गोली- ऐतिहासिक उपन्यासों का चमकता सितारा
"मैं गोली हूं।
कलमुंहें विधाता ने मुझे
जो रूप दिया है,
राजा इसका दीवाना था,
प्रेमी-पतंगा था।
मैं रंगमहल की रोशनी थी।
दिन में, रात में, वह मुझे निहारता।
कभी चंपा कहता, कभी चमेली।"
जन्मजात अभागिनी हूँ।
स्त्री जाति का कलंक हूँ। स्त्रियों में अधम हूँ। परंतु में निर्दोष हूँ। मेरा
दुर्भाग्य मेरा अपना नहीं है, मेरी जाति का है, जातिपरंपरा का है। हम
पैदा ही इसलिए होती हैं कि कलंकित जीवन व्यतीत करें। जेसी मैं हूँ, ऐसी ही मेरी माँ थी, परदादी थी, उनकी भी दादियां-परदादियाँ
थीं। मेरी सब बहिनें ऐसी ही हैं…
उपन्यासकार आचार्य
चतुरसेन के उपन्यास 'गोली' की नायिका चंपा के ये
शब्द हैं। यह वाक्यांश यह बताने के लिए काफी है कि शब्दों के इस चितेरे के पास भाषा और विषय की अभिव्यक्ति के लिए कितना बड़ा
शब्द भंडार था। 1958 में पहली बार प्रकाशित
आचार्य चतुरसेन का यह अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास राजस्थान के रजवाड़ों में प्रचलित ‘गोली’ प्रथा पर आधारित है।
चंपा नामक गोली का पूरा जीवन राजा की वासना को पूरा करने में निकल जाता है और वह
मन-ही-मन अपने पति के प्रेम-पार्श्व को तरसती रहती है। लेखक का कहना है, ‘‘मेरी इस चंपा को और उसके श्रृंगार के देवता
किसुन को आप कभी भूलेंगे नहीं। चंपा के दर्द की एक-एक टीस आप एक बहुमूल्य रत्न की
भाँति अपने हृदय में संजोकर रखेंगे।’’
इस उपन्यास में आचार्य
चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में रनिवासों, ड्योढ़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले
अनाचार, व्याभिचार व वहाँ
के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है। इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री
जी ने राजस्थान के राजा-महाराजाओं और उनके महलों के अंदरूनी जीवन को बड़े ही रोचक, मार्मिक तथा मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने ‘गोली’ उपन्यास के
माध्यम से दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया है।
जाति प्रथा के दारुण दशा को उकेरा है। ‘गोली’ एक बदनसीब दासी की करुण-व्यथा है, जिसे ज़िंदगीभर राजा की वासना
का शिकार होना पड़ा, जिसकी वजह से उसके पति परमेश्वर ने भी उसे
छूने का साहस नहीं किया। यही इस उपन्यास का कथानक है। इस उपन्यास में आचार्य
चतुरसेन शास्त्री जी की समर्थ भाषा शैली दिखाई पड़ती है। जिस कारण यह उपन्यास
अत्यंत रोचक और मर्मस्पर्शी बन पड़ा है।
हिंदी भाषा के महान उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन
शास्त्री द्वारा रचित उपन्यास ‘गोली’ उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। इस
उपन्यास में शास्त्री जी ने राजस्थान के राजा-महाराजाओं और उनके महलों के अंदरूनी
जीवन को बड़े ही रोचक, मार्मिक
तथा मनोरंजन के साथ पेश किया है। उन्होंने ‘गोली’ उपन्यास के माध्यम से दासियों के
संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया है। ‘गोली’ एक बदनसीब दासी
की करुण-व्यथा है जिसे जिन्दगीभर राजा की वासना का शिकार होना पड़ा, जिसकी वजह से उसके जीवनसाथी ने भी उसे छूने का साहस नहीं
किया। यही इस उपन्यास का सार है। इसी कारण ‘गोली’ को हमेशा एक प्रामाणिक दस्तावेज
माना जाएगा। शास्त्रीजी ने ‘गोली’ उपन्यास में अपनी समर्थ भाषा शैली की वजह से
अद्भुत लोकप्रियता हासिल की तथा वे जन साहित्यकार बने।
लेखक के सर्वाधिक प्रसद्धि स्तंभ आचार्य चतुरसेन ने इस उपन्यास में राजस्थान
के रजवाड़ों और उनके रंगमहलों की भीतरी ज़िन्दगी का बड़ा मार्मिक, रोचक
और मनोरंजक चित्रण किया है। उसी परिवेश की एक बदनसीब गोली की करुण-कथा, जो
जीवन-भर राजा की वासना का शिकार बनती रही और उसका पति उसे छूने का साहस भी नहीं कर
सका।
‘देखिए , मैं अपनी समूची कहानी आपको बताने पर आमादा हूं। निःसन्देह आपको वह अद्भुत और
अनहोनी-सी लगेगी। कभी न सुनी हुई बातें और कभी न देखें हुए तथ्य आपके सामने आएंगे।
मैं सब कुछ आपबीती आपको कह सुनाऊँगी। कुछ भी छिपाकर न रखूंगी। परंतु न तो अपना
असली नाम आपको बताऊंगी, न उस ठिकाने या ठाकुर का जिसकी पर्यकशायिनी मेरी माँ
थी। न उस राजा का, जहाँ मैंने रानी के समान 21 वर्ष
रंगमंहल में बिताए। यह संस्करण संपूर्ण मूल पाठ है। इसीलिए इसे हमेशा
प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में समझा जाएगा।
अवश्य पढ़ें !
प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स इंडिया- 244 पृष्ठ
-मीता गुप्ता
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