Tuesday, 28 January 2025

"स्वार्थ संकुचन है और प्रेम विस्तार"

 "स्वार्थ संकुचन है और प्रेम विस्तार" - स्वामी विवेकानंद


 
अक्सर सोचता हूँ रत्नाकर डाकू को वाल्मीकि किसने बनाया? क्या महज़ आत्मग्लानि या अपराधबोध ये काम कर सकते थे? एक झटके में एक व्यक्ति अपना स्वार्थ भूलकर सन्त बन जाये , कोई न कोई कारण तो अवश्य रहा होगा। शायद डाकू को वाल्मीकि बनाने के पीछे एक बड़ी भूमिका 'प्रेम' की रही हो! तो फिर वाल्मीकि को महाकवि किसने बनाया? सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं - 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान ......." और विरह, वियोग - प्रेम की ही तो उपज हैं । तो क्रोंच पक्षी की पीड़ा देखकर वाल्मीकि का महाकवि बन जाना, प्रेम की ही उपज क्यों न मानी जाए ! तो क्या सच में "प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन ?"

   
पश्चिमी दार्शनिक Thomas Hobbes कहते हैं - मनुष्य अंततः स्वार्थी होता है, पर इसी बात को आगे बढ़ाते हैं तो स्वार्थ के 2 रूप बताते हैं  - पहला जब स्वार्थ केवल अपने तक सीमित हो और दूसरा जब स्वार्थ का विस्तार हो जाये अर्थात मेरे स्वार्थ की परिधि में समस्त जगत समा जाये। कहीं न कहीं यही विस्तारित स्वार्थ - प्रेम कहलाने लगता है। एक छोटी सी चींटी से लेकर सम्पूर्ण पृथ्वी ही प्रेम की परिधि में आ जाती है भारतीय समाज में "वसुधैव कुटुम्बकम" की संकल्पना ऐसे ही तो नहीं बनी होगी , या फिर "सर्वे भवन्तु सुखिनः" किसी प्रेमी की ही सूक्ति हो सकती है। एक अर्थ में प्रेम मनुष्य को विनम्र बनाता है मनुष्य की भावनाओं को अलौकिकता प्रदान करता है , और जब प्रेमी अपने सभी बन्धनों को तोड़ देता है तो वह सम्पूर्ण जगत का प्रेमी बन जाता है  , कवि त्रिलोचन लिखते हैं -
मुझे जगत जीवन का प्रेमी ,
बना रहा है प्यार तुम्हारा । "

वैसे सोचने वाली बात है - कोई मनुष्य प्रेम करना कब और कैसे सीखता है? मेरा मानना है , कोई बच्चा अपने विकास के दौरान जब पहली बार अपनी प्रिय वस्तु या खिलौने को किसी दूसरे के साथ बाँटता है तो उस वक्त वह अपना स्वार्थ भूल जाता है कहीं न कहीं प्रेम की शुरुआत वहीं से होती है। अक्सर देखता हूँ छोटे बच्चे अपनी चीज़ों के प्रति बेहद सजग रहते हैं किसी के साथ बाँटना पसन्द नहीं करते पर अचानक से किसी दूसरे बच्चे को रोता हुआ देख उसे चुप कराने की जुगत में लग जाते हैं। वह अपना खिलौना उसे देते हैं , उसे ठीक उसी तरह प्रेम से दुलराते हैं जैसे उसकी माँ करती है , उसे चूमते हैं और हर सम्भव कोशिश करने लगते हैं  उस बच्चे को चुप कराने की - ये प्रेम अचानक कहाँ से पैदा हुआ ? , बच्चे ने अपना स्वार्थ त्याग कर अपना खिलौना उसे कैसे दे दिया ? , शायद उस बच्चे के आंसुओं के कारण उस बच्चे का स्वार्थ विस्तारित हो गया और वह प्रेम में बदल गया। किसी भी मनुष्य का प्रेम परवान पर तब चढ़ता है जब वह अपने से अलग किसी दूसरे को प्रेम करना सीखता है , अब चाहे वो दोस्त हों , प्रेमिका हो या फिर देश। तब मनुष्य अपने स्वार्थ को विस्तार देता है और अर्पित कर देता है प्रेम के देवता को। जीवन के कई सारे पहलू हो सकते हैं जिंदगी का मूल उद्देश्य क्या है पता नहीं पर मैं कहता हूँ - "प्रेम मूलक आनन्द" जीवन का उद्देश्य है अर्थात प्रेम से पैदा होने वाला आनन्द जिसमें स्वार्थ लेश मात्र भी न हो। स्वार्थ जब त्याग दिया जाता है समर्पण भाव पैदा होता है , या स्वार्थ जब विस्तारित होता है तो सम्पूर्ण सृष्टि को खुद में समाहित कर प्रेम का सृजन करता है । कभी-कभी इस जगत को देखकर सोचने लगता हूँ -" सम्भवतः इस चराचर जगत का सृजन करने वाला ईश्वर 'प्रेमी' रहा होगा।"

 

प्रेम एक एहसास है जो केवल व्यक्त और अनुभव किया जा सकता है। प्रेम का स्वरूप अथाह है इसका वर्णन करना अथार्त शब्दों को  नीचा दिखाना होगा क्योंकि इसे परिभाषित करना हमारे लिए कठिन है। इसलिए गुलजार ने कहा  है
प्यार एक एहसास है जिसे रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो
कोई नाम न दो

प्रेम ही जीवन का आधार है। जिसके जीवन में प्रेम है उसके जीवन में शांति है। वह संतुष्ट है। प्रेम अनेक भावनाओं का मिश्रण है जो पारस्परिक स्नेह से लेकर ख़ुशी की ओर विस्तारित है।
अगर दूसरे शब्दों में कहे तो प्रेम अंतर्मन को छूने की कला है। एक कोमल एहसास ,एक सुखद अनुभूति,एक अबूझ पहेली है। प्रेम सकारात्मक का प्रतीक है। प्रेम को अपनाकर हम अपने अंदर सकारात्मक भाव उत्पन्न करते हैं। अगर हम अपने मन में सकारात्मक विचार रखते हैं तो हमारे आस-पास का वातावरण भी सकारात्मक हो जाता है। अगर हमारे आस -पास की सारी चीजें सकारात्मक हैं तो हम आगे बढ़ते हैं और हमारा विस्तार होता है।

मनुष्य -जीवन के भाग दौड़ वाले ज़िन्दगी में सारा संघर्ष अंतिम रूप से प्रेम पर ही केंद्रित है। अगर आपको प्रेम के बारे में जानने की इच्छा है तो आप एक माँ से पूछिए जो हर वक्त अपने पुत्र को देखने के लिए सदा आतुर रहती है। वह हमेशा अपने पुत्र की सलामत के लिए कामना करती है। आप एक सच्ची प्रेमिका से पूछिए जो कि बिना अपने स्वार्थ के अपने प्रेम में मग्न रहती है। प्रेम ही इंसान के जीवन का केंद्र स्थान है।

प्रेम अतुल्य होता है। जितना प्रेम करन चाहे आप कर सकते हैं। प्रेम बढ़ता या घटता नही है और प्रेम न ही कभी खत्म होता है । प्रेम कोई समझौता नही। प्रेम कोई प्रतिबंध नही है। प्रेम  तो एक बहाव है जो दिल से निकल कर बहता है। प्रेम एक ऐसी नदी है जो कभी खत्म नही होती । प्रेम तो एक समुंदर है जिससे आप कितना भी जल निकाल ले परंतु फिर भी जल कम नही होता । उसी तरह अगर आप किसी से कितना भी प्रेम कर ले वो कम नही होगा। हर मनुष्य के अंदर प्रेम की भावना होती है अगर आप प्रेम के डोर पकड़ लिए तो ईश्वर तक पहुँच सकते हैं। प्रेम को परमात्मा की समीपता नजदीकता  का आभास करता है। प्रेम तो मानव के मन में उठने वाली तरंगे हैं जो अपने प्रेमी के मन की बात मीलों दूर बैठे ही महसूस कर लेता है। यदि किसी को अपना बनाना हो या किसी को जीतना हो तो बल से ,छल से नही जीत सकते क्योंकि उसका एक ही रास्ता है -वो है प्रेम।
जब मनुष्य सच्चा प्रेम करता है तो उसका विस्तार होता है। वही स्वार्थ इंसान को सिकोड़ देता है, संकुचित बना देता है और इसका परिणाम प्रेम से बने रिश्तो में फासले बढ़ जाते हैं। स्वार्थ जब तक संतुलित है तब तक ठीक है लेकिन अगर यह ज्यादा मात्राएं अधिकता होने के कारण जीवन में अनेक समस्या उत्पन्न कर देती है। अगर आप के मन में स्वार्थ है तो आप के मन में नकारात्मक भावना उत्पन्न कर देता है। इससे आप आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि नकारात्मक भावनाएं आपको सही रास्ते  पर ना ले जाकर गलत रास्तों पर चलने के लिए मजबूर करेंगे जिससे आपको आगे बढ़ने से रोक देगी। अगर आपके मन में स्वार्थ छुपा हो तो आप कभी संतुष्ट नही हो पाएंगे। इसका एक उदाहरण गीता में वर्णन किया हुआ है- दुर्योधन के जीवन में प्रेम नही था इसलिए दुर्योधन ने गोबिंद के माँगने के बजाए सेना व शस्त्र मांगे। उसके मन में स्वार्थ और अहंकार घर कर गया  जिसके जीवन में ऐसी भावनाएं इंसान के अंदर से दीमक की तरह खोखला कर देती हैं।
प्रेम एक ऐसा दरिया है जिसकी धार उलटी बहती है। इसमें आदमी खो कर पाता है ,डूबकर तर जाता है। संकुचित होकर विस्तृत हो जाता है , लुटाकर लूट जाता है।

इंसान को स्वार्थ को त्याग कर प्रेम को अपनाना चाहिए । सब से प्रेम करना चाहिए। प्रणियों से प्रेम करना चाहिए । इस पूरे संसार स्व प्रेम करो। आपका विस्तार होते जायेगा । अगर आपके मन में ईर्ष्या या स्वार्थ की भावना है तो आप निश्चित संकुचित होते जायेंगे। इसलिए तो  स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन।

 

प्रेम अर्थात् आत्मिक स्नेह, अपनापन..। ...पहली बात यह कि, प्रत्येक व्यक्ति अपनेआप यानी स्वयं के प्रति प्रेम रखता ही है! इस प्रेम को शायद सभी पूरी तरह से शुद्ध, समर्पित, और स्वाभाविक (प्राकृतिक) यानी स्वतः उत्पन्न हुआ ही मानेंगे, ..क्योंकि इसके लिए हम कोई वाह्य या जबरन प्रयास तो शायद नहीं करते! किसी मनोरोगी या मानसिक रूप से विकलांग या विक्षिप्त आदि को यदि न गिना जाये, तो साधारणतया हर कोई अपना ध्यान पूरी तरह से रखता ही है. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे- शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक जरूरतों का ध्यान स्वतः ही रख सकता है। ..लेकिन महत्वपूर्ण बात यहाँ यह कि, यह उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह इनमें से कितने पहलुओं पर ध्यान देता है, इनमें से कौन से पहलू उसकी वरीयता सूची में स्थान पा सके हैं! यह बात इस पर भी बहुत निर्भर करती है कि उस व्यक्ति का स्वयं के प्रति स्नेह किस श्रेणी का है, स्नेह का स्तर क्या है! ...अर्थात् अपने ही प्रति प्रेम में भी, प्रेम का विस्तार इस पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति में कितना विवेक है या वह अपने विवेक का कितना प्रयोग करता है, या उसकी सोच कितनी व्यापक है!!! निकृष्टतम स्थिति में, उसका व्यष्टि प्रेम केवल उसके भौतिक शरीर तक ही सीमित हो सकता है, या शायद कुछ अन्य स्थूल पहलू भी उसमें शामिल हो सकते हैं; और बेहतर हालत में, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक जैसे पहलुओं पर भी उसका ध्यान जा सकता है; और 'स्वयं' के प्रति पूर्ण जागरूकता की स्थिति में, खुद की आध्यात्मिक जरूरतों का भी उसे भान रह सकता है। ....यह तो हो गया उसका अपना केंद्र बिंदु! पहले पायदान पर यह सब साध लेना अत्यावश्यक है, यानी स्वयं के प्रति ही पूर्ण जागरूकता...; और तभी तो प्रेम हो पाना संभव होगा खुद से ही! ..क्योंकि केंद्र से बाहर की कक्षाओं (ऑर्बिट्स) में विस्तारित होने की पहली शर्त ही यही है कि केंद्र में सम्पूर्णता, बलिष्ठता हो! ..और यह विस्तारण भी क्रमशः कक्षा दर कक्षा होना चाहिए।

व्यष्टि-प्रेम अर्थात् केवल स्वयं के प्रति प्रेम तक ही सीमित रह गए, और क्रमशः वाह्य वर्तुलों में विस्तारित न हो पाए, तब तो नितांत स्वार्थी ही रह गए! ..और वो भी पता नहीं कि स्वार्थ भी किस श्रेणी का है!? यह माना जाता है तथा अनुभूत भी किया जा सकता है कि हमारा मूल, यानी कि आत्मा, अर्थात् असली मैं, मूलतः अथाह रूप से विस्तारित है; सभी सीमाओं से पूरी तरह से मुक्त है। ..और आत्मा के मूलभूत गुणों में 'प्रेम' भी एक है। अब आत्मा के इस भौतिक शरीर में रोपण के पश्चात् यदि हम उसके गुणों को प्रकट नहीं करते तो क्या वह आत्मा फंसा हुआ, बंधा हुआ, घुटा हुआ सा महसूस नहीं करेगी? जिस स्थिति को बहुत से ज्ञानी 'मोक्ष' से संबोधित करते हैं, वह आखिर क्या है? सरल भाषा में उसे 'मुक्ति' कहा जाता है! तो, फिर यह 'मुक्ति' क्या हुई? 'मोक्ष' या 'मुक्ति' का यह भी तो अर्थ निकाला जा सकता है कि 'आत्मा' के मूलभूत गुणों का १०० प्रतिशत प्रकटीकरण! ..फिर जो साक्षात् 'प्रकट' है उसे 'प्रकटीकरण' की आखिर क्या आवश्यकता? ...मानव देह में आत्मा है तो अवश्य, पर दबी हुई, छुपी हुई, असहाय सी है, बिलकुल मृतप्राय..., जबतक कि हम उसको प्रकट नहीं करते! ...प्रकट कैसे करेंगे? ...बिना आयाम की 'आत्मा' को हम 'त्रिआयामी' मनुष्य केवल और केवल अपने आचरण के माध्यम से ही प्रकट कर सकते हैं, उसी से उसके जीवंत होने का प्रमाण दे सकते हैं, उसे जीवन दे सकते हैं। आध्यात्मिक कृत्य के तौर पर केवल शास्त्रों को कंठस्थ करके और रूढ़िगत विधि-विधानों के संपादन द्वारा हम उसका ध्यान नहीं रख सकते। जब ध्यान नहीं रख सकते तो प्रेम की तो अनुपस्थिति ही हुई न!

अब प्रश्न यह उठता है कि मानव देह में रोपित यह आत्मा इतनी असहाय और मृतप्राय सी आखिर क्यों? क्योंकि यह ऐसे डिब्बे में आ गयी है जहाँ अनेकों प्रकार का अन्य सामान, कचरा आदि भी विद्यमान है। कुछ पहले से ही है और कुछ रोजाना इकठ्ठा हो रहा है! इसको ज्ञानीजनों ने स्थूल मन में स्थापित विभिन्न 'संस्कारों' से संबोधित किया है। संस्कार यानी मन पर अंकित इम्प्रेशंस। मूलतः ये संस्कार ही हमारी मूल स्थूल वृत्ति है। इन्हीं संस्कारों के वशीभूत हम अक्सर रहते हैं, और इन्हीं के अनुसार हम बरतते हैं। स्वार्थ, 'आत्मा' का गुण नहीं है, बल्कि यह संस्कार-जनित है। जब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम जानते और मानते हैं (यदि हमें कोरा ज्ञान भी है तब भी) कि इस त्रिआयामी देह के चलायमान होने के पीछे बीजरूप वह आत्मा ही है तो क्यों हम प्रयास नहीं करते कि इस आत्मा के मूल गुणधर्मों को मौका दिया जाये कि वे स्वतंत्र हों और हमारे आचरण द्वारा उनका प्रकटीकरण हो!? संस्कारों के वशीभूत हो जब हम उसके 'प्रेम' के गुण को बाहर नहीं आने देते, तब हम सरासर 'स्वार्थ' की दशा में होते हैं! तब सबसे नीचे (निकृष्टतम) के क्रम से हमारे लिए हमारे प्रेम का केंद्र बिंदु हम स्वयं (निज देह और उसकी भौतिक आवश्यकताएं), मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा कुटुंब, मेरे (मेरी जाति के) लोग, मेरे सत्संगी भाई-बहन, मेरे क्षेत्र के लोग, मेरे नगर के लोग, मेरे प्रदेश के लोग, मेरे देश के लोग..., बस यहीं तक ही सीमित होता है! ..किसी सीमा में बंधा हुआ और किसी खास हद तक ही विस्तारित होता है हमारा प्यार!!! इतना ही नहीं, बहुत सी शर्तें भी होती हैं उसमें! यानी हमारा प्रेम संकुचित और सापेक्ष होता है! ..अर्थात् स्वार्थ ही में हैं हम अभी तक! ...आत्मा का गुण तो नहीं है यह! ..फिर आत्मा का प्रकटीकरण हुआ ही कहाँ? उसकी तो सांसें बंद ही हैं अभी.., ..या घुटी हुई सी!

उदाहरण के तौर पर सबसे बड़ी बात यह कि, ...आज संकुचित हृदय रखने वाले आक्रान्ता चरमपंथी ही नहीं अपितु हमारे बड़े से बड़े राजनेता, तथाकथित धर्माचार्य, आध्यात्मिक गुरु/मार्गदर्शक आदि के वक्तव्य सुनें तो यहाँ हर कोई अपने से जुड़ी ही बात करता है, और यदि प्रेम में बहुत ढेर सारा विस्तार भी हो जाये तो बात राष्ट्रप्रेम तक ही आकर रुक जाती है!!! ...यह बात सही है कि केंद्र (स्वकेंद्र) से बाहर की कक्षाओं/वर्तुलों में विस्तारण क्रमशः ही होता है/होना चाहिए, यह बात मैंने भी सबसे ऊपर लिखी है, परन्तु विस्तारण की तीव्र भूख तो दृष्टिगोचर होनी चाहिए! मुझे तो वह भूख/तड़प/तीव्र इच्छा कहीं भी नहीं दिखती! शायद यहाँ आप मेरे से सहमत न हों, पर मैं आगे अन्य प्रमाण देता हूँ। ..जब भी हम यानी हमारे अगुवा अपने राष्ट्र के विकास की बात करते हैं तो उस क्रम में हम अन्य (राष्ट्रों, संघों, समूहों) की आलोचना भी संग में करते हैं! क्यों? कभी हम चीनी सामान के बहिष्कार की बात करते हैं, कभी अन्य विदेशी सामान के बहिष्कार की बात! क्यों? दूसरों की समृद्धि को अपने विकास के लिए रोड़ा सा महसूस करते व कराते हैं! क्यों? ..एक साधारण व्यक्ति अपनी प्रगति के लिए अपने कर्म पर आश्रित व समर्पित न रहकर, उससे ज्यादा इस बात से क्यों दुखी है कि उसका पड़ोसी कैसे इतना समृद्ध व सुखी हो गया/हो रहा है!? ..एक साधारण दुकानदार इस बात पर ध्यान नहीं दे कि वह अपनी बिक्री कैसे बढ़ाये, बल्कि इस बात पर केन्द्रित रहे कि बगल के दुकानदार की बिक्री कैसे घट जाये, तो इस प्रवृत्ति को हम अच्छी व्यापारिक वृत्ति नहीं कह सकते! ..है न? ..इसी प्रकार एक मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी अपना उत्पादन या बिक्री बढ़ाने के क्रम में इस महत्वपूर्ण बात को अनदेखा कर रही है कि अपने सामान की गुणवत्ता कैसे बढ़ाई जाये, बल्कि उसका पूरा ध्यान इस बात पर लगा है कि उपभोक्ताओं को अन्य कंपनी के खिलाफ कैसे भड़काया जाये! क्या कहेंगे आप? इसी प्रकार, एक धर्मगुरु का ध्यान इस पर आज कम है कि वह अपने धर्मशास्त्र को ईमानदारी से समझे-समझाए, बल्कि उसका ध्यान अन्य धर्म (पंथ) की आलोचना और उसे निकृष्ट साबित करने पर अधिक है! क्यों भाई?

इन सब क्रिया-कलापों का सीधा सा अर्थ निकलता है कि हम सभी स्वार्थी हैं। फलतः संकुचित हैं, और किसी सीमा में बंधे हुए हैं। और आगे अपनेआप को असुरक्षित महसूस करते हुए, और अधिक स्वार्थ की ओर बढ़ रहे हैं! कहते हैं कि, बोलने और करने में बहुत अंतर होता है। अर्थात् हम बोलते तो बहुत बढ़िया हैं पर करने में कमजोर पड़ जाते हैं। लेकिन मैं तो देख रहा हूँ कि हम बोलने में भी अत्यधिक संकुचित वृत्ति वाले बोल बोलने लग गए हैं! हमारी संस्कृति ऐसी तो न थी कभी! ..किसी खास जयकारे अथवा गीत को ही आज राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मान लिया जाता है; आज किसी अमुक रंग, फल या पशु आदि को ही किसी खास समूह की पहचान मान कर उससे स्नेह या द्वेष किया जाता है! खानपान और वेशभूषा को 'वास्तविक धर्म' (righteousness) से जोड़कर यहीं देखा जाता है; उसी के अनुसार उससे प्रेम या नफरत का पोषण होता है! राष्ट्रप्रेमी और राष्ट्रद्रोही; धर्मभीरु और धर्मद्रोही, इन सबकी नयी परिभाषाएं गढ़ दी गयीं हैं। और निश्चित रूप से ये नवीन परिभाषाएं संकुचित मानसिकता और विविध स्वार्थों पर आधारित हैं! कुल मिलकर खरा 'प्रेम' आज दुर्लभ ही नहीं लुप्तप्राय हो गया है। इसीलिए हम सर्वांगीण ठोस प्रगति करने में पिछले अनेक दशकों से नाकामयाब रहे हैं। मुझे तो तीव्रता से महसूस होता है कि अनेक वर्षों में भी अपने क्रियमाण और सोच का स्तर ऊपर न उठा पाने, और कोई खास उपलब्धि न हासिल कर पाने के फलस्वरूप हम अति कुंठित से हो गए हैं और धीरे-धीरे और अधिक संकुचित होते जा रहे हैं! कहने को आज सप्ताह के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले अनेकों धार्मिक टीवी चैनल्स हैं, धर्मगुरुओं की हमारे देश में इतनी प्रत्यक्ष उपस्थिति शायद ही कभी रही हो, हमारे नौजवानों की मेधा का आज सारा जग कायल है; ...बावजूद इन सबके हम और हमारे जीवन-मूल्य यदि लगातार नीचे को गिर रहे हैं तो इसके मूल में फिर से वही बात है कि अगुवाओं सहित हम सब स्वार्थी हो गए हैं, फलस्वरूप संकुचित हो गए हैं, फलस्वरूप आत्मिक रूप से मृतप्राय से हो गए हैं। जब तक हम इन विषैले संस्कारों व ओछी सोच रूपी उस खरपरवार से मुक्ति नहीं पाते जो हमारी आत्मा को दबाये हुए है, हमारे विस्तार को रोके हुए है, हमारे निरपेक्ष प्रेम को रोके हुए है, तब तक हम मरे हुए हैं क्योंकि हमारी आत्मा को हमने इनसे मृतप्राय कर रखा है। जब कभी हम अपनी आत्मा को इस मकड़जाल से मुक्त करेंगे, आत्मा के अतुलनीय गुण 'प्रेम' को वास्तव में प्रकट होने देने का मार्ग प्रशस्त करेंगे, तब ही क्षुद्र सीमाओं से परे हमारा, हमारी सोच का विस्तार संभव होगा। तब हम आत्मा के गुणधर्मों के अनुसार उड़ान भरेंगे और सही मायनों में एक आत्मिक मानव कहलायेंगे। इति।

 

 


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