प्राचीन भारत में संचार के साधन
कभी आपने सोचा है कि
प्राचीन काल में जब न तो इंटरनेट था और न ही बिजली… तो मानव अपने संदेशों को एक
स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचाते थे?जाहिर सी बात है उस जमाने में भी
इंसान आपस में संवाद तो करता ही होगा!
आजकल
की तरह तब भले ही एक जगह से दूसरी जगह अपना संदेश पहुंचाना फास्ट नहीं था, लेकिन
फिर भी लोगों ने अपनी जरूरत के हिसाब से संचार के अलग-अलग माध्यमों का आविष्कार कर
लिया था. आज उस जमाने में लोग कैसे बिना इंटरनेट के एक दूसरे से चैटिंग करते थे इस
बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे क्योंकि यह विकसित भारतीय संस्कृति का अभिन्न यंग
है, प्रमाण है –
कबूतर बनता था
‘डाकिया
प्राचीन
काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के
रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती
थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें
कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी
में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी
निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था|
नगाड़ा
इतिहास
से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता
है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था
एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक
प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था।
युद्ध
काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों
के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की
सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।
“अयोध्या
में राम खेलैं होरी,
जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी” फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते
ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों
में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे
दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा,
दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है।
छत्तीसगढ़
अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि
होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है।
संकेतन
संकेत
संप्रेषण का युद्ध में दीर्घ काल से प्रयोग हो रहा है। साधारण जीवन में भी संदेश
भेजने की आवश्यकता बहुधा पड़ती ही है, पर सेना की एक टुकड़ी से दूसरी
को, अथवा एक पोत से अन्य को सूचनाएँ, आदेश
आदि भेजने के कार्य का विशेष महत्त्व है। इसके लिए प्रत्येक संभव उपाय काम में लाए
जाते हैं। पैदल और घुड़सवार, संदेशवाहकों के सिवाय, प्राचीन काल में झंडियों, प्रकाश तथा धुएँ द्वारा
संकेतों से संदेश भेजने के प्रमाण मिलते हैं।
अभिलेख
पत्थर
अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते
है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासक इसके द्वारा अपने आदेशो को इस तरह
उत्कीर्ण करवाते थे,
ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे
भी इसका उपयोग हो रहा है|
कंधार
स्थित अशोक का अभिलेख
किसी
विशेष महत्व अथवा प्रयोजन के लेख को अभिलेख कहा जाता है। यह सामान्य व्यावहारिक
लेखों से भिन्न होता है। प्रस्तर, धातु अथवा किसी अन्य कठोर और स्थायी पदार्थ
पर विज्ञप्ति, प्रचार, स्मृति आदि के
लिए उत्कीर्ण लेखों की गणना प्राय: अभिलेख के अंतर्गत होती है। कागज, कपड़े, पत्ते आदि कोमल पदार्थों पर मसि अथवा अन्य
किसी रंग से अंकित लेख हस्तलेख के अंतर्गत आते हैं। कड़े पत्तों (ताडपत्रादि) पर
लौहशलाका से खचित लेख अभिलेख तथा हस्तलेख के बीचे में रखे जा सकते हैं। मिट्टी की
तख्तियों तथा बर्तनों और दीवारों पर उत्खचित लेख अभिलेख की सीमा में आते हैं।
सामान्यत: किसी अभिलेख की मुख्य पहचान उसका महत्व और उसके माध्यम का स्थायित्व है।
अभिलेख
के लिए कड़े माध्यम की आवश्यकता होती थी, इसलिए पत्थर, धातु, ईंट, मिट्टी की तख्ती,
काष्ठ, ताड़पत्र का उपयोग किया जाता था,
यद्यपि अंतिम दो की आयु अधिक नहीं होती थी। भारत, सुमेर, मिस्र, यूनान, इटली आदि सभी प्राचीन देशों में पत्थर का उपयोग किया गया। अशोक ने तो अपने
स्तंभलेख (सं. 2, तोपरा) में स्पष्ट लिखा है कि वह अपने
धर्मलेख के लिए प्रस्तर का प्रयोग इसलिए कर रहा था कि वे चिरस्थायी हो सकें। किंतु
इसके बहुत पूर्व आदिम मनुष्य ने अपने गुहाजीवन में ही गुहा की दीवारों पर अपने
चिह्नों को स्थायी बनाया था। भारत में प्रस्तर का उपयोग अभिलेखन के लिए कई प्रकार
से हुआ है-गुहा की दीवारें, पत्थर की चट्टानें (चिकनी और कभी
कभी खुरदरी), स्तंभ, शिलाखंड, मूर्तियों की पीठ अथवा चरणपीठ, प्रस्तरभांड अथवा
प्रस्तरमंजूषा के किनारे या ढक्कन, पत्थर की तख्तियाँ,
मुद्रा, कवच आदि, मंदिर
की दीवारें, स्तंभ, फर्श आदि। मिस्रमें
अभिलेख के लिए बहुत ही कठोर पत्थर का उपयोग किया जाता था। यूनान में प्राय:
संगमरमर का उपयोग होता था। यद्यपि मौसम के प्रभाव से इसपर उत्कीर्ण लेख घिस जाते
थे। विशेषकर, सुमेर, बाबुल, क्रीट आदि में मिट्टी की तख्तियों का अधिक उपयोग होता था। भारत में भी
अभिलेख के लिए ईंट का प्रयोग यज्ञ तथा मंदिर के संबंध में हुआ है। धातुओं में सोना,
चाँदी, ताँबा, पीतल,
काँसा, लोहा, जस्ते का
उपयोग भी किया जाता था। भारत में ताम्रपत्र अधिकता से पाए जाते हैं। काठ का उपयोग
भी हुआ है, किंतु इसके उदाहरण मिस्र के अतिरिक्त अन्य कहीं
अवशिष्ट नहीं है। ताड़पत्र के उदाहरण भी बहुत प्राचीन नहीं मिलते।
अभिलेख
में अक्षर अथवा चिह्नों की खुदाई के लिए रूंखानी, छेनी, हथौड़े, (नुकीले), लौहशलाका
अथवा लौहवर्तिका आदि का उपयोग होता था। अभिलेख तैयार करने के लिए व्यावसायिक
कारीगर होते थे। साधारण हस्तलेख तैयार करनेवालों को लेखक, लिपिकर,
दिविर, कायस्थ, करण,
कर्णिक, कर्रिणन्, आदि
कहते थे; अभिलेख तैयार करनेवालों की संज्ञा शिल्पों, रूपकार, शिलाकूट आदि होती थी। प्रारंभिक अभिलेख बहुत
सुंदर नहीं होते थे, परंतु धीरे धीरे स्थायित्व और आकर्षण की
दृष्टि से बहुत सुंदर और अलंकृत अक्षर लिखे जाने लगे और अभिलेख की कई शैलियाँ
विकसित हुई। अक्षरों की आकृति और शैलियों से अभिलेखों के तिथिक्रम को निश्चित करने
में सहायता मिलती है।
चित्र, प्रतिकृति
प्रतीक तथा अक्षर
तिथिक्रम
में अभिलेखों में इनका उपयोग किया गया है। (इस संबंध में विस्तृत विवेचन के लिए
द्रं.अक्षर) विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों और अक्षरों का प्रयोग किया गया है।
इनमें चित्रात्मक,
भावात्मक और ध्वन्यात्मक सभी प्रकार की लिपियाँ है। ध्वन्यात्मक
लिपियों में भी अंकों के लिए जिन चिहों का प्रयोग किया जाता है वे ध्वन्यात्मक
नहीं हैं। ब्राह्मी और देवनागरी दोनों के प्राचीन और अर्वाचीन अंक 1 से 9 तक
ध्वन्यात्मक नहीं हैं। प्राचीन अक्षरात्मक तथा चित्रात्मक अंकों की भी यही अवस्था
है।
अभिलेख के प्रकार
यदि अत्यंत प्राचीन काल
से लेकर आधुनिक काल तक के अभिलेखों का वर्गीकरण किया जाए तो उनके प्रकार इस भाँति
पाए जाते हैं:
(1) व्यापारिक तथा
व्यावहारिक
(2) आभिचारिक (जादू
टोना से संबद्ध)
(3) धार्मिक और
कर्मकांडीय
(4) उपदेशात्मक अथवा
नैतिक
(5) समर्पण तथा चढ़ावा
संबंधी
(6) दान संबंध
(7) प्रशासकीय
(8) प्रशस्तिपरक
(9) स्मारक तथा
(10) साहित्यिक
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