पड़ गया। औरंगजेब के शासनकाल में भी इसका प्रयोग होता पाया गया।

भारत में सूती वस्त्रों का सबसे पहला विवरण प्राचीन साहित्यिक संदर्भों से मिलता है। 400 ईसा पूर्व में, यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस ने लिखा था कि भारत में, "जंगली पेड़ उगते थे, जो सुंदरता और गुणवत्ता में भेड़ के ऊन से बेहतर एक प्रकार का ऊन पैदा करते थे। भारतीय इस पेड़ की ऊन का उपयोग अपने कपड़े बनाने के लिए करते हैं।“

जब सिकंदर महान ने भारत पर आक्रमण किया, तो उसके सैनिकों ने सूती कपड़े पहनना शुरू कर दिया जो उनके पारंपरिक ऊनी कपड़ों की तुलना में गर्मी में कहीं अधिक आरामदायक थे। अलेक्जेंडर के एडमिरल, नियार्कस ने दर्ज किया कि "भारतीयों द्वारा पहना जाने वाला कपड़ा पेड़ों पर उगाए गए कपास से बनाया जाता है", जबकि एक अन्य यूनानी इतिहासकार, स्ट्रैबो ने भारतीय कपड़ों की जीवंतता का वर्णन किया। दिलचस्प बात यह है कि महाराष्ट्र में अजंता की गुफाओं में 5वीं शताब्दी की कुछ पेंटिंग्स में कपास के रेशों को बीज से अलग करने की प्रक्रिया (जिन्हें जिनिंग कहा जाता है) के साथ-साथ महिलाओं द्वारा सूती धागा बुनने की प्रक्रिया को दर्शाया गया है!

एक अन्य साहित्यिक साक्ष्य तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य शासनकाल के दौरान संकलित चाणक्य के अर्थशास्त्र द्वारा प्रदान किया गया है, जो "सूत के अधीक्षकों (सूत्राध्यक्ष)" को संदर्भित करता है, जिन्हें "ऊन, छाल-रेशे, कपास, भांग और सन से सूत कातना चाहिए" और "माल का उत्पादन करने वाले कारीगरों द्वारा कार्य कराया जाना"।

सिकंदर और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा स्थापित व्यापार मार्गों ने कपास को एशिया के सुदूर हिस्सों और अंततः यूरोप तक पहुँचाया। मध्ययुगीन युग तक, हाथ से बुनी हुई भारतीय मलमल अपनी उत्कृष्ट पारभासी गुणवत्ता के कारण दुनिया भर में बहुत मांग में थी - मलमल के प्रत्येक धागे की मोटाई बाल के एक धागे का 1/10 वां हिस्सा होती है।

  मुगल दरबार में मलमल को लेकर एक दिलचस्प किस्सा है। औरंगजेब की बेटी राजकुमारी ज़ेब-उन-निसा को एक बार उसके पिता ने पारदर्शी पोशाक पहनने के लिए डांटा था। मुगल बादशाह को बहुत आश्चर्य हुआ जब उसने उत्तर दिया कि उसने मलमल की सात परतें पहनी हुई हैं!

कालीकट में पुर्तगालियों के आगमन से यूरोप में लिनन जैसे केलिको कपड़े (कालीकट या वर्तमान कोझिकोड के नाम पर) और चिंट्ज़ (लकड़ी के ब्लॉक मुद्रित केलिको) का आगमन हुआ। प्रारंभ में बिस्तर कवर और पर्दे के रूप में उपयोग किए जाने वाले, ये हाथ से बुने हुए कपड़े जल्द ही अपने आराम, स्थायित्व और कम लागत के कारण आम लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए।17वीं शताब्दी के अंत तक, भारत के हाथ से बुने हुए मलमल, केलिको और चिंट्ज़ का यूरोप के बाजारों में बोलबाला था। अपनी स्थानीय मिलों पर ख़तरे से चिंतित होकर, फ़्रांस और इंग्लैंड ने क्रमशः 1686 और 1720 में चिंट्ज़ के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाए। इसके बाद, उन्होंने यूरोपीय मिलों में निर्मित कम लागत वाले कपड़ों से भारतीय बाजारों को भर दिया।

इसके साथ ही बंबई में कपड़ा मिलों की शुरुआत के परिणामस्वरूप भारत में हाथ से बुनी खादी के उत्पादन में भारी गिरावट आई। भारत भर में लाखों बुनकरों ने अपनी आजीविका खो दी क्योंकि मैनचेस्टर के मशीन-निर्मित वस्त्रों ने बाजार पर कब्ज़ा कर लिया। गिरावट तब तक जारी रही जब तक इसे एक छोटे कद के चश्मे वाले व्यक्ति ने अकेले ही रोक नहीं दिया, जो चरखे को भारत के आर्थिक उत्थान का आधार बनाना चाहता था: मोहनदास करमचंद गांधी।

यह प्रक्रिया कपास की खेती से शुरू होती है। एक बार जब कपास उग जाती है, तो इसे धोया जाता है, जो इसे तैयारी के लिए तैयार करता है। सफाई के बाद सूत बनाने के लिए इसे चरखे पर काता जाता है। चरखा या चरखा एक उपकरण है जो अब भारत में गांधीजी का प्रतीक है। सूत कातने के बाद, बुनाई की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए इसे बॉबिन पर लपेटा जाता है। फिर सूत को हथकरघे पर बुना जाता है, और कपड़ा रंगाई के लिए भेजा जा सकता है। खादी वस्त्र की बनावट खुरदरी होती है। यह गर्मियों के दौरान ठंडा और सर्दियों के दौरान गर्म रखता है।

गांधी ने न केवल भारत के अग्रणी खादी उद्योग को पुनर्जीवित किया, बल्कि उन्होंने हाथ से बुने गए साधारण कपड़े को सभी स्वदेशी चीजों का प्रतीक बना दिया। जब उन्होंने पूरे भारत में लोगों को ब्रिटिश निर्मित कपड़ों का बहिष्कार करने, अपना सूत कातने और खादी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया, तो वह उन्हें अपने ग्रामीण भाइयों को समर्थन देते हुए अपनी विरासत पर गर्व को फिर से खोजने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। यह संक्षिप्त मास्टरस्ट्रोक स्वतंत्रता आंदोलन को शिक्षित सामाजिक अभिजात वर्ग के दुर्लभ दायरे से बाहर और जनता तक ले गया। यह ब्रिटेन की शोषणकारी नीतियों को उजागर करने और भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की वैधता पर एक बड़ा प्रतीकात्मक आघात करने का गांधी का तरीका भी था। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महात्मा गांधी ने खादी वस्त्र को हमारे देश को आत्मनिर्भर, स्वतंत्र बनाने और हमारे लोगों को काम देने के एक उपकरण के रूप में देखा था। बहिष्कार आंदोलन की शुरुआत के साथ, स्वदेशी आंदोलन के पहले कदम के रूप में, गांधीजी ने खादी के उत्पादन को बढ़ावा दिया।

यह 1918 था जब गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक हिस्से के रूप में स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व किया था। उन्होंने खादी के पुनरुद्धार से आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन आयातित वस्तुओं और सामग्रियों का बहिष्कार करने और हमारे नागरिकों में एकता और आत्मविश्वास की भावना पैदा करने के लिए बनाया गया था कि हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं।

खादी कपड़ा लोगों को यह एहसास दिलाने की गांधीजी की रणनीति का एक हिस्सा बन गया कि उन्हें जो कुछ उनका था उसे वापस लेने की जरूरत है। इसकी शुरुआत उन्हें खादी के धागे के उत्पादन के लिए अपनी सामग्री तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करने से हुई। चाहे अमीर हो या गरीब, उन्होंने प्रत्येक दिन अलग-अलग प्रकार के खादी कपड़े कातने की आदत डाली।गांधी जी के कहे अनुसार सभी वर्गों के लोगों ने एकता दिखाई। संपूर्ण गांवों ने आर्थिक स्वतंत्रता को स्वतंत्रता की दिशा में पहले कदम के रूप में अपनाते हुए इस आंदोलन को अपनाया।

"अगर हमारे अंदर 'खादी की भावना' है, तो हम जीवन के हर क्षेत्र में सादगी अपनाएंगे। 'खादी भावना' का अर्थ है अनंत धैर्य। जो लोग खादी के उत्पादन के बारे में कुछ भी जानते हैं वे जानते हैं कि सूत कातने वालों और बुनकरों को अपने व्यापार में कितने धैर्य से काम करना पड़ता है, और हमें भी स्वराज का धागा बुनते समय धैर्य रखना चाहिए”, गांधी एक प्रसिद्ध उद्धरण में कहते हैं। इसलिए, चरखे पर गांधी की तस्वीर सिर्फ एक ऐतिहासिक तस्वीर नहीं है: यह भारत के दशकों लंबे स्वतंत्रता संग्राम की सच्ची भावना का प्रतिनिधित्व करती है।  1925 में, असहयोग आंदोलन के बाद, खादी के प्रचार, उत्पादन और बिक्री के उद्देश्य से ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। अगले दो दशकों तक, संगठन ने खादी उत्पादन तकनीकों में सुधार करने और भारत के गरीब बुनकरों को रोजगार प्रदान करने के लिए अथक प्रयास किया। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने अखिल भारतीय खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड की स्थापना की, जो बाद में 1957 में खादी, ग्राम और उद्योग आयोग (KVIC) बन गया। तब से, KVIC भारत में खादी उद्योग के विकास की योजना बना रहा है और उसे क्रियान्वित कर रहा है। यह उत्पादन तकनीकों में अनुसंधान को बढ़ावा देने, उत्पादकों को कच्चे माल और उपकरणों की आपूर्ति, खादी उत्पादों की गुणवत्ता नियंत्रण और विपणन की दिशा में काम करता है।

90 के दशक की शुरुआत में खादी एक फैशन स्टेटमेंट बनने लगी थी। 1989 में, केवीआईसी ने बॉम्बे में पहला खादी फैशन शो आयोजित किया था, जहां खादी पहनने की 80 से अधिक शैलियों का प्रदर्शन किया गया था। 1990 में, शानदार डिजाइनर-उद्यमी रितु बेरी ने दिल्ली के शिल्प संग्रहालय में आयोजित प्रतिष्ठित ट्री ऑफ लाइफ शो में अपना पहला खादी संग्रह प्रस्तुत किया, जिसने कपड़े को बड़ी लीग में पहुंचा दिया। अब केवीआईसी के सलाहकार, बेरी खादी को वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए काम कर रहे हैं।

जैसे ही भारत ने 21वीं सदी में कदम रखा, भारतीय डिजाइनरों की एक नई पीढ़ी ने इस बहुमुखी कपड़े के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि खादी प्रचलन में बनी रहे। जबकि पर्यावरण-अनुकूल कपड़ा पहले से ही अपनी कठोर बनावट, आरामदायक अनुभव और सर्दियों में लोगों को गर्म रखने के साथ-साथ गर्मियों में ठंडा रखने की क्षमता के लिए जाना जाता था, एक आधुनिक लेकिन सर्वोत्कृष्ट भारतीय वस्त्र के रूप में इसकी नए जमाने की पुनर्व्याख्या ने इसे सहस्राब्दी के लिए बहुत आकर्षक बना दिया है।

पोशाक और जैकेट से लेकर दुल्हन के लहंगे और डिकंस्ट्रक्टेड स्थानीय सिल्हूट तक, कई प्रमुख डिजाइनरों (जैसे सब्यसाची, वेंडेल रॉड्रिक्स और राजेश प्रताप सिंह) ने साधारण कपड़े को उच्च-फैशन परिधान में बदलने के लिए फैशन चुनौती ली है। उदाहरण के लिए, कोलकाता स्थित डिजाइनर देबरुन मुखर्जी का मानना है कि फैशन को स्थिरता के साथ-साथ चलने की जरूरत है और इस प्रकार उन्होंने खादी को अपनी दुल्हन लाइन (जिसे खादी रेस्प्लेंडेंट कहा जाता है) का मुख्य विषय बना दिया है। आज खादी और ग्रामोद्योग आयोग खादी की योजना बनाने और उसे बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है।'  नीता लुल्ला, नचिकेत बर्वे, ऋतु बेरी आदि जैसे विभिन्न डिजाइनरों ने विभिन्न प्रकार के खादी कपड़ों में रुचि ली है और इसे बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।तकनीकी प्रगति के साथ, खादी कपड़ा आज केवल नेहरू जैकेट और ठोस रंगों तक ही सीमित नहीं है। विभिन्न कढ़ाई से लेकर ब्लॉक प्रिंटिंग तक, विभिन्न भारतीय सिल्हूट से लेकर अब पश्चिमी कट तक, खादी एक ऐसा कपड़ा है जो निश्चित रूप से भारत के औद्योगिक सौर मंडल का सूर्य साबित हुआ है। खादी स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रपिता का वस्त्र है। महात्मा गांधी ने बेरोजगार ग्रामीण आबादी को रोजगार प्रदान करने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के साधन के रूप में खादी की अवधारणा विकसित की।

खादी हमेशा पुराने से जुड़ी रही है, इस मानसिकता को बदलना आवश्यक है।अगर अच्छी तरह से स्टाइल किया जाए, तो खादी (चाहे सूती हो या रेशम) किसी भी अवसर के लिए उपयुक्त हो सकती है। खादी ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए उपयुक्त है जो न केवल सुंदर कपड़ों की तलाश में है, बल्कि वे जो पहनते हैं उसमें एक आत्मा या एक कहानी, एक मजबूत भारतीय पहचान, सौंदर्यशास्त्र और एक विवेक की तलाश में हैं। खादी का रंग और बनावट ऐसी है कि यह एक प्रेरणादायक कपड़ा बन जाता है। यह सजावटी नहीं बल्कि सांस लेने वाला कपड़ा है।

साथ ही, खादी सबसे प्राकृतिक, जैविक कपड़ा है। भारतीय मौसम की स्थिति के लिए आदर्श, यह पहनने वाले को गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रखता है। जबकि भारत में नए जमाने के खादी उत्पाद ऐसे नहीं हैं जिन्हें आप वास्तव में सस्ता कहेंगे।

इसी उद्देश्य को पूर्ण करने हेतु हमारे माननीय प्रधान मंत्री ने 'खादी फॉर नेशन, खादी फॉर फैशन' का मंत्र दिया है और खादी को अब एक फैशन स्टेटमेंट के रूप में देखा जाता है। अब इसका उपयोग डेनिम, जैकेट, शर्ट, ड्रेस सामग्री, स्टोल, घरेलू सामान और हैंडबैग जैसे परिधान सहायक उपकरण में किया जाता है।खादी महोत्सव अभियान युवाओं को खादी, 'वोकल फॉर लोकल' के प्रति संवेदनशील बनाना और उन्हें हमारी अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी और महिला सशक्तिकरण के लाभों के बारे में जागरूक करना और बड़े पैमाने पर जनता और विशेष रूप से युवाओं को खादी और स्थानीय उत्पादों को खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना है। उनमें स्थानीय उत्पादों के प्रति गौरव पैदा करें।

भारत के ताने-बाने का हिस्सा खादी आज भी कई मायनों में खास है। जैसे-जैसे दुनिया औद्योगिक फैशन की ओर बढ़ रही है, स्वतंत्रता का यह ताना-बाना देश को टिकाऊ जीवन और आत्मनिर्भरता की विरासत की याद दिलाते हुए ग्रामीण गरीबों के लिए आय बढ़ाना जारी रखता है।

 

मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...