कैसे रखें मन को शांत?
अपने
भीतर
निरंतर
बह रही
रूह
की आवाज से
कभी
कभी
ऐसे
भी क्षण आते हैं
जब
आप
अपने
से ही
एक
प्यारी-सी मुलाकात
कर
पाते हैं।
जीवन में बहुत कुछ है, लेकिन मन अशांत है तो व्यक्ति
को किसी चीज़ से ख़ुशी नहीं मिल सकती है। इसलिए भागते-दौड़ते संसार के संग
भागती-दौड़ती ज़िंदगी में ख़ुद को कैसे शांत रखा जाए, आइए
जानते हैं...
प्रकृति
से सीखिए शांत रहने का सबक़-बाहर होने वाले शोर के
समान ही अंदर विचारों का शोर रहा करता है। बाहर होने वाली शांति के समान ही अंदर
शांति रहा करती है। आपके आसपास जब कभी भी थोड़ी-सी भी शांति हो, ख़ामोशी
हो तो उस पर पूरा ध्यान दीजिए। बाहर की ख़ामोशी को सुनना आपके अंदर की शांति को जगा
देता है क्योंकि केवल शांति के माध्यम से ही आप ख़ामोशी को जान सकते हैं। इस बारे
में सावधान रहिए कि जब आप अपने आसपास की ख़ामोशी पर ध्यान दे रहे हों तब आप कुछ भी
न सोच रहे हों। कभी किसी पेड़, फूल या पौधे को देखिए। वे
कितने शांत रहते हैं। शांत रहने का सबक़ प्रकृति से सीखिए। शायद इसीलिए पंत जी कह
उठे-
छोड़ द्रुमों की मृदु
छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
वर्तमान
पल से कर लीजिए मित्रता-यही एक पल यानी अब यही एक ऐसी चीज़ है, जिससे
आप बचकर कभी निकल नहीं सकते, यही पल आपके जीवन का
स्थायी प्रतिनिधि है। भले ही आपके जीवन में कितना भी बदलाव आ जाए, यही एक बात है जो कि निश्चित रूप से हमेशा ही रहती है : अब। इसलिए अब से
अगर बचा ही नहीं जा सकता तो फिर इसका स्वागत क्यों न किया जाए, इसके साथ मित्रवत क्यों न रहा जाए। वर्तमान पल के साथ जब आप मित्रवत रहते
हैं, तब आप चाहे जहां हों घर जैसा महसूस करते हैं। और
आप अब के साथ घर जैसा महसूस नहीं करते हैं, तब आप चाहे
कहीं भी चले जाएं, आप बेचैनी, परेशानी, उद्विग्नता, व्याकुलता में ही रह रहे होंगे। इस पल के प्रति निष्ठावान होने का अर्थ है
कि अब जैसा भी है उसका अपने अंदर से विरोध न करना, उसके
साथ कोई वाद-विवाद न करना। इसका अर्थ है जीवन के साथ तालमेल करना। जब आप ‘जो है’
को स्वीकार कर लेते हैं तब आप परम जीवन की शक्ति तथा प्रज्ञा के साथ सामंजस्य में
रहने लगते हैं। और केवल तभी आप इस संसार में सकारात्मक बदलाव लाने वाले बन सकते
हैं। इस संदर्भ में मुझे ‘गोलमाल’
फ़िल्म का यह गाना याद आता है-
आनेवाला
पल जानेवाला है
आनेवाला
पल जानेवाला है
हो
सके तो इसमें जिंदगी बिता दो
पल
जो ये जानेवाला है
संबंधों
को देखिए निष्कर्ष पर न पहुंचिए-किसी के बारे में राय
बना लेने में हम कितनी जल्दबाज़ी करते हैं। जबकि हर व्यक्ति ख़ास तरह से सोचने और
बर्ताव करने के लिए संस्कारित हुआ होता है। ये संस्कार आनुवंशिक भी होते हैं और उन
अनुभवों और संस्कृति के वातावरण से भी पड़ते हैं जिनमें कि वह पला-बढ़ा होता है।
इसलिए यदि किसी से शिकायत भी है तो कोई भी जब आपके पास आता है, तब
अगर आप ‘अब’ में विद्यमान रहते हुए उसका स्वागत सम्मानीय अतिथि के रूप में करते
हैं जब आप हर किसी को जैसा वह है वैसा रहने देते हैं। तब उनमें सुधार आने लगता है
और ज़ाहिर है, ख़ुद के जीवन में भी शांति आती है। यानी
जज्मेंटल मत बनिए।
थोड़ी
देर ऊबे रहें तो शांत होगा दिमाग़-मन तो हमेशा ही अभी
कमी है, अभी और चाहिए वाली अवस्था में रहता है और इसलिए वह
हमेशा ही और-और की लालसा करता है। जब आप मन के साथ तादात्म्य में हो जाते हैं तब
आप जल्दी ही ऊब जाते हैं, जल्दी ही बेचैन हो जाते हैं।
ऊबने का मतलब होता है कि मन और अधिक उद्दीपन और उत्तेजना चाहता है, कि विचार करने के लिए वह और अधिक ख़ुराक चाहता है, लेकिन मन का पेट कभी भरता नहीं है। जब ऊब होती है तो किसी से फोन पर बात
करने लगते हैं, सोशल मीडिया देखकर मन की भूख को शांत
करने की कोशिश करते हैं। मानसिक अभाव के भाव और भूख को शरीर की ओर स्थानांतरित कर
देते हैं। जबकि ऐसे वक़्त में थोड़ी देर ख़ुद को ऊबने दिया जाए, तो थोड़े समय में स्वत: शांति मस्तिष्क में आएगी। इसका अगला चरण है विचार
से ऊपर उठना या विचार के पार जाना। इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि हम विचार के साथ
पूरी तरह से तादात्म्य में न हो जाएं, कि हम विचार के
ग़ुलाम न हो।
निष्कर्षतः यदि हम खुद से मिलें और मिलते रहें, तो मन
रहेगा शांत.......अपनी स्पेस चेक कीजिए.....क्योंकि छोटा हो बड़ा... हर मनुष्य को
एक निजी स्पेस की ज़रूरत सदैव होती है....ऐसी स्पेस जहां मैं खुद से बातें कर
सकूं..... खुद से मिल सकूं...आत्म-चिंतन कर सकूं....आत्म-विश्लेषण कर सकूं....क्या
खोया..क्या पाया.. समझ सकूं....क्या मेरे लिए अच्छा...क्या बुरा...समझ सकूं...यदि
यह कर सकूं...तो मन रहेगा शांत....!!
मिला
कौन?
और
मिला किससे?
मिले
हम
और
मिले खुद से।
मीता
गुप्ता
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