Sunday, 22 October 2023

आओ, मन के रावण को मारें

 

आओ, मन  के रावण को मारें





रावण का पुतला हर साल जलाते,

आओ अब कुछ नया विचारें।

आओ,मन के रावण को मारें।।

काम क्रोध मद लोभ दंभ,

दुर्भाव द्वेष को दूर भगाएं ।

दहन करें दुर्गुण का अपने,

शुभ विचार मन में उपजाएं ।।

रोम-रोम में राम बसाकर,

मन के अशुभ भाव को जारें।

आओ,मन के रावण को मारें।।

असली विजयादशमी होगी,

जब हम विजय करेंगे मन पर।

निर्मल दृष्टि तभी होगी जब,

करें नियंत्रण स्वयं के तन पर।।

एक भी दुर्गुण त्याग दिया यदि,

पावन पर्व दशहरा होगा।

अच्छाई को अपनाएं तो,

सब का भविष्य सुनहरा होगा।।

हों निष्कलुष सभी जन के मन,

हाथ जोरि कर श्री राम पुकारें।

आओ, मन  के रावण को मारें ।।

शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि अर्थात विजयादशमी के बारे में विभिन्न ग्रंथों में उल्लेख है। ज्योतिषशास्त्र में कहा गया है, 'सर्वदुखशमनी श्यास्करी लाभदा च दशमी निरंतरम। अर्थात यह तिथि समस्त दु:खों का शमन करने वाली, यशदायिनी तथा निरंतर लाभ प्रदान करने वाली है। वहीं चिंतामणि जी  का कथन है, 'आश्विन शुक्ल दशमी विजयदायिनी है। श्रवण नक्षत्र से संयुक्त होने पर अत्यंत शुभ फलदायिनी तथा राजाओं को यात्रा में जय देकर मनोरथ पूर्ण करने वाली है।

दशानन रावण हमारी दस इंद्रियों द्वारा उत्पन्न बुराइयों का प्रतीक है, जिसे हम अपने श्रीराम रूपी सदाचार से ही परास्त कर सकते हैं। दशहरा विजय-पर्व है। बुराई की हार और अच्छाई की जीत का प्रतीक पर्व। शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की साधना, उपासना के साथ ही आध्यात्मिक और सद्शक्तियों के जागरण के पर्व नवरात्र के दौरान ही बुराइयों के पिंड रावण को जलाने के लिए सब ओर तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मोहल्लों में रहने वाले बच्चे खुद ही रावण तैयार कर रहे होते हैं जबकि बड़ी मंडलियां बाजार से बड़े से बड़ा 'रेडीमेड' रावण खरीदने के लिए चंदा जमा करते हैं। अंतत: छोटे-बड़े सभी रावणों को गली-मैदान में स्वाह कर उल्लास मनाते हैं कि बुराई का अंत कर दिया। सब माया है। सब कर्मकाण्ड है। गली-मैदानों में धूं-धूं कर पुतला ही जलता है, लेकिन  रावण तो ज़िंदा रहता है, हम सबके भीतर। तैयारी उसे मारने की होनी चाहिए। भीतर का रावण एक तीर से नहीं मरता, उसके लिए रोज़ सजग रहना पड़ता है कमान खींचकर, जैसे ही सिर उठाए, तीर छोड़ देना होता है। समय-समय पर उसका वध करना होता है। यह सतत प्रक्रिया है। लेकिन, हम मार किसे रहे हैं, बाहर के रावण को, वह भी पुतले को। असल रावण तो जीते रहते हैं, मुझ में और आप में। ये हम और तुम का रावण मर गया फिर सब ठीक हो जाएगा। श्रीराम ने नवरात्र में शक्ति की उपासना करके अंतत: रावण का वध किया। दशानन रावण हमारी दस इंद्रियों द्वारा उत्पन्न बुराइयों का प्रतीक है, जिसे हम अपने श्रीराम रूपी सदाचार से ही परास्त कर सकते हैं।

लोक-मान्यता के अनुसार, त्रेता युग में भगवान श्रीरामचंद्र ने शारदीय नवरात्र में शक्ति की अर्चना पूर्ण करके अंतत: रावण पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए यह तिथि विजयादशमी के नाम से जानी गई। यही कारण है कि शारदीय रामलीला में विजयादशमी के दिन ही रावण-वध के प्रसंग का मंचन किया जाता है और रावण का पुतला फूंका जाता है। प्रत्येक पर्व के पीछे ऋषि-मुनियों का उद्देश्य हमारा बोध-जागरण करना एवं हमें एक ऐसा संदेश देना रहा है, जिससे हम अपने अंतस का परिष्कार कर सकें।

अब सवाल यह है कि आखिर भीतर कौन-सा रावण बैठा है। जैसा कि हम जानते हैं कि रावण दस बुराइयों का प्रतीक है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी। ये रावण के दस सिर हैं। दशहरा इन्हीं दस प्रकार के पापों के परित्याग की प्रेरणा देता है। दशहरा दस पापों को हरने का पर्व है। भगवान श्रीराम का युद्ध इन्हीं दस पापों से था। रावण के इन्हीं दस पापों को परास्त कर श्रीराम महापराक्रमी बने, पूज्य बने, आराध्य बने, समाज के प्रेरणास्रोत बने। दस प्रकार के पापों के पिंड रावण को जलाना ही प्रत्येक मनुष्य की प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि मनुष्य अंतर्मन में छिपकर बैठे इन रावणों को मार सका तो सही अर्थों में वह श्रीराम के दिखाए मार्ग पर चल रहा है। इन बुराइयों पर विजय पाने का सामर्थ्य हर किसी में है, हर किसी के भीतर राम भी बैठे हैं। तो अपने भीतर के राम को पहचानो, रावण को मारो और राम बनो।

         ध्यान देने की बात यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी, ये दस पाप ही मनुष्य को रावण बनाते हैं। ये पाप आपस में संबद्ध हैं। एक दूसरे से जीवन पाते हैं। इसके अलावा प्रत्येक पाप के भी दस-दस सिर हैं। एक भी पाप भीतर जिंदा है तो सब जिंदा हैं। इसलिए सबका अंत जरूरी है। काम में अंधा होकर शक्तिशाली व्यक्तित्व भी धूमिल हो जाता है, क्षणभर में। सिर्फ व्यक्तित्व ही धूमिल नहीं होता बल्कि उसके साथ जुड़े मानबिंदुओं पर भी प्रश्न चिह्न खड़े होते हैं। यदि धार्मिक चोला ओढ़कर बैठा व्यक्ति काम का शिकार हो जाता है, तो लोगों का विश्वास डिगता है। रावण को प्रकांड ब्राह्मण बताया जाता है लेकिन इसके बावजूद हिंदू समाज में उसका आदर नहीं है। कारण, उसका अमर्यादित आचरण। इसलिए आपने जीवनभर नाम रूपी जो पूंजी कमाई है, उसे बचाए रखना चाहते हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना चाहते हैं तो वासना रूपी रावण का अंत बार-बार करते रहिए।

मनुष्य जब विवेकशून्य हो जाता है, तब उसे क्रोध आता है। क्रोध में वह सदैव ऐसा निर्णय लेता है जिस पर उसे बाद में पश्चाताप होता है। सच मायने में क्रोध के वक्त व्यक्ति सारी मनुष्यता खो देता है। वह रावण बन जाता है। क्रोध में ही मनुष्य अपनी सबसे प्रिय वस्तु का भी नाश कर देता है। हत्या तक कर देता है। समाज और राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो हड़ताल, प्रदर्शन और दंगे में हम क्या करते हैं? क्रोध के गुलाम होकर मनुष्यों की क्षति, समाज की क्षति, राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति, स्वयं की क्षति और अपनी आत्मा की क्षति। क्रोध पर विजय पाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए।

 लोभ मनुष्य को भ्रष्टाचारी बनाता है। लोभ ही बेईमान भी बनाता है। लोभ पर शुरुआत से ही काबू नहीं किया गया तो यह बढ़ता ही जाता है। यह कभी-भी कम नहीं होता। यही हाल मोह का है। मोह में पड़कर आदमी क्या नहीं कर रहा। अपनी जिम्मेदारी भूल गया है। स्वकेंद्रित होकर रह गया है। अपने परिवार के लिए समाज और देश के साथ बेईमानी भी कर रहा है।  दशहरा चूंकि शक्ति का पर्व है। इस दिन क्षत्रिय अपने हथियारों की पूजा करते हैं। पूर्वजों ने समाज को एक संदेश देने की कोशिश की है कि शक्ति प्राप्त कीजिए। साथ में यह भी संकेत कर दिया कि इसका दुरुपयोग मत कीजिए। समाज में अपनी प्रतिष्ठा के मद में चूर मत होइए। प्रभावशाली होने का अंहकार मत पालिए। शक्ति का उपयोग हिंसा के लिए मत कीजिए। गरीब, असहाय पर अपनी ताकत का प्रदर्शन नहीं करें बल्कि उनकी रक्षा के लिए आगे खड़े रहें।

लघुता से प्रभुता मिलै, प्रभुता से प्रभु दूर ।

चींटी शक्कर लै चली हाथी के सिर धूर ।।

        मजबूत और शक्तिशाली दिखने की ज़रूरत जितनी व्यक्तिगत स्तर पर है, उससे कहीं अधिक एक देश के लिए आवश्यक है क्योंकि राम की शक्तिपूजा सिखाती है कि क्षमा बलवान सांप को ही शोभा देती है-

"क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो;

उसको क्या जो दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।"

भारतीय संस्कृति में स्वयं को बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि दूसरों को बड़ा और आदरणीय मानने की परम्परा रही है । अभिमान, घमण्ड, दर्प, दम्भ और अहंकार ही सभी दु:खों व बुराइयों का कारण है । जैसे ही मनुष्य के हृदय में जरा-सा भी अभिमान आता है, उसके अन्दर दुर्गुण आ जाते हैं और वह उद्दंड व अत्याचारी बन जाता है । लंकापति रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अत्यन्त पराक्रमी और भगवान शिव का अनन्य भक्त होते हुए भी अभिमानी होने के कारण किष्किन्धा नरेश बाली से अपमानजनक पराजय को प्राप्त हुआ ।

दशहरा महज उल्लास का पर्व नहीं है। बल्कि बहुत कुछ संकेत की भाषा में बताने की कोशिश करता है। अपने भीतर के तमाम रावणों को मारो-जलाओ बाकि बाहर सब ठीक हो जाएगा। खुद सशक्त बनो तो समाज ताकतवर बनेगा और देश को भी मजबूती मिलेगी।

विजयादशमी का पर्व मनाने का निहितार्थ यह है कि हम श्रीराम के सद्गुणों को अपने भीतर उतारकर पुरुषोत्तम रूप धारण करें और दस इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दुर्गुणों का समूल विनाश करें। लोक-मान्यता के आधार पर दशानन का पुतला फूंकने का निहितार्थ भी यही है कि हम इंद्रियजन्य बुराइयों को समाप्त कर दें। यदि हम इस दृष्टि से अपने अंतस की शुद्धि कर सकें, तो विजयादशमी पर्व सही मायने में सार्थक होगा। पौराणिक ग्रंथों एवं ज्योतिषशास्त्र में विजयादशमी के विजयदायिनी होने की मान्यता के कारण ही इसे स्वयंसिद्ध मुहूर्त कहा गया है। इसलिए हमें इसी विजय-मुहूर्त पर यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने दुर्गुणों पर विजय पाने के लिए चरित्र-शुद्धि का अभियान प्रारंभ करेंगे। राम के आदर्शों को अपनाकर हम भी पुरुषोत्तम बन सकते हैं, तब अपने आप दस इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दुर्गुणों का अंत हो जाएगा। तभी सही मायने में दुर्गुण रूपी दशानन पर सदाचार रूपी राम की विजय होगी। सिर्फ रावण का पुतला फूंक देने से कुछ नहीं होगा, हमें इस परंपरा के पीछे छिपे निहितार्थ को समझना होगा। विजयादशमी धर्म का महापर्व है।

 

 

 

मीता गुप्ता

 

  

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