"पता ही नहीं
चला"
ज़िन्दगी की इस
आपाधापी में,
कब निकली उम्र
मेरी, पता ही नहीं चला,
कंधे पर चढ़ते
बच्चे कब,
कंधे तक आ गए, पता ही नहीं चला,
एक कमरे से शुरू
मेरा सफर कब ,
बंगले तक आया, पता ही नहीं चला,
साइकल के पेडल
मारते हांफते ते जब,
बड़ी गाड़ियों में
लगे फिरने कब, पता ही नहीं चला,
हरे भरे पेड़ों से
भरे जंगल थे तब,
कब हुए कंक्रीट
के,
पता ही नहीं चला,
कभी थे
जिम्मेदारी माँ बाप की हम,
कब बच्चों के लिए
हुए जिम्मेदार, पता ही नहीं चला,
एक दौर था जब दिन
को भी बेखबर सो जाते थे,
कब रातों की उड़
गयी नींद, पता ही नहीं चला,
बनेगे माँ बाप
सोचकर कटता नहीं था वक़्त,
कब बच्चो के
बच्चे हो गए, पता ही नहीं चला,
जिन काले घने
बालों पे इतराते थे हम,
रंगना शुरू कर
दिया कब, पता ही नहीं चला,
दिवाली होली
मिलते थे यारों, दोस्तों, रिश्तेदारों से,
कब छीन ली
मोहब्बत आज के दौर ने, पता ही नहीं चला,
दर दर भटके है
नौकरी की खातिर खुद हम,
कब करने लगे
सेकड़ों नौकरी हमारे यहाँ, पता ही नहीं चला,
बच्चों के लिए
कमाने, बचाने में इतने
मशगूल हुए हम,
कब बच्चे हमसे
हुए दूर, पता ही नहीं चला,
भरा पूरा परिवार
से सीना चौड़ा रखते थे हम,
कब परिवार हम दो
पर सिमटा, पता ही नहीं
चला।।।।।
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