जीवन संघर्षो से न घबराना ही मनुष्यता
है
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
सच है सतत संघर्ष ही।
संघर्ष से हटकर जिए तो
क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ
ज्यों वृन्त से झरकर कुसुम।
जो पन्थ भूल रुका नहीं,
जो हार देख झुका नहीं,
जिसने मरण को भी लिया हो
जीत है जीवन वही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।
कई विचारकों का मत है कि अगर हम कोई जोखिम नहीं लेते हैं, तो वह अपने-आप में सबसे बड़ा जोखिम है। यह सही भी है कि ज़्यादातर लोग
जोखिम लेने से डरते हैं। इसकी कई वजहें होती हैं, लेकिन
जो सबसे बड़ी वजह है, वह है संकल्प और विचार शक्ति की
कमी ।
कहने को तो विचार शक्ति और संकल्प का अभाव जानवरों में होता है, पर जब कोई इंसान बिना विचारे कोई ऐसा काम कर बैठता है, तो कहा जाता है कि वह तो निरा पशु हो गया है। यानी इंसान होकर भी अगर
पशुओं जैसी जिंदगी जीएं, तो जीना क्या और मरना क्या ?
इसीलिए वेद में कहा गया है- " मनुर्भव, यानी मनुष्य बनो। " इसका मतलब हे कि महज इंसान के वेश में हम इंसान सही मायने में तब तक नहीं
होते, जब तक हमारे अंदर इंसानियत के सद् गुण पैदा नहीं
होते और जब तक हम अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते।
विज्ञान के मत में इंसान जब से धरती पर पैदा हुआ है, लगातार प्रगति कर रहा है। यह प्रगति इंसान को जानवरों से अलग करती है।
धर्म भी कहता है कि इंसान का जन्म लेना, तभी सार्थक है, जब उसमें मनुष्यत्व और देवत्व के रास्ते पर बढ़ने की इच्छाशक्ति और साधना
हो। बहरहाल, जोखिम उठाना और जोखिम लेने से घबराना, दोनों ही प्रवृत्तियां इस बात को तय करती हैं कि हम में कितनी इंसानियत
बाकी है । हर इंसान में पशुता, मनुष्यता और देवत्व के
गुण होते हैं। शिक्षा, संस्कार, विचार ओर संकल्प-शक्ति जिस व्यक्ति में जिस रूप में होती है, वह उसी तरह बन जाता है । दरअसल, हमारे मस्तिष्क
की बनावट ऐसी है, जिसमें विचारों की अनंत संभावनाएँ
होती है। लेकिन एक आम इंसान अपनी शक्तियों का एक या दो प्रतिशत ही इस्तेमाल करता
है। शक्तियों के समुचित इस्तेमाल नहीं होने के कारण ही किसी व्यक्ति के बेहतर
इंसान बनने की संभावना कम होती है। यही वजह है कि ज़्यादातर लोग पूरी ज़िंदगी
पशुओं की तरह ही सिर्फ़ सोने-खाने में बिता देते है।
पर यहां सवाल यह है कि क्या जोखिम उठाना हमेशा लाभदायक होता है?
कभी-कभी तो तमाम जोखिम उठाकर भी लोग ऐसा कार्य कर डालते है, जो न उनके लिए लाभदायी होते है, न परिवार और
समाज के लिए, इस बारे में यह कहना उचित होगा कि ऐसा
जोखिम उठाना इंसानी संघर्ष का नमूना नहीं, बल्कि शैतान
प्रवृत्ति का प्रतीक है। इसलिए जोखिम उठाने से पहले यह विचार ज़रूर कर लेना चाहिए
कि वह हितकरी हो सकता है या अहितकारी। मौजूदा वक्त में आतंकवादियों, नक्सलवादियों या इसी तरह की प्रवृत्ति वाले अपराधियों द्वारा हिंसा के
सहारे कोई मकसद हासिल करने का काम शैतानी जोखिम के दायरे में आता है। ऐसे जोखिम
भरे कार्यों से सभी को नुकसान ही होता है।
गांधी जी ने कहा था कि " साध्य और साधक " की पवित्रता से ही व्यक्ति की सफलता का ठीक-ठीक मूल्यांकन हो सकता है।
मौजूदा दौर में ज़्यादातर लोगों के " साध्य " और "साधन" दोनों ही अपवित्र हो गए हैं। इसलिए जो कुछ
हासिल हो रहा है, उसे मानवीय संघर्ष का परिणाम नहीं कह
सकते हैं। यानी जोखिम ज़रूर उठाएँ, लेकिन साथ ही, यह भी देखा जाए कि यह जोखिम भरा काम खुद के लिए, समाज के लिए राष्ट्र और समूचे संसार के लिए सकारात्मक है या नकारात्मक।
यह कैसे तय हो कि कौन सा काम सकारात्मक नतीजे वाला हो सकता है और कौन सा
नकारत्मक नतीजे वाला ? यानी किस काम को किया जाए
और किसे छोड़ा जाए ? इसका जवाब यह है कि
महापुरूषों के आचरण और वेद-पुराणों में दिए गए दृष्टांत इस काम में हमारी मदद करते
हैं। उनके मार्गदर्शन से हम सही या गलत का फैसला कर सकते हैं।
अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए जीवन संघर्ष से घबराए बिना जब हम एक
सकारात्मक नतीजे दे सकने वाले जोखिम का चुनाव करते हैं, तो वास्तविक अर्थों में हम हर प्रकार से दैहिक, भौतिक संकट को दूर कर सकते है। यही सच्ची मनुष्यता है और मनुष्य होने के
नाते हमें इसी नीति का पालन करना चाहिए ।
यथा-
अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको
खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं
धरती पसीजी है कहीं !
हए एक राही को भटककर ही दिशा मिलती
रही।
सच हम नहीं, सच
तुम नहीं।
मीता गुप्ता
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