तब.....
आशाओं के दीप,
दीपों की ऊर्ध्वमुखी
लौ
मेरी दहलीज़ को प्रकाशित करती,
विह्वल मनःस्थिति में भी
मेरे मुखमण्डल पर
उजली से मुस्कान खिलती ।
हँसते-गाते तय कर
लेती
टेढ़े-मेढ़े-विचित्र
से रास्तों को,
कभी सुलझा लेती,
कभी यूँ ही छोड़ देती
उलझनों को।
पहाड़ों की ऊँचाइयाँ,
सागर की गहराइयाँ,
लभ्य लगने लगतीं,
बहुत सरल लगने लगतीँ।
जब...
मेरे घर की
दीवारें
प्रेम से पगी
ईंटों से निर्मित होतीं
मेरे आँगन में तुलसी महकती,
मेरे परिवार में सब
साथ मिलकर
सुख-दुःख बाँटते...
क्योंकि बांटना ज़रूरी
है...
बिन अपनों के साथ
के
सारी आशाएँ,
सारी उपलब्धियाँ,
सारे सपने,
सारे अपने,
सब अधूरे हैं......
सब अधूरे हैं ।
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