मैं और मेरा रब
वे दिन भी अजीब थे
रोज़ सुबह एकाग्रता की मूरत बनी मैं
घर से निकल पड़ती थी
घर में सबको औंधे मुंह सोता छोड़कर
और फिर बस्ती के बाहर निकलते थे
सैर पर....मैं और मेरा रब।
कभी वह अकेला नहीं मिलता था
हमारे साथ हमेशा चलती थी...उसका थैला...उसकी साइकिल
जब उससे पहले पहला मुलाकात हुई
तो ऐसा लगा कि घाटियों की छतियां झुक गई हों
और मैं...मैं ऐसे अपने को सहेज कर, समेट कर, रखने लगी
जैसे आंधी में एक और इकट्ठे हो जाते हैं सूखे पत्ते
पर मैं सूखा पत्ता नहीं थी
मुझ में बहुत सी हरीतिमा बाकी थी।
यह मैंने जाना
उसी दिन उसकी भीगी बाहें अपने कंधे देखकर
एक अजब सी थी पुलकन
उससे मिलने पर लगता था
सप्तपदी याद आ रही थी
संकोच का पूरा व्याकरण उसे कंठस्थ था
अच्छे परीक्षार्थी की तरह
पूरे मनोबल से दोहरा रहा था वह संयम से
सब पाठ
सब वर्जनएं
सारी की सारी नीति कथाएं
पौराणिक स्थितियां डाल रही थी हम पर अक्षत।
कुछ टुकड़े प्रेम की प्रचलित कथाओं से निकलकर, ऊपर उठकर
दौड़ आए थे मेरे पास
और हमें देख रहे थे
अजब मोह से भरकर
क्योंकि मैं बैठी थी रब के साथ
उस पेड़ के नीचे
जिस पर बस बिजली गिरने ही वाली थी
लेकिन मुझे उसका डर नहीं था
क्योंकि मैंने डर के एक-एक आवरण को
उसके सामने हटा दिया था
और अपने आप को समय की रस्सियों से उन्मुक्त कर लिया था।
पर अब आलम यह है कि
वह कई कई बरस मुझे नहीं मिलता
सड़कों पर, बसों में, पुलों पर, ट्रेनों में
अचानक दमक जाती है थके हुए अनजान लोगों की मुस्कान
जो लगती हैं आईना।
पिछली दफा वह दिखा था मुझे
मैंने कहा था तुम भी हद करते हो
किस धुन में रहते हो?
कहां रहते हो?
उस दिन की सोचो
जब मैं तुम्हें ही सौंप दूंगी
तुम्हारी हथेलियां से उठकर अपनी हथेलियां में आ जाने तक का सफर
वैसे तो नया नहीं है
जाने-पहचाने हैं रास्ते
लेकिन किसी श्लोक-से रट गए हैं ये रास्ते।
मैंने कहा-
चलो मान जाओ
बहुत हुआ
चलो अब घर चलो ना!
रब बोला-
अभी आया
और मुझे पकड़ कर अपना थैला और साइकिल
अदृश्य हो गया
आब भी यह थैला ढोती हूं मैं
यह साइकिल में घसीट रही हूं
न जाने कितने अनगिनत बरसों से
सड़कों में,
बसों में,
पुलों पर,
रब को टटोलती...ढूंढती हुई
लगातार.... लगातार…. लगातार
-मीता गुप्ता
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