Monday, 21 November 2022

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

 

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की विवेचना कीजिए तथा इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय को समझाइए।

 

अनुक्रम (Contents)

शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य (Individual Aims of Education)

वैयक्तिक उद्देश्यों के रूप

व्यक्तिगत उद्देश्य के पक्ष में तर्क

व्यक्तिगत उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य (Social Aim of Education)

सामाजिक उद्देश्यों के पक्ष में तर्क

सामाजिक उद्देश्यों के विपक्ष में तर्क

वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय (Coordination between Individual and Social Aims)

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शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य (Individual Aims of Education)

 

प्राचीन समय में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को उस समय के विद्वानों का काफी समर्थन प्राप्त रहा है। आधुनिक युग में भी शिक्षा मनोविज्ञान की प्रगति के कारण इस उद्देश्य पर विशेष बल दिया जाने लगा है। आधुनिक समय में इस उद्देश्य के प्रमुख समर्थकों के नाम हैं- रूसो, फ्राबेल पेस्टालाजी, नन् आदि । नन् के अनुसार– “शिक्षा की ऐसी दशायें उत्पन्न होनी चाहिये जिसमें वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके और व्यक्ति मानव जीवन का अपना मौलिक योगदान दे सके। “

 

शिक्षा अपने उद्देश्य को तभी प्राप्त कर सकती है जब राज्य, समाज तथा शिक्षा संस्थायें सभी इस दिशा में प्रयत्न करें।

 

 

 

यूकेन (Eucken) ने वैयक्तिकता का अर्थ आध्यात्मिक वैयक्तिकता से लगाया है। उसके मतानुसार, आध्यात्मिक वैयक्तिकता एवं व्यक्तित्त्व जन्मजात नहीं होते वरन् उन्हें प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार, वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ- श्रेष्ठ व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास रॉस के अनुसार, “शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ जो हमारे स्वीकार करने के योग्य है, वह केवल यह है- महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास “

 

वैयक्तिक उद्देश्यों के रूप

शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के दो रूप हैं-

 

 

(i) आत्माभिव्यक्ति, और (ii) आत्मानुभूति।

 

आत्माभिव्यक्ति के समर्थक विद्वान आत्म-प्रकाशन का बल देते हैं अर्थात् व्यक्ति को अपने कार्य या व्यवहार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये, भले ही उससे दूसरों को हानि पहुँचे। लेकिन इस विचार को ठीक मान लेने का अर्थ होगा-व्यक्ति को आदिकाल में पहुँचा देना अथवा व्यक्ति को पशु के समान बना देना।

 

 

आत्मानुभूति, आत्माभिव्यक्ति से भिन्न है। आत्माभिव्यक्ति में ‘स्व’ (Self) से अभिप्राय होता है-जैसे मैं उसे जानता हूँ लेकिन आत्मानुभूति में ‘स्व’ से आशय होता है- जैसे मैं उसका होना चाहता हूँ। आत्माभिव्यक्ति में ‘स्व’ व्यक्ति का ‘मूर्त स्व’ है जबकि आत्मानुभूति में ‘स्व’ आदर्श स्व होता है जिसके विषय में हम कल्पना करते हैं। आत्माभिव्यक्ति में समाज के लाभ या हानि के विषय में कोई ध्यान नहीं दिया जाता जबकि एडम्स के शब्दों में – “आत्मानुभूति के आदर्श में ‘स्व’ समाज-विरोधी व्यवहार करके अपनी अनुभूति नहीं कर सकता है। “

 

व्यक्तिगत उद्देश्य के पक्ष में तर्क

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का वैयक्तिक विकास होना चाहिये क्योंकि-

 

संसार में सभी श्रेष्ठ रचनायें व्यक्ति के स्वतन्त्र प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हुई हैं।

जनतन्त्रीय व्यवस्था व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल देती है।

मनोविज्ञान के अनुसार, व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर ऐसी दिशाओं का निर्माण किया जाये जो उसके स्वतन्त्र विकास में सहायक हो।

प्रत्येक समाज की संस्कृति और सभ्यता को व्यक्ति ही विकसित करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते हैं, अतः शिक्षा में वैयक्तिक विकास का ही समर्थन किया जाना चाहिये।

व्यक्ति समाज की इकाई है। यदि व्यक्ति को अपने पूर्ण उत्कर्ष के लिये अवसर प्रदान किये गये तो इससे अन्तोगत्वा समाज की भी उन्नति होगी। इस दृष्टि से भी वैयक्तिक उद्देश्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

नन के शब्दों में- “वैयक्तिकता जीवन का आदर्श है। शिक्षा की किसी भी योजना का महत्त्व उसकी उच्चतम वैयक्तिक श्रेष्ठता का विकास करने की सफलता से आँका जाना चाहिये। “

 

व्यक्तिगत उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य से व्यक्तिवाद को बल मिलता है।

वैयक्तिक उद्देश्य समाजवादी विचारधारा के विपरीत है।

यह उद्देश्य आत्म-प्रदर्शन की गलत धारणा पर आधारित है।

इससे व्यक्ति में पाश्विक प्रवृत्तियों का विकास हो सकता है।

इस उद्देश्य के अन्तर्गत मनुष्य के सामाजिक स्वरूप की उपेक्षा की गई है।

व्यक्ति को अत्यधिक स्वतन्त्रता देने से अन्त में सामाजिक विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है।

व्यक्ति की निरंकुश स्वतन्त्रता का समर्थन करने के कारण इस उद्देश्य से व्यक्ति की तर्कशक्ति का भी  होने लगता है। वह भले-बुरे तथा उचित-अनुचित में कोई अन्तर नहीं कर सकता।

यह उद्देश्य वास्तविक जीवन के लिये अव्यावहारिक है क्योंकि विद्यालयों में प्रत्येक छात्र के वैयक्तिक विकास के लिये विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम और विधियों की व्यवस्था नहीं की जा सकती।

वैयक्तिकता के उद्देश्य में जहाँ तक आत्माभिव्यक्ति के रूप का प्रश्न है, उसे तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके आत्मानुभूति के रूप को स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि उसमे व्यक्ति के सामाजिक विकास के पक्ष की उपेक्षा नहीं की गई है। लेकिन वैयक्तिक विकास का उद्देश्य पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य (Social Aim of Education)

सामाजिक उद्देश्य का अर्थ- सामाजिक उद्देश्य के अनुसार, समाज या राज्य का स्थान व्यक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। बैगेल और डीवी ने सामाजिक उद्देश्य का तात्पर्य सामाजिक दक्षता से लगाया है

 

लेकिन अपने अतिवादी स्वरूप में यह उद्देश्य व्यक्ति को समाज की तुलना में निचली श्रेणी का मानता है तथा व्यक्ति के सारे अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों को राज्य के हाथों में सौंप देता है। इस अतिवादी स्वरूप के अन्तर्गत समाज को साध्य और व्यक्ति को साधन माना जाता है, अर्थात् व्यक्ति का अपना अलग कोई अस्तित्त्व नहीं।

 

लेकिन यदि हम इस उद्देश्य के अतिवादी रूप को ध्यान में न रखें तो सरल रूप में इस उद्देश्य का अर्थ होगा-व्यक्तियों में सहयोग सामाजिक भावना का विकास करना। इसी सामाजिक भावना के आधार पर रेमण्ट ने कहा था कि-“समाजविहीन अकेला व्यक्ति कल्पना की खोज है। “

 

सामाजिक उद्देश्यों के पक्ष में तर्क

व्यक्ति को अपने जीवन-यापन की दृष्टि से समाज अनिवार्य है। समाज से अलग उसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये समाज का हित ही व्यक्ति को सर्वोपरि रखना चाहिये।

समाज ही सभ्यता व संस्कृति को जन्म देता है जिनसे व्यक्ति संस्कारित होता है।

वंशानुक्रम से व्यक्ति केवल पारिवारिक प्रवृत्तियाँ ही प्राप्त करता है, लेकिन सामाजिक वातावरण उसे वास्तविक मानव बनाता है।

सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत ही नागरिकता के गुणों का विकास किया जा सकता है।

समाज में ही व्यक्ति की विभिन्न शक्तियों का विकास होता है।

सामाजिक जीवन ही व्यक्ति को नये आविष्कारों के लिये अवसर प्रदान करता है।

सामाजिक उद्देश्यों के विपक्ष में तर्क

सामाजिक उद्देश्य में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-

 

इतिहास गवाह है कि सर्वाधिकारी राज्य युद्ध की विभीषिकाओं को जन्म देते हैं।

इस उद्देश्य से व्यक्ति का मानसिक सौन्दर्यात्मक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता।

इस उद्देश्य पर आधारित शिक्षा संकुचित राष्ट्रीयता का विकास करती है ।

इस उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है।

इस उद्देश्य के अनुसार, समाज को मनुष्य से श्रेष्ठ समझा जाता है जो एक गलत धारणा है।

राज्य या समाज के आदर्शों के प्रचार के लिये शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग किया जाता है।

यह उद्देश्य अमनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें बालक की व्यक्तिगत रुचियों, प्रवृत्तियों और योग्यताओं का विकास नहीं हो सकता है।

इस उद्देश्य में क्योंकि वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अभाव है, इसलिये कला और साहित्य में विकास नहीं हो सकता है।

वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय (Coordination between Individual and Social Aims)

व्यक्ति और समाज का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के बिना हम दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति का वैयक्तिक विकास भी आवश्यक है और सामाजिक विकास भी। अतः शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं वरन् एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही उद्देश्यों में समन्वय की आवश्यकता है।

 

रॉस का कथन है कि “वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता है, जहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण होता है। “

 

इस प्रकार से स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिये समाज और समाज के लिये व्यक्ति आवश्यक है। व्यक्ति से समाज का निर्माण होता है और समाज व्यक्ति का निर्माण करता है। हमें समाज के स्वरूप के दर्शन व्यक्तियों के रूप में होते हैं और सामाजिक विरासत के कारण ही व्यक्ति का विकास सम्भव हो पाता है।

 

इन दोनों उद्देश्यों के समन्वय के आधार पर ही शिक्षा का स्वरूप निर्मित किया जाना चाहिये अर्थात् ऐसी व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो जिसमें न तो समाज व्यक्ति को अपना दास बना सके और न व्यक्ति ही सामाजिक नियमों की अवहेलना कर सके।

 

 

शब्दों के आदान-प्रदान

शब्दों के आदान-प्रदान



 

 संस्कृत की आधारभूत शक्ति से सम्पन्न हिंदी भाषा ने देश-दुनिया की कई भाषाओं से शब्द लिए हैं और बदले में अपने शब्द-भंडार से उन्हें समृद्ध भी किया है। मूल में संस्कृत का होना हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जोड़ता है और संसार में एक विशिष्ट पहचान देता है। आज हिंदी पखवाड़ा के अवसर पर हमारी भाषा के इन्हीं अंत: और बाह्य संबंधों पर इस लेख के माध्यम से प्रकाश डालने का प्रयास कर रही हूँ|

फ ड़ाआआआ...ककक..! की ध्वनि से मेरी नींद खुली, बालकनी में दूध का पात्र रखकर भूल गई थी, उसका आस्वादन बिल्ली ने भली प्रकार से कर लिया था। मेरी पड़ोसी महोदया गुजराती बोला करती हैं; उन्होंने जगत मौसी कहलाने वाले उस जीव को देखा और ‘बिलाड़ी’ कहकर हंस पड़ीं। मैंने यह शब्द प्रथमत: सुना। मराठी का मांजर सुन चुकी हूं। मेरे मस्तिष्क में भाषा विज्ञान के घोड़े दौड़ना शुरू हो गए। महोदया का बिलाड़ी शब्द और मराठी का मांजर शब्द क्रमश: संस्कृत विडाल और मार्जारी से उत्पन्न हुए हैं। भाषाएं आपस में शब्द लेती-देती रहती हैं। हिंदी ने भी संस्कृत, प्राकृत, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, तुर्की, पश्तो, पुर्तगाली आदि भाषाओं से शब्द लिए हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह एक खिचड़ी भाषा है, क्योंकि इस दृष्टि तो शरीर का विभिन्न अवयवों से बना होना भी वृथा सिद्ध हो जाएगा। समुचित स्वाद का निर्माण मिश्रणों के माध्यम से ही संभव है; केवल उन मिश्रणों का अनुपात सही होना चाहिए। बस यही विधा हिंदी भाषा के संदर्भ में भी चरितार्थ हो जाती है।

दान से बना डोनर

अमेरिकी आनुवंशिकीविद्, डेविड रीच के अनुसार दक्षिण एशिया में 1800 ई.पू. में संस्कृत का आगमन हुआ। इस मान्यता से तो भाषा विकास का क्रम ही लड़खड़ाता हुआ प्रतीत होता है। ऐसी उक्तियां वैदिक संस्कृति का उपहास भले ही करती रहें, लेकिन संस्कृत-हिंदी की उत्कृष्टता कभी काम न कर सकीं | यही नहीं, जर्मन भाषा के डोनर का उद्भव संस्कृत-हिंदी के दान से ही हुआ है। कालांतर में घूमते-फिरते ऐसे कई शब्द अंग्रेज़ी में प्रवेश पा जाते हैं। कालविशेष और देशविशेष के कारण इनमें जो विकार उत्पन्न होता है उसी से नवीन वर्तनीयुक्त नूतन शब्द बन जाते हैं। इसी तथ्य को 1783 में भाषाविद् विलियम जोन्स ने सगर्व स्वीकार किया था। उन्होंने ‘पाद’, ‘पेद’, ‘पोदी’, ‘पेयर’ एवं ‘पेडेस्ट्रीयन’ में जिस एकसूत्रात्मकता का दर्शन किया उससे ग्रीक, लेटिन, जर्मन, स्पेनिश व अन्य यूरोपीय भाषाएं संस्कृत-हिंदी के धागे में स्पष्टता से पिरोई हुई दृष्टिगोचर होती हैं। इन सभी तथ्यों के द्वारा यह स्पष्ट है कि विश्व की तमाम बड़ी भाषाओं के विकास में संस्कृत का न्यूनाधिक योगदान रहा है और हिंदी के प्रतिनिधित्व में आगे भी भाषाओं के वैश्विक पटल पर शब्दों का आदान-प्रदान होता रहेगा।

संस्कृत-हिंदी सार्वभौमिकता

भाषासु मुख्या मधुरा गीर्वाणभारती’ की उक्ति भारत की भारतीयता और हमारी भाषागत स्वतंत्रता की द्योतक है। संस्कृत-हिंदी से निकले शब्द ‘मातृ-माता’ अंग्रेज़ी तक का सफ़र करने पर ‘मदर’ में तब्दील हो जाते हैं। भारतीय चिकित्सा का ही एक अति साधारण शब्द संस्कृत-हिंदी में क्रमश: ‘कफ’:-कफ के रूप में प्रयुक्त होता है, जो कि बिना किसी परिवर्तन के अंग्रेज़ी में भी ‘कफ़’ (cough) के रूप में ही स्थान पाता है। आयुर्वेदिक वृक्ष संस्कृत-हिंदी में ‘निंब-नीम’ कहलाता है, विदेशियों के मध्य भी ‘नीम’ (neem) के रूप में पहचान पाता है। संस्कृत-हिंदी का ‘माध्यम’-माध्यम आंग्लभाषा में ‘मीडियम’ के रूप में परिवर्तित होता है। आंग्लभाषा के अतिरिक्त हिंदी का ‘सप्ताह’ अरबी में ‘हफ़्ता’ बन जाता है व ‘श्वेत’, ‘सफ़ेद’ कहलाता है।

अब यदि कोई बच्चा पिता को प्रमादवश ‘फादर’ कह भी दे, तो भाषापकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि प्रकारांतर से वह पितृ का ही उच्चारण है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक अदूरदर्शिता का परिणाम ही है कि किसी भाषा की श्रेष्ठता भारतीय भाषाओं की उपेक्षा पर खड़ी होती है। सर विलियम जोन्स लिखते हैं- ‘संस्कृत भाषा, चाहे उसकी प्राचीनता कुछ भी हो, की संरचना अद्‌भुत है; ग्रीक की तुलना में अधिक प्रभावशाली, लैटिन से अधिक विपुल है।’ इस गुणी भाषा की संतान, जो कि देखने पर इसी का सरलीकरण है, हिंदी कहलाती है और इसी सरल रूप से विभिन्न भाषाओं व बोलियों को शब्द प्रदान किए गए हैं।

ऑक्सफोर्ड में भारतीय अंग्रेज़ी

महर्षि पाणिनि से व्याकरण के प्रारंभ के साथ विश्व को जो अमूल्य निधि प्राप्त हुई उसी की अनुकृति से भारत की बहुत-सी भाषाओं का जन्म अकाट्य रूप से सिद्ध है। जब जन्मदात्री भारतीय भाषा है तो व्यवहार की दृष्टि से इसी से उद्‌भूत गुणों का प्रभाव अन्य भाषाओं में स्वाभाविक है। आज के उत्तर आधुनिक युग में साहित्य के नाम पर जिन भाषाओं का समुचित प्रचार दृष्टिगोचर होता है, उन सबके शब्दकोश में संस्कृत-हिंदी का समावेश न होना असंभव है।

अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित शब्दकोश ऑक्सफोर्ड ने भी कुछ समय से ‘नमस्कार’, ‘अच्छा’, ‘नाटक’, ‘आधार’ व ‘चुप’ जैसे कई शब्दों को भारतीय अंग्रेज़ी के नाम पर स्वीकृत कर लिया है। वास्तव में यह वैश्विक स्तर पर हिंदी का प्रभाव ही है। न जाने कितने शब्द ऐसे हैं जो हिंदी-संस्कृत मूल के होते हुए भी अन्य भाषाओं में धड़ल्ले से व्यवहृत हो रहे हैं। आज इनका जागरण और स्मरण भाषाविज्ञान की मांग बन चुका है।

भारतीय भाषाओं की व्यापकता

हिंदी भाषा का भारतीय समाज एवं जनमानस पर इतना गहन प्रभाव है कि हमने इंडियन इंग्लिश की कल्पना को भी संजो रखा है। हिंदी के अनेकानेक शब्दों का उपयोग अन्य भाषाओं में हमेशा से होता आ रहा है। संस्कृत का ‘नम:’ हिंदी में नम हुआ जिसका अर्थ झुकना है, नम् धातु के प्रयोग से ही नमाज़ शब्द बना।

वास्तव में हिंदी की सर्वमान्यता और सार्वभौमिकता इसी बात से प्रमाणित होती है की अनेक विदेशी भाषाओं में हिंदी-संस्कृत के शब्द कभी अपना रूप बदलकर और कभी बिना रूप बदले विद्यमान हैं|

 

 

मीता गुप्ता

 


प्राचीन भारत में संचार के साधन

 

प्राचीन भारत में संचार के साधन

 

कभी आपने सोचा है कि प्राचीन काल में जब न तो इंटरनेट था और न ही बिजली… तो मानव अपने संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचाते थे?जाहिर सी बात है उस जमाने में भी इंसान आपस में संवाद तो करता ही होगा!

आजकल की तरह तब भले ही एक जगह से दूसरी जगह अपना संदेश पहुंचाना फास्ट नहीं था, लेकिन फिर भी लोगों ने अपनी जरूरत के हिसाब से संचार के अलग-अलग माध्यमों का आविष्कार कर लिया था. आज उस जमाने में लोग कैसे बिना इंटरनेट के एक दूसरे से चैटिंग करते थे इस बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे क्योंकि यह विकसित भारतीय संस्कृति का अभिन्न यंग है, प्रमाण है –

कबूतर बनता था ‘डाकिया

प्राचीन काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था|

नगाड़ा

इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था।

युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।

“अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी” फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है।

छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है।

संकेतन

संकेत संप्रेषण का युद्ध में दीर्घ काल से प्रयोग हो रहा है। साधारण जीवन में भी संदेश भेजने की आवश्यकता बहुधा पड़ती ही है, पर सेना की एक टुकड़ी से दूसरी को, अथवा एक पोत से अन्य को सूचनाएँ, आदेश आदि भेजने के कार्य का विशेष महत्त्व है। इसके लिए प्रत्येक संभव उपाय काम में लाए जाते हैं। पैदल और घुड़सवार, संदेशवाहकों के सिवाय, प्राचीन काल में झंडियों, प्रकाश तथा धुएँ द्वारा संकेतों से संदेश भेजने के प्रमाण मिलते हैं।

अभिलेख

पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासक इसके द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है|

कंधार स्थित अशोक का अभिलेख

किसी विशेष महत्व अथवा प्रयोजन के लेख को अभिलेख कहा जाता है। यह सामान्य व्यावहारिक लेखों से भिन्न होता है। प्रस्तर, धातु अथवा किसी अन्य कठोर और स्थायी पदार्थ पर विज्ञप्ति, प्रचार, स्मृति आदि के लिए उत्कीर्ण लेखों की गणना प्राय: अभिलेख के अंतर्गत होती है। कागज, कपड़े, पत्ते आदि कोमल पदार्थों पर मसि अथवा अन्य किसी रंग से अंकित लेख हस्तलेख के अंतर्गत आते हैं। कड़े पत्तों (ताडपत्रादि) पर लौहशलाका से खचित लेख अभिलेख तथा हस्तलेख के बीचे में रखे जा सकते हैं। मिट्टी की तख्तियों तथा बर्तनों और दीवारों पर उत्खचित लेख अभिलेख की सीमा में आते हैं। सामान्यत: किसी अभिलेख की मुख्य पहचान उसका महत्व और उसके माध्यम का स्थायित्व है।

अभिलेख के लिए कड़े माध्यम की आवश्यकता होती थी, इसलिए पत्थर, धातु, ईंट, मिट्टी की तख्ती, काष्ठ, ताड़पत्र का उपयोग किया जाता था, यद्यपि अंतिम दो की आयु अधिक नहीं होती थी। भारत, सुमेर, मिस्र, यूनान, इटली आदि सभी प्राचीन देशों में पत्थर का उपयोग किया गया। अशोक ने तो अपने स्तंभलेख (सं. 2, तोपरा) में स्पष्ट लिखा है कि वह अपने धर्मलेख के लिए प्रस्तर का प्रयोग इसलिए कर रहा था कि वे चिरस्थायी हो सकें। किंतु इसके बहुत पूर्व आदिम मनुष्य ने अपने गुहाजीवन में ही गुहा की दीवारों पर अपने चिह्नों को स्थायी बनाया था। भारत में प्रस्तर का उपयोग अभिलेखन के लिए कई प्रकार से हुआ है-गुहा की दीवारें, पत्थर की चट्टानें (चिकनी और कभी कभी खुरदरी), स्तंभ, शिलाखंड, मूर्तियों की पीठ अथवा चरणपीठ, प्रस्तरभांड अथवा प्रस्तरमंजूषा के किनारे या ढक्कन, पत्थर की तख्तियाँ, मुद्रा, कवच आदि, मंदिर की दीवारें, स्तंभ, फर्श आदि। मिस्रमें अभिलेख के लिए बहुत ही कठोर पत्थर का उपयोग किया जाता था। यूनान में प्राय: संगमरमर का उपयोग होता था। यद्यपि मौसम के प्रभाव से इसपर उत्कीर्ण लेख घिस जाते थे। विशेषकर, सुमेर, बाबुल, क्रीट आदि में मिट्टी की तख्तियों का अधिक उपयोग होता था। भारत में भी अभिलेख के लिए ईंट का प्रयोग यज्ञ तथा मंदिर के संबंध में हुआ है। धातुओं में सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, काँसा, लोहा, जस्ते का उपयोग भी किया जाता था। भारत में ताम्रपत्र अधिकता से पाए जाते हैं। काठ का उपयोग भी हुआ है, किंतु इसके उदाहरण मिस्र के अतिरिक्त अन्य कहीं अवशिष्ट नहीं है। ताड़पत्र के उदाहरण भी बहुत प्राचीन नहीं मिलते।

अभिलेख में अक्षर अथवा चिह्नों की खुदाई के लिए रूंखानी, छेनी, हथौड़े, (नुकीले), लौहशलाका अथवा लौहवर्तिका आदि का उपयोग होता था। अभिलेख तैयार करने के लिए व्यावसायिक कारीगर होते थे। साधारण हस्तलेख तैयार करनेवालों को लेखक, लिपिकर, दिविर, कायस्थ, करण, कर्णिक, कर्रिणन्, आदि कहते थे; अभिलेख तैयार करनेवालों की संज्ञा शिल्पों, रूपकार, शिलाकूट आदि होती थी। प्रारंभिक अभिलेख बहुत सुंदर नहीं होते थे, परंतु धीरे धीरे स्थायित्व और आकर्षण की दृष्टि से बहुत सुंदर और अलंकृत अक्षर लिखे जाने लगे और अभिलेख की कई शैलियाँ विकसित हुई। अक्षरों की आकृति और शैलियों से अभिलेखों के तिथिक्रम को निश्चित करने में सहायता मिलती है।

चित्र, प्रतिकृति प्रतीक तथा अक्षर

तिथिक्रम में अभिलेखों में इनका उपयोग किया गया है। (इस संबंध में विस्तृत विवेचन के लिए द्रं.अक्षर) विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों और अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इनमें चित्रात्मक, भावात्मक और ध्वन्यात्मक सभी प्रकार की लिपियाँ है। ध्वन्यात्मक लिपियों में भी अंकों के लिए जिन चिहों का प्रयोग किया जाता है वे ध्वन्यात्मक नहीं हैं। ब्राह्मी और देवनागरी दोनों के प्राचीन और अर्वाचीन अंक 1 से 9 तक ध्वन्यात्मक नहीं हैं। प्राचीन अक्षरात्मक तथा चित्रात्मक अंकों की भी यही अवस्था है।

अभिलेख के प्रकार

यदि अत्यंत प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के अभिलेखों का वर्गीकरण किया जाए तो उनके प्रकार इस भाँति पाए जाते हैं:

(1) व्यापारिक तथा व्यावहारिक

(2) आभिचारिक (जादू टोना से संबद्ध)

(3) धार्मिक और कर्मकांडीय

(4) उपदेशात्मक अथवा नैतिक

(5) समर्पण तथा चढ़ावा संबंधी

(6) दान संबंध

(7) प्रशासकीय

(8) प्रशस्तिपरक

(9) स्मारक तथा

(10) साहित्यिक

 

PHONE ETTIQUITTES

 

1. Answer a call within three rings.

If your position entails always being available to callers, you should actually be available. That means staying focused and answering calls immediately. The last thing you want to do is keep a customer waiting after a string of endless ringing or send them to voicemail when you should've been able and ready to reply.

As long as you're alert and at your phone at all times — excluding breaks — this rule should be fairly simple to follow. However, we recommend responding within three rings in order give yourself enough time to get in the zone and prepare for the call. Picking up the phone right away might leave you flustered.

2. Immediately introduce yourself.

Upon picking up the phone, you should confirm with the person whom they have called. In personal calls, it's sufficient to begin with a "Hello?" and let the caller introduce themselves first. However, you want to allow the caller to know if they've hit a wrong number, as well as whom they are speaking with.

Practice answer the phone with, "Hi, this is [Your first name] from [Your company]. How can I help you?" Your customer will be met with warmth, which will encourage a positive start to your call. And, if it ends up being an exasperated college student trying to order pizza, they'll at least appreciate your friendliness.

3. Speak clearly.

Phone calls, while a great option for those who detest in-person interaction, do require very strong communication skills. For one, the person on the other end of the line can only judge you based on your voice, since they don't get to identify your body language and — hopefully — kind smile.


You always want to speak as clearly as possible. Project your voice without shouting. You want to be heard and avoid having to repeat yourself. A strong, confident voice can make a customer trust you and your support more. In case of bad cell service or any inability to hear or be heard, immediately ask to hang up and call back.


4. Only use speakerphone when necessary.

We all know the trials of speakerphone. It's easier for you because you can use your hands to multitask. However, for the other caller, it's like trying to hear one voice through a honking crowd of taxis in Manhattan — impossible and frustrating.


Give your customers your full attention, and avoid speakerphone. This will make it easier for both parties to be heard, and it will ensure that you're actually paying attention to them. You may need to use speakerphone at rare occasions, such as when it's a conference call or when you're trying to troubleshoot on the phone. While speakerphone may be appropriate at these times, it's always better to use a headset to remain hands-free.


5. Actively listen, and take notes.

Speaking of paying attention to your customers, it's essential that you're actively listening to them throughout the conversation. Actively listening means hearing everything they have to say and basing your response off of their comments, rather than using a prescribed script. This proves to your customers that you're present and are empathetic to their inconveniences.


It's helpful to take notes during support calls. You'll want to file a record post-conversation, and notes will be immensely helpful. It also ensures that, during long-winded explanations from customers, you can jot down the main points and jump into problem-solving without requiring them to repeat.


6. Use proper language.

A key difference between professional and personal phone calls is obvious — the language. It might be acceptable to use slang and swears when talking on the phone with your friends, but this kind of language can cause you to lose a customer for life.


Always be mindful and respectful when on the phone. You never know what customers might be offended by something you say, so it's best to use formal language. It's okay to throw in humor if appropriate, but never crack a joke that could upset a customer.


7. Remain cheerful.

You never know when a customer is having a bad day. When someone is rude to you on the phone, your immediate reaction may be to put them in your place. First, though, take a moment to step into their shoes and recognize why they're so upset.


The point is to always remain positive and friendly, especially in the face of negativity. Your optimistic outlook may be enough to turn a failing phone call right around. Remind yourself that the last thing your customer probably wanted was to spend their afternoon on the phone with customer support. So, make that call the best it can be, and it may create a loyal, lifetime customer.


8. Ask before putting someone on hold or transferring a call.

There's often nothing more infuriating than being put on hold. After waiting on hold for ten or fifteen minutes to speak with a real-life human being, you finally get to explain your problem. Then, you're immediately put back on hold and then transferred to someone else to whom you must re-explain the whole problem. Talk about exhausting.


However, if you must put a customer on hold or transfer their call, always ask for their permission first. Explain why it's necessary to do so, and reassure them that you — or another employee — are going to get their problem solved swiftly. By keeping your customer in the loop, they'll be less inclined to complain about a long wait time.


9. Be honest if you don't know the answer.

You might need to put a customer on hold or transfer their call if the dreaded occurs — you don't know the solution. Perhaps you've tried everything you can or simply have no idea what they're talking about. Don't panic; customer support representatives are humans, too, and it's okay not to be the omniscient voice of reason.


It's best to admit when you don't know something, rather than making excuses or giving false solutions. However, tell them that you're going to do everything you can to find an answer and get back to them momentarily, or find a co-worker who does know the answer. Customers don't typically expect you to have all the solutions at hand, but they will expect you to be transparent.


10. Be mindful of your volume.

You may be so focused on your phone call with a customer that you're barely paying attention to your present setting. When working in a call center, things can get pretty loud. You always want to be mindful of your volume and ensure that you're not disrupting the ability of your co-workers to speak to customers and get their work done.


If you are on a call that requires you to speak louder due to a bad connection or a hard-of-hearing customer, simply step out of the room and speak with them separately. Your customers are always your main concern, but you don't want to inhibit the work ethic of others in your workplace.


11. Check for and respond to voicemails.

It's quite possible that a customer might reach out to you when you're on a break or after you've left work for the day. If it's possible for you to receive voicemails, make sure you're always checking for them. It's easy for a voicemail to slip under the radar, but the customer won't easily forget.


Start and end each day by checking your voicemail. It takes just a few minutes and can avoid a lost customer support request. Your customers will appreciate your prompt response, and you can get on to doing what you do best — providing knowledgeable and friendly support.


These tips should provide you and your team with basic guidelines for phone etiquette and, if executed properly, your company should see significant improvement in customer experience.


However, there will be some interactions where these actions may not be enough to defuse the situation. Some customer interactions will require your team to take special measures to ensure you're meeting the customer's immediate and long-term needs. In the next section, we'll break down a few of these scenarios and what you can do to resolve them.


कहां गया उसे ढूंढो

पिछले दिनों कुछ पुराने मित्रों से मुलाकात हुई। बात निकली कालेज की, हॉस्टल की; तो सभी यादें ताजा हो गईं। मैंने किसी से पूछा वो हमारा साथी अतुल शर्मा अब कहां है जो सारा दिन सबको हंसाता था? कॉलेज का सबसे होनहार लड़का जो बातों के ऐसे लच्छे बनाता कि सब हंस हंस कर पागल हो जाते। मैं उसे अक्सर कहती अतुल तुम ऐसे हंसते  हो कि कमरे ही नहीं कब्रों में सो रहे लोग भी बाहर आ जाएं। सच वो बहुत ही जिंदादिल व्यक्ति था। लेकिन उस दिन दोस्तों ने बताया की अतुल कुछ दिनों से बहुत परेशान था। उसकी नौकरी भी छूट गयी थी और वो इनदिनों नशा मुक्ति केंद्र में अपना इलाज करवा रहा है। ये सुनकर मन दुख से भर गया कि क्या हुआ होगा? कैसे हुआ ये सब? क्यों कोई तनाव में, अवसाद में ऐसे डूब जाए कि दुनिया से बेखबर हो जाए?

दूसरा उदाहरण भी ऐसा ही है। मेरे घर के पास ही रहने वाले एक हिंदी के प्रोफ़ेसर, जो बेहद मिलनसार और खुशदिल इंसान थे, परिवार के भीतर होने वाले तनाव ने उन्हें तोड़ दिया और उन्होंने हालातों के सामने हार मान ली और एक दिन बिन बताए घर छोड़ दिया। हजारों ऐसे उदहारण हैं, जो हमारे आसपास हैं।


जीवन किसी के लिए भी आसान नहीं है, बहुत कठिन है। अक्सर दिल और दिमाग के द्वंद चलते हैं,  कहीं नौकरी की समस्या, कहीं विवाह की समस्या,  कहीं विवाह नहीं हो रहा ये दुख,  कहीं ये की विवाह क्यों कर लिया? कहीं विवाह को बचाया कैसे जाये? कहीं नौकरी नहीं मिलती तो कभी मिल गयी तो कैसे बचाई जाए इसका तनाव, कहीं घरों में जगह नहीं तो कहीं दिलों में प्यार नहीं, कहीं घर नहीं, तो कहीं दिल ही नहीं... हजारों दुख लेकिन इन सब के बीच भी जीवन खोजना है, जब दिल दुख से भर जाए दिल और दिमाग आपस में उलझ जाये तो क्या करें?


ऐसे में अंतर्विरोध बहुत ज्यादा हावी होने लगते हैं, दूर-दूर तक कोई राह नजर नहीं आती, कितनी भी मेहनत कर लें लेकिन कोई हल नहीं निकलता, सारी सक्रियता बेमानी लगने लगती है,  ऐसे कठिन समय में परेशान व्यक्ति को केवल दो ही राहें दिखती हैं; या तो वो हालातों के सामने आत्मसमर्पण कर दे या तो परिस्थियां जैसी हैं उसी हाल में चुप-चाप खुद  को ढाल ले। जो हो रहा है उसे साक्षी भाव से देखता चले या फिर दूसरी राह ये कि हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए कि साहब, अब हम तो कुछ नहीं करेगें क्योंकि परिस्थतियां अनुकूल नहीं हैं, बेमन से काम करने  से बेहतर है कुछ किया ही ना जाये।


अक्सर लोग, दूसरी राह यानी "कुछ ना करने" को ही चुनते हैं और इसी में मानसिक सुख तलाशने लगते हैं, लेकिन यहीं पर गलती होती है। ये सोच गंभीर नशा पैदा करने वाली सोच है और धीरे-धीरे व्यक्ति इस आदत का शिकार होता चला जाता है, उसकी सक्रियता सीमित होने लगती है। उसका किसी काम में मन नहीं लगता, आसपास के सभी लोग उसे दुश्मन से लगते हैं।  सभी लोगों से उसे चिढ़ होने लगती  है। ऐसी हालत में परिवार के सदस्य भी उस व्यक्ति से बात करना बंद  कर देते हैं, परिवार की उपेक्षा उसे सबसे ज्यादा तोड़ती है। व्यक्ति बाहरी दुनिया का सामना तो साहस के साथ कर लेता है लेकिन घर के भीतर का बेगानापन उसे भीतर से तोड़ता है। दुख पीड़ा बढ़ते जाते हैं, कार्य-क्षेत्र और परिवार के बीच वो संतुलन नहीं बना पाता।  खुद को असहाय महसूस करता है, कितना भी प्रसिद्ध व्यक्ति हो, चाहे बहुत बड़ा लेखक, कवि, पत्रकार, चिकित्सक, नेता या अभिनेता क्यों ना हो ऐसी कठिन परिस्तिथियां उसे गहरे तनाव, अवसाद में ले आती है और व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है।  परिवार वालों से, दोस्तों से, सभी से बात बंद हो जाती है। एक सफल व्यक्ति, प्रसिद्ध व्यक्ति, सक्रिय व्यक्ति अब निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगता है। ऐसी भयावह स्थिति से हम अपने जीवन में कभी ना कभी जरूर गुजरते हैं, लेकिन समाधान खोज नहीं पाते।


अब सवाल ये कि सबसे पहले क्या किया जाए? सबसे पहले  हमें वही ऊपर बताई हुई राह यानी "सक्रियता" का दामन थामे रखना है, आप जो भी काम कर रहे हैं, वो कितना भी बोरिंग क्यों ना हो, मशीनी हो, बोझिल हो, जिसे करने से कोई भी हांसिल ना निकले, कोई मतलब ना निकले, आप खुद को कोल्हू का बैल मान रहे हो (जबकी आप जानते हैं कि आप कोल्हू के बैल नहीं, रेस के घोड़े हैं)  फिर भी आप उसी काम को करते जाइये,  धीरे-धीरे उसी राह पर कदम बढ़ाते रहें।


आप देखेंगे कि उसी काम के बीच, उसी सक्रियता के बीच में से कुछ "मतलब" निकलने लगे हैं; जिसके अभी तक कोई मायने नहीं थे,  उसमें से ही मायने निकलने लगे हैं।  याद  रखिए मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बनाए रखता है और बेहतर हो सकता है। निष्क्रियता से तो इन्हें खोने की राह ही बनेगी। 


संघर्ष कीजिये, प्रयत्न कीजिये, प्रयास कीजिये और फिर प्रतीक्षा कीजिए। सब ठीक होता जाएगा, जो भी हालात हमारे सामने हैं,  जो भी वस्तुस्थितियां सामने आ रही हैं; उनके अतीत के कारण और हिसाब हमारे पास हैं, परन्तु क्या अब हम अपने अतीत को बदल सकते हैं?... नहीं ना?... तो जो बीत गया उसके बारे में क्यों सोचें,  हमारे पास जो अभी बकाया है, जो खर्च नहीं हुआ वो अभी भी शेष है ना? वही हमारा वर्तमान है और आगे संभावनाएं भी हैं। 


जब आप मानसिक उद्देलन में हो, चिंताओं से घिरे हों,  अनिर्णय की स्थिति में हों, कुछ भी समझ नहीं आ रहा हो, सारे रास्ते बंद होगये हों तब भी हमें ये याद  रखना होगा की कोई न कोई रास्ता अब भी बचा है। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं,  तब भी हम मानसिक रूप से बहुत कुछ कर रहे होते हैं, हम विचार प्रक्रिया में होते हैं, सोच में होते हैं। कभी-कभी सोच नकारात्मक हो जाती है और हम अपने परिवार, साथी और दोस्तों पर अपना  गुस्सा जाहिर करने लगते है, ये बहुत ही बुरी स्थिति होती है। आपकी नकारात्मक सोच कभी भी आपको इस दलदल से नहीं निकलने देती है। कभी कभार यूं भी होता है कि कुछ लोग हालातों के सामने शहीद होने का मन बना लेते हैं।  वो अपनी निजता, अपनी व्यक्तिकत्ता  का बड़ा-सा त्याग करके अपने अहम को संतुष्ट करते हैं,  अपनी आत्मा को झूठा  सुख देते है कि हमने अपना सब कुछ त्याग दिया  लेकिन ये भी तो ठीक नहीं है ना...


हमें योजना के साथ काम करना होगा,  सबसे पहले हमें स्वयं ही अपने बिखरे टुकड़े समेटने होंगे,  खुद की विशेषताओं को देखना शुरू करना होगा, अपने गुणों पर गर्व करना होगा, ताकी हम उनसे लाभ उठा सकें। जिन्दगी से और बेहतर  तरीके से जूझने की हिम्मत जुटानी होगी, एक-एक कदम जमा कर  उठाना होगा। अपने दिमाग में जो भी चल रहा है उसे या तो किसी कागज पर लिख डालिए या फिर किसी करीबी दोस्त से कह दीजिए। आप देखेगें कि दोस्त से बात करते-करते ही आप उस गंभीर  समस्या से बाहर निकल रहे हैं। कल ही मैंने कहीं पढ़ा कि मानसिक प्रक्रिया का तारतम्य तोड़ने के लिए उसे “एक झटका देने की जरूरत होती है"।  तो तोड़ डालिए वो तारतम्य जो अभी तक था। भूल कर सब कुछ फिर से नए हो जाइए, आपके भीतर ही कहीं आप गुम ना हो जाएँ इसका ध्यान रखना होगा। आप जो है उसे बाहर लाना ही होगा। जब  आप खुद को खोज लेते हैं, तो अपने आसपास बहुत से ऐसे लोग आपको नजर आने लगते हैं जिन्हें आपकी जरुरत है, जो  अपने सर्वश्रेष्ठ गुणों के बावजूद गुमनाम जिन्दगी जी रहे हैं, उन्हें ढूंढ़ कर रोशनी में लाना होगा। उन्हें जीना सिखाना होगा, मुस्कुराना सिखाना होगा। हम जिनकी परवाह करते हैं, प्रेम करते हैं, उन्हें पल-पल मरते कैसे देख सकते हैं। ना जाने कितने लोग जीते जी मर गए,  गुम हो गए अपने तनाव, अवसाद और दुख के नीचे,  पीड़ा के पीछे उन्हें ढूंढना होगा, किसी गीत की पंक्तियां है,  ‘बहती हवा-सा था वो, उड़ती पतंग-सा था वो ...कहां गया उसे ढूंढो...


कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं

 कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं


यह बेचैन सा चेहरा

यह सूनी सी मुस्कान

यह डरा सा लहज़ा

ये आह के निशान 

ये पथराई आंखें कब से रोई नहीं 

गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं


वे अनसुलझे सवाल

वे कराहते जवाब

वह अपनों का बवाल

वह परायों का अज़ाब

वह पेशानी की सिमटी सिलवटें खोयी नहीं 

गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं


ये दर - ओ - घर के मसायल 

यह नफ़रत का कोहरा 

यह जिस्म-ओ-जिगर घायल 

यह जेहाद का मोहरा 

ये फ़रज़न्दों में अपना उसका कोई नहीं

गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं 


वह मन्दिर-ओ-दरगाह पर शिरकत 

वह सिसकती दुआ का काफ़िला 

वह दिल ओ दिमाग की मशक्कत 

वह न कुबूल होने का सिलसिला

वे दीवारें जो सरहदों का बोझ ढोई नहीं

गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं 


ये जिस्म पर पड़े खून के कतरे

ये सांसों पर पड़े ज़ख्मों के दाग 

ये फटे से ज़हन के चिथड़े 

ये बदले की जलन और रंजिश की आग 

यह खुला हुआ सीना- किसी ने उसकी आबरू बचायी नहीं 

गोया कुछ दिनों से माँ मेरी सोयी नहीं 

वह जन्नत की चाह में अपनों के ही लहू से खेल रहे हैं होली 

दोज़ख की आग में जलते, लूट रहे है अपनी बहनों की डोली 

रूह काँपती है उसकी दहशत-ओ-वहशत से 

ज़ार ज़ार बहते हैं अश्क उसके हर शहादत पे 

मेरी प्यारी माँ चीख-चीख कर हार गई है 

रो-रो कर अब उसकी आँखें भी पथरा गई हैं 

चलो मिटाएँ उसकी परेशां पेशानी के कुछ बल 

चलो दे दें उसे भी राहत-ओ-सुकून के कुछ पल 

जो अब भी ग़म दिया तो ना खोयेगी वह 

जो अब न सुकून दिया तो न रोएगी वह 

मेरी माँ को बस चैन-ओ-अमन चाहिए 

जो अब भी न दे सके तो ना सोयेगी वह 

उसे बस चैन और अमन चाहिए - 

जो न दे सके तो कभी ना सोयेगी वह.........

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...