Monday, 10 July 2023

वैशाली की नगरवधू-आचार्य चतुरसेन शास्त्री-एक समीक्षा

 




वैशाली की नगरवधू-आचार्य चतुरसेन शास्त्री-एक समीक्षा

 

  

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वयं भी इसे अपनी उत्कृष्टतम रचना मानते हुए इसकी भूमिका में लिखा था कि निरंतर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-संपदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूँ; और यह घोषणा करता हूँ कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि सहित आपको भेंट कर रहा हूँ। कथा उस आंबपाली की है जो शैशवावस्था में आम के एक वृक्ष के नीचे पड़ी मिली और बाद में चलकर वैशाली की सर्वाधिक सुंदर   एवं साहसी युवती के रूप में विख्यात हुई। नगरवधू बनने के अनिवार्य प्रस्ताव को उसने धिक्कृत कानून कहा और उसके लिए वैशाली को कभी क्षमा नहीं कर पाई। लेकिन वह अपने देश को प्रेम भी करती है जिसके लिए उसने अपने निजी सुखों का बलिदान भी किया। और अन्त में अपना सर्वस्व त्यागकर बौद्ध दीक्षा ले ली। कई वर्षों तक आर्य, बौद्ध और जैन साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त और लेखक के तौर पर लम्बे समय में अर्जित अपने भाषा-कौशल के साथ लिखित यह उपन्यास न सिर्फ पाठकों के लिए एक नया आस्वाद लेकर आया बल्कि हिंदी उपन्यास-जगत में भी इसने अपना एक अलग स्थान बनाया जो आज तक कायम है। इस पुस्तक की रचना के पीछे लेखक की एक दशक की अथक परिश्रम है, एक अटूट विश्वास है कि उसकी ए  रचना बाकी सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है l आचार्य जी ने एक कुशल शिल्पकार की भांति इस कथा का निर्माण किया है l एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य इतनी सुंदरता, इतनी मार्मिकता और अर्थपूर्ण तरिके से गढ़ा है कि पाठक भावविभोर हो जाता है I

आचार्य जी ने आंबपाली के माध्यम से एक सामाज, एक देशकाल और उसमे हो रहे उत्थल पुत्थल को दर्शाया है l गणराज्य और साम्राज्य की भिन्नता, शैव, बौद्ध और जैन धर्म की उत्थान और उनका समाज और जाति पर प्रभाव, लेखक ने बहुत ही बारीकी से इनको कथा में चित्रित किया है l उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों का, उनके आपसी राजनीतिक, व्यावसायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संबंध को एक साथ पिरोया है I

वैसे भी हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यास कम लिखे गए हैं और इतिहास जब 2500 साल पहले का हो, तो उसके लिए प्रामाणिक संदर्भ  खोजना भी मुश्किल हो जाता है। इस लिहाज से यह कृति अपने आप में एक उपलब्धि कही जा सकती है और इसके लिए लेखक ने दस सालों तक आर्यों, बौद्धों और जैनों की संस्कृति और इतिहास का अध्ययन किया था। वैसे तो इस उपन्यास का नाम 'वैशाली की नगरवधू' है लेकिन इसका कथानक कहीं अधिक विशाल है। इसमें उस समय की राजव्यवस्था, धार्मिक प्रयोगों और व्यापर की महत्ता का उत्तम चित्रण किया गया है।

उपन्यास का कथानक शिशुनाग वंश के राजा बिंबसार  के समय मगध राज्य और वज्जि गणतंत्र की राजधानी वैशाली के इर्दगिर्द घूमता है। बीच-बीच में उस समय के अन्य महाजनपद जैसे कौशाम्बी, श्रावस्ती, विदेह, अंग, कलिंग, गांधार आदि का भी उल्लेख होता रहता है। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को वज्जि गणतंत्र द्वारा जनपदकल्याणी घोषित कर दिया गया है। वैशाली में उस समय यह कानून था कि गणतंत्र की जो सबसे सुंदर बालिका होगी उस पर पूरे गणतंत्र का समान अधिकार होगा, वह किसी एक व्यक्ति की होकर नहीं रह सकती है। इस कानून को आम्रपाली ने धिक्कृत कानून कहा था। कथानक भगवान बुद्ध और महावीर जैन की तरफ भी जाता है और उन्होंने जो समाजोत्थान के लिए कार्य किया था उसका भी वर्णन है। इतिहास पढ़ने वाले लोग जानते होंगे कि मगध सम्राट बिंबसार  आम्रपाली पर आसक्त होकर वैशाली पर आधिपत्य करना चाहता था और जिसके लिए उसने वैशाली पर आक्रमण किया था ।  

इस उपन्यास में उस समय के नए धार्मिक आंदोलनों का जनमानस पर असर दिखाया गया है। यद्यपि उस समय बुद्ध और महावीर के विचारों को अत्यंत प्रशंसा मिली थी और उन्हें उस समय अलग धर्म के रूप में नहीं देखा गया था और न ही इतना विरोध हुआ था जैसा कि आज के समय में एक धर्म में दूसरे धर्म के प्रति देखा जाता है। राजाओं के द्वारा तब इन नए धर्मों को संरक्षण भी मिला था जो कि बाद में चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक के समय में और ज्यादा बढ़ गया था जिससे बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायियों की संख्या बढ़ गयी थी। भगवान बुद्ध की विचारधारा को उस समय के समाज ने अपनाया था क्योंकि उन्होंने जो कहा था वह हर एक मनुष्य के लिए संभव था और उसके लिए महंगे अनुष्ठानों की आवश्यकता भी नहीं थी। आर्यों की धार्मिक प्रगति को भी लेखक ने दर्शाया है कि किस प्रकार उस समय के श्रोत्रीय ब्राह्मणों ने चौथे वेद अथर्ववेद की रचना की थी और उसमें जो नए नियम प्रतिपादित किए  गए उनकी संकल्पना कैसे की गई थी और उस पर वाद-विवाद से क्या निष्कर्ष निकला था। याज्ञवल्क्य जैसे विचारकों के नए विचारों से समाज में क्या हलचल हुई थी यह भी दिखाया गया है।

लेखक ने उस समय के जातीय संघर्ष को भी दिखाया गया है। सही मायने में उसे संघर्ष तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि निचले वर्णक्रम के लोगों के पास कोई अधिकार और कोई शक्ति-संसाधन तो थे नहीं संघर्ष करने के लिए। उपन्यास में दिखाया गया है कि भोग-विलास का जीवन जीने के लिए किस प्रकार विवाह के नियम बनाए गए थे और किस प्रकार शूद्रों आदि को राजप्रासादों से दूर रखा गया था। उपन्यास में इसके लिए आर्यों को उत्तरदायी ठहराया गया है। वर्णसंकर अथवा मिश्रित जातियों के लोगों तथा साम्राज्यों को हेयदृष्टि से देखा जाता था। बुद्ध और महावीर ने समाज में इसके विरुद्ध उपदेश दिया तथा उनके समागमों में सब लोग बराबर थे, इसके कारण से समाज में उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी।

राजाओं की सत्ता लोलुपता कितने पहले से है, इसका अंदाज़ा उपन्यास पढ़कर ही लगता है। किसानों को अपनी उपज का एक बड़ा भाग राजाओं को देना पड़ता था। राजमहालय हर एक भौतिक सुख-सुविधा से संपन्न थे। गंगा नदी में बाढ़ के समय जनता की सहायता का बीड़ा भी एक बूढ़े संत ने उठाया था। मगध राज्य और वज्जि गणतंत्र बेफिक्र थे। यद्यपि वैशाली कहने को तो गणतंत्र था लेकिन उसमे भी चुनाव का अधिकार सिर्फ लिच्छवियों को था। अन्य सभी लोग इस अधिकार से वंचित थे। लेखक ने कहानी के पात्रों के माध्यम से दिखाना चाहा है कि गणतंत्र की हालत एक सामान्य राज्य से अधिक भिन्न नहीं थी। वहां भी राजधानी के किलों से बाहर की जनता पीड़ित और असहाय थी। ऐसा सोचा जा सकता है कि गणतंत्र में राजाओं की जगह चुने हुए गणपतियों ने ले ली थी। दास-दासियों का क्रय-विक्रय धनी और सामर्थ्यवान लोगों के लिए सामान्य बात थी।

उपन्यास में 500 ईसा पूर्व के काल, जिसे उत्तर वैदिक काल भी कहा जाता है, की जीवन शैली का चित्रण किया है। दिखाया गया है कि आर्य जो कि मूलतः कृषक और पशुपालक थे, किस प्रकार राजकाज में उच्चपदों पर आरूढ़ हो रहे थे। व्यापार मार्गों की सुरक्षा किसी भी राज्य के सुचारू रूप से चलने में उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि आज है। व्यापारी तरह-तरह की वस्तुएं बेचने के लिए हजारो कोस की यात्रा करके आते थे। राजा लोग अपना साम्राज्य बढ़ने के लिए राजसूय यज्ञ करते थे। ब्राह्मणों और पंडितों का समाज में सम्मान और भय दोनों ही था। इस उपन्यास में मूलतया श्रोत्रीय ब्राह्मणों का ज़िक्र किया गया है। राजकुमारों में राजा से राज्य हथियाने की इच्छा रहा करती थी जैसा कि श्रावस्ती में देखा गया था। इस पुस्तक में उस समय के युद्धों का सजीव चित्रण हुआ है और प्रचलित हथियारों जैसे खड्ग, तीर इत्यादि का प्रयोग करते हुए रणनीतियां  बनाई गई हैं।

इस उपन्यास में पौराणिक कथाओं और धार्मिक घटनाओं का वर्णन ऐसे हुआ है जैसे वह ऐतिहासिक घटनाएं हों। महाभारत का उल्लेख दो पात्रों के संवाद के बीच आता है और उसमें उसे पहले की हुई घटना के रूप में दिखाया गया है। जरासंध का मगध साम्राज्य के पूर्व राजा के रूप में चित्रण है। कहानी के बीच बीच में देवासुर संग्राम का ज़िक्र आता है जिसमें कई बुद्धिमान और निपुण मनुष्यों ने देवों की ओर से असुरों के विरुद्ध भाग लिया था। इन सब घटनाओं के माध्यम से लेखक ने इस धारणा को बलवती करने का प्रयास किया है कि आज के धार्मिक प्रसंग कभी ऐतिहासिक घटनाएं हुआ करतीं थी, जिन्हें सदियों के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन ने धार्मिक घटनाओं के रूप में स्थापित कर दिया।

उपन्यास में जादुई यथार्थवाद का एक साहित्यिक शैली के रूप में प्रयोग कई जगहों पर किया गया है। इस शैली में कोई घटना या पात्र सामान्य रूप में संभव नहीं होता है लेकिन उसे साहित्य में ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह एक एकदम सामान्य घटना है। इस पुस्तक में तत्सम शब्दों का अत्यधिक इस्तेमाल किया गया है, जिससे उपन्यास का कलेवर संस्कृतनिष्ठ बन पड़ा है। ऐसे शब्दों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है जिनका आज बोलचाल की हिंदी में प्रयोग नहीं होता है। लेकिन यदि यह देखा जाए  कि यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है और इसमें उस समय की भाषा का प्रभाव लाने की कोशिश की गई है, तो यह सर्वथा उचित लगता है। इतिहास और साहित्य में समान रूचि रखने वाले पाठकों को यह उपन्यास अवश्य ही पसंद आएगा।

 

मीता गुप्ता

 


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