भूमिका-
21 दिन के लॉकडाउन का पहला दिन..... मैं पिछले दिनों की बातों को याद करने लगी।19 मार्च 2020 को भारत सरकार के द्वारा एडवाइज़री जारी की गई थी, जिसमें लिखा था कि 22 मार्च 2020 को सभी भारतीय 'जनता कर्फ्यू' का पालन करेंगे । इस दौरान सभी लोग घर में रहेंगे । कोई बाहर नहीं निकलेगा और यह भी कहा गया था कि सब को एकजुट होकर कोरोनावायरस के बढ़ते हुए संक्रमण को रोकना है ।उस समय ऐसा लगा जैसे हम सब पूरे 135 करोड़ भारतीय अगर 22 मार्च 2020 को घरों में बंद रहेंगे, तो कोरोनावायरस का संक्रमण नहीं फैलेगा और हम उसे जीत लेंगे । इस एडवाइज़री में यह भी कहा गया था कि हम सभी शाम को 5:00 से लेकर 5:05 तक थाली, ताली या घंटी बजाएंगे और उन सभी आवश्यक सेवाएं देने वाले कर्मियों का आभार व्यक्त करेंगे विशेष तौर पर स्वास्थ्य कर्मी जिनमें डॉक्टर, नर्स,वॉर्ड ब्वॉय या हॉस्पिटल में काम करने वाले अन्य लोग, पुलिस कर्मी हर परिस्थिति पर निरंतर पर नजर बनाए रखते हैं और खाने पीने की वस्तुओं की दुकानों, दवाइयों की दुकानों पर काम करने वाले लोग और वे सभी लोग जो कोरोनावायरस के इस संक्रमण काल में हमें सुविधाएं और साधन देने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में हम धन्यवाद देते समय आमतौर पर बैंक कर्मियों को भूल जाते हैं ।मेरा अपना मानना यह है कि बिना पैसों के या बिना पैसों के लेनदेन के किसी देश की अर्थव्यवस्था तो क्या, एक घर भी चलाना संभव नहीं है । तो इन सब को धन्यवाद देने की बात कही गई थी । पूरे भारतवर्ष में बड़े जोश-खरोश के साथ और 5:00 से लेकर 5:05 नहीं, बल्कि उससे भी देर तक घंटियां, तालियां और सीटियां बजाईं। कुछ लोगों ने नाचना शुरू कर दिया,पर उन्हें देखकर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा ।
अगले ही दिन सोशल मीडिया पर तरह-तरह के हास्यास्पद वीडियोज़ आने लगे।कुछ लोगों ने स्पीकर पर घंटियों और तालियों और शंख की आवाज़ वाले वीडियो को शेयर किया था । ऐसा लग रहा था मानो हम पांच से 10 मिनट तालियां तालियां बजाकर अब खतरे से बाहर हो गए हैं।
अगली सुबह होते होते बहुत सारे लोगों ने खासतौर पर डॉक्टर और हमारे प्रशासकों ने, प्रधानमंत्री जी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझाने का प्रयास किया,टीवी चैनल पर भी यह बताने की कोशिश की थी यह तो अभी जंग की शुरुआत है । यह जंग जीतने का ऐलान नहीं है । इसका मुझे आभास तो होने ही लगा था । जब मैं 19 तारीख को विद्यालय गई थी जिसके बाद सभी विद्यालय बंद कर दिए गए और कहा कि अब आप घर में रहेंगे और कक्षा ग्यारहवीं की परीक्षा स्थगित कर दी गई और सीबीएसई की परीक्षाएं भी रात को स्थगित हो गईं।
24 तारीख को शाम को माननीय प्रधानमंत्री जी का दूसरा संदेश प्रसारित किया गया और उसके साथ ही लॉक डाउन की घोषणा हुई । घोषणा सुनते ही लोगों में अजीब सी आशंका, निराशा, अवसाद और किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति बन गई । अभी प्रधानमंत्री जी का संबोधन समाप्त भी नहीं हुआ था कि लोग घर से निकल पड़े और दुकानों पर उन्होंने भीड़ कर दी और सामान बटोरने और सामान खरीदने की होड़ा-होड़ी होने लगी, जबकि खाने-पीने की व्यवस्था कराने का प्रयास सरकारें सामान्य दिनों की भांति होगी,ऐसा कह चुकी थीं ।
बात इतनी सी है कि जो स्थिति हमने पहले कभी देखी नहीं, जिसका कोई अनुभव नहीं, वह स्थिति भयावह ही लगती है, आशंकाओं से भरी लगती है और हमें यह समझ में नहीं आता है कि हम क्या करें ।जिन सुविधाओं के दिन साधनों के हम आदी हो चुके होते हैं उनके बिना हम कैसे रहेंगे ? यही डर सताता है ।
25 मार्च 2020
........तो शुरू हुआ लॉकडाउन का पहला दिन । सुबह उठी तो मन में बहुत से सवाल थे, अरे भाई, अब क्या होगा उर्मिला (मेरे घर काम करने वाली सहायिका) नहीं आएगी । और पता नहीं कब तक नहीं आ पाएगी। घर का सारा......काम ? खाना बनाना, खाना बनाने से भी ज़्यादा सब्ज़ियाँ काटना, आटा गूँथना.....कपड़े धोना,धोने से भी ज़्यादा उन्हें फैलाना,सूखे हुएकपड़ों की तह लगाना आदि बाकी सारी व्यवस्थाएँ देखना.....इनके साथ-साथ सब्जी, दूध आदि का इंतज़ाम करना....आंखों के सामने शुरुआत में अंधेरा सा छाने लगा.....लगा कि वास्तव में बहुत बड़ा काम है ।मरती क्या न करती.....झाड़ू उठाई तो इतनी भारी लगी और कूड़ा....कूड़ा तो न जाने कहां-कहां उड़ा चला जा रहा था । तब तक अंबरीष आए और कहने लगे तुम झाड़ू लगा था मैं पोंछा लगा दूंगा । मैंने अविश्वास भरी नजरों से देखा कि क्या सचमुच करेंगे.....सोचा शायद आज कर देंगे, मुझ पर तरस खाकर । नेकी और पूछ पूछ ।
अमरीश ने पूछा, और बर्तन । बर्तनों का तो क्या बताऊं, जब मैं अविवाहित थी, तब भी मां मुझसे कभी बर्तन नहीं धुलवाती थी । कभी कोई कप धो लिया तो धो लिया और शादी के बाद भी कुछ ऐसा सौभाग्य रहा कि बर्तन मुझे कभी धोने नहीं पड़े । अब बर्तनों के ढेर को मैं देख रही थी, और ढेर मुझे चिढ़ा रहा था । फिर मैंने सोचा चलो करना तो है ही, जैसे भी हों । शायद जब कोई काम करने बैठो तो वह हो ही जाता है। जैसे भी हो, करना तो है ही । तभी अंबरीश बोल उठे, बर्तन मैं धो दिया करूंगा, खैर बर्तन धोए क्या बताऊं, उस दिन सभी काम किए, जिन्हें किए हुए बरसों हो गए थे। कितना कमाल का काम था, लेकिन कितना कठिन । नाखूनों में लहसुन की गंध आने लगी थी, फल काटना, मटर छीलना.... मटर छीलने के लिए मैंने अक्षर (मेरा छोटा बेटा) को बैठा दिया,वैसे उसने बड़ी ज़िम्मेदारी से मटर छीली ।
जैसे-जैसे दिन बीतता गया, डर का माहौल और अधिक बढ़ता गया क्योंकि चाहे अखबार हो, चाहे टीवी, चारों ओर देश और विदेश के कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या, उससे मरने वालों की संख्या डरा रही थी । घर के बाहर जाना नहीं था क्योंकि बाहर पुलिस भी थी और हमें स्वयं भी नहीं जाना था ।तभी देखा दो व्यक्ति स्कूटर पर जा रहे हैं....पर तभी एक पुलिस कॉंस्टेबल की आवाज़ सुनाई दी,देखिए,दो लोगों का दूध लाने जाना ज़रूरी है,या देश बचाना ज़रूरी है।मेरे लिए यह अनुभव नया नहीं था। इससे पहले भी मैंने पुलिस का मानवीय और ज़िम्मेदाराना रूप पहले भी देखा है,उसके बारे में फिर कभी बताउंगी ।
सब्ज़ीवाला सब्ज़ी ले आया (जिसके आने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी), सब्जी खरीद ली । अब मैंने सोचा कुछ किया जाए और फिर मैंने कई महीनों के रुके हुए पॉडकास्ट के लिए रिकॉर्डिंग के काम को शुरू किया ।अक्षर ने इसमें मेरी बहुत मदद भी की और प्रोत्साहित भी किया और हमने ऑडियो रिकॉर्ड किया । ऑडियो मेरी पुस्तक 'यूं ही कोई मिल गया' का एक प्रसंग था जिसका नाम था 'मेरा तो रब खो गया'। रिकॉर्डिंग को करने से दिमाग कुछ शांत हुआ शायद रचनात्मकता की वह क्षुधा जो कई महीनों से अंदर तड़प रही थी, वह कुछ पूर्ण हुई, उसे एक आकार मिला ।
फिर अपूर्व और मम्मी से फ़ोन पर बात करके उनकी कुशल-क्षेम पूछी क्योंकि चाहे शहरबंदी हो जुगलबंदी,अपनों का साथ,अपनों की परवाह व चिंता तो हर समय लगी ही रहती है,चाहे नोयडा हो या लंदन,दोनों ही जगहों पर कोरोना वायरस का खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है। फिर मैंने खाना आदि बनाया और सोचा, अब यह जो समय है, यह समय है परिवार के साथ बिताने का समय । अक्षर पहले ही दिल्ली से आ चुका था तो मैंने, अक्षर ने और अंबरीश ने मिलकर नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म देखी । पहला दिन कुछ डरते-सहमते और अविश्वास-आशंकाओं से घिरे हुए बीता । पर फिर मन को समझाया......विश्वास को जगाया कि हां..... कठिनाइयां तो बहुत है लेकिन हम कोशिश कर सकते हैं:
जिगर में हौसला सीने में जान बाकी है
अभी छूने के लिए आसमान बाकी है
हारकर बीच में मंज़िल के बैठने वालों
अभी तो और सख़्त इम्तहान बाकी है
कौन-सी राह जो आसान हो नहीं जाती
यकीन दिल में अगर इत्मीनान बाकी है
रात के बाद ही सूरज दिखाई देता है
मगर रुको तो सुबह की अज़ान बाकी है
No comments:
Post a Comment