Tuesday, 4 June 2024

एक बक्सुआ

 

एक बक्सुआ





मेरी बूढ़ी अम्मा की

लाल कांच की चूड़ियां से पेंडुलम की तरह लटकता-मटकता

लगातार हिलता-डुलता रहता

जंगयाया एक बक्सुआ।

किसी इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टर की जो हैसियत होती है

मेरी बूढ़ी अम्मा के लिए इस वस्तुजगत में

बक्सुए की वही हैसियत थी

जाने कितनी ही आपातकालीन परिस्थितियों में

उस बक्सुए ने संभाली थी जिंदगियां।

अरे! एक-दो रूपाल्ली का आता है बक्सुआ

किसी बच्चे की बेल्ट का हुक टूटा

तो अंततः याद आता था मेरी बूढ़ी अम्मा का बक्सुआ

जहां कहीं कुछ टूट-फूट, जहां कहीं कुछ उधड़ा-उधड़ाया

कि एक छोटी-सी पुलिया-सा तन जाता था बीचो-बीच

बेचारा अच्छे स्वभाव की सब खूबियां लिए,

कभी यहां, कभी वहां टंग जाता था वह बक्सुआ।

सब्जी की डलिया लटका कर इतराती-इठलाती जब निकलती थी बूढ़ी अम्मा सड़क पर

आंचल और ब्लाउज के बीच भी दृढ़ता का प्रतीक बनकर

टंगा रहता था उनका यह दुलारा बक्सुआ

मंडी के बीचों-बीच पहुंचकर मेरी बूढ़ी अम्मा को देखकर गोभी आलू से बोली,

इस औरत का नाम क्या है? कभी कोई इसके साथ नहीं दिखता?

आलू धीरे से फुसफुसाया, अटल मगर लुकाछुपा-सा है इसके साथ कोई

जिसे तुम देख नहीं पाती हो,वह है इसका विशाल-सा बक्सुआ

जो इसे नत्थी किए रहता है इस दुनिया से,

इसकी दुनिया को धरती से और आसमान से

सारी तकलीफें, उम्मीदें, आशाएं और बगावतें इस बड़े से बक्सुए से गुंथी हुई हैं,

जो कभी हिलती हैं, कभी डुलती हैं, कभी दस्तक देती हैं,

कभी भंवर जाल की अतल गहराइयों तक पहुंचा देती हैं, इसी बक्सुए से!

पर एक दिन तो गज़ब ही हो गया

सारा मोहल्ला रो रहा था, पर बूढ़ी अम्मा अम्मा थी निश्चेष्ट

बूढ़ी अम्मा थीं विराम पर….पर बक्सुआ तो यूं ही लटक रहा था,

मैं सोचती रही जब सब कुछ बंध सकता था इस बक्सुए से,

तो ज़िंदगी क्यों न बांध पाया ये बक्सुआ?

बक्सुआ जो सारे संसार को अपनी मुट्ठी में कर सकता था,

कटे-फटे को सी सकता था,जोड़ सकता था,

वह क्यों जोड़ पाया मेरी मेरी बूढ़ी अम्मा  के जीवन को?

हाय रे कैसा है यह बक्सुआ?

सचमुच बिना किसी काम का है यह बक्सुआ!!!

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