आदिप्रश्न
बाल हैं या भवजाल ?
क्या औरतों के बाल भवजल होते हैं?
तभी तो सदियों पहले उनको बांधा गया था
चंद्रमा के आकार के क्लिप से
तारों से जड़ी हुई कंघी से
झाड़ दिया जाता था उनको जब भी उलझते थे
ना उनको खुलने की आज़ादी थी, ना उलझने की,
फिर भी वे खुलते-उलझते थे॥
एक बार सृष्टि के पहले पहर में
घुंघराले बालों का भवजाल लिए
जो खड़ी थीं छिन्नमस्ता
आदिशिशु ने आदि माता से प्रश्न किया
मां, तेरे सिर पर जो घूंघर है
वे तो लंबे-लंबे प्रश्नचिह्न लगते हैं?
क्या इसे जूझ रही है तू भी?
कह कर वह मां के घुंघराले भवजल में छुप गया
प्रश्नों की अनगिनत लटों से
छवा गया उसका माथा।
लेकिन उन प्रश्नों में छाया थी मां की लटों की
गंध से धुले थे वे
व्यथित नहीं करते थे
तो बस थे तो वे प्रश्न जो अपने हैं
खुद अपने सिर पर उगे हैं
सिर पर जितने बाल
उससे कुछ ज्यादा सवाल
एक उत्तरातीत मुद्रा में
ठहर गया है जीवन!
हमें कहीं जाना है, लेकिन कहां?
करना है कुछ, पर क्या?
क्यों?
कैसे?
कब तक?
कब तक?
तक बक
कब तक? कब तक?
कहीं मैं द्रौपदी तो नहीं!
क्या औरतों के बाल भवजाल होते हैं?
तभी तो सदियों पहले उनको बांधा गया था,
चंद्रमा के आकार के क्लिप से
तारों से जड़ी हुई कंघी से झाड़ दिया जाता था उनको
जब भी उलझते थे
ना उनको खुलने की आज़ादी थी, ना उलझने की
फिर भी वह खुलते-उलझते थे।
एक बार सृष्टि के पहले पहर में
घुंघराले बालों का भवजाल लिए
जो खड़ी थीं कहीं छिन्नमस्ता
आदिशिशु ने आदिमाता से प्रश्न किया-
“मां! तेरे सिर पर जो घूंघर है
वे तो लंबे-लंबे प्रश्नचिह्न लगते हैं,
क्या इसे जूझी है तू भी?
कहकर वह
मां के घुंघराले भवजाल में छुप गया,
प्रश्नों की अनगिनत लटों से
छवा गया उसका माथा!
लेकिन उन प्रश्नों में छाया थी
मां की लटों की
गंध से धुले थे वे,
व्यथित नहीं करते थे,
थे तो बस थे!
अब प्रश्न अपने हैं,
खुद अपने सिर पर उगे हैं,
सर पर जितने बाल उनसे ज़्यादा सवाल!
एक उत्तरातीत मुद्रा में
ठहर गया है जीवन!
हमें कहीं जाना है, लेकिन कहां?
करना है कुछ तो, पर क्या?
क्यों? कैसे? कब तक?
कब तक?
तक-बक
बकझक
कब तक?
कब तक?
कहीं मैं द्रौपदी तो नहीं??
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