Wednesday, 19 June 2024

मैं और मेरा रब

 

मैं और मेरा रब

वे दिन भी अजीब थे

रोज़ सुबह एकाग्रता की मूरत बनी मैं

घर से निकल पड़ती थी

घर में सबको औंधे मुंह सोता छोड़कर

और फिर बस्ती के बाहर निकलते थे

सैर पर....मैं और मेरा रब।

कभी वह अकेला नहीं मिलता था

हमारे साथ हमेशा चलती थी...उसका थैला...उसकी साइकिल

जब उससे पहले पहला मुलाकात हुई

तो ऐसा लगा कि घाटियों की छतियां झुक गई हों

और मैं...मैं ऐसे अपने को सहेज कर, समेट कर, रखने लगी

जैसे आंधी में एक और इकट्ठे हो जाते हैं सूखे पत्ते

पर मैं सूखा पत्ता नहीं थी

मुझ में बहुत सी हरीतिमा बाकी थी।

यह ैंने जाना

उसी दिन उसकी भीगी बाहें अपने कंधे देखकर

एक अजब सी थी पुलकन

उससे मिलने पर लगता था

सप्तपदी याद आ रही थी 

संकोच का पूरा व्याकरण उसे कंठस्थ था

अच्छे परीक्षार्थी की तरह

पूरे मनोबल से दोहरा रहा था वह संयम से

सब पाठ 

सब वर्जनएं

सारी की सारी नीति कथाएं

पौराणिक स्थितियां डाल रही थी हम पर अक्षत।

कुछ टुकड़े प्रेम की प्रचलित कथाओं से निकलकर, ऊपर उठकर

दौड़ आए थे मेरे पास

और हमें देख रहे थे

अजब मोह से भरकर

क्योंकि मैं बैठी थी रब के साथ

उस पेड़ के नीचे

जिस पर बस बिजली गिरने ही वाली थी

लेकिन मुझे उसका डर नहीं था

क्योंकि मैंने डर के एक-एक आवरण को

उसके सामने हटा दिया था

और अपने आप को समय की रस्सियों से उन्मुक्त कर लिया था।

पर अब आलम यह है कि

वह कई कई बरस मुझे नहीं मिलता

सड़कों पर, बसों में, पुलों पर, ट्रेनों में

अचानक दमक जाती है थके हुए अनजान लोगों की मुस्कान

जो लगती हैं आईना।

पिछली दफा वह दिखा था मुझे

मैंने कहा था तुम भी हद करते हो

किस धुन में रहते हो?

कहां रहते हो?

उस दिन की सोचो

जब मैं तुम्हें ही सौंप दूंगी

तुम्हारी हथेलियां से उठकर अपनी हथेलियां में जाने तक का सफर

वैसे तो नया नहीं है

जाने-पहचाने हैं रास्ते

लेकिन किसी श्लोक-से रट गए हैं ये रास्ते।

मैंने कहा-

चलो मान जाओ

बहुत हुआ

चलो अब घर चलो ना!

रब बोला-

अभी आया

और मुझे पकड़ कर अपना थैला और साइकिल

अदृश्य हो गया

आब भी यह थैला ढोती हूं मैं

यह साइकिल में घसीट रही हूं

न जाने कितने अनगिनत बरसों से

सड़कों में,

बसों में,

पुलों पर,

रब को टटोलती...ढूंढती हुई

लगातार.... लगातार…. लगातार

 -मीता गुप्ता

Thursday, 13 June 2024

हिंदी भाषा की अंतर्राष्ट्रीय पहचान

 

हिंदी भाषा की अंतर्राष्ट्रीय पहचान

भाषा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अस्मिता का निकष है। भाषा ही राष्ट्र संबंधी समस्त वैशिष्ट्य को स्थायित्व प्रदान करती है। भारत के संदर्भ में इस दायित्व का निर्वाह हिंदी कर रही है। इसने देश की अस्मिता की प्रतीक से ऊपर उठकर विश्व भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाई है। हिंदी विश्व भाषा की क्षमताओं से संपन्न भाषा है हालांकि वैश्विक फलक पर मंडरिन, अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी और स्पेनिश आदि भी विश्व भाषा के रूप में व्यवहृत होती नजर आती हैं, पर विश्व भाषा बनने की इसकी प्रक्रिया हिंदी से भिन्न है। इन भाषाओं ने 19वीं शताब्दी के साम्राज्यवाद के आधार पर अपना प्रचार-प्रसार कर विश्व भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाई है। इससे पहले 18वीं सदी में ऑस्ट्रिया और हंगरी का वर्चस्व रहा। 20वीं सदी में अमेरिका और सोवियत संघ का वर्चस्व रेखांकित किया जा सकता है। पिछली शताब्दी के पूर्वाद्ध तक भारत गुलाम रहा और इसने भाषायी दबाव झेला। लेकिन हिंदी की अस्मिता इस दबाव में भी प्रखर बनी रही। इसका समस्त श्रेय हिंदी के प्रति आत्मीयता रखने वाले उन सभी स्वतंत्रता-सेनानियों को जाता है, जिन्होंने उत्तर-दक्षिण के मतभेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को समझते हुए हिंदी को एक वैश्विक पहचान दिलाने में एक आधार प्रदान किया।

किसी भी भाषा के वैश्विक होने के प्रमुख आधार है- प्रयोक्ता वर्ग की संख्या, भाषा की अंतः शक्ति तथा साहित्यिक कार्य। हाल ही में हिंदी के प्रयोक्ताओं की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। यह मैंडरिन (चीनी) के बाद यह सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। अंग्रेजी अपने प्रयोक्ताओं की घटती संख्या के कारण दूसरे से तीसरे स्थान पर आ चुकी है। विश्व के करोड़ों लोग हिंदी को स्वेच्छा से अपने हुए हैं। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुयाना, केन्या, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, चकोस्लवाकिया, सिंगापुर आदि देशों में हिंदी काफी लोकप्रिय ही नहीं बोली भी जाती है। इसके अलावा नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, मालदीव्स और श्रीलंका जैसे भारत के पड़ोसी देशों में हिंदी बोलने-समझने वाले भारतीयों की संख्या बहुत है। वहीं दक्षिण-पूर्व एशियाई देश इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया, जापान आदि देशों में भी हिंदी का प्रचलन है। इनके अलावा अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी आदि देश हैं, जहां अनेक भारतीय आजीविका और व्यापार की दृष्टि से बस गए हैं और हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। अमेरिका में अंग्रेजी के अलावा हिंदी ही दूसरी सबसे लोकप्रिय भाषा का स्थान प्राप्त किए हुए है। इन देशों के अलावा इस्लामी देशों में भी हिंदी भाषा बोलने और समझने वाले काफी लोग हैं।

जहाँ तक देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सवाल है, तो यह सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है। हिंदी और देवनागरी दोनों ही पिछले कुछ दशकों में परिमार्जन व मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजरी है, जिससे उनकी संरचनात्मक जटिलता कम हुई है। हम जानते हैं कि विश्व मानव की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर क्षमता हिंदी भाषा में है ।

भूमंडलीकरण के इस बाज़ारवादी दौर में हिंदी का जादू सिर पर चढ़कर बोल रहा है। अपनी उत्पादों के विज्ञापन में बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी का बड़े पैमाने पर उपयोग कर रही हैं। यह बाज़ार की सबसे अधिक शक्तिशाली भाषा के रूप में सामने आ रही है। इसका एक कारण हमारी विशालकाय जनसंख्या और सस्ता लेबर भी माना जा सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में चार भाषाओं अंग्रेजी स्पेनिश चीनी और हिंदी का भविष्य ही वैश्विक बाजार में उज्ज्वल है। बाज़ार व्यवस्था की मांग है कि उपभोक्ता वर्ग के साथ संपर्क करने के लिए उनकी भाषा में संप्रेषण ज़रूरी है, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का झुकाव हिंदी की ओर बढ़ा है। पिछले कई वर्षों में यह देखने में आया कि "स्टार न्यूज' जैसे चैनल जो अंग्रेजी में आरंभ हुए थे, वे विशुद्ध बाजारीय दबाव के चलते पूर्णत: हिंदी चैनल में रूपांतरित हो गए हैं। साथ ही, "ई.एस.पी.एन' तथा "स्टार स्पोर्ट्स' जैसे खेल चैनल भी हिंदी में कमेंट्री देने लगे हैं। हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ देने में उपग्रह-चैनलों, विज्ञापन एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा यांत्रिक सुविधाओं का विशेष योगदान रहा है। हाल ही में ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी हिंदी अपना वर्चस्व बढ़ा रही है । नेटफ़्लिक्स, लॉयंसगेट जैसे विदेशी प्लेटफ़ॉर्म भी हिंदी के महत्व को समझ रहे हैं और हिंदी जनसंचार-माध्यमों की सबसे प्रिय एवं अनुकूल भाषा बनकर निखरी है। हिंदी सिनेमा अपने संवादों एवं गीतों के कारण विश्व स्तर पर लोकप्रिय हुए हैं।

हिंदी के वैश्विक होने का दूसरा आधार इसकी अंतः शक्ति है। भारत की सभ्यता, संस्कृति धर्म और दर्शन के रूप में भारतीय सांस्कृतिक गरिमा ने सदैव विश्व को आकर्षित किया है। विभिन्न आक्रमणों और विदेशी शासन के साथ उनकी भाषाओं के शब्द हिंदी भाषा में घुलते-मिलते गए और इसी प्रकार भारतीय भाषाओं के शब्दों का भी प्रसार उनकी भाषाओं में होता रहा। हिंदी भाषा में अरबी फारसी आदि शब्दों के समावेश के मूल में भी यही कारण है। यही स्थिति ब्रिटिश शासन के दौरान भी बनी रही, जो आज हम अंग्रेजी के प्रभाव के रूप में देखते हैं। संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के विकास मार्ग से होकर गुज़री हिंदी को जहां विरासत में इन भाषाओं का समृद्ध शब्द-भंडार मिला, वहीं इसने अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों को भी आत्मसात किया है। खड़ी बोली हिंदी का विकास ब्रजभाषा, अवधी, मगही, बघेली, बुंदेलखंडी आदि बोलियो के सहयोग से हुआ है। इसके अलावा बांग्ला, असमिया, गुजराती, मराठी, उड़िया आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं की आदिभाषा भी संस्कृत ही है, इसलिए हिंदी इसे भी अंतर्संबंधित भाषा है। वहीं, द्रविड़ परिवार की कमोबेश सभी भाषाओं में हिंदी के समानार्थक और समान उच्चारण वाले शब्द पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं। इस तरह हिंदी भाषा के समृद्ध और संपन्न शब्द भंडार के मूल में हिंदी का लचीलापन प्रमुख है, जिसकी वजह से आज हिंदी शब्द संख्या की दृष्टि से संसार की सबसे समृद्ध भाषा मानी जाती है।

विगत कुछ वर्षों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित हिंदी पुस्तकें की रचना में सार्थक प्रयास हो रहे हैं। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा हिंदी माध्यम में एम.बी.ए. का पाठ्यक्रम आरंभ किया गया। इसी तरह "इकोनामिक टाइम्स' तथा "बिजनेस स्टैंडर्ड' जैसे अखबार हिंदी में प्रकाशित होकर उसमें निहित संभावनाओं का उद्घोष कर रहे हैं। आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व में हो रही तीव्र विकास के कारण नित नई संकल्पनाएं सामने आ रही हैं। नए-नए शब्द गढ़े जा रहे हैं, जिनके आधार पर हिंदी अपने शब्द भंडार विकसित कर रही है। शब्दों को आत्मसात करने की लचीली प्रवृत्ति के साथ-साथ उपसर्ग प्रत्यय और संधि समास आदि की सहायता से नित्य नए शब्द करने की में सक्षम भाषा के रूप में हिंदी में अपने शब्द भंडार में अतुलनीय वृद्धि की है। हमारे शहर में स्थित आईवीआरआई में विदेशों से आए अनेक विद्यार्थी हिंदी भाषा को माध्यम बनाकर अपना शोध-कार्य पूरा कर रहे हैं। इसी प्रकार अमेरिका, कोरिया, जापान और रूस ही नहीं, अन्य देश भी हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की ओर लोग आकर्षित हो रहे हैं और वहां अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। इन विश्वविद्यालयों में शोध स्तर पर हिंदी अध्ययन अध्यापन की सुविधा है, जिसका सर्वाधिक लाभ विदेशी अध्येताओं को मिल रहा है। अकेले अमेरिका में ही लगभग एक सौ पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी का पठन-पाठन हो रहा है।

साहित्य सृजन की दृष्टि से भी देखें, तो हिंदी में सुदीर्घ साहित्य लेखन परंपरा रही है। पिछले 1200 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा में साहित्य सरिता का प्रवाह निरंतर प्रवहमान है। हिंदी में विश्व को उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियां दी हैं। इसी के चलते हिंदी साहित्य को विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य के रूप में देखा जाता है। विश्व के अनेक देशों में भारतीय मूल के हिंदी प्रेमी साहित्यकार भी हिंदी में साहित्य सृजन कर हिंदी साहित्य भंडार को समृद्ध कर रहे हैं। हिंदी को वैश्विक पटल पर स्थापित करने में गिरमिटिया बनकर यूरोपीय उपनिवेशों में बसे भारतीयों की भी बड़ी भूमिका रही है। वहीं अनेक हिंदी प्रेमी और प्रवासी साहित्यकारों ने हिंदी में साहित्य सृजन कर हिंदी के विकास में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। हिंदी भाषा को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनाने में अप्रवासी भारतीयों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय साहित्य वैश्विक चेतना से संपन्न साहित्य है। आज़ादी से पहले जहां अनेक राजतंत्र और संस्कृतियों के संपर्क में हिंदी में अन्य राष्ट्रों की संस्कृतियों के प्रति समरसता बनाने की प्रवृत्ति रही है, वहीं आज़ादी के बाद अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक पटल पर स्वर प्राप्त करने वाली संवेदनाएं हिंदी साहित्य जगत में मुखरित हुई हैं। पर्यावरण, आतंकवाद, दलित और स्त्री विमर्श, निःशस्त्रीकरण, मानवाधिकार जैसे आधुनिक चर्चित विषय लेखन का  आधार बन रहे हैं, जो मूलत वैश्विक चेतना से युक्त हैं। गीतांजलि श्री द्वारा रचित रेत समाधि और अनुराधा बेनीवाल द्वारा रचित आज़ादी मेरा ब्रांड जैसा साहित्य इस प्रकार की चेतना का समावेश हिंदी भाषा के विश्व भाषा बनने का निमित्त को सिद्ध करता है।

हिंदी में साहित्य सृजन के अलावा विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि में व्यवहार निरंतर बढ़ रहा है। आज हिंदी अपनी साहित्यिक स्वरूप से ऊपर उठकर व्यावहारिक और प्रयोजनमूलक हो गई है। इस तरह हिंदी समाज की बढ़ती ज़रूरत को पूरा करने वाली भाषा बनकर उभर रही है। इसमें जनसंचार के माध्यम भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में पढ़ने-लिखने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कंप्यूटर और इंटरनेट के क्षेत्र में पारंगत विद्वानों का यही मानना है कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के लिए देवनागरी सर्वाधिक समर्थ लिपि है। हिंदी के इस प्रकार के व्यावहारिक प्रयोग का विस्तार राष्ट्रीय अस्मिता के संदर्भ में गौरव की अनुभूति के साथ-साथ विश्व स्वीकार्यता को भी दर्शाता है। इसके साथ यह भी जानना जरूरी है कि हिंदी आज रोज़गार की भाषा बन गई है। हिंदी जानने वाले हिंदी, अनुवाद करने वाले या फिर हिंदी को समझने वाले लोगों को के लिए रोजगार की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। माइक्रोसाफ्ट, गूगल, सन, याहू, आईबीएम तथा ओरेकल जैसी विश्वस्तरीय कंपनियाँ अत्यंत व्यापक बाज़ार और भारी मुनाफ़े को देखते हुए हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं।

आज विश्व में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले समाचार‌-पत्रों में आधे से अधिक हिंदी के हैं। इसका आशय यही है कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी हिंदी के महत्त्व को समझ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस,चीन,जापान,कोरिया, मध्य एशिया, खाड़ी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक में हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के ज़रिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ़ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बड़ी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे अंतर्राष्ट्रीय माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं। आज विश्व के दर्जनों देशों में हिंदी की पत्रिकाएँ निकल रही हैं तथा अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया जैसे विकसित देशों में हिंदी के कृतिकार अपनी सृजनात्मकता द्वारा उदारतापूर्वक विश्व मन का संस्पर्श कर रहे हैं। हिंदी के शब्दकोश तथा विश्वकोश निर्मित करने में भी विदेशी विद्वान सहायता कर रहे हैं।

जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विनिमय के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग का सवाल है तो यह देखने में आया है कि हमारे देश के नेताओं ने समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में भाषण देकर उसकी उपयोगिता का उद्घोष किया है। यह भी सर्वविदित है कि यूनेस्को के बहुत सारे कार्य हिंदी में संपन्न होते हैं। इसके अलावा अब तक विश्व हिंदी सम्मेलन’ मॉरीशस, त्रिनिदाद, लंदन, सुरीनाम तथा न्यूयार्क जैसे स्थलों पर सम्पन्न हो चुके हैं । हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ और व्याप्ति प्रदान करने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केंद्रीय भूमिका रही है, जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई है।

हिंदी की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक तथा रागात्मक संबंध निर्मित करने की रही है। वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ही राजभाषा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की संपर्क भाषा भी है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाड़ी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुड़ाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है।

अंत में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि विपुल साहित्यिक वैभव के साथ ही सरल शब्दावली के समायोजन की क्षमता के कारण हिंदी विश्व बाज़ार की भाषा बनने का व्यापक सामर्थ्य रखती है। भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी राष्ट्र अस्मिता और पुनर्जागरण की भाषा बन गई है । यदि निकट भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था निर्मित होती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का लोकतांत्रिक ढंग से विस्तार करते हुए भारत को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलता है, तो हिंदी यथाशीघ्र ही इस शीर्ष विश्व संस्था की भी भाषा बन जाएगी। संक्षेप में, यह स्थापित सत्य है कि हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है।

जो कह दिया सो बह गया

जो लिख दिया सो रह गया

एक प्रवाह बन गया

दूसरा शाश्वत हो गया॥

 

डॉ मीता गुप्ता

 

 

Wednesday, 5 June 2024

पूर्णाहुति-आचार्य चतुरसेन का कीमियागिरी का इतिहास

 

पूर्णाहुति-आचार्य चतुरसेन का कीमियागिरी का इतिहास




आचार्य चतुरसेन जी साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा तक सीमित नहीं हैं। उन्होंने किशोरावस्था में कहानी और गीतिकाव्य लिखना शुरू किया, बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैला और वे जीवनी, संस्मरण, इतिहास, उपन्यास, नाटक तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे। शास्त्रीजी साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक कुशल चिकित्सक भी थे। वैद्य होने पर भी उनकी साहित्य-सर्जन में गहरी रुचि थी। उन्होंने राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास और युगबोध जैसे विभिन्न विषयों पर लिखा। आचार्य चतुरसेन जी साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा तक सीमित नहीं हैं। उन्होंने किशोरावस्था में कहानी और गीतिकाव्य लिखना शुरू किया, बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैला और वे जीवनी, संस्मरण, इतिहास, उपन्यास, नाटक तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे। ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम’ और ‘सोमनाथ’, ‘गोली’, ‘सोना और खून’ (चार खंड), ‘रक्त की प्यास’, ‘हृदय की प्यास’, ‘अमर अभिलाषा’, ‘नरमेघ’, ‘अपराजिता’, ‘धर्मपुत्र’, पत्थर युग के दो बुत, दुखवा मैं कासे कहूं, और पूर्णाहुति सबसे ज्यादा चर्चित कृतियां हैं। आचार्य चतुरसेन हिंदी के ऐसे प्रसिद्ध साहित्यकार हैं, जिन्होंने सैकड़ों कहानियाँ और कई चर्चित उपन्यास लिखे हैं। उनका रचनात्मक फलक बहुत विशाल था, जिसमें उन्होंने धर्म, राजनीति, समाजशास्त्र, स्वास्थ्य और चिकित्सा आदि विषयों पर लिखा। उनकी 150 से अधिक प्रकाशित रचनाएँ हैं, जो अपने में एक कीर्तिमान है।

इतिहास अपने समय की गवाही देता है। यदि ऐतिहासिक समाज को समझना हो तो और साहित्य की पाठकों की बड़ी मदद करता है। आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ऐतिहासिक तौर पर अपने समय और समाज की बदलती हुई सामाजिक संरचना को बहुत ही बारीकी ढंग से उकेरते थे। “पूर्णाहुति” उपन्यास भी पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के प्यार और अमर बलिदान की कहानी को रेखांकित करता है। इस उपन्यास में सिर्फ प्रेम का उच्च स्तर दिखाया गया है बल्कि देशभक्ति और वीरता की कहानी भी पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करेगी। आचार्य चतुरसेन का यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस समय में था।

आचार्य चतुरसेन एक ऐसे विद्वान थे, जिनका साहित्य क्षेत्र कहानी तथा उपन्यास तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्हें चिकित्साशास्त्र एवं रसायनशास्त्र की भी ख़ास समझ थी। उपन्यास का यह अंश इस विशेषता को पूर्णतः स्पष्ट करता जान पड़ता है-कीमिया अर्थात् ‘रसायन’, भारत की प्राचीन रहस्यपूर्ण विद्याओं में एक विद्या कीमिया या रसायन भी है। कीमिया केवल प्राचीन भारत की ही विद्या नहीं है अपितु चीन, मिस्र, अरब, रोम, यूनान और यूरोप में प्राचीन काल में इस विद्या की गर्मागर्म चर्चा रही है। सच पूछा जाए, तो कहना पड़ेगा कि अज्ञानांधकार में छटपटाते हुए मानव मस्तिष्क के सक्रिय उत्थान का एक मनोरंजक इतिहास कीमियागिरी का इतिहास है।”

प्रकाशक- डायमंड बुक्स

मूल्य-पेपरबैक-128/-

 

डॉ मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...