सावन के झूलों में तीजो की महक...
राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा।
साजो सकल सिंगार नैना सारो कजरा॥
भारत में सावन मास के
महीने में झूले लगाने की परंपरा है, जो भारतीय संस्कृति और धार्मिक आदिकाल से जुड़ी हुई है। सावन मास को भोलेनाथ
शिव का मास माना जाता है और इस मास में विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियां
आयोजित की जाती हैं। झूलों की परंपरा भारतीय संस्कृति के बहुत पुराने समयों से चली
आ रही है। झूले पहले से ही भारतीय देवी-देवताओं की पूजा एवं आराधना में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते आए हैं। झूले को ज्ञान, शक्ति, सुख-शांति एवं आनंद की
प्रतीकता माना जाता है। यह अवसर भारतीय परंपरा में अन्योन्य संबंध और परिवारिक
बंधनों का प्रतीक है। इसके द्वारा मान्यता और आदर्शों को प्रतिष्ठित किया जाता है
और इसे भक्तों की आस्था और अदृश्य शक्तियों को प्रकट करने का माध्यम माना जाता है।
यह परंपरा भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रमुखता देती है
और अभिव्यक्ति की स्थिरता और समरसता का प्रतीक है।
सावन के महीने में झूले
लगाने का परंपरागत रूप से भारत भर में महत्वपूर्ण स्थान है। इस मास में भगवान शिव
और माता पार्वती के मंदिरों में झूले लगाए जाते हैं। भगवान शिव और माता पार्वती को
झूले पर बिठाकर भक्तों द्वारा पूजा और आराधना की जाती है। यह परंपरा भक्तों के
द्वारा श्रद्धा और आस्था का प्रतीक है और इसे भक्तिमय भावना को व्यक्त करने का एक
माध्यम माना जाता है। झूलों को सावन मास में लगाने का महत्वपूर्ण कारण है कि यह
मान्यता है कि इस मास में भगवान शिव और माता पार्वती प्रशंसा और पूजा के लिए
भूमिका निभाते हैं। झूलों की लहरीदारी और भजन-कीर्तन के साथ झूलों को हिलाने से
भक्तों में आनंद एवं भक्ति की भावना जाग्रत होती है। झूलों के दौरान गाये जाने
वाले भजन और कीर्तन सावन के महीने के आनंद को और बढ़ाते हैं और भक्तों को शांति और
सुख प्रदान करते हैं।
झूलों का इतिहास, परंपरा और महत्व भारतीय संस्कृति में गहरे रूप से
अंकित हैं। यह परंपरा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण त्योहार सावन मास के दौरान मनाई
जाती है। सावन मास को भगवान शिव का मास माना जाता है और यह मान्यता है कि इस मास
में भगवान शिव और माता पार्वती पृथ्वी पर आते हैं और मानवता की समस्त विपदाओं को
दूर करते हैं।झूलों की परंपरा के दौरान, मंदिरों में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ झूलों पर सजाई जाती हैं। भक्त झूलों को
हिलाकर देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं और भजन-कीर्तन के माध्यम से उन्हें
समर्पित करते हैं। झूलों के दौरान गाये जाने वाले भजन और कीर्तन सावन मास के
महत्वपूर्ण त्योहार का भाग बनते हैं और भक्तों को आनंद और सुख का अनुभव कराते हैं।
झूलों का महत्व यहां भारत में विभिन्न प्रांतों में थोड़ी-बहुत भिन्नताएं रखता है, लेकिन इसके पीछे सामान्य धार्मिक और सांस्कृतिक संदेश
हैं। झूलों के माध्यम से लोग अपने आस्था और आदर्शों को प्रकट करते हैं, परिवार और समुदाय के साथ एकता का प्रतीक होते हैं और
धार्मिक संस्कृति को जीवित रखते हैं।
सावन में देश के किसी एक
अंचल में नहीं बल्कि पूर्व-पश्चिम, उत्तर- दक्षिण का भेद मिटाते हुए लगभग हर क्षेत्र में तीज त्यौहारों का
सिलसिला शुरु हो जाता है। हरियाली तीज के क्या कहने। सावन तीज का त्योहार तीज की
रस्मों और रीति-रिवाजों को निभाते हुए कुछ मौज-मस्ती करने का समय है। तीज का
बेसब्री से इंतजार किया जाता है क्योंकि यह मानसून लेकर आता है। जैसे ही बारिश की
बूंदें जमीन पर गिरती हैं, पेड़ों पर झूले डाल दिए
जाते हैं। झूला झूलने का सबसे अच्छा आनंद मानसून के मौसम में ही आता है। इसलिए
लोगों को यह मौज-मस्ती करने और मानसून अवकाश के साथ खुद को तरोताजा करने का सबसे
अच्छा अवसर लगता है।
तीज को 'झूलों के त्योहार' के रूप में भी जाना जाता
है जो मानसून के मौसम के आगमन का प्रतीक है। तीज शब्द सुनते ही कई लोगों के मन में
झूलों की छवि उभर आती है क्योंकि लोग बगीचों और अपने घरों के बाहर सुंदर झूले
लटकाते हैं। लोग बारिश में झूलने की सदियों पुरानी परंपरा का पालन करते हैं और
पारंपरिक नृत्य करते हैं। न केवल महिलाएं बल्कि छोटे बच्चे भी झूला झूलकर त्योहार
का आनंद उठाते हैं। तीज के झूलों के बिना रंग-बिरंगे त्योहार की कल्पना नहीं की जा
सकती। तीज के झूलों को रंग-बिरंगे और सुगंधित फूलों से सजाया जाता है। राजस्थानी
संस्कृति को उजागर करने के लिए कुछ झूलों को लहरिया प्रिंट कपड़े से भी सजाया गया
है। ये झूले या तो इलाके के पार्कों में या विभिन्न बगीचों में लटकाए जाते हैं जहां
विशेष तीज समारोह होते हैं। सावन में झूला झूलने की परंपरा जो सदियों में चली आ रही है। आज भी गांव में
गीत गाती लड़कियां महिलाएं झूला झूलते हुए दिखाई दे जाती हैं। झूलने का जो आनंद है, वह तो
शब्दातीत है लेकिन किसी उपवन में दूसरों को झूलते देखने से भी मन में उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है।
महिलाएं हरे, पीले और लाल रंग के घाघरा-चोली और अन्य पारंपरिक
पोशाक पहने हुए हैं। संगीत की विशेष व्यवस्था की जाती है. झूला झूलते समय महिलाएं
विशेष पारंपरिक लोक गीत गाती हैं। सावन माह को समर्पित गीतों को 'सावन के गीत' कहा जाता है। विवाहित और अविवाहित महिलाओं पर उनके पति के सुखी और लंबे जीवन
के लिए आशीर्वाद देने के लिए देवी पार्वती की स्तुति में अन्य गीत भी गाए जाते
हैं। तीज के समय पंजाब में गाया जाने वाला सबसे प्रसिद्ध गीत "राल आओ सहियो
नी" है। उस समय महिलाएं खुद को पूरी तरह से भूल जाती हैं और त्योहार के मूड
में आ जाती हैं। वे पारंपरिक लोककथाओं और विशेष तीज गीतों की धुनों पर नृत्य करते
हैं और दिन को यादगार बनाते हैं। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को भारत के
उत्तरी क्षेत्र में उत्तर भारत में हरियाली तीज को विशेष करके मनाया जाता है।
घर-घर में झूले पड़ते हैं और द्वापर युग से यह मान्यता है श्रावण मास में झूला
झूलना चाहिए...
उत्तर भारत में घर-घर
महिलाएं समूह बनाकर के हरियाली तीज के विभिन्न तरह के गीत गाती हैं।गीत गाते हुए
झूला भी झूलती है। श्रावण मास की हरियाली तीज को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान
गुजिया, घेवर,
फेनी आदि बेटियों को सी धारा के रूप में भेजा जाता है।यह बायना छू
करके बेटी की सास को दिया जाता है। इस चीज पर मेहंदी लगाने का विशेष महत्व है।
महिलाएं पैरों में महावर भी लगाती हैं, जो सुहाग का चिन्ह
माना जाता है। हरियाली तीज पर तीन बातों को त्यागने का विधान है जैसे पति से
छल-कपट झूठ बोला एवं दुर्व्यवहार पर निंदा मान्यता है।
आज की युवा पीढ़ी को कौन
है जो बताए सावन और सिंदारे का रिश्ता। तीज पर मायके से उनके लिए चूड़ी, बिंदी, साड़ी और मिठाई जैसी चीजें सिंदारा के रूप में भेजने की प्रथा कहां है। हाँ, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नवविवाहिताओं के लिए
पहली तीज का विशेष महत्व होता है। मिलकर झूले झूलने से मंगल-कामना के गीत गाना, मेंहदी लगाना, व्रत करना तो जैसे ढ़ोंग, दकियानूस, अंधविश्वास समझकर हमारे शहर लगभग छोड़ से चुके है। यह
संतोष की बात है कि सावन पूर्णिमा को मनाई जाने वाली राखी, रक्षाबंधन, पहुंची का प्रभाव पूरी ठसक के साथ आज भी कायम है।
धरती की प्यास बुझते ही
सावन में चहुंदिशा हरियाली छा जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार हरा रंग
आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालते हुए नेत्र ज्योति बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त झूलते समय
दृश्य कभी समीप और कभी दूर जाते होते है। रोमांच के कारण आंखे कभी बंद होती हैं तो
खुलती है। इस क्रम में नेत्रों का
सम्पूर्ण व्यायाम भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त झूलने से मन मस्तिष्क में रोमांच
वृद्धि होने से तेजी से रक्त संचार होने से मस्तिष्क और अधिक सक्रिय बनता है। तनाव
न्यून होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे स्वतः प्राणायाम
हो जाता है।
एक विशेष बात जो झूले के
साथ जुड़ी हुई है वह है सुदृढ़ पकड़ का होना। जब खड़े होकर झूलने से अथवा कभी उठकर तो
बैठकर झूलने जैसी क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है।
पीठ-रीढ़ सहित पूरे शरीर के अंग-अंग का का व्यायाम होता है। आश्चर्य कि
झूलने के इतने फायदे होते हुए भी झूले तो जैसे गायब से हो रहे हैं। झूलों की परंपरा
अधिकांशतः भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा उत्साह से मनाई जाती है, जहां लोग मंदिरों की समीपता में झूले बनाते हैं और
सावन मास के दौरान झूलने का आनंद लेते हैं। यह त्योहार आपसी मित्रता और समरसता को
बढ़ावा देता है और लोगों को खुशहाल जीवन के लिए प्रेरित करता है।
यद्यपि सावन में झूलों का
उत्सव प्रमुखतः हिंदू धर्म के तहत मनाया जाता है, लेकिन भारतीय संस्कृति में धार्मिक एकता और संप्रदायों के संगम को दर्शाता है।
यहां इस उत्सव को मुस्लिम और सिख समुदायों में भी मनाया जाता है, जो संप्रदायों के बीच सद्भाव और सहयोग की मिसाल
प्रस्तुत करता है। इसलिए आशा ही नहीं विश्वास है कि यह सावन धरती से तन-मन तक, परिवार से परिवेश तक अपनी ताजगी की छटा बिखेरेगा
क्योंकि-
जीवन के चक्र में हम सब हैं झूले,
आनंद से झूमे यहाँ खिलखिलाएं।
झूले के रंगों में रंग जाएं हम,
आओ झूलते हुए हम सब मिलकर तीज मनाएं।
मीता गुप्ता
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