Friday, 3 April 2020

प्रस्तावना


और लोग घरों में बंद हो गए

और लोग घरों में बंद हो गए, 
कुछ ने किताबें पढ़नी शुरू कीं,
कुछ कहानियां सुनने-सुनाने लगे,
कुछ ने आराम किया, 
कुछ ने चित्र बनाए, 
कुछ पुराने खेल खेलने लगे, 
कुछ ने…. ना...ना…. 
सबने जीवन का नया ढंग सीखा….. नया रंग सीखा…. 
लेकिन वे घर की चारदीवारी में बंद हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए। 

कुछ ने गहराई से सोचा, 
कुछ नहीं पाया प्रार्थना का मौका, 
कुछ नाच गाने में सुकून ढूंढने लगे, 
कुछ घर के भीतर ही अपने लोगों से मिलने लगे, 
कुछ अपनी ही परछाइयों को गले लगाने लगे, 
कुछ अंदर रोते ऊपर हंसी दिखाने लगे, कुछ सेवा भाव से मदद के लिए आगे आने लगे, 
सारे गिले शिकवे गायब, धूमिल सब रंज हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए। 

लिप्सा, जुगुप्सा, स्वार्थ, घृणा सब तिरोहित हो गए, 
यह तेरा, यह मेरा, यह इसका, यह उसका, 
कहाँ यह सब खो गए, 
जब शीर्ष झुकने लगे, टूटने लगे, 
सब द्वंद छोड़ 'विश्व बंधुत्व' में सब समाहित होने लगे, 
जो तन कर चला, टूटेगा ज़रूर, 
जो अकड़ कर तना, बिखरेगा ज़रूर, झूठे दंभ, छल,कपट के वे किस्से अब बंद हो गए, 
और लोग घरों में बंद हो गए ।।

जब दोहनकर्ता हुआ कैद, तो प्रकृति मुस्काने लगी, 
निरभ्र आकाश की चित्रमयी छवि अब नज़र आने लगी, 
गलियां खाली, सड़कें सूनीं, 
कहीं चिड़ियां, कहीं कोयल हॉर्न से ज़्यादा सुनाई देने लगीं, 
सड़कों के किनारे लगी घास और भी हरी होने लगी, 
ऐसा दिन तो आना ही था ज़रूर, 
ऐसे नहीं, तो वैसे, 
आना ही था ज़रूर…. 
आना ही था ज़रूर, 
संतप्त पृथ्वी पर रुई के ठंडे फाहे मलंग हो गए,
और लोग घरों में बंद हो गए ।।

काश, ऐसा हो कि जब यह गुबार गुज़र जाए,
लोग तब भी यूं ही नम होना ना भूलें, दूसरों के दुख में आंखें नम करना न भूलें, 
हाथ से हाथ जोड़े सिर्फ़ हौसला देने के लिए, 
निर्बल, असहाय के लिए हाथ बढ़ाना न भूलें, 
न भूलें कि आज असुर बाहर था, हम भीतर, 
पर भीतर के असुर का क्या करें,
इस असुर को सुर बनाना न भूलें,
मिलें, जुलें, हंसें, नाचें, रोएं…..
पर सब एक साथ, 
एक दूसरे का साथ ही जीवन का मंत्र है, 
भय से मुक्ति का यही एक तंत्र है, 
हे प्रभु फिर कभी न कहना पड़े, 
कि लोग घरों में बंद हो गए ।।


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