कुछ सपने बोये थे
उसने कुछ सपने बोये थे,
जमीन की करी गुड़ाई थी,
खेत की मुंडेर बनायीं थी,
बहुत करी
सिचाई थी,
फिर बो दिए सपनों के बीज |
सपने बेटे की पढाई के
बेटी की सगाई के
माँ बाबा की दवाई के
चुडी भरी बीबी की कलाई के
रोप दिए थे नन्हे पौधे |
उम्मीद भी यही थी –
की कल जब ये पेड़ पनपेंगे
तो सपने भी जवान होंगे
धीमे धीमे परवान होंगे
और मिलेगा सुन्दर फल |
सपने सब बड़े हो रहे थे
आँखों के सामने खड़े हो रहे थे,
कोपलें मुस्कुरा रही थी
नन्ही कलियाँ खिलखिला रही थी
सपने बढ़ने जो लगे थे |
बेटे की उम्मीद की डोर
से उडी पतंग सी ,
बेटी की मन में भी कई
नयी नयी उमंग थी
सपनों ने ली अंगडाई थी |
माँ बाबा की आंखों में
नए से रंगीन ख्वाब थे
बीबी की कलाई में
चुडियों के रंग बेशुमार थे,
सपने रंग ला रहे थे |
अचानक सपने बरसने लगे,
ठंडी आग में झुलसने लगे,
अश्क बन आँखों से ढलकने लगे,
शुष्क रेत से सपने दरकने लगे ,
सपनो की मौत होने लगी थी |
आँखों आँखों में आँखों ने
तब कई
बातें की थी ,
जिन सपनों में रंग भरने को,
कितनी जवां रातें थी दी ,
वो सारे सपने आँखों के
स्याह अंधेरे ने आ घेरे थे |
सिर्फ एक सवाल था मन में
कहा से होगी बेटे की पढाई
कौन करेगा अब बेटी से सगाई
माँ-बाबा की दवा नहीं आई
सूनी रहेगी बीबी की कलाई |
ध्वस्त हुए
मुंडेर पे बैठे,
सीचे गए खेत को और बहते,
वक़्त से पहले समय के रहते,
समस्त सपने बीज रूप में ही,
सड़ने – गलने लगे थे |
सिर्फ एक आभास था अब,
कुछ नहीं हाथ था अब ,
बोये हुए कुछ सपनो की,
अब सिर्फ बची लाश थी,
जिन्दगी उसके लिए परिहास थी |
आज सबकी भूख मिटाने वाला ,
अपनी ही
भूख से डर गया,
आँखों में बसे स्वप्न क्या टूटे
बिखरे सपने देख फिर किसान
वक़्त से पहले ही
मर गया |
क्या कोई हाथ नहीं ऐसा
जो बढ़ता आगे और कहता
तू ख्वाब नए फिर बो करके
सपनो को जिंदगानी देना,
पर न तू कभी जान देना |
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