गुरू.शिक्षक,अध्यापक से सुगमकर्ता तक का सफ़र
(गुरू पूर्णिमा पर विशेष)
“गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वर: ।
गुरूः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः”
संस्कृत में, गुरू का शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर करने
वाला। मूलतः गुरू वह है, जो ज्ञान दे। संस्कृत भाषा के गुरू का अर्थ
शिक्षक और उस्ताद से लगाया जाता है। इस आधार पर व्यक्ति का पहला गुरू माता-पिता को
माना जाता है। दूसरा गुरू शिक्षक होता है, जो अक्षर ज्ञान करवाता है। उसके बाद कई प्रकार
के गुरू जीवन में आते हैं जो बुनियादी शिक्षाएं देते हैं। "संरक्षक, मार्गदर्शक, विशेषज्ञ" सब गुरू के ही अनेकानेक रूप हैं ।
विश्वविजेता सिकंदर और सम्राट चन्द्रगुप्त के
बीच का संघर्ष इन दो राजाओं का ही नहीं था, यह संघर्ष था दो महान गुरूओं की प्रज्ञा-चेतना
का , दो महान गुरूओं के अस्तित्व का .......एक
थे सामान्य किंतु विलक्षण, भारतीय
युवा-गुरू,तक्षशिला-स्नातक 'चाणक्य' और दूसरे थे यूनान के कुल-गुरू,राजवंशियों के गुरू 'अरस्तू' ! परिणाम सामने था ! यहीं से पश्चिम के मन में भारतीय
गुरू-परंपरा को लेकर आदर का भाव संचरित हुआ । यही कारण है कि मैकाले के
मानस-पुत्रों ने भारत को जो भीषण कष्ट दिए हैं, उन में से एक यह भी है कि पूरी शिक्षा-पद्धति
से षड्यंत्र-पूर्वक 'गुरू' को हटा कर उस की जगह 'शिक्षक' को बिठा दिया।
वर्तमान समय में विद्यार्थियों के संदर्भ में
एक शिक्षक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है। क्योंकि आज विद्यार्थी
बहुत ही सजग, कुशल, अद्यतन होने के साथ-साथ बहुत अस्थिर और
अविश्वासी भी होते जा रहे हैं। इसके कारण चाहे जो कुछ भी हों, परंतु एक शिक्षक को आज के ऐसे ही
विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण, सदुपयोगी
शिक्षण और सटीक, कल्याणकारी और सकारात्मक मार्गदर्शन
प्रदान करते हुए उन्हें देश के भावी कर्णधार,ज़िम्मेदार नागरिकों में परिणित करना है। उसे न
केवल उनका बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक ,शारीरिक विकास करना है, अपितु सामाजिक, चारित्रिक, एवं सांवेगिक विकास को भी दृष्टिगत रखना है।
जिस प्रकार शिक्षा एक अंतहीन और सतत प्रक्रिया है,उसी प्रकार शिक्षण भी अंतहीन और सतत प्रक्रिया
है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य पूरी ज़िंदगी सीखता-सिखाता रहता है।
कोरोना काल में यह चुनौती और भी दुस्साध्य बन
गई है । ऐसे में जब विद्यार्थी केवल आभासी (वर्चुअल) तौर पर उपलब्ध हैं, तो पाठ्यक्रम पूर्ण करने के साथ-साथ उनके बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक ,शारीरिक ,सामाजिक, चारित्रिक, एवं सांवेगिक विकास को ध्यान में रखना टेढ़ी खीर
है । एक तो इस अप्रत्याशित समय में ऑनलाइन कक्षाओं को अपनाना कई शिक्षकों के लिए
कठिन रहा है और दूसरे दिन-प्रतिदिन के शिक्षण-कार्य में उसे सहजता से अपनाते हुए
विभिन्न प्लेटफ़ार्मों के सभी टूल्स को कक्षा में क्रियान्वित करना भी दुष्कर दीख
पड़ता है । कक्षा की समय-सीमा में ही पाठ्यक्रम को पूर्ण करवाना, जबकि विद्यार्थियों के स्क्रीन-टाइम को ध्यान
में रखते हुए कक्षाओं की संख्या कम की गई हैं, फिर एक चुनौती बन रहा है ।साथ ही विद्यार्थी
इस बदले हुए परिवेश में कई मनोविकारों से भी जूझ रहे हैं ।
किंतु राष्ट्र-निर्माता शिक्षक यदि ठान लें, तो अपने अनुभव, शिक्षा, प्रेम, समर्पण,सृजन-शक्ति, त्याग, धैर्य आदि के साथ-साथ तकनीकी जानकारी प्राप्त
कर विद्यार्थियों को अभिप्रेरित कर सकते हैं। पहले गुरू,फिर शिक्षक और आज सुगमकर्ता, इन पड़ावों को पार कर आज एक शिक्षक अपने
विद्यार्थियों के और भी नज़दीक है। वे अपनी कक्षा को रोचक बनाने के प्रयत्नों में
विषयानुरूप नवाचार करने का प्रयास करें, जैसे
घर-परिवार के सदस्यों को कक्षा में जोड़ना,रोल-प्ले
करवाना, विद्यार्थियों
के लिए उपयोगी सामग्री उपलब्ध करवाना (केवल विश्वसनीय और प्रतिष्ठित सूत्रों की), अतिथि-वक्ताओं को कक्षाओं में आमंत्रित करना, भाषा-खेल, प्रश्नोत्तरी, काव्य-पाठ, विषय के साथ कला को एकीकृत करना, नाटक-प्रस्तुतीकरण और हाँ, कक्षा के आरंभ में मानसिक स्वास्थ्य हेतु
संदेश प्रसारित करना, आदि अनेक ऐसे नवप्रवर्तन शिक्षक कर
सकते हैं, जिनसे न केवल श्रेष्ठ अधिगम होगा, अपितु विद्यार्थी उत्सुकता से आपकी कक्षा की
प्रतीक्षा करेंगे ।
अंत में,
गुरू पूर्णिमा के अवसर पर जीवन में प्रथम-गुरू 'माँ' से लेकर हर उस गुरू के चरणों में सादर-साष्टांग प्रणाम । जिन गुरूओं की
कृपा से मनुष्यता की यात्रा सहज-सुगम हो सकी और जिन्होंने मुझे
संवारा-निखारा-बुहारा, उन
सभी 'गुरूओं' के सतत् आशीष की अपेक्षा में ... शुभमस्तु।
मीता गुप्ता
हिंदी प्रवक्ता, केवि,पूरे, बरेली