Monday, 31 July 2023

जियो या मरो, वीर की तरह

 

जियो या मरो, वीर की तरह

जियो या मरो, वीर की तरह।
चलो सुरभित समीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीरता जीवन का भूषण
वीर भोग्या है वसुंधरा
भीरुता जीवन का दूषण
भीरु जीवित भी मरा-मरा
वीर बन उठो सदा ऊँचे,
न नीचे बहो नीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

भीरु संकट में रो पड़ते
वीर हँस कर झेला करते
वीर जन हैं विपत्तियों की
सदा ही अवहेलना करते
उठो तुम भी हर संकट में,
वीर की तरह धीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीर होते गंभीर सदा
वीर बलिदानी होते हैं
वीर होते हैं स्वच्छ हृदय
कलुष औरों का धोते हैं
लक्ष-प्रति उन्मुख रहो सदा
धनुष पर चढ़े तीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।

वीर वाचाल नहीं होते
वीर करके दिखलाते हैं
वीर होते न शाब्दिक हैं
भाव को वे अपनाते हैं
शब्द में निहित भाव समझो,
रटो मत उसे कीर की तरह।
जियो या मरो वीर की तरह।


देश से प्यार

जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।

जीने को तो पशु भी जीते
अपना पेट भरा करते हैं
कुछ दिन इस दुनिया में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है
जीने का अधिकार नहीं हैं।

मानव वह है स्वयं जिए जो
और दूसरों को जीने दे,
जीवन-रस जो खुद पीता वह
उसे दूसरों को पीने दे।
साथ नहीं दे जो औरों का
क्या वह जीवन भार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

साँसें गिनने को आगे भी
साँसों का उपयोग करो कुछ
काम आ सके जो समाज के
तुम ऐसा उद्योग करो कुछ।
क्या उसको सरिता कह सकते
जिसमें बहती धार नहीं है ?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

Tuesday, 25 July 2023

कारगिल दिवस (26 जुलाई) को शहीदों को नमन करते हुए कविता:

 

कारगिल दिवस (26 जुलाई) को शहीदों को नमन करते हुए कविता:



 

वीर जवानों के लहू से रंगी है धरा, कारगिल के शौर्य से गर्व है हमें प्यारा।

हिमपात से घिरे वीरता की चोटी, खड़ी थी वहां देशभक्ति की शिखरी।

दुश्मन के सामने बढ़े वीर सिंह, आँखों में चमक, हौसले का वीर रंग।

धरती थम गई देखकर उनका बलिदान, पूरे राष्ट्र को जगाया उनका गर्वान।

शौर्य और साहस का उदाहरण थे वे, कारगिल में जिसने दिखाया सर्वोच्च बलिदान।

श्रद्धांजलि उन्हें, जिन्होंने दिया यह जीवन, हम उन्हें सदा याद करेंगे, नमन करते जीवन।

उनके परिवारों को भी विनम्र श्रद्धांजलि, जिनके बलिदान ने किया नया इतिहास रचा।

कारगिल के शहीदों को करें नमन हम, उनका बलिदान रहेगा सदा सर्वदा यादगार।

वीरता के जज़्बे से सजी है यह धरा, कारगिल के शौर्य से गर्व है हमें प्यारा।

चलो भूलें रंग-बिरंगे दिनों को, उन शहीदों को करें नमन, बजाएं वंदनाओं को।

उनका सम्मान करें हम सभी एकसाथ, जागृति फैलाएं शहीदों की अमर गाथा।

कारगिल के शहीदों को नमन करते हैं हम, उनका बलिदान रहेगा सदा सर्वदा यादगार।

वीर जवानों के लहू से रंगी है धरा, कारगिल के शौर्य से गर्व है हमें प्यारा।

नभ पर फहराती है उनकी शान से झंडा, जवानों का है बलिदान अमर गाथा।

नमन है उन्हें, जो जीवन को दिया, भारत मां के लिए वीरता से लड़ा।

कारगिल के शहीदों को करते हैं हम सलाम, उनका बलिदान रहेगा सदा सर्वदा यादगार।

वीरता के प्रतीक बन जाए वे सभी, उनके बलिदान से आए राष्ट्र को नई ऊंचाइयाँ।

शान्ति और सुरक्षा की रहे उनकी याद, कारगिल के शौर्य से जिएं हम आबाद।

कारगिल के शहीदों को नमन करते हैं हम, उनका बलिदान रहेगा सदा सर्वदा यादगार।

 

मीता गुप्ता

 

Sunday, 23 July 2023

सावन के झूलों में तीजो की महक...

 

सावन के झूलों में तीजो की महक...




राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा।

साजो सकल सिंगार नैना सारो कजरा॥

भारत में सावन मास के महीने में झूले लगाने की परंपरा है, जो भारतीय संस्कृति और धार्मिक आदिकाल से जुड़ी हुई है। सावन मास को भोलेनाथ शिव का मास माना जाता है और इस मास में विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। झूलों की परंपरा भारतीय संस्कृति के बहुत पुराने समयों से चली आ रही है। झूले पहले से ही भारतीय देवी-देवताओं की पूजा एवं आराधना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। झूले को ज्ञान, शक्ति, सुख-शांति एवं आनंद की प्रतीकता माना जाता है। यह अवसर भारतीय परंपरा में अन्योन्य संबंध और परिवारिक बंधनों का प्रतीक है। इसके द्वारा मान्यता और आदर्शों को प्रतिष्ठित किया जाता है और इसे भक्तों की आस्था और अदृश्य शक्तियों को प्रकट करने का माध्यम माना जाता है। यह परंपरा भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रमुखता देती है और अभिव्यक्ति की स्थिरता और समरसता का प्रतीक है।

सावन के महीने में झूले लगाने का परंपरागत रूप से भारत भर में महत्वपूर्ण स्थान है। इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती के मंदिरों में झूले लगाए जाते हैं। भगवान शिव और माता पार्वती को झूले पर बिठाकर भक्तों द्वारा पूजा और आराधना की जाती है। यह परंपरा भक्तों के द्वारा श्रद्धा और आस्था का प्रतीक है और इसे भक्तिमय भावना को व्यक्त करने का एक माध्यम माना जाता है। झूलों को सावन मास में लगाने का महत्वपूर्ण कारण है कि यह मान्यता है कि इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती प्रशंसा और पूजा के लिए भूमिका निभाते हैं। झूलों की लहरीदारी और भजन-कीर्तन के साथ झूलों को हिलाने से भक्तों में आनंद एवं भक्ति की भावना जाग्रत होती है। झूलों के दौरान गाये जाने वाले भजन और कीर्तन सावन के महीने के आनंद को और बढ़ाते हैं और भक्तों को शांति और सुख प्रदान करते हैं।

झूलों का इतिहास, परंपरा और महत्व भारतीय संस्कृति में गहरे रूप से अंकित हैं। यह परंपरा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण त्योहार सावन मास के दौरान मनाई जाती है। सावन मास को भगवान शिव का मास माना जाता है और यह मान्यता है कि इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती पृथ्वी पर आते हैं और मानवता की समस्त विपदाओं को दूर करते हैं।झूलों की परंपरा के दौरान, मंदिरों में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ झूलों पर सजाई जाती हैं। भक्त झूलों को हिलाकर देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं और भजन-कीर्तन के माध्यम से उन्हें समर्पित करते हैं। झूलों के दौरान गाये जाने वाले भजन और कीर्तन सावन मास के महत्वपूर्ण त्योहार का भाग बनते हैं और भक्तों को आनंद और सुख का अनुभव कराते हैं। झूलों का महत्व यहां भारत में विभिन्न प्रांतों में थोड़ी-बहुत भिन्नताएं रखता है, लेकिन इसके पीछे सामान्य धार्मिक और सांस्कृतिक संदेश हैं। झूलों के माध्यम से लोग अपने आस्था और आदर्शों को प्रकट करते हैं, परिवार और समुदाय के साथ एकता का प्रतीक होते हैं और धार्मिक संस्कृति को जीवित रखते हैं।

सावन में देश के किसी एक अंचल में नहीं बल्कि पूर्व-पश्चिम, उत्तर- दक्षिण का भेद मिटाते हुए लगभग हर क्षेत्र में तीज त्यौहारों का सिलसिला शुरु हो जाता है। हरियाली तीज के क्या कहने। सावन तीज का त्योहार तीज की रस्मों और रीति-रिवाजों को निभाते हुए कुछ मौज-मस्ती करने का समय है। तीज का बेसब्री से इंतजार किया जाता है क्योंकि यह मानसून लेकर आता है। जैसे ही बारिश की बूंदें जमीन पर गिरती हैं, पेड़ों पर झूले डाल दिए जाते हैं। झूला झूलने का सबसे अच्छा आनंद मानसून के मौसम में ही आता है। इसलिए लोगों को यह मौज-मस्ती करने और मानसून अवकाश के साथ खुद को तरोताजा करने का सबसे अच्छा अवसर लगता है।

 तीज को 'झूलों के त्योहार' के रूप में भी जाना जाता है जो मानसून के मौसम के आगमन का प्रतीक है। तीज शब्द सुनते ही कई लोगों के मन में झूलों की छवि उभर आती है क्योंकि लोग बगीचों और अपने घरों के बाहर सुंदर झूले लटकाते हैं। लोग बारिश में झूलने की सदियों पुरानी परंपरा का पालन करते हैं और पारंपरिक नृत्य करते हैं। न केवल महिलाएं बल्कि छोटे बच्चे भी झूला झूलकर त्योहार का आनंद उठाते हैं। तीज के झूलों के बिना रंग-बिरंगे त्योहार की कल्पना नहीं की जा सकती। तीज के झूलों को रंग-बिरंगे और सुगंधित फूलों से सजाया जाता है। राजस्थानी संस्कृति को उजागर करने के लिए कुछ झूलों को लहरिया प्रिंट कपड़े से भी सजाया गया है। ये झूले या तो इलाके के पार्कों में या विभिन्न बगीचों में लटकाए जाते हैं जहां विशेष तीज समारोह होते हैं। सावन में झूला झूलने की परंपरा जो सदियों में चली आ रही है। आज भी गांव में गीत गाती लड़कियां महिलाएं झूला झूलते हुए दिखाई दे जाती हैं। झूलने का जो आनंद है, वह तो शब्दातीत है लेकिन किसी उपवन में दूसरों को झूलते देखने से भी मन में उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है।

 

महिलाएं हरे, पीले और लाल रंग के घाघरा-चोली और अन्य पारंपरिक पोशाक पहने हुए हैं। संगीत की विशेष व्यवस्था की जाती है. झूला झूलते समय महिलाएं विशेष पारंपरिक लोक गीत गाती हैं। सावन माह को समर्पित गीतों को 'सावन के गीत' कहा जाता है। विवाहित और अविवाहित महिलाओं पर उनके पति के सुखी और लंबे जीवन के लिए आशीर्वाद देने के लिए देवी पार्वती की स्तुति में अन्य गीत भी गाए जाते हैं। तीज के समय पंजाब में गाया जाने वाला सबसे प्रसिद्ध गीत "राल आओ सहियो नी" है। उस समय महिलाएं खुद को पूरी तरह से भूल जाती हैं और त्योहार के मूड में आ जाती हैं। वे पारंपरिक लोककथाओं और विशेष तीज गीतों की धुनों पर नृत्य करते हैं और दिन को यादगार बनाते हैं। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को भारत के उत्तरी क्षेत्र में उत्तर भारत में हरियाली तीज को विशेष करके मनाया जाता है। घर-घर में झूले पड़ते हैं और द्वापर युग से यह मान्यता है श्रावण मास में झूला झूलना चाहिए...

उत्तर भारत में घर-घर महिलाएं समूह बनाकर के हरियाली तीज के विभिन्न तरह के गीत गाती हैं।गीत गाते हुए झूला भी झूलती है। श्रावण मास की हरियाली तीज को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान गुजिया, घेवर, फेनी आदि बेटियों को सी धारा के रूप में भेजा जाता है।यह बायना छू करके बेटी की सास को दिया जाता है। इस चीज पर मेहंदी लगाने का विशेष महत्व है। महिलाएं पैरों में महावर भी लगाती हैं, जो सुहाग का चिन्ह माना जाता है। हरियाली तीज पर तीन बातों को त्यागने का विधान है जैसे पति से छल-कपट झूठ बोला एवं दुर्व्यवहार पर निंदा मान्यता है।

आज की युवा पीढ़ी को कौन है जो बताए सावन और सिंदारे का रिश्ता। तीज पर मायके से उनके लिए चूड़ी, बिंदी, साड़ी और मिठाई जैसी चीजें सिंदारा के रूप में भेजने की प्रथा कहां है। हाँ, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नवविवाहिताओं के लिए पहली तीज का विशेष महत्व होता है। मिलकर झूले झूलने से मंगल-कामना के गीत गाना, मेंहदी लगाना, व्रत करना तो जैसे ढ़ोंग, दकियानूस, अंधविश्वास समझकर हमारे शहर लगभग छोड़ से चुके है। यह संतोष की बात है कि सावन पूर्णिमा को मनाई जाने वाली राखी, रक्षाबंधन, पहुंची का प्रभाव पूरी ठसक के साथ आज भी कायम है।

धरती की प्यास बुझते ही सावन में चहुंदिशा हरियाली छा जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालते हुए नेत्र ज्योति बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त झूलते समय दृश्य कभी समीप और कभी दूर जाते होते है। रोमांच के कारण आंखे कभी बंद होती हैं तो खुलती है। इस क्रम में  नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त झूलने से मन मस्तिष्क में रोमांच वृद्धि होने से तेजी से रक्त संचार होने से मस्तिष्क और अधिक सक्रिय बनता है। तनाव न्यून होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे स्वतः प्राणायाम हो जाता है।

एक विशेष बात जो झूले के साथ जुड़ी हुई है वह है सुदृढ़ पकड़ का होना। जब खड़े होकर झूलने से अथवा कभी उठकर तो बैठकर झूलने जैसी क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है।  पीठ-रीढ़ सहित पूरे शरीर के अंग-अंग का का व्यायाम होता है। आश्चर्य कि झूलने के इतने फायदे होते हुए भी झूले तो जैसे गायब से हो रहे हैं। झूलों की परंपरा अधिकांशतः भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा उत्साह से मनाई जाती है, जहां लोग मंदिरों की समीपता में झूले बनाते हैं और सावन मास के दौरान झूलने का आनंद लेते हैं। यह त्योहार आपसी मित्रता और समरसता को बढ़ावा देता है और लोगों को खुशहाल जीवन के लिए प्रेरित करता है।

यद्यपि सावन में झूलों का उत्सव प्रमुखतः हिंदू धर्म के तहत मनाया जाता है, लेकिन भारतीय संस्कृति में धार्मिक एकता और संप्रदायों के संगम को दर्शाता है। यहां इस उत्सव को मुस्लिम और सिख समुदायों में भी मनाया जाता है, जो संप्रदायों के बीच सद्भाव और सहयोग की मिसाल प्रस्तुत करता है। इसलिए आशा ही नहीं विश्वास है कि यह सावन धरती से तन-मन तक, परिवार से परिवेश तक अपनी ताजगी की छटा बिखेरेगा क्योंकि-

जीवन के चक्र में हम सब हैं झूले,

आनंद से झूमे यहाँ खिलखिलाएं।

 झूले के रंगों में रंग जाएं हम,

आओ झूलते हुए हम सब मिलकर तीज मनाएं।

मीता गुप्ता

 

Friday, 21 July 2023

तिरंगे की यात्रा-इतिहास के झरोखे से

 

तिरंगे की यात्रा-इतिहास के झरोखे से



 

भारत के हृदय में बसी वीरता की धरा,

तिरंगे की शान से रंगती यह धरा।

सजले रंगों में चमकता ज्ञान और विज्ञान,

तिरंगे की चमक से रोशन करता जगमगान।

लहराता ध्वज हमारा, बलिदान की भाषा,

साहस, समर्पण, त्याग की बनी इसकी प्रतिमा।

श्वेत, हरा, और केसरिया रंगों का मिला जब संगम,

विश्वास की दृष्टि से सारे धर्म के सम्मान।

गांधी, नेहरू, भगत सिंह और सरदार के सपने इसमें बसे हैं,

तिरंगे के रंगों में अमर भारतीयों की आत्मा समाई हैं।

प्रत्‍येक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र का अपना एक ध्‍वज होता है। यह एक स्‍वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज को इसके वर्तमान स्‍वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों से भारत की स्‍वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे 15 अगस्‍त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्‍चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में "तिरंगे" का अर्थ भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज है। 22 जुलाई को भारत में "तिरंगा दिवस" या "नेशनल फ्लैग दिवस" के रूप में मनाया जाता है। यह दिन भारतीय ध्वज (तिरंगा) को सम्मान करने के लिए स्वतंत्रता और गर्व का अनुभव कराने के लिए निर्धारित किया गया है। यह दिन भारतीय ध्वज के अधिकारिक निर्माण की स्मृति और यात्रा के रूप में मनाया जाता है। 22 जुलाई 1947 को भारतीय ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में आधिकारिकता दी गई। इस दिन पर भारतीय ध्वज के प्रति समर्पण और आदर्शों को पुनः स्वीकार किया जाता है और तिरंगा राष्ट्रीय एकता और समरसता का संदेश देता है।

पहला भारतीय राष्ट्रीय ध्वज 7 अगस्त, 1906 को कोलकाता के पारसी बागान स्क्वायर में फहराया गया था। ध्वज के तीन प्रमुख रंग थे जैसे लाल, पीला और हरा।

वर्तमान भारतीय तिरंगे के करीब पहला संस्करण 1921 में पिंगली वेंकय्या द्वारा डिजाइन किया गया था। इसके दो प्रमुख रंग थे- लाल और हरा।

1931 में, तिरंगे झंडे को हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाते हुए एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया गया था। यह ध्वज, जो वर्तमान का अग्रभाग है, केंद्र में महात्मा गांधी के चरखा के साथ केसरिया, सफेद और हरे रंग का था।

कुछ संशोधनों के साथ, जिसमें केसरिया और सफेद रंग, अशोक चक्र सम्राट अशोक की शेर राजधानी से शामिल था, भारतीय तिरंगा को आधिकारिक तौर पर 22 जुलाई, 1947 को अपनाया गया था। इसे पहली बार 15 अगस्त, 1947 को फहराया गया था।

भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की प‍ट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्‍वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्‍य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्‍तंभ पर बना हुआ है। इसका व्‍यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।

ध्‍वज के रंग

भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्‍य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

चक्र

इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्‍यु है।

इससे पहले, भारतीय नागरिकों को चुनिंदा अवसरों को छोड़कर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति नहीं थी। यह कानून उद्योगपति नवीन जिंदल द्वारा एकदशक की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद बदल गया, जिसकी परिणति 23 जनवरी, 2004 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में हुई, जिसमें घोषित किया गया था कि राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान के साथ स्वतंत्र रूप से फहराने का अधिकार एक भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है।

तिरंगे का इतिहास भारतीय जनता के लिए एक गर्वशील और सम्माननीय चिह्न है, जो उनके एकता, स्वतंत्रता, और भारतीय शौर्य को प्रतिष्ठान करता है। इसे देखकर भारतीय लोग अपने देश प्रेम में और भारतीय भावना में उन्मुख होते हैं।

 तिरंगा राष्ट्रीय भावना, एकता, और स्वतंत्रता की अद्भुत प्रतीक है। यह लोगों को सामाजिक और राष्ट्रीय उद्दीपना देती है और राष्ट्रीय भावना को संवर्धित करने में मदद करती है।

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह ध्वज भारत के अधिकांश सार्वजनिक स्थानों पर विकसित होता है और राष्ट्रीय और सामाजिक अवसरों पर धारण किया जाता है। तिरंगा राष्ट्रीय एकता, भारतीय एकता और समरसता का प्रतीक है। यह ध्वज भारतीय जनता के साथ एकजुट होने का संदेश देता है और सभी भारतीयों को एक साथ रहने के लिए प्रेरित करता है। तिरंगा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वतंत्रता का प्रतीक बना रहा। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया और यह भारतीय जनता के संघर्ष और त्याग को स्मरण करता है। तिरंगा देश प्रेम और राष्ट्रीय गर्व के साथ भारतीय लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। इसे देखकर भारतीय लोग अपने देश के प्रति अपना अनुभव एवं समर्पण दिखाते हैं। तिरंगे के रंग धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाते हैं। नारंगी रंग वीरता और धर्म को दर्शाता है, सफेद रंग शांति और सच्चाई का प्रतीक है और हरा रंग प्राकृतिक सौंदर्य और कृषि को दर्शाता है । तिरंगा भारत के आधिकारिक राष्ट्रीय ध्वज के रूप में उच्च स्थान रखता है। यह भारत के अधिकारिक दस्तावेज़ों पर और सरकारी संबंधित अवसरों पर उचितता से उपयोग किया जाता है। तिरंगे को भारत की पहचान के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली है। राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्रीयता, एकता, स्वतंत्रता, और गर्व का प्रतीक है और भारतीय लोगों के दिल में देशोत्सर्ग की भावना जगाता है।

ध्‍वज संहिता

26 जनवरी 2002 को भारतीय ध्‍वज संहिता में संशोधन किया गया और स्‍वतंत्रता के कई वर्ष बाद भारत के नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्‍ट‍री में न केवल राष्‍ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के फहराने की अनुमति मिल गई। अब भारतीय नागरिक राष्‍ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते है। बशर्ते कि वे ध्‍वज की संहिता का कठोरता पूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें। सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्‍वज संहिता, 2002 को तीन भागों में बांटा गया है। संहिता के पहले भाग में राष्‍ट्रीय ध्‍वज का सामान्‍य विवरण है। संहिता के दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्‍थानों आदि के सदस्‍यों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है। संहिता का तीसरा भाग केन्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों तथा उनके संगठनों और अभिकरणों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है।

मीता  गुप्ता

Wednesday, 19 July 2023

सावन के झूले पड़े...

 

सावन के झूले पड़े...


सावन के झूले 
परदेसी लौटे 
जो घर का थे पथ भूले
बहकी है अमराई
साजन संग गोरी 
झूले में जब मुसकाई
बूँदों कि छम छम 
झूले में थिरक रही
पायल की मधुर सरगम
इतराए सावन

राधा रानी जब झूले 
झुलाए नंद के नंदन|
झूले सावन के 
लेकर आए हैं 
संदेशे मनभावन के||


भारत में सावन मास के महीने में झूले लगाने की परंपरा है, जो भारतीय संस्कृति और धार्मिक आदिकाल से जुड़ी हुई है। सावन मास को भोलेनाथ शिव का मास माना जाता है और इस मास में विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। झूलों की परंपरा भारतीय संस्कृति के बहुत पुराने समयों से चली आ रही है। झूले पहले से ही भारतीय देवी-देवताओं की पूजा एवं आराधना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। झूले को ज्ञान, शक्ति, सुख-शांति एवं आनंद की प्रतीकता माना जाता है। यह अवसर भारतीय परंपरा में अन्योन्य संबंध और परिवारिक बंधनों का प्रतीक है। इसके द्वारा मान्यता और आदर्शों को प्रतिष्ठित किया जाता है और इसे भक्तों की आस्था और अदृश्य शक्तियों को प्रकट करने का माध्यम माना जाता है। यह परंपरा भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रमुखता देती है और अभिव्यक्ति की स्थिरता और समरसता का प्रतीक है।

सावन के महीने में झूले लगाने का परंपरागत रूप से भारत भर में महत्वपूर्ण स्थान है। इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती के मंदिरों में झूले लगाए जाते हैं। भगवान शिव और माता पार्वती को झूले पर बिठाकर भक्तों द्वारा पूजा और आराधना की जाती है। यह परंपरा भक्तों के द्वारा श्रद्धा और आस्था का प्रतीक है और इसे भक्तिमय भावना को व्यक्त करने का एक माध्यम माना जाता है। झूलों को सावन मास में लगाने का महत्वपूर्ण कारण है कि यह मान्यता है कि इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती प्रशंसा और पूजा के लिए भूमिका निभाते हैं। झूलों की लहरीदारी और भजन-कीर्तन के साथ झूलों को हिलाने से भक्तों में आनंद एवं भक्ति की भावना जाग्रत होती है। झूलों के दौरान गाये जाने वाले भजन और कीर्तन सावन के महीने के आनंद को और बढ़ाते हैं और भक्तों को शांति और सुख प्रदान करते हैं।

झूलों का इतिहास, परंपरा और महत्व भारतीय संस्कृति में गहरे रूप से अंकित हैं। यह परंपरा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण त्योहार सावन मास के दौरान मनाई जाती है। सावन मास को भगवान शिव का मास माना जाता है और यह मान्यता है कि इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती पृथ्वी पर आते हैं और मानवता की समस्त विपदाओं को दूर करते हैं।झूलों की परंपरा के दौरान, मंदिरों में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ झूलों पर सजाई जाती हैं। भक्त झूलों को हिलाकर देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं और भजन-कीर्तन के माध्यम से उन्हें समर्पित करते हैं। झूलों के दौरान गाये जाने वाले भजन और कीर्तन सावन मास के महत्वपूर्ण त्योहार का भाग बनते हैं और भक्तों को आनंद और सुख का अनुभव कराते हैं। झूलों का महत्व यहां भारत में विभिन्न प्रांतों में थोड़ी-बहुत भिन्नताएं रखता है, लेकिन इसके पीछे सामान्य धार्मिक और सांस्कृतिक संदेश हैं। झूलों के माध्यम से लोग अपने आस्था और आदर्शों को प्रकट करते हैं, परिवार और समुदाय के साथ एकता का प्रतीक होते हैं और धार्मिक संस्कृति को जीवित रखते हैं।

सावन में देश के किसी एक अंचल में नहीं बल्कि पूर्व-पश्चिम, उत्तर- दक्षिण का भेद मिटाते हुए लगभग हर क्षेत्र में तीज त्यौहारों का सिलसिला शुरु हो जाता है। हरियाली तीज के क्या कहने। इसे फिल्मों का प्रभाव कहे या संपन्नता की नुमाइश, फार्म हाउसनुमा लम्बे-चौड़े घरो में अब सारा साल झूला टंगा रहता है लेकिन सावन में झूला झूलने की परंपरा जो सदियों में चली आ रही थी वह छिन्न्-भिन्न हो रही है। किसी भी गांव में गीत गाती लड़कियां महिलाएं झूला झूलते हुए दिखाई देती थी। खुद झूलने का जो आनंद है वह तो शब्दातीत है लेकिन किसी उपवन में दूसरों को झूलते देखने से भी मन में उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है। वास्तव में  खुली हवा में झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं अपितु एक ऐसा शरीरिक व्यायाम  है जो हमारे फेफड़ों को सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त कई शुद्ध वायु देते हुए सुंदर स्वास्थ्य सुनिश्चित करता है। क्योंकि सावन में वातावरण  अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक रमणीक और कम से कम प्रदूषित होता है। वर्षा होते रहने के कारण वातावरण में विद्यमान धूल, धूएं के कण, पानी में घुलनशील सभी हानिकारक गैसें भी वर्षा के जल के साथ-साथ धरती पर आ जाती हैं जिससे हवा शुद्ध होकर स्वास्थ्य के लिए उत्तम हो जाती है।

धरती की प्यास बुझते ही सावन में चहुंदिशा हरियाली छा जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालते हुए नेत्र ज्योति बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त झूलते समय दृश्य कभी समीप और कभी दूर जाते होते है। रोमांच के कारण आंखे कभी बंद होती हैं तो खुलती है। इस क्रम में  नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त झूलने से मन मस्तिष्क में रोमांच वृद्धि होने से तेजी से रक्त संचार होने से मस्तिष्क और अधिक सक्रिय बनता है। तनाव न्यून होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे स्वतः प्राणायाम हो जाता है।

एक विशेष बात जो झूले के साथ जुड़ी हुई है वह है सुदृढ़ पकड़ का होना। जब खड़े होकर झूलने से अथवा कभी उठकर तो बैठकर झूलने जैसी क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है।  पीठ-रीढ़ सहित पूरे शरीर के अंग-अंग का का व्यायाम होता है। आश्चर्य कि झूलने के इतने फायदे होते हुए भी झूले तो जैसे गायब से हो रहे हैं। झूलों की परंपरा अधिकांशतः भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा उत्साह से मनाई जाती है, जहां लोग मंदिरों की समीपता में झूले बनाते हैं और सावन मास के दौरान झूलने का आनंद लेते हैं। यह त्योहार आपसी मित्रता और समरसता को बढ़ावा देता है और लोगों को खुशहाल जीवन के लिए प्रेरित करता है।

आज की युवा पीढ़ी को कौन है जो बताए सावन और सिंदारे का रिश्ता। तीज पर मायके से उनके लिए चूड़ी, बिंदी, साड़ी और मिठाई जैसी चीजें सिंदारा के रूप में भेजने की प्रथा कहां है। हाँ, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नवविवाहिताओं के लिए पहली तीज का विशेष महत्व होता है। मिलकर झूले झूलने से मंगल-कामना के गीत गाना, मेंहदी लगाना, व्रत करना तो जैसे ढ़ोंग, दकियानूस, अंधविश्वास समझकर हमारे शहर लगभग छोड़ से चुके है। यह संतोष की बात है कि सावन पूर्णिमा को मनाई जाने वाली राखी, रक्षाबंधन, पहुंची का प्रभाव पूरी ठसक के साथ आज भी कायम है। राखी की लाज हम सबने राखी है।

यद्यपि सावन में झूलों का उत्सव प्रमुखतः हिंदू धर्म के तहत मनाया जाता है, लेकिन भारतीय संस्कृति में धार्मिक एकता और संप्रदायों के संगम को दर्शाता है। यहां इस उत्सव को मुस्लिम और सिख समुदायों में भी मनाया जाता है, जो संप्रदायों के बीच सद्भाव और सहयोग की मिसाल प्रस्तुत करता है। इसलिए आशा ही नहीं विश्वास है कि यह सावन धरती से तन-मन तक, परिवार से परिवेश तक अपनी ताजगी की छटा बिखेरेगा क्योंकि-

            सावन मास पुनीत सुहावे।

मोर पपीहा दादुर गावे।।

झूले पींग चढ़े सुकुमारी।

याद रहे मन कृष्ण मुरारी।।

डॉ मीता गुप्ता, विचारक, शिक्षाविद, साहित्यकार 

Monday, 17 July 2023

सामाजिक सद्भाव लाने में महिलाओं की भूमिका

 

सामाजिक सद्भाव लाने में महिलाओं की भूमिका



मैंने उसको

जब-जब देखा,

लोहा देखा,

लोहे जैसा--

तपते देखा,

गलते देखा,

ढलते देखा,

मैंने उसको

गोली जैसा

चलते देखा!

महिला एक बहुआयामी शब्द है क्योंकि यह प्यार, देखभाल, पोषण, दायित्व, शक्ति, अनंतता, मातृत्व आदि को दर्शाता है। एक महिला समाज में समाज का आईना होती है। जब इसे हाशिए पर रखा जाता है, तो समाज की अवनति होती है और यदि इसका पोषण किया जाता है, तो समाज का पोषण होता है; अगर इसे सशक्त किया जाता है, तो समाज सशक्त होता है। महिला समाज की धुरी के समान है, जिसके बिना कुछ भी नहीं होता। वह संस्कृति की पोषक है, वही समाज की निर्मात्री है। एक माँ अपनी संतान की पहली शिक्षक है; वह अपने बच्चों के साथ प्यार से पेश आने वाली पहली डॉक्टर है,वह अपने बच्चों के साथ खेल खेलने वाली पहली साथी है।…

या यूं कहें तो, महिलाएं राष्ट्र की निर्माता होती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के अनुसार, मानव पूंजी में महिलाओं की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत है, जो सबसे बड़ा मानव संसाधन हैशोध से पता चला है कि बुजुर्ग महिलाएं, जो भारत में अकेले या अपने परिवार के साथ रहती हैं, न केवल अपने देश में बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी सामाजिक कार्यों में भाग लेती हैं।

एक बार नेपोलियन ने कहा था, "मुझे अच्छी माताएँ दो और मैं तुम्हें एक अच्छा राष्ट्र दूँगा।" महिलाएं परिवार की गुणवत्ता और सतत विकास की आधारशिला हैं, जो एक स्वस्थ समाज का निर्माण करती हैं। वे एक मुखिया, एक निर्देशक, एक पारिवारिक आय प्रबंधक और एक माँ के रूप में विभिन्न भूमिकाएँ निभाती हैं।

पत्नी के रूप में महिला पुरुष की सहायिका, पत्नी और साथी होती है। वह अपने व्यक्तिगत आनंद और इच्छाओं का त्याग करती है, एक नैतिक आदर्श स्थापित करती है, अपने पति के तनाव और दबाव को दूर करती है, घर में शांति और व्यवस्था बनाए रखती है।

भारतीय इतिहास महिलाओं की उपलब्धियों से भरा पड़ा है। आनंदीबाई गोपालराव जोशी  पहली भारतीय महिला चिकित्सक थीं और संयुक्त राज्य अमेरिका में पश्चिमी चिकित्सा में दो साल की डिग्री के साथ स्नातक होने वाली पहली महिला चिकित्सक रही है। सरोजिनी नायडू ने साहित्य जगत में अपनी छाप छोड़ी। हरियाणा की संतोष यादव ने दो बार माउंट एवरेस्ट फतेह किया। बॉक्सर एमसी मैरी कॉम एक जाना-पहचाना नाम है। हाल के वर्षों में, हमने कई महिलाओं को भारत में शीर्ष पदों पर और बड़े संस्थानों का प्रबंधन करते हुए भी देखा है – अरुंधति भट्टाचार्य, अलका मित्तल, सोमा मंडल, कुछ ओर नामचीन महिलाएं हैं, जिन्होनें विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है।

यदि प्रबंधन की बात करें, तो परिवार की समृद्धि के लिए, एक सुव्यवस्थित अनुशासित परिवार महत्वपूर्ण है। एक प्रकार से महिला घर रूपी उपक्रम की सीईओ होती है। वह भोजन तैयार करने और परोसने, कपड़े संग्रह करने और उपचार करने, धुलाई, साज-सज्जा और हाउसकीपिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वह एक प्रशासक के रूप में परिवार के भीतर सामाजिक उन्नति के लिए कई सामाजिक गतिविधियों का आयोजन करती हैं। वह एक निर्देशक की भांति युवा और वृद्ध परिवार के सदस्यों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए कई कार्यक्रम निर्धारित करती है।

एक माँ के रूप में परिवार में महिला बच्चे के जन्म और बच्चे के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी निभाती है। उसके विकासात्मक समय के दौरान, बच्चे के साथ उसकी बातचीत उसके व्यवहार पैटर्न को विकसित करती है। वह बच्चे को सामाजिक विरासत को भी प्रसारित करती है।

सतत विकास और जीवन की गुणवत्ता के क्षेत्रों में महिलाओं का जवाब नहीं है। महिला काउंसलर समाज से किशोरों की समस्याओं को दूर करने के लिए परामर्श के माध्यम से एक बेहतर समाज का निर्माण कर रही हैं।कई महिलाएं जागरूकता कार्यक्रमों में भागीदारी कर लोगों और महिलाओं तथा बच्चों को उनके अधिकारों, बैंक ऋण, निम्न सामाजिक और आर्थिक स्थिति वाले लोगों के लिए विभिन्न टीकाकरण कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता बढ़ाने का गुरुतर कार्य कर रही हैं।

इसके अलावा, महिलाओं ने समाज के विकास को बनाए रखा है और देश के भविष्य को आकार दिया है। वर्तमान गतिशील सामाजिक परिदृश्य में महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उन्हें अब केवल शांति के अग्रदूत के रूप में नहीं देखा जा सकता है, बल्कि शक्ति के स्रोत और परिवर्तन के संकेत के रूप में देखा जा रहा है। पिछले कुछ दशकों में पारिवारिक संरचनाओं में परिवर्तन हुए हैं और एकल परिवार उभरे हैं, जिनमें महिलाएं अपने बच्चों में सांस्कृतिक मूल्यों, सिद्धांतों और विश्वासों का भी विकास कर रही हैं।

आज महिलाएं नेतृत्व, अर्थशास्त्र, संस्कृति और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। पुराने दिनों की शर्मीली महिला की जगह एक जीवंत, फैशन के प्रति जागरूक और बुद्धिमान युवा महिला ने ले ली है। महिलाएं इंजीनियरिंग, खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष अन्वेषण, चिकित्सा और उद्योगों में अपना वर्चस्व  जमा कर रही हैं। आधुनिक शिक्षा और समकालीन आर्थिक जीवन एक महिला को संकीर्णता से मुक्त कर समाज को समृद्ध बनाने के लिए उद्यत कर दिया है।

एक महिला का लक्ष्य सदैव से अपने समुदाय को बेहतर बनाना रहा है। सतत विकास और जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने में महिलाओं का जवाब है। वे महिलाओं के प्रति हिंसा और क्रूरता, घरेलू और श्रम दासता, अंधविश्वास दहेज निषेध और अन्य सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ खड़े होने में समाज की अगुआई कर रही हैं ।

वे समाज के समक्ष उदाहरण स्थापित कर समाज में सद्भाव को फैलाने का महत्वपूर्ण कार्य कर हैं। जब महिलाएं अपने शिक्षा, कर्मचारी, उद्यमिता, सामाजिक कार्यों आदि में महान प्रदर्शन करती हैं, तो वे दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बनती हैं। यह महिलाओं के पोषणशील रोल मॉडल को प्रमोट करता है और समाज में सद्भाव की भावना को बढ़ाता है।

महिलाओं की शिक्षा और जागरूकता समाज में सद्भाव को फैलाने का महत्वपूर्ण कारक है। शिक्षित महिलाएं स्वयं को सशक्त और स्वतंत्र महसूस करती हैं, जिससे वे अपने अधिकारों की रक्षा कर सकती हैं और अपनी मांगों को उठा सकती हैं। शिक्षा के माध्यम से महिलाएं समाज में अधिक जागरूकता पैदा करती हैं और अन्य महिलाओं को भी शिक्षा के महत्व के प्रति संवेदनशील बनाती हैं। एक महिला का लक्ष्य अपने समुदाय को बेहतर बनाना होता है, क्योंकि शिक्षा महिलाओं को अवसर प्रदान करती है, साथ ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने और जीवन की परिस्थितियों को बदलने में सक्षम बनाती है।

महिलाएं सामाजिक संगठनों में सक्रिय होकर सद्भाव को फैला रही हैं। यह उन्हें अपनी मांगों को सामाजिक मंच और सोशल मीडिया पर उठाने का मौका देता है और समाज में उनकी आवाज को सुनने की योग्यता प्रदान करता है। सामाजिक संगठनों के माध्यम से महिलाएं न्याय, समानता, गरीबी निवारण, बाल विवाह, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मुद्दों पर आवाज उठा रही हैं और समाज में परिवर्तन लाने में मदद कर रही हैं।

महिलाओं को स्वयंसहायता और आत्मनिर्भरता के माध्यम से समाज में सद्भाव को बढ़ाने का अवसर मिलता है। जब महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती हैं और अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वयंसेवी होती हैं, तो वे अपने अधिकारों की रक्षा करती हैं और उच्च स्थान में उठने के लिए सक्षम होती हैं। यह महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाता है और समाज में सद्भाव को बढ़ावा देता है।

इन सभी पहलुओं के माध्यम से महिलाएं समाज में सद्भाव को फैलाती हैं। वे अपनी सक्रिय भूमिका के माध्यम से समाज में बदलाव लाती हैं और एक समर्पित, स्वतंत्र और समरस समाज की नींव रखती हैं।

अंत में यही कहना चाहूंगी कि-

सभी रस भावों का संस्कार है नारी

दया, ममता, करुणा का भंडार है नारी

काव्य रस का सार है नारी

जीवन का आधार है नारी

 

सरस्वती तो कभी लक्ष्मी

अन्नपूर्णा तो कभी तुलसी के रूप में

हर घर की अभिलाषा हो तुम

करुणा, धर्य, शौर्य की परिभाषा हो तुम

 

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई बनकर तुमने

युद्ध की सेना में वीर रस का संचार किया

भक्ति रस में डूबी मीराबाई ने

निश्चल प्रेम भक्ति का प्रचार किया

 

अंबे काली बनकर तुमने

रौद्र रूप में दुष्टों का संहार किया

यशोदा माता बनकर तुमने

वात्सल्य रस का श्रृंगार किया

 

तुम साधना तुम वंदना

नित हो रहा नारी महिमा का बखान

वेद पुराण भी करते हैं

तुम्हारे शक्ति, ज्ञान,साहस का गुणगान

 

नारी में ही समाई सृष्टि सारी

ना कहिए नारी को बेचारी

शत् शत् नमन तुमको

करते सब वंदना तुम्हारे

जय हो नारी - जय हो नारी

 

 

मीता गुप्ता

प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय पूर्वोत्तर रेलवे, बरेली

 

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...