Saturday, 25 April 2020

ये इंद्रधनुषी बच्चे


ये इंद्रधनुषी बच्चे





अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय,
जब संसार हो गया निश्चल,
जब सपरिवार रहे भीतर,
कभी-कभी खिड़कियों से झाँकते,
उस साफ होते आसमान को देखते,
जो इतना नीला कभी न था,
जो उन्होंने बरसों से ना देखा था,
वह फूलों का खिलना,
वह सूरज का निकलना,
वह बादलों का आना-जाना,
और हां, वह रंग बिरंगा इंद्रधनुष,
जिसकी आभा को न जाने कब से नहीं देखा था ।।
अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय,
जब खेलते थे बच्चे,
तब टोकते थे बड़े,
घास पर मत खेलो......घास पर मत खेलो !!
अब भी तरस रहे हैं वे भी,
कब बच्चे अपने कलरव से,
घास को रौंदेंगे,
और अपनी मखमली हंसी से,
घास को और हरा कर देंगे ॥
अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय,
जब संसार हैरान,
कुछ हैरान....कुछ परेशान,
पर फिर भी हैं सब एक साथ,
चाहे वह दो हाथों की ताली हो,
या फिर चम्मच और थाली हो,
सलाम उनको जो खड़े हैं काल के सामने दीवार बनकर,
अविचल....निष्कंप.....सामाजिक सरोकार बनकर,
स्कूल हैं बंद,
पढ़ाई है जारी,
बाधाओं को धकेल बच्चे करते तैयारी ॥
अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय,
जब शीर्ष पर मनुजता थी,
हाथ भले न मिलें,
पर मिलने की व्याकुलता थी,
बच्चे चंचलता से गंभीरता की ओर बढ़ चले,
उनकी आकांक्षाएं,
उनकी कल्पनाएँ,
उनका विश्वास,
उनके सपने,
सब सूरज सूरज चांद तारों पर चढ़ चले,
अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय....
अब इतिहास में दर्ज होगा एक ऐसा समय ॥
द्वारा-मीता गुप्ता


Saturday, 18 April 2020

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का






मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का,
जहां लोग स्नेह-सूत्र में बंधे हों,
जहां की मिट्टी प्रेम में पगी हो,
और रास्ते शांति की अल्पना से सुसज्जित.....         

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का,
जहां सब आज़ादी से सांस लें,
जहां अंतरात्मा की मिठास हो,
जहां तेरे सुख में मेरा सुख हो,
और जीवन विश्व कल्याण को अर्पित......

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का,               
जहां सब समभाव से रहें,                     
जहां दिलों में सद्भाव हो,
धरती की संपदा के प्रति खिंचाव हो,             
और जीवन कल्याण के लिए हो समर्पित.........

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का,
जहां हर कोई आज़ाद हो,                       
मानवता जहां आबाद हो,
कली कली जहां शाद हो,                         
और लोग हों उल्लसित, तरंगित, आत्मार्पित.....

मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का,
मैं सपना देखती हूँ ऐसी धरा का ॥

पृथ्वी




पृथ्वी

 पृथ्वी कुछ कहना चाहती है हमसे,
ये हवाओं की सरसराहट,
ये पेड़ों पर फुदकते चिड़ियों की चहचहाहट,
ये समुन्दर की लहरों का शोर,
ये बारिश में नाचते सुंदर मोर,
कुछ कहना चाहती है हमसे,
पृथ्वी कुछ कहना चाहती है हमसे।।

ये खूबसूरत चांदनी रात,
ये तारों की झिलमिलाती बारात,
ये खिले हुए सुंदर रंगबिरंगे फूल,
ये उड़ती हुए धूल,
कुछ कहना चाहती है हमसे,
पृथ्वी कुछ कहना चाहती है हमसे।।

ये नदियों की कलकल,
ये मौसम की हलचल,
ये पर्वत की चोटियाँ,
ये झींगुर की सीटियाँ,
कुछ कहना चाहती हैं हमसे,
पृथ्वी कुछ कहना चाहती है हमसे।।

आखिर क्या कहना चाहती है यह पृथ्वी ?

इन हवाओं की सरसराहट को ,
पेड़ों पर फुदकटी चिड़ियों की चहचहाहट को,
समुन्दर की लहरों के शोर को,
बारिश में नाचते सुंदर मोर को ,
खूबसूरत चांदनी रात को,
तारों की झिलमिलाती बारात को,
खिले हुए सुंदर रंगबिरंगे फूल को,
उड़ती हुई धूल को,
नदियों की कलकल को,
मौसम की हलचल को,
पर्वत की चोटियों को,
झींगुर की सीटियों को,
बचा सको तो बचा लो अब भी,
थोड़ा सा विश्वास 
थोड़ी सी उम्मीद 
थोड़े से सपने 
थोड़े से अपने 
क्योंकि अब भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास|

Sunday, 5 April 2020

लॉकडाउन का दूसरा दिन 26.03.2020


लॉकडाउन का दूसरा दिन,26.03.2020

आज मुझे सुबह से ऐन की बहुत याद आ रही थी, अरे वही ऐन.ऐन फ़्रैंक..... द डायरी ऑफ यंग गर्ल वाली । ऐन क्यों याद आ रही थी मुझे ? यह समझ आ रहा था कि लॉक डाउन किसी अज्ञातवास जैसा ही है । मन में यह संवेदना उठ रही थी कि किस प्रकार से एन और उसके परिवार में 2 साल से भी अधिक का समय उस अज्ञातवास में काटा होगा, जहां युद्ध की विभीषिका, आतंक, भय, क्रंदन, डर और न जाने कितनी नकारात्मक स्थितियाँ रही होंगी । डर तो था हमें भी, कुछ आतंक भी, लेकिन युद्ध की विभीषिका इसमें नहीं थी। अभी ऐसा सोच ही रही थी कि हमारे घर के बाहर से महेश ने आवाज़ दी.... कूड़ा.... मैंने कहा... अरे भैया, अभी गेट खोलती हूं, तुम आ गए ? उसने कहा.... हम तो आवश्यक सेवाओं वाले हैं न मैडम....हमें तो आना ही था। मैंने कई बार महेश और उसके बेटों को घर के आसपास सफाई ढंग से ना करने पर, नाली साफ ना करने पर टोका है, कई बार उनको समझाया भी है,पर आज मुझे ये छोटी-छोटी बातें ओछी लगीं। देखो आज यह कर्मवीर की भांति आज मेरे घर पहुंच गया है । सच ही है कि कठिनाई के समय हम और मानव हो जाते हैं । 
व्हाट्सएप का स्टेटस बदला, स्टेटस में हौसले से भरी हुई पंक्तियां लिखी और फिर अपने दैनिक कार्य में जुट गई । चाय बनाई, हम सबने मिलकर चाय पी । फिर बर्तन- झाड़ू-पोंछा- डस्टिंग ।  कल के धुले हुए कपड़े आपस में उलझ रहे थे, उनकी तह बनाई। नाश्ता के बाद सोचा कि अब कुछ रूटीन बनाना चाहिए । इतने सारे दिनों की बात है..... रूटीन में एक्सरसाइज को भी स्थान मिलना चाहिए । ट्रेडमिल पर आधा घंटा चल कर देखते हैं । नाश्ता किया,तब तक सब्ज़ी वाला आ गया.....मैंने उससे कहा कि तुम जब भी आओ, तो सब्ज़ी दे जाया दिया करो । उसने कहा कि जहां बोहनी अच्छी होती है, वहां हम सबसे पहले जाते हैं । मुझे याद आया वह विज्ञापन जिसमें बेटी मां से कहती है कि आपका चेहरा हमारे लिए लकी है ।
आज दिन भर के कामों की बाद ऐसा महसूस किया मैंने कि सारे शरीर में दर्द हो रहा है क्योंकि ये सब काम करने की आदत जो छूट गई है । यह भोग विलास का जीवन...कितना आकर्षक...कितना दुखदायी....और इसे जीकर हम अपने आप को बहुत महान समझने लगते हैं । हम तो यह सब नहीं करते......हमारे यहां तो मेड है........मेड करती है सब....क्या करती है ? कैसे करती है ? हम बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते ।अब लगता है कि कितना बड़ा काम है ।आज ऐसा लग रहा था जैसे यह मेरा घर नहीं.....मेरा साम्राज्य और मैं यहां की रानी ।
अपूर्व (बड़ा बेटा) लंदन में ही है, वहाँके दिन-प्रतिदिन बिगड़ रहे हालात सुनकर डर और आशंकाओं से भर जाती हूँ....बेटा! ध्यान पूर्वक रहिए.....सावधानीपूर्वक.....ध्यान से बाहर निकलिए सावधानियों के साथ......उसका भी वर्क फ़्रॉम होम हो गया है....मेरी उससे रोज़ ही बात हो जाती है और केवल बात नहीं....ठीक से....अच्छे से लंबी बातचीत होती है । अब वह हमसे दूर है...तो चिंता तो होती ही है.....वह कहता है कि चिंता मत करिए,कैसे न करूँ, यह समझ नहीं आता । मम्मी-डैडी से भी बात हुई और क्योंकि व्रे बुजुर्ग हैं और उनके लिए बिना रजनी के सारा काम स्वयं करना काफी कठिन है । उन्होंने बार-बार मुझे बताया कि रजनी आना चाहती है, काम करना चाहती है पर मैंने उन्हें बहुत प्यार से समझाया कि नहीं रजनी के लिए आप घर के दरवाजे मत खोलिए, उसे मत बुलाइए, चाहे घर में काम हो ना हो । उनके हाथों में तकलीफ है, पैरों में भी अक्सर दर्द रहता है, तो उनके लिए इन सब कामों को करना बड़ा तकलीफ़देह हो जाता है ।वे रोटी वह बना नहीं पाती हैं, हाथ के दर्द के कारण । लेकिन मैं नहीं समझ नहीं पा रही हूँ कि क्या इसके अलावा कोई और विकल्प  है ?

दूसरा दिन कुछ आशाओं के साथ, कुछ आशंकाओं,कुछ भय के साथ समाप्त हुआ ।
सपने बुनती हूँ, टूट जाते हैं,
टूटकर बिखर जाते हैं,

उनमे से एक टुकडा चुनकर,
फिर सपने बुनने लगती हूँ

आशाएँ जगाती हूँ,
टूट जाती है,
निराशा आती है,

दुख के काँटों के बीच,
सुख के कुछ फूल फिर चुनने लगती हूँ…..

प्रयास करती हूँ, विफल हो जाते हैं,
सहम जाती हूँ,
विफलता के अन्धकार के उस पार,
रोशनी की किरण ढूँढने लगती हूँ……

हिम्मत जुटाती हूँ, हार जाती हूँ,
थम जाती हूँ,
फिर चुपचाप हाथ पर हाथ रख,
 नियति की सुनने लगती हूँ……

Saturday, 4 April 2020

कोरोना वायरस के कारण पूरे भारत में 21दिनों का लॉकडाउन का पहला दिन-25.03.2020


भूमिका-


21 दिन के लॉकडाउन का पहला दिन..... मैं पिछले दिनों की बातों को याद करने लगी।19 मार्च 2020 को भारत सरकार के द्वारा एडवाइज़री जारी की गई थी, जिसमें लिखा था कि 22 मार्च 2020 को सभी भारतीय 'जनता कर्फ्यू' का पालन करेंगे । इस दौरान सभी लोग घर में रहेंगे । कोई बाहर नहीं निकलेगा और यह भी कहा गया था कि सब को एकजुट होकर कोरोनावायरस के बढ़ते हुए संक्रमण को रोकना है ।उस समय ऐसा लगा जैसे हम सब पूरे 135 करोड़ भारतीय अगर 22 मार्च 2020 को घरों में बंद रहेंगे, तो कोरोनावायरस का संक्रमण नहीं फैलेगा और हम उसे जीत लेंगे । इस एडवाइज़री में यह भी कहा गया था कि हम सभी शाम को 5:00 से लेकर 5:05 तक थाली, ताली या घंटी बजाएंगे और उन सभी आवश्यक सेवाएं देने वाले कर्मियों का आभार व्यक्त करेंगे विशेष तौर पर स्वास्थ्य कर्मी जिनमें डॉक्टर, नर्स,वॉर्ड ब्वॉय या हॉस्पिटल में काम करने वाले अन्य लोग, पुलिस कर्मी हर परिस्थिति पर निरंतर पर नजर बनाए रखते हैं और खाने पीने की वस्तुओं की दुकानों, दवाइयों की दुकानों पर काम करने वाले लोग और वे सभी लोग जो कोरोनावायरस के इस संक्रमण काल में हमें सुविधाएं और साधन देने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में हम धन्यवाद देते समय आमतौर पर बैंक कर्मियों को भूल जाते हैं ।मेरा अपना मानना यह है कि बिना पैसों के या बिना पैसों के लेनदेन के किसी देश की अर्थव्यवस्था तो क्या, एक घर भी चलाना संभव नहीं है । तो इन सब को धन्यवाद देने की बात कही गई थी । पूरे भारतवर्ष में बड़े जोश-खरोश के साथ और 5:00 से लेकर 5:05 नहीं, बल्कि उससे भी देर तक घंटियां, तालियां और सीटियां बजाईं। कुछ लोगों ने नाचना शुरू कर दिया,पर उन्हें देखकर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा ।
अगले ही दिन सोशल मीडिया पर तरह-तरह के हास्यास्पद वीडियोज़ आने लगे।कुछ लोगों ने स्पीकर पर घंटियों और तालियों और शंख की आवाज़ वाले वीडियो को शेयर किया था । ऐसा लग रहा था मानो हम पांच से 10 मिनट तालियां तालियां बजाकर अब खतरे से बाहर हो गए हैं।

अगली सुबह होते होते बहुत सारे लोगों ने खासतौर पर डॉक्टर और हमारे प्रशासकों ने, प्रधानमंत्री जी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझाने का प्रयास किया,टीवी चैनल पर भी यह बताने की कोशिश की थी यह तो अभी जंग की शुरुआत है । यह जंग जीतने का ऐलान नहीं है । इसका मुझे आभास तो होने ही लगा था । जब मैं 19 तारीख को विद्यालय गई थी जिसके बाद सभी विद्यालय बंद कर दिए गए और कहा कि अब आप घर में रहेंगे और कक्षा ग्यारहवीं की परीक्षा स्थगित कर दी गई और सीबीएसई की परीक्षाएं भी रात को स्थगित हो गईं।
24 तारीख को शाम को माननीय प्रधानमंत्री जी का दूसरा संदेश प्रसारित किया गया और उसके साथ ही लॉक डाउन की घोषणा हुई । घोषणा सुनते ही लोगों में अजीब सी आशंका, निराशा, अवसाद और किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति बन गई । अभी प्रधानमंत्री जी का संबोधन समाप्त भी नहीं हुआ था कि लोग घर से निकल पड़े और दुकानों पर उन्होंने भीड़ कर दी और सामान बटोरने और सामान खरीदने की होड़ा-होड़ी होने लगी, जबकि खाने-पीने की व्यवस्था कराने का प्रयास सरकारें सामान्य दिनों की भांति होगी,ऐसा कह चुकी थीं ।
बात इतनी सी है कि जो स्थिति हमने पहले कभी देखी नहीं, जिसका कोई अनुभव नहीं, वह स्थिति भयावह ही लगती है, आशंकाओं से भरी लगती है और हमें यह समझ में नहीं आता है कि हम क्या करें ।जिन सुविधाओं के दिन साधनों के हम आदी हो चुके होते हैं उनके बिना हम कैसे रहेंगे ? यही डर सताता है ।


25 मार्च 2020

........तो शुरू हुआ लॉकडाउन का पहला दिन । सुबह उठी तो मन में बहुत से सवाल थे, अरे भाई, अब क्या होगा उर्मिला (मेरे घर काम करने वाली सहायिका) नहीं आएगी । और पता नहीं कब तक नहीं आ पाएगी। घर का सारा......काम ? खाना बनाना, खाना बनाने से भी ज़्यादा सब्ज़ियाँ काटना, आटा गूँथना.....कपड़े धोना,धोने से भी ज़्यादा उन्हें फैलाना,सूखे हुएकपड़ों की तह लगाना आदि बाकी सारी व्यवस्थाएँ देखना.....इनके साथ-साथ सब्जी, दूध आदि का इंतज़ाम करना....आंखों के सामने शुरुआत में अंधेरा सा छाने लगा.....लगा कि वास्तव में बहुत बड़ा काम है ।मरती क्या न करती.....झाड़ू उठाई तो इतनी भारी लगी और कूड़ा....कूड़ा तो न जाने कहां-कहां उड़ा चला जा रहा था । तब तक अंबरीष आए और कहने लगे तुम झाड़ू लगा था मैं पोंछा लगा दूंगा । मैंने अविश्वास भरी नजरों से देखा कि क्या सचमुच करेंगे.....सोचा शायद आज कर देंगे, मुझ पर तरस खाकर । नेकी और पूछ पूछ ।
अमरीश ने पूछा, और बर्तन । बर्तनों का तो क्या बताऊं, जब मैं अविवाहित थी, तब भी मां मुझसे कभी बर्तन नहीं धुलवाती थी । कभी कोई कप धो लिया तो धो लिया और शादी के बाद भी कुछ ऐसा सौभाग्य रहा कि बर्तन मुझे कभी धोने नहीं पड़े । अब बर्तनों के ढेर को मैं देख रही थी, और ढेर मुझे चिढ़ा रहा था । फिर मैंने सोचा चलो करना तो है ही, जैसे भी हों । शायद जब कोई काम करने बैठो तो वह हो ही जाता है। जैसे भी हो, करना तो है ही । तभी अंबरीश बोल उठे, बर्तन मैं धो दिया करूंगा, खैर बर्तन धोए क्या बताऊं, उस दिन सभी काम किए, जिन्हें किए हुए बरसों हो गए थे। कितना कमाल का काम था, लेकिन कितना कठिन । नाखूनों में लहसुन की गंध आने लगी थी, फल काटना, मटर छीलना.... मटर छीलने के लिए मैंने अक्षर (मेरा छोटा बेटा) को बैठा दिया,वैसे उसने बड़ी ज़िम्मेदारी से मटर छीली ।
जैसे-जैसे दिन बीतता गया, डर का माहौल और अधिक बढ़ता गया क्योंकि चाहे अखबार हो, चाहे टीवी, चारों ओर देश और विदेश के कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या, उससे मरने वालों की संख्या डरा रही थी । घर के बाहर जाना नहीं था क्योंकि बाहर पुलिस भी थी और हमें स्वयं भी नहीं जाना था ।तभी देखा दो व्यक्ति स्कूटर पर जा रहे हैं....पर तभी एक पुलिस कॉंस्टेबल की आवाज़ सुनाई दी,देखिए,दो लोगों का दूध लाने जाना ज़रूरी है,या देश बचाना ज़रूरी है।मेरे लिए यह अनुभव नया नहीं था। इससे पहले भी मैंने पुलिस का मानवीय और ज़िम्मेदाराना रूप पहले भी देखा है,उसके बारे में फिर कभी बताउंगी ।
सब्ज़ीवाला सब्ज़ी ले आया (जिसके आने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी), सब्जी खरीद ली । अब मैंने सोचा कुछ किया जाए और फिर मैंने कई महीनों के रुके हुए पॉडकास्ट के लिए रिकॉर्डिंग के काम को शुरू किया ।अक्षर ने इसमें मेरी बहुत मदद भी की और प्रोत्साहित भी किया और हमने ऑडियो रिकॉर्ड किया । ऑडियो मेरी पुस्तक 'यूं ही कोई मिल गया' का एक प्रसंग था जिसका नाम था 'मेरा तो रब खो गया'। रिकॉर्डिंग को करने से दिमाग कुछ शांत हुआ शायद रचनात्मकता की वह क्षुधा जो कई महीनों से अंदर तड़प रही थी, वह कुछ पूर्ण हुई, उसे एक आकार मिला ।
फिर अपूर्व और मम्मी से फ़ोन पर बात करके उनकी कुशल-क्षेम पूछी क्योंकि चाहे शहरबंदी हो जुगलबंदी,अपनों का साथ,अपनों की परवाह व चिंता तो हर समय लगी ही रहती है,चाहे नोयडा हो या लंदन,दोनों ही जगहों पर कोरोना वायरस का खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है। फिर मैंने खाना आदि बनाया और सोचा, अब यह जो समय है, यह समय है परिवार के साथ बिताने का समय । अक्षर पहले ही दिल्ली से आ चुका था तो मैंने, अक्षर ने और अंबरीश ने मिलकर नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म देखी । पहला दिन कुछ डरते-सहमते और अविश्वास-आशंकाओं से घिरे हुए बीता । पर फिर मन को समझाया......विश्वास को जगाया कि हां..... कठिनाइयां तो बहुत है लेकिन हम कोशिश कर सकते हैं:

जिगर में हौसला सीने में जान बाकी है
अभी छूने के लिए आसमान बाकी है
हारकर बीच में मंज़िल के बैठने वालों
अभी तो और सख़्त इम्तहान बाकी है
कौन-सी राह जो आसान हो नहीं जाती
यकीन दिल में अगर इत्मीनान बाकी है
रात के बाद ही सूरज दिखाई देता है
मगर रुको तो सुबह की अज़ान बाकी है


Friday, 3 April 2020

प्रस्तावना


और लोग घरों में बंद हो गए

और लोग घरों में बंद हो गए, 
कुछ ने किताबें पढ़नी शुरू कीं,
कुछ कहानियां सुनने-सुनाने लगे,
कुछ ने आराम किया, 
कुछ ने चित्र बनाए, 
कुछ पुराने खेल खेलने लगे, 
कुछ ने…. ना...ना…. 
सबने जीवन का नया ढंग सीखा….. नया रंग सीखा…. 
लेकिन वे घर की चारदीवारी में बंद हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए। 

कुछ ने गहराई से सोचा, 
कुछ नहीं पाया प्रार्थना का मौका, 
कुछ नाच गाने में सुकून ढूंढने लगे, 
कुछ घर के भीतर ही अपने लोगों से मिलने लगे, 
कुछ अपनी ही परछाइयों को गले लगाने लगे, 
कुछ अंदर रोते ऊपर हंसी दिखाने लगे, कुछ सेवा भाव से मदद के लिए आगे आने लगे, 
सारे गिले शिकवे गायब, धूमिल सब रंज हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए। 

लिप्सा, जुगुप्सा, स्वार्थ, घृणा सब तिरोहित हो गए, 
यह तेरा, यह मेरा, यह इसका, यह उसका, 
कहाँ यह सब खो गए, 
जब शीर्ष झुकने लगे, टूटने लगे, 
सब द्वंद छोड़ 'विश्व बंधुत्व' में सब समाहित होने लगे, 
जो तन कर चला, टूटेगा ज़रूर, 
जो अकड़ कर तना, बिखरेगा ज़रूर, झूठे दंभ, छल,कपट के वे किस्से अब बंद हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए ।।

जब दोहनकर्ता हुआ कैद, तो प्रकृति मुस्काने लगी, 
निरभ्र आकाश की चित्रमयी छवि अब नज़र आने लगी, 
गलियां खाली, सड़कें सूनीं, 
कहीं चिड़ियां, कहीं कोयल हॉर्न से ज़्यादा सुनाई देने लगीं, 
सड़कों के किनारे लगी घास और भी हरी होने लगी, 
ऐसा दिन तो आना ही था ज़रूर, 
ऐसे नहीं, तो वैसे, 
आना ही था ज़रूर…. 
आना ही था ज़रूर, 
संतप्त पृथ्वी पर रुई के ठंडे फाहे मलंग हो गए,
और लोग घरों में बंद हो गए ।।

काश, ऐसा हो कि जब यह गुबार गुज़र जाए,
लोग तब भी यूं ही नम होना ना भूलें, दूसरों के दुख में आंखें नम करना न भूलें, 
हाथ से हाथ जोड़े सिर्फ़ हौसला देने के लिए, 
निर्बल, असहाय के लिए हाथ बढ़ाना न भूलें, 
न भूलें कि आज असुर बाहर था, हम भीतर, 
पर भीतर के असुर का क्या करें,
इस असुर को सुर बनाना न भूलें,
मिलें, जुलें, हंसें, नाचें, रोएं…..
पर सब एक साथ, 
एक दूसरे का साथ ही जीवन का मंत्र है, 
भय से मुक्ति का यही एक तंत्र है, 
हे प्रभु फिर कभी न कहना पड़े, 
कि लोग घरों में बंद हो गए ।।


और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...